यद्यपि यह सत्य है कि स्वकृत कर्मों सें बंधा जीव संसार में परिभ्रमण करता है। तथापि यह जरूरी नहीं है कि वह उन्हें जिस रूप में बांधे उसी रूप में भोगे। जीव के शुभाशुभ भावों की अपेक्षा उत्पन्न होने वाली कर्मों की विविध अवस्थाओं को ‘करण’ कहते हैं। करण दस होते हैं-
कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ बंधना अर्थात् दूध और पानी की तरह एकमेक हो जाना बंध हैं। बंध के बाद ही अन्य अवस्थाएँ प्रारंभ होती हैं। यह चार प्रकार का होता है-१. प्रकृति २. प्रदेश ३. स्थिति ४. अनुभाग
कर्म बंधने के तत्काल बाद अपना फल नहीं देते। बंधन के दूसरे समय से लेकर फल देने के पहले समय तक कर्म आत्मा में अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। कर्मों की इस अवस्था को ‘सत्ता’ कहते हैं। जैसे-शराब पीते ही वह तुरंत अपना असर नहीं देती, किन्तु कुछ क्षण बाद ही उसका प्रभाव दिखता है। वैसे ही कर्म भी बंधने के बाद कुछ समय तक सत्ता में रहता है। इस काल को जैन कर्मशास्त्र में ‘आबाधा काल’ कहते हैं। साधारणतया कर्म का आबाधा काल उसकी स्थिति के अनुसार होता है। जैसे-जो शराब जितनी अधिक दिनों तक सड़ाकर बनती है, वह उतनी ही अधिक नशीली होती है, उसी प्रकार जो कर्म जितने अधिक समय तक ठहरता है उसकी आबाधा भी उतनी ही अधिक होती है। प्रत्येक कर्मों की अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप आबाधा होती है। जैन कर्मसिद्धांत में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है।
कर्मों के फल देने को ‘उदय’ कहते हैं। उदय में आने वाले कर्म पुद्गल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्म-पुद्गल का नाश या क्षय ‘निर्जरा’ कहलाता है।
कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि की अपेक्षा से ही होता है। उदय क्रम से परिपाक काल को प्राप्त होने वाला ‘सविपाक’ उदय कहलाता है। विपाक काल से पहले ही तपादि विशिष्ट क्रियाओं द्वारा कर्मों का फलोन्मुख दशा में आना ‘अविपाक-उदय’ कहलाता है।
स्वमुखोदय और परमुखोदय की अपेक्षा, इसके दो भेद किए गए हैं, कर्म कभी-कभी अपने ही रूप में फल देते हैं तथा कभी-कभी अन्य प्रकृति रूप भी फल देते हैं। जो प्रकृति अपने ही रूप में उदय में आती है, उसे ‘स्वमुखोदय’ तथा अन्य प्रकृति रूप से उदय में आने को ‘परमुखोदय’ कहते हैं। जैसे-क्रोध का क्रोध रूप से उदय में आना स्वमुखोदय है, तथा उसका मानादिक में परिणत हो जाना ‘परमुखोदय’ है।
पहले से बँधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि हो जाने का नाम उत्कर्षण है। हमारी परम्परा में माना गया हैकि जिस कर्म का या जिस कर्म-प्रकृति का जब बंध होता है, अर्थात् बंध के बिना उत्कर्षण नहीं होता, भाव यह है कि कर्म के बंधन के बाद ही उदय से पहले उसका उत्कर्षण भी होता है या हो सकता है, बंध के बिना उत्कर्षण नहीं और बंध के बिना अपकर्षण भी नहीं। उत्कर्षण में स्थिति और अनुभाग-बंध को बढ़ाये जाने की बात है। जबकि अपकर्षण में उसके घटाये जाने की बात है। नया बंध करते समय आत्मा अपने पूर्वबद्ध कर्मों की काल-मर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकता है। काल-मर्यादा और तीव्रता/सघनता को बढ़ाने की प्रक्रिया का नाम ही उत्कर्षण है।
पहले से बंधे कर्म की स्थिति और अनुभाग में हानि का होना अपकर्षण है। सामान्यत: किसी भी छात्र को कहानी करने में दश वर्ष लगते हैं पर विशेष अध्ययन से दसवीं कहा उसने ८ वर्ष में या ९ वर्ष में ही पास तो यह ८ वर्ष या ९ वर्ष में पास ही क्रिया को ही जैन सिद्धान्त में अपकर्षण की प्रक्रिया माना गया। इस प्रक्रिया से कर्मों की काल-मर्यादा और तीव्रता/सघनता को कम किया जाता है या कम किया जा सकता है।
कर्मों के बंधने के बाद बंधे हुए कर्मों में प्राय: दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। अशुभ कर्मों का बंध करने वाला जीव, यदि शुभ भाव करता है तो पूर्व-बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग अर्थात् फलदान शक्ति, उसके प्रभाव से कम हो जाती है, और यदि अशुभ कर्म का बंध करने के बाद और भी अधिक कलुषित हो जाता है, तो बुरे भावों के प्रभाव से, उनकी स्थिति तथा अनुभाग में भी वृद्धि हो जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षण के कारण कोई कर्म शीघ्र फल देते हैं तथा कुछ कर्म विलंब से। किसी कर्म का फल तीव्र होता है तथा किसी का मंद। उत्कर्षण और अपकर्षण की विचारधारा यह सिद्ध करती है कि कर्म का फल सर्वथा नियत नहीं है। जीव के शुभाशुभ परिणामानुसार उसमें परिवर्तन संभव है।
नियत समय के पूर्व कर्मों का उदय में आना ‘उदीरणा’ कहलाता है। जैसे, आमादि फल प्रयत्न विशेष से समय से पूर्व भी पका लिये जाते हैं। वैसे ही, विशेष साधन के बल पर, कर्मों के अपकर्षण द्वारा स्थिति कम करके नियत समय से पूर्व ही भोगकर क्षय किया जा सकता है। सामान्यत: यह नियम है जिस कर्म का उदय होता है, उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है।
‘संक्रमण’ का अर्थ होता है-‘परिवर्तन’। एक कर्म की स्थिति आदि का दूसरे सजातीय कर्म में परिवर्तन हो जाने को ‘संक्रमण’ कहते हैं। यह संक्रमण किसी भी एक मूल-प्रकृति की उत्तर-प्रकृतियों में ही होता है। मूल-प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता, अर्थात् ज्ञानावरण बदलकर दर्शनावरण नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य कर्म भी अपने मूलरूप से परिवर्तित नहीं होता है। कर्मों का अपने सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है, विजातीय में नहीं। इस नियम के अपवाद में आचार्यों ने बताया है कि चारों आयु तथा दर्शन मोहनीय और चरित्र-मोहनीय परस्पर संक्रमण को प्राप्त नहीं होते। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के भेद से यह संक्रमण चार प्रकार का होता है।
कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी, उदय में आने से रोक देना, ‘उपशम’ कहलाता है। कर्मों की इस अवस्था में उदय और उदीरणा संभव नहीं होती। इस अवस्था में अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण की संभावना रहती है। जिस प्रकार राख में ढंकी अग्नि आवृत दशा में अपना विशेष कार्य नहीं कर सकती, किन्तु आवरण के हटते ही पुन: प्रज्वलित होकर अपने कार्य करने में समर्थ हो जाती है, उसी प्रकार उपशमावस्था को प्राप्त, कर्म-पुद्गल भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता। इस अवस्था के समाप्त होते ही वह अपना कार्य प्रारंभ कर देता है अर्थात् उदय में आकर अपना फल प्रदान करने लगता है।
कर्म की वह अवस्था ‘निधत्ति’ कहलाती है, जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है। इस अवस्था में अपकर्षण-उत्कर्षण की संभावना बनी रहती है।
कर्म की उस अवस्था का नाम ‘निकाचित’ है, जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा- ये चारों अवस्थाएँ असंभव होती हैं। कर्मों की इस अवस्था को ‘नियति’ कहा जा सकता है। क्योंकि इस अवस्था में कर्म का फल उसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है, जिस रूप में बंध को प्राप्त हुआ था। इस अवस्था में इच्छा स्वातंत्र्य या पुरुषार्थ का सर्वथा अभाव रहता है। किसी विशेष परिस्थिति में ही कर्मों की यह अवस्था होती है।
कर्मों के इन दस कारणों से स्पष्ट है कि जैन कर्म सिद्धांत नियतिवादी नहीं है और सर्वथा स्वच्छंदतावादी भी नहीं है। जीव के प्रत्येक कर्म के, द्वारा किसी न किसी प्रकार की ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जो अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती और साथ ही जीव स्वातंत्र्य भी कभी इस प्रकार अवरुद्ध व कुंठित नहीं होता कि वह अपने कर्मों की दशाओं में किसी भी प्रकार का सुधार करने में सर्वथा असमर्थ हो जाए। इस प्रकार जैन सिद्धांत में मनुष्यों के अपने कर्मों के फल भोग तथा पुरुषार्थ द्वारा उसको बदल डालने की शक्ति-इन दोनों में भली-भांति समन्वय स्थापित किया गया है।
जैन कर्म सिद्धांतानुसार प्रत्येक कर्म जीवात्मा के साथ एक निश्चित अवधि तक बंधा रहता है। तदुपरांत वह पेड़ में पके फल की तरह फल देकर जीव से अलग हो जाता है। जब तक कर्म अपना फल देने की सामर्थ्य रखते हैं, तब तक की काल मर्यादा ही उनकी ‘स्थिति’ कहलाता है। जैन कर्मसिद्धान्त ग्रंथों में विभिन्न कर्मों की पृथक-पृथक स्थितियाँ (उदय में आने योग्य काल बताई गयी हैं।
वे निम्न प्रकार हैं-
क्रमांक | कर्म का नाम | अधिकतम | न्यूनतम |
1. | ज्ञानावरणी | तीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | अंतमुर्हूर्त |
2. | दर्शनवरणी | तीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | अंतमुर्हूत |
3. | वेदनीय | तीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | बारह-मुहूर्त |
4. | मोहनीय | सत्तर कोड़ा-कोडी सागरोपाम | अंतमुर्हूत |
5. | आयु | तैंतीस सागरोपम | अंतमुहूर्त |
6. | नाम | बीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | आठ मुहूर्त |
7. | गोत्र | बीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | आठ मुहूर्त |
8. | अंतराय | बीस कोड़ा-कोडी सागरोपाम | आठ मुहूर्त |
सागरोपम आदि उपमा काल हैं। इनके स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए जैन कर्मसिद्धान्त ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए। जिसमें काल-विषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा।
कर्मों के फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं। प्रत्येक कर्मों का फलदान एक-सा नहीं रहता। जीव के शुभाशुभ भावों के अनुसार बंधने वाले प्रत्येक कर्मों का अनुभाग, अपने-अपने नाम के अनुरूप तरतमता लिये रहता है। कुछ कर्मों का अनुभाग अत्यंत तीव्र होता है कुछ का मंद तो कुछ का मध्यम। कर्मों का अनुभाग कषायों की तीव्रता व मंदता पर निर्भर रहता है। कषायों की तीव्रता होने पर अशुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है, शुभ कर्मों का मंद तथा कषाया की मंदता होने पर शुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है तथा अशुभ कर्मों का मंद। तात्पर्य यह है कि जो प्राणी जितना अधिक कषायों की तीव्रता से युक्त होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही सबल होंगे, तथा शुभ कर्म उतने ही निर्बल होंगे। जो प्राणी जितना अधिक कषाय मुक्त होगा उसके शुभ कर्म उतने ही प्रबल होंगे एवं पाप कर्म उतने ही दुर्बल होंगे।
जीव के मन, वचन और काय रूप योगों के निमित्त से जीवों के साथ बंधने वाले कर्म परमाणु ‘कर्मों के प्रदेश’ कहलाते हैं। जीव के भावों का आश्रय पाकर, एक साथ बंधने वाले सभी कर्मों के प्रदेश समान नहीं होते। उसका भी एक निश्चित नियम है। समस्त कर्म प्रदेश अपने एक निश्चित अनुपात में विविध कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं। उक्त क्रमानुसार आयु कर्म को सबसे कम भाग (हिस्सा) मिलता है। नाम कर्म के प्रदेश उससे कुछ अधिक होते हैं। गोत्र कर्म की मात्रा नाम-कर्म के बराबर ही है। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय इन तीन कर्मों को कुछ अधिक प्रदेश मिलते हैं। तीनों का योग परस्पर समान होता है। इससे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म को जाता है तथा सबसे अधिक कर्म प्रदेश वेदनीय कर्म को मिलता है। यह मूल कर्मों का विभाजन है। इन प्रदेशों का पुन: उत्तर प्रकृतियों में विभाजन होता है। प्रत्येक कर्मों के प्रदेशों में न्यूनता व अधिकता का यही आधार है।