कर्म की महत्ता
इस संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जी कर्म करता हो। कर्म ही जीवन का आधार है। व्यक्ति अपने शरीर, मन और काली के उपयोग से जो भी करता है या कहता है, वह कर्म की श्रेणी में आता है। कर्म करने के पीछे कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। निष्काम कर्म या फल की इच्छा न रखते हुए कर्म करना योगियों और संन्यासियों की सिद्धि है। सामान्य जन प्रयोजन को भलीभांति परख कर ही कर्म करने को उत्सुक होते हैं। अकर्मण्य रहने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, भले ही उसके पीछे कोई मनोरथ सिद्ध करना लक्ष्य हो।
कभी-कभी बू भी होता है कि पूर्ण मत्रीयोग से किया गया कर्म सार्थक सिद्ध नहीं होता। एक परिश्रमी मनुष्य को भी असफलता का सामना करना पड़ सकता है। विचार करना चाहिए कि यदि मनोरथ सिद्ध न हुआ, तो क्या जो भी कर्म किया गया, जो भी श्रम जी-जान से किया गया था, उसे मात्र इसलिए व्यर्थ घोषित कर दिया जाए कि वह मनचाहा परिणाम न दे सका? सफलता कर्म किए जाने का पुरस्कार अवश्य हो सकती है, परंतु असफलता कर्म के महत्व को कम नहीं करती। कर्म करने से चित्त की शुद्धि होती है, यह कर्म का सबसे बड़ा उपहार है। जो अकर्मण्य हैं या जो आधे-अधूरे मन से कार्य करते हैं या जो किसी लालसावश कार्य करते हैं या जो अशुभ कर्म में प्रवृत्त हैं, उन्हें चित्तशुद्धि की पवित्रता का अनुभव नहीं होता। कर्तव्यबोध के साथ किया गया कर्म चित्त को बल देता है। कर्मयोग से चित्त पत्थर पर घिसी जाने वाली तलवार की तरह तीक्ष्ण रहता है। स्वामी विवेकानंद जी ने यथार्थ ही कहा कि, ‘कार्यों को सुचारु रूप से संपन्न करने से हमारी कार्य शक्ति बढ़ती है। हम एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति कर सकते हैं, जब हमें जीवन और समाज के ईप्सित और प्रतिष्ठित कार्यों को करने का सौभाग्य मिले।’ अतः योगी न बन सकें तो जीवन ने कर्मयोगी बनने का जो अवसर दिया है, उसे कदापि नहीं गंवाना चाहिए।