कर्म स्वरूप के विवेचन के बाद यह सहज ही जिज्ञासा हो जाती है कि शुभाशुभ कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है? क्या कर्म अपना फल स्वयं देते हैं अथवा अपने फलदान के लिए किसी अचिन्त्य शक्ति की अपेक्षा रखते हैं? उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर अत्यंत जटिल तथा दार्शनिक गुत्थियों में उलझा हुआ है, साथ ही विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है, किन्तु विस्तार भय से सिर्फ जैन दर्शन के अनुसार कर्म की फलदान प्रक्रिया पर विचार करते हैं।
जैन कर्म-सिद्धांत के अनुसार कर्म अपना फल देने में स्वतंत्र हैं, परतंत्र नहीं। इस मान्यता के अनुसार बंधे हुए कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर स्वयं उदयावस्था में आकर अपना फल प्रदान करते हैं। कर्मों के फलदान का अर्थ ‘विपाक’ है। ‘विपाक’ यानि ‘विशिष्ट पाक’ जो कि बाह्य परिस्थितियों एवं आंतरिक शक्तियों की अपेक्षा रखकर अपना फल देते हैं। इसे दूसरे शब्दों में कहें कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा रखकर ही कर्म अपना फल देते हैं।
कर्मों का फल कषायों की तीव्रता एवं मंदता पर निर्भर करता है। जिस प्रकार भोजन शीघ्र न पचकर, जठराग्नि की तीव्रता-मंदता के अनुसार पचता है, उसी प्रकार कषायों की तीव्रता व मंदता के अनुरूप ही शुभाशुभ कर्मों का फल मिलता है। तीव्र कषायों के साथ बंधे हुए अशुभ कर्मों का फल तीव्र तथा अधिक मिलता है। मंद कषायों के साथ बंधने वाले कर्मों का फल मंद और अल्प मिलता है।
शुभाशुभ परिणामों के प्रकर्षाप्रकर्ष के अनुरूप ही कर्मों का शुभाशुभ फल मिलता है।
यह कोई अनिवार्य नहीं कि कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही फल दे। जिस प्रकार आमादि फलों को विशेष प्रकार के साधनों द्वारा पकाकर समय पूर्व ही रसदार बना लेते हैं, उसी प्रकार स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही विशेष तपश्चरणादि द्वारा, कर्मों को पका देने पर वे अपना फल असमय में भी देते हैं। इसी प्रकार कर्मफल ‘यथाकाल’ और ‘अयथाकाल’ दो प्रकार का होता है।
एक समय में बंध हुए कर्म एक साथ अपना फल नहीं देते बल्कि अपने-अपने उदय क्रमानुसार ही अपना फल प्रदान करते हैं।
यह कोई जरूरी नहीं कि कर्म अपना फल देकर ही उदय में आएं, क्योंकि आंतरिक शक्तियों और बाह्य परिस्थितियों के अनुकूल न रहने पर कर्म अपना फल दिए बिना भी ( अन्य कर्म-रूप परिणत होकर) आत्म प्रदेशों से अलग हो सकते हैं।
सभी मूल कर्म अपने-अपने स्वभावानुसार ही अपना फल देते हैं। उनमें परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे, ज्ञानावरणी कर्म का फल ज्ञान को कुंठित व अवरूद्ध करने का मिलेगा। दर्शनादि अन्य शक्तियों में बाधा पहुँचाने में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं रहता।
कर्म अपने अवान्तर भेदों में परिवर्तित हो सकते है। जैसे-साता वेदनीय कर्म असाता वेदनीय रूप फल दे सकता है अथवा शुभ नाम-कर्म अशुभ नाम-कर्म रूप फल दे सकता है, किन्तु चारों आयु कर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इसके अपवाद हैं। वे अपना फल स्वमुख से ही देते हैं अर्थात् एक आयु दूसरी आयु रूप नहीं हो सकती। इसी प्रकार दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय परस्पर बदलकर अपना फल प्रदान नहीं कर सकते।
कर्म फल देने के तत्काल बाद आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं, वे पेड़ से गिरे फल की तरह पुन: फल नहीं दे सकते। कर्म फल देने के बाद उनकी ‘निर्जरा’ या ‘क्षय’ हो जाती है। क्षय होने का तात्पर्य उनका सर्वथा विनष्ट होने से नहीं है, वरन् उनके कर्मरूप पर्याय को छोड़कर अन्य अकर्मरूप पर्यायों में परिवर्तित हो जाने से है।
ये है संक्षेप में, जैन कर्म सिद्धांत। ‘‘जैसी करनी-वैसी भरनी’’ या ‘‘जो जस करहि, सो तस फल चाखा’’ आदि कहावतों का प्रमुख आधार यही है।
आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि इस जगत में जीवों के जन्म-मरण, सुख-दु:ख, सभी सदैव नियम से अपने-अपने कर्मोदय से होते हैं। दूसरा पुरुष दूसरे के जीवन मरण सुख-दु:ख को करता है ऐसा मानना अज्ञान है।’’ यदि कर्मों का कर्ता कोई हो और फल अन्य किसी को मिले तो स्वयं कृतकर्म और उन पर किया गया उपकार निरर्थक सिद्ध होगा।
अमितगति आचार्य ने सामायिक पाठ में लिखा है-
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वो देते।।
करें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते।।
जैनदर्शन का कर्मवाद पुरुषार्थ प्रेरक है तथा भारतीय दर्शन की आधार शिला है।
कुछ दार्शनिकों का मानना है कि कर्म अपना फल स्वयं नहीं देते, क्योंकि वे अचेतन हैं। अपना फल देने के लिए कर्म अचिन्त्य शक्ति के अधीन हैं। जिस प्रकार निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायाधीश निर्णय करके दोषी को दंड देते हैं, उसी प्रकार कर्माें का फल देने वाला सर्व-शक्तिमान ईश्वर है। वही जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों के अनुसार फल प्रदान करता है। वे कहते हैं कि ईश्वर द्वार प्रेरित जीव स्वर्ग या नरक जाता है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जीव सुख-दु:ख पाने में समर्थ नहीं है। अन्य दर्शनों में निहित कर्मवाद का नीचे उल्लेख किया जा रहा है।
बौद्धदर्शन में आर्य अष्टांगिक मार्ग को स्वीकार करते हैं। जिसके घटक हैं सम्यक्ज्ञान, सम्यक्संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव तथा सम्यक् व्यायाम। ये निश्चित रूप से व्यक्ति व्ाâो सही प्रकार से कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।
बौद्धदर्शन की मान्यता है कि निर्वाण प्राप्ति के बाद भी व्यक्ति को कार्यरत रहना चाहिए। उस अवस्था में उसके कार्य अपने लिये नहीं होते वे संसार की भलाई के लिए होते हैं। सर्वदु:ख प्रशान्ति के लिए स्वयं बुद्ध ने बार-बार जन्म लिया। महामैत्री तथा महाकरुणा से आप्लावित हृदय वाला बौद्ध साधक अपनी युक्ति से अधिक सभी लोगों की परवाह करता है तथा जनकल्याण के लिए सदैव कार्यरत रहता है।
चार्वाक दर्शन में कर्मवाद–
चार्वाक मत वाले कर्मसिद्धान्त को नहीं मानते हैं।
सांख्य दर्शन में कर्मवाद
सांख्य दर्शन पुरुष द्वारा कर्म करने के विधान को स्वीकार करता है। जीवन्मुक्त की अवस्था प्राप्त करने पर भी पुरुष को कर्मरत रहना ही पड़ता है। तत्त्वज्ञान के प्रभाव से अनारम्भ बीज तो समाप्त हो जाते हैं और क्रियमाण कर्म की भी उत्पत्ति नहीं होती, पर प्रारब्ध कर्म जिनका फल आरंभ हो चुका है, नष्ट नहीं होते। विदेह मुक्ति की दशा तक कर्म करना पुरुष की नियति है अतएव जीवन्मुक्ति की अवस्था में भी पुरुष को कर्म से विरत नहीं होना चाहिए।
वाचस्पति मिश्र : के अनुसार क्लेशरूपी जल से सिक्त बुद्धिरूपी भूमि में कर्मबीज के अंकुर होते हैं परन्तु तत्त्व ज्ञान रूप उपमा के कारण क्लेशरूपी जल के सूख जाने पर उस जमीन में क्या कभी कर्म बीज उत्पन्न हो सकते हैं अर्थात् नहीं हो सकते हैं।
योगदर्शन में कर्मवाद
पतंजलि ने योग शास्त्र में ईश्वर प्रणिधान को माना है। सभी कर्मों को ईश्वर के चरणों में अर्पित कर सदैव ईश्वर भावना में रत रहना प्रणिधान है।
न्याय दर्शन में कर्मवाद-
गौतम ने न्याय सूत्र में बारह भेद माने हैं जिनके नाम हैं-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग।
न्याय की भांति वैशेषिक भी कर्म के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। वैशेषिकों में सात पदार्थ माने जाते हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव। ये कर्म के पाँच भेद मानते हैं, उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुुंचन, प्रसारण तथा गमन।
मीमांसा दर्शन में तो कर्मसंबंधी एक नवीन दृष्टिकोण पाया जाता है। प्रभाकर आठ पदार्थों की सत्ता मानते हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतंत्रता, शक्ति, सादृश्य, संख्या। कुमारिलभट्ट द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य तथा अभाव इन पाँच पदार्थों को मानते हैं।
मीमांसक वैदिक कर्मकांड को मानते हैं पर कर्म तथा कर्मफल में अन्तराल रहता है। आज यज्ञ करने पर उसका स्वर्गरूपी फल तो अनेक वर्षों के बाद ही मिलता है। अन्तराल की व्याख्या में मीमांसक अपूर्व नामक पदार्थ मानते है। अपूर्व का अर्थ शुभ या अशुभ कर्म करने से उत्पन्न अदृष्ट शक्ति। यह शक्ति कर्म से उत्पन्न होती है और समय पर कर्मफल का निष्पादन करती है। यह मीमांसा दर्शन का दृढ़ मत है।
भारतीय चिन्तक अतीत काल से ही कर्मवाद का पोषक रहा है। वेदों में लिखा है कि-सोने वाला कलि है, निद्रा से उठने वाला द्वापर, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता तथा कर्मरत व्यक्ति कृत युग कहा जाता है। अतएव कर्मशील बनो। कर्म करने में आलस्य ठीक नहीं जो हो चुका है यह अतीत है उससे चिपके रहने में कोई सार नहीं है और जो आने वाला है वह आगामी भविष्य है उसका सपना देखते रहना भी ठीक नहीं, क्योंकि भविष्य का क्या ठिकाना ? इसलिए वर्तमान पर भरोसा कर सामने वाले कर्म को सम्पादन करना बुद्धिमान व्यक्ति का कर्त्तव्य है। इसलिए शतपथ ब्राह्मण कर्म को इसी समय करने का परामर्श देता है।
वेदान्त शंकराचार्य का कर्म संबंधी विचार
श्रुति, स्मृति द्वारा विहित कर्म करने की व्यवस्था शंकर को मान्य है। इनके अनुसार चित्त्त शुद्धि के लिए कर्म करना अति आवश्यक है। पर उन कर्मों के फल को ईश्वर को समर्पित करना चाहिए। ये कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण तीन भेद मानते हैं। तत्त्वज्ञान द्वारा संचित कर्म फल का नाश, क्रियमाण कर्म का निरोध हो जाता है। पर प्रारब्ध कर्म की पूर्ति भोग द्वारा ही संभव है ये कर्म किसी स्वार्थ साधन की दृष्टि से नहीं वरन् निरासक्त भाव से किये जाते हैं।
भगवद् गीता में कर्मवाद का गहरा विश्लेषण हुआ है। गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति कर्मशील है। कर्म का विभाजन दो रूपों में मिलता है-प्रथम विभाजन के अनुसार कर्म, अकर्म तथा विकर्म।
गीता के अनुसार कर्म का संबंध प्रमुख रूप में व्यक्ति की मानसिकता से है, बाह्य संयम जो मन में नहीं उतरा, वह कर्म को समाप्त नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति शरीर से कर्म करता है वे गर्हित कर्म विकर्म कहलाते हैं। अर्थात् कर्म से आशय वे क्रियाएं जो व्यक्ति को बांधती हैं। अकर्म का अर्थ मन का निरासक्त भाव जो कर्म करते हुए व्यक्ति में विद्यमान रहता है और विकर्म का आशय वे कार्य जो शास्त्र द्वारा गलत माने गये हैं।
दूसरे विभाजन के अनुसार सात्विक, राजस और तामस। जो कर्म शास्त्र विधि से नियत और कर्तापने के अभिप्राय से रिक्त हैं, बिना फल की इच्छा के किये जाते हैं वे सात्विक कर्म कहलाते हैं। जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त फलेच्छ और अहंकार से किये जाते हैं वे राजस कर्म कहलाते हैं। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना अज्ञानतावश किये जाते हैं, वह तामस कर्म कहलाते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं प्रदान करते हैं। उसके लिए किसी अन्य, ईश्वर जैसे न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर तो सुखादि अंनत चतुष्टयों से युक्त और कृत्य-कृत्य होता है। वह हमारे शुभाशुभ कर्मों में हस्तक्षेप क्यों करेगा।
परम वीतरागी, महान करुणावान ईश्वर किसी भी कर्मों का फल तीव्र अशुभ तथा किसी को शुभ प्रदान नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में उसके पक्षपाती और क्रूर-परिणामी होने का प्रसंग आता है। यदि कहा जाए कि ईश्वर अपनी इच्छा से फल नहीं देता अपितु कर्मों के अनुसार ही फल देता है। तब जैन दार्शनिकों का कहना है कि यदि ऐसा है, तो इस विषय में ईश्वर जैसे महान कारुणिक का नाम न घसीटकर कर्मों को ही अपने स्थान पर बिठा लेना चाहिए। ईश्वर को कर्मों का फलदाता मानने संबंधी मान्यता अनेक दृष्टियों से दूषित है। उनमें से कुछ निम्न हैं-
१. यदि ईश्वर जीवों को कर्म-फल प्रदान करने के लिए पाप-पुण्य के अनुसार सृष्टि करता है, तो ईश्वर को स्वतंत्र कहना व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि ईश्वर कर्म फल देने में अदृष्ट की सहायता लेता है। अत: जीवों को अपने अदृष्ट के उदय से ही सुख-दु:ख और साधन उपलब्ध होते हैं। इसलिए इस विषय में ईश्वरेच्छा व्यर्थ है।
२. अदृष्ट के अचेतन होने से वह किसी बुद्धिमान की प्रेरणा से ही फल दे सकता है। यह कथन भी ठीक नहीं है, अन्यथा हम लोगों की प्रेरणा से भी अदृष्ट को फल देना चाहिए।
३. ईश्वर को कर्मों का फलदाता मानने पर उसे कुंभकार की तरह कर्त्ता मानना पडेगा, कुंभकार शरीरी है और ईश्वर अशरीरी। अत: मुक्तजीव की तरह अशरीरी ईश्वर कर्मों का फल वैâसे दे सकता है।
४. ईश्वर को कर्मों का फलदाता मानने पर किसी भी निंदनीय कार्य का दंड किसी भी जीव को नहीं मिलना चाहिए क्योंकि उसमें उनका कोई दोष नहीं हैं, वे तो ईश्वर से प्रेरित होकर ही उक्त कृत्यों में प्रवृत्त होते हैं। मगर जीवों को हत्या आदि अपराध करने पर दंड मिलता है। इससे सिद्ध है कि ईश्वर शुभ-अशुभ कर्मों का फलदाता नहीं है।
५. ईश्वर को पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों का फलदाता मानने पर जीव द्वारा किए गए सभी कर्म व्यर्थ हो जायेंगे।
अत: ईश्वर को कर्मों का फलदाता न मानकर उन्हें अपने फल देने से स्वतंत्र मानना ही युक्ति-युक्त है। तभी पूर्ण कृत्य-कृत्य ईश्वर-कर्त्तृत्वादि दोषों से बच सकता है।
भारतीय संस्कृति तथा भारतीय दर्शन दोनों ही विचारशील कर्मवाद की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं। जैनदर्शन में इसका बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। अध्यात्म और यथार्थ, निवृत्ति तथा प्रवृत्ति, व्यक्ति एवं समाज, वर्तमान जन्म तथा भूतपूर्व एवं आगामी जन्म सभी में एक मधुर समन्वय भारतीय कर्मवाद की विलक्षण विशेषता है। गीता में कर्म ही व्यक्ति का अधिकार क्षेत्र है फलेच्छा नहीं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है-
कर्मप्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।
जीवन रूपी खेल के ताश हमें दिये गये हैं, हमें उन्हें चुनना नहीं हैं। वे हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार हैं। पर हम अपनी इच्छानुसार उसका उपयोग कर सकते हैं। जो खेल चाहें खेल सकते हैं और खेलते हुए जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हैं। यही स्वतंत्रता है। यही कर्मवाद की अनुपम विशेषता है।
आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि-
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय, कर्मोदयान्मरण जीवित दु:ख सौख्यम्।
अज्ञान मे तदिह यत्तु पर: परस्य, कुर्यात् पुमान् मरण जीवित दु:ख सौख्यम्।।
(आ. अमृतचन्द्रसूरि: समयसारकलश)
इस जगत में जीवों के जन्म-मरण, सुख-दु:ख, सभी सदैव नियम से अपने-अपने कर्मोदय से होते हैं। दूसरा पुरुष दूसरे के जीवन-मरण, सुख-दु:ख को करता है ऐसा मानना अज्ञान है। यदि कर्मों का कर्ता कोई हो और फल अन्य किसी को मिले तो स्वयं कृतकर्म और उन पर किया गया उपकार निरर्थक सिद्ध होगा।
अमितगति आचार्य ने सामायिक पाठ में लिखा है-
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं,
परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।
निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन,
विचार यन्नेव मनन्य मानस: परो ददातीति विमुंचशेमुषीम्।।
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वो देते।।
करें आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते।।
जैनदर्शन का कर्मवाद पुरुषार्थ प्रेरक है तथा भारतीय दर्शन की आधार शिला है।