जैन कर्म-शास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणियों के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। वे हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अंतराय।
इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया हैं, क्योंकि इनसे आत्मा के गुणों का घात होता है। शेष चार कर्म अघातिया हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करते, बल्कि आत्मा को एक ऐसा रूप प्रदान करते हैं जो उसका निजी नहीं है, अपितु भौतिक है।
ज्ञानावरण कर्म से आत्मा के ज्ञान का घात होता है। दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन-गुण का घात करता है। मोहनीय कर्म जीव के सम्यक् श्रद्धा और चारित्र-गुण को नष्ट करता है। अंतराय कर्म से जीव का वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है। आयु कर्मसे आत्मा को नरकादि गतियों की प्राप्ति होती है। नाम कर्म के कारण जीव को चित्र-विचित्र शरीर और गतियाँ मिलती हैं, तथा गोत्र कर्म प्राणियों में उच्चत्व और नीचत्व का कारण है।
इन आठ कर्मों के कार्यों को दर्शाने के लिए आठ उदाहरण दिए गए हैं। ‘ज्ञानावरणी’ कर्म का कार्य कपड़े की पट्टी की तरह है। जिस प्रकार आँख पर बंधी पट्टी दृष्टि का प्रतिबंधक है, वैसे ही ज्ञानावरण कर्म ज्ञान गुण को प्रकट नहीं होने देता। दर्शनावरणी कर्म प्रतिहारी की तरह है। जिस प्रकार द्वारपालों की अनुमति के बिना किसी महल में प्रवेश नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार दर्शनावरण-कर्म जीव को अनंत-दर्शन करने से रोकता है। ‘वेदनीय’ कर्म तलवार की धार पर लगे शहद के स्वाद की तरह होता है, जो एक क्षण को सुख देता है, पर उसका परिणाम दु:खद होता है। ‘मोहनीय’ कर्म मद्य की तरह है। जिस प्रकार मद्य के नशे में व्यक्ति को अपने हित-अहित का विचार नहीं रहता तथा वह कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार किए बिना कुछ भी आचरण करता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म भी जीव को विवेकशून्य कर उसकी आचार और विचार शक्ति को रोकता है। ‘आयु’ कर्म खूंटे की तरह है। जिस प्रकार खूंटे से बंधा पशु उसके चारों और ही घूमता है, वैसे ही आयु कर्म से बंधा जीव उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। ‘नाम’ कर्म चित्रकार की तरह है। जिस प्रकार चित्रकार छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे अनेक प्रकार के चित्रों का निर्माण करता है उसी प्रकार नाम कर्म जीव के चित्र-विचित्र शरीर का निर्माण करता है। ‘गोत्र’ कर्म कुम्हार की तरह है। जिस प्रकार कुम्हार छोटे-बड़े बर्तनों का निर्माण करता है, उसी प्रकार गोत्र कर्म जीव को उच्च और नीच कुलों में उत्पन्न कराता है। ‘अंतराय’ कर्म भंडारी की तरह है। जिस प्रकार भंडारी की अनुमति के बिना राजकोष से धन नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार अंतराय कर्म जीव की अनंत शक्ति का प्रच्छादक है।
इस प्रकार ये आठ कर्मों के मूल भेद हैं। किन्तु इनकी उत्तर प्रकृत्तियों के प्रभेद १४८ हो जाते हैं।
१. ज्ञानावरण कर्म-ज्ञानावरण कर्म जीव के ज्ञान गुण को आच्छादित-आवृत करता है। जिसके कारण इस संसार अवस्था में उसका पूर्ण विकास नहीं हो पाता। जिस प्रकार देवता की मूर्ति पर ढका हुआ वस्त्र देवता को आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म ज्ञान को आच्छादित किए रहता है। इतना होने पर भी वह जीव की ज्ञान-शक्ति को पूर्णतया आवृत नहीं कर पाता। जिस प्रकार सघन-घटाओं से आच्छादित रहने पर भी सूर्य प्रकाश का अभाव (दिन में) पूर्णतया नहीं हो पाता, उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म का तीव्रतम उदय होने पर भी वह जीव की ज्ञान शक्ति को पूर्णतया नष्ट/आवृत नहीं कर सकता, जिससे कि जीव सर्वथा ज्ञान शून्य होकर जड़वत् हो सके। ज्ञानावरणी कर्म के पाँच उत्तर भेद हैं-१. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मन:पर्ययज्ञानावरण, ५. केवलज्ञानावरण। ये पाँचों कर्म क्रमश: पूर्वोक्त पाँच ज्ञानों को आवृत करते हैं।
निम्न कारणों से ज्ञानावरणी कर्म का विशेष बंध होता है-
१. ज्ञान, ज्ञानी तथा ज्ञान के साधन के प्रति द्वेष रखने से।
२. ज्ञानदाता गुरुओं का नाम छिपाने से।
३. ज्ञान, ज्ञानी तथा ज्ञान के साधनों का नाश करने से।
४. ज्ञान के साधनों की विराधना करने से।
५. किसी के ज्ञान में बाधा डालने से।
पदार्थों की विशेषता को ग्रहण किए बिना केवल उनके सामान्य धर्म का अवभास करना दर्शन है। दर्शनावरणी कर्म उक्त दर्शन गुण को आवृत करता है। दर्शन गुण के सीमित होने पर ज्ञानोपलब्धि का द्वार बंद हो जाता है। इसकी तुलना राजा के द्वारपाल से की जा सकती है। द्वारपाल राजा से मिलने में किसी व्यक्ति को बाधा पहुँचाता है। जिस प्रकार द्वारपाल की अनुमति के बिना कोई भी व्यक्ति राजा से नहीं मिल सकता, वैसे ही दर्शनावरणी कर्म वस्तुओं के सामान्य बोध को रोकता है। पदार्थों को देखने में अड़चन डालता है। इसकी नौ उत्तर प्रकृत्तियाँ हैं-१. चक्षु दर्शनावरण, २. अचक्षु दर्शनावरण, ३. अवधि दर्शनावरण, ४. केवल दर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रा-निद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचला-प्रचला, ९. स्त्यानगृद्धि।
‘चक्षु दर्शनावरण कर्म’ नेत्रों द्वारा होने वाले सामान्य अवबोध को रोकता है। चक्षु के अलावा शेष इंद्रियों से होने वाले सामान्य बोध को ‘अचक्षु-दर्शनावरण’ रोकता है। ‘अवधि-दर्शनावरण’ इंद्रिय और मन के बिना होने वाले रूपी पदार्थ के सामान्य बोध को रोकता है। तथा केवल दर्शनावरण कर्म सर्वद्रव्यों और पर्यायों की युगपत होने वाले सामान्य अवबोध को रोकता है।
हल्की नींद को निद्रा कहते हैं। ऐसी नींद कि प्राणी आवाज लगाते ही जाग उठे, ‘निद्राकर्म’ से उत्पन्न होती है। ‘निद्रा-निद्रा’ कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, जिससे प्राणी बड़ी मुश्किल से जाग पाता है। प्रचला कर्म के उदय से जीव खड़े-खड़े या बैठे-बैठे ही सो जाया करता है। प्रचला-प्रचला कर्म के उदय से नींद में मुख से लार बहने लगती है, तथा हाथ-पैर आदि चलायमान हो जाते हैं। ‘स्त्यानगृद्धि कर्म’ के उदय से ऐसी प्रगाढ़तम नींद आती है, जिससे व्यक्ति दिन में या रात्रि में सोते हुए कार्य-विशेष को निद्रावस्था में ही संपन्न कर देता है।
निद्रा में आत्मा का अव्यक्त उपयोग होता है अर्थात् उसे वस्तु का सामान्य आभास नहीं हो सकता। इसलिए ‘निद्रा’ के पाँच भेदों को दर्शनावरणी कर्म के उत्तर भेदों में परिगणित किया गया है। चक्षुदर्शनावरणादि चारों दर्शनावरणीकर्म दर्शन-शक्ति के प्राप्ति में बाधक होते हैं।
जिन कारणों से ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है, दर्शनावरणी कर्म भी उन्हीं साधनों से बंधता है। अंतर केवल इतना है कि यहाँ ज्ञान और ज्ञान के साधन न होकर, दर्शन और दर्शन के साधनों के प्रति वैसा व्यवहार होने पर, दर्शनावरणी बंधती है।
जो कर्मजीव को सुख या दु:ख का वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है। यह दो प्रकार का होता है-१. साता वेदनीय एवं २. असाता वेदनीय। जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है, वह ‘साता’ वेदनीय कर्म है। जिस कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दु:ख का संवेदन होता है वह ‘असाता’ वेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म की तुलना मधु से लिप्त तलवार से की गयी है। जिस प्रकार शहद लिप्त तलवार की धार को चाटने से पहले अल्प-सुख और फिर अधिक दु:ख होता है, वैसे ही पौद्गलिक सुख में दु:खों की अधिकता होती है। मधु को चाटने के सदृश, साता-वेदनीय है और जीभ कटने की तरह असाता-वेदनीय है।
वेदनीय कर्म बंध के कारण : सभी प्राणियों पर अनुकंपा रखने से, व्रतियों की सेवा करने से, दान देने से, हृदय में शांति और पवित्रता रखने से, साधुओं या श्रावकों के व्रत पालन से, कषायों को वश में रखने से साता-वेदनीय कर्म का बंध होता है।
इसके विपरीत स्वपर को दु:ख देने से, शोकमग्न रहने से, पीड़ा पहुँचाने आदि आचरण करने से दु:ख के कारणभूत असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। असाता वेदनीय कर्म के फलस्वरूप देह सदा रोग पीड़ित रहता है तथा बुद्धि और शुद्ध क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं। यह प्राणी अपने हित के उद्योग में तत्पर नहीं हो सकता।
जो कर्म आत्मा को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है, वह मोहनीय कर्म है। इस कर्म के कारण जीव मोह ग्रस्त होकर संसार में भटकता है। मोहनीय कर्म संसार का मूल है। इसीलिए इसे ‘कर्मों का राजा’ कहा गया है। समस्त दु:खों की प्राप्ति मोहनीय कर्म से ही होती है। इसीलिए इसे ‘अरि’ या ‘शत्रु’ भी कहते हैं। अन्य सभी कर्म मोहनीय के अधीन हैं। मोहनीय कर्म राजा है, तो शेष कर्म प्रजा। जैसे राजा के अभाव में प्रजा कोई कार्य नहीं कर सकती, वैसे ही मोह के अभाव में अन्य कर्म अपने कार्य में असमर्थ रहते हैं। यह आत्मा के वीतराग-भाव तथा शुद्ध स्वरूप को विकृत करता है। जिससे आत्मा राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त हो जाता है। यह कर्म स्वपर विवेक एवं स्वरूप रमण में बाधा समुपस्थित करता है।
इस कर्म की तुलना मदिरापान से की गयी है, जैसे मदिरा पान से मानव परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता है, वह हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से जीव को तत्त्व-अतत्त्व का भेद विज्ञान नहीं हो पाता। वह संसार के विकारों में उलझ जाता है।
दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-
दर्शन मोहनीय-यहाँ ‘दर्शन’ का अर्थ-तत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्म गुण है। आप्त, आगम या पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। जो उस दर्शन को मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे ‘दर्शन मोहनीय’ कर्म कहते हैं। जैसे मदिरापान से बुद्धि मूर्च्छित हो जाती है, वैसे ही दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक विलुप्त हो जाता है। यह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है। वह तत्त्व को अतत्त्व, अतत्त्व को तत्त्व तथा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझने लगता है।
दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं-१. मिथ्यात्व, २. सम्यक्मिथ्यात्व, ३. सम्यक्त्वप्रकृति।
(१) मिथ्यात्व कर्म-जो कर्म तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है, वह ‘मिथ्यात्व’ कर्म है। इस कर्म के उदय से जीव की वह मूढ़ अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिससे वस्तु के वास्तविक स्वरूप के ग्रहण की योग्यता सर्वथा तिरोहित हो जाती है।
(२) सम्यक् मिथ्यात्व-यह कर्म तत्त्व श्रद्धा में दोलायमान स्थिति उत्पन्न करता है। इस कर्म के उदय से न तत्त्व के प्रति रुचि रहती है, न अतत्त्व के प्रति। इसलिए इसे मिश्र-मोहनीय कर्म भी कहते हैं। यह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित रूप है।
(३) सम्यक्त्व प्रकृति-जो कर्म सम्यक्त्व को त्ाो नहीं रोकता, किन्तु उसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोष उत्पन्न करता है, वह ‘सम्यक्त्व प्रकृति’ मोहनीय कर्म है।
इस प्रकार मिथ्यात्व-प्रकृति अश्रद्धा रूप होती है तथा सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति श्रद्धा और अश्रद्धा से मिश्रित होती है तथा सम्यक्त्व-प्रकृति से श्रद्धा में शिथिलता या अस्थिरता होती हैं जिसके कारण चल, मलिन और अगाढ़ ये तीन दोष उत्पन्न होते हैं। यह प्रकृति सम्यक्त्व का घात तो नहीं करती, परंतु शंकादिक दोषों को उत्पन्न करती है।
पाप की क्रिया की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। मिथ्यात्व, असंयम और कषाय पाप है। इनके त्याग को चारित्र कहते हैं। इस चारित्र के विघातक कर्म को चारित्र-मोहनीय कहते हैं अथवा अपने स्वरूप में रमण करना चारित्र है। जो उस चारित्र का विघातक है, उसे ‘चारित्र मोहनीय’ कहते हैं। कषाय-वेदनीय और नोकषाय-वेदनीय के भेद से चारित्र मोहनीय के भी दो भेद हैं। कषाय वेदनीय मुख्य रूप से चार प्रकार का है-१. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ।
क्रोधादि चारों कषाय तीव्रता व मंंदता की दृष्टि से चार-चार प्रकार की होती है। अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलन। इस प्रकार कषाय वेदनीय के कुल सोलह भेद हो जाते हैं, जिनके उदय से क्रोधादिक भाव होते हैं।
(अ) अनंतानुबंधी-अनंतानुबंधी के प्रभाव से जीव को अनंतकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ता है। इसके उदय में सम्यक्त्व और चारित्र दोनों ही नहीं हो पाते।
(ब) अप्रत्याख्यान-‘प्रत्याख्यान’ का अर्थ होता है ‘त्याग’। जिस कषाय के उदय से ईषत् त्याग अर्थात् देश संयम ग्रहण न किया जा सके, वह अप्रत्याख्यान कषाय है।
(स) प्रत्याख्यान-जिस कषाय के उदय से सकल-संयम को ग्रहण न किया जा सके वह ‘प्रत्याख्यान’ कषाय है।
(द) संज्वलन-जिस कषाय के उदय से सकल-संयम तो हो जाए, किन्तु आत्म स्वरूप में स्थिरता रूप यथाख्यात चारित्र न हो, उसे ‘संज्वलन’ कषाय कहते हैं।
क्रोध चतुष्क-उक्त अनंतानुबंधी आदि कषायों की शक्ति में तरतमता है। इन्हें जैनाचार्यों ने विभिन्न उदाहरणों से स्पष्ट किया है। अनंतानुबंधी क्रोध को पर्वत की गहरी दरार की तरह कहा गया है, जो एक बार फटने के बाद पुन: नहीं मिलती। उसी प्रकार अनंतानुबंधी कषाय का संबंध भव-भवों तक नहीं छूटता। ‘अप्रत्याख्यान’ के क्रोध को भूमि की दरार की तरह कहा गया है। जैसे गर्मी के दिनों में सूखे तालाब आदि में मिट्टी के फट जाने से दरार पड़ जातीं हैं, किन्तु वर्षा होते ही वह दरार मिट जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान कषाय धूलि रेखा के समान है। गुरुओं के उपदेशामृत की वर्षा से धीरे-धीरे शांत हो जाती है। यह अधिक से अधिक पंद्रह दिन तक अपना प्रभाव दिखाती है। संज्वलन क्रोध को ‘जल की लकीर’ की तरह कहा गया है। जैसे जल की लकीर खींचते ही मिट जाती है, वैसे ही यह कषाय उत्पन्न होते ही शांत हो जाती है। इसका वासनाकाल अंतर्मुहूर्त कहा गया है।
मान चतुष्क-इसी प्रकार अनंतानुबंधी आदि चारों प्रकार के मान को क्रमश: शैल, अस्थि, काष्ठ तथा बेल (लता) की उपमा दी गयी है। जैसे शैलादिकों में कड़ापन उत्तरोत्तर अल्प होता है, वैसे ही ये चारों कषाय उत्तरोत्तर मंद प्रभाव वाले हैं।
माया चतुष्क : अनंतानुबंधी आदि चारों प्रकार की माया क्रमश: बांस की गठीली जड़, भेड़ की सींग, गोमूत्र और खुरपे के सदृश कुटिल कही गयी है। इनका प्रभाव भी उत्तरोत्तर अल्प है।
लोभ चतुष्क : इसी तरह चारों प्रकार के लोभ को क्रमश: किरमिजी का दाग, पहिये का औंगन (अक्षनल), कीचड़ एवं हल्दी के रंग की तरह कहा गया है। अनंतानुबंधी किरमिजी के रंग के सदृश है जो कि किसी भी उपाय से नहीं छूटता। अप्रत्याख्यानावरण गाड़ी के पहिये में लगने वाले (ओगन) मल की तरह है, जिसका दाग कठिनता से छूटता है। प्रत्याख्यानावरण लोभ कीचड़ या (देहमल) काजल की तरह है, जो अल्प परिश्रम के छूूट जाता है। संज्वलन लोभ हल्दी के सदृश है, जो सहज ही छूट जाता है। उक्त चारों कषाएँ क्रमश: नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव गति में उत्पत्ति के कारण हैं।
उपरोक्त सोलह कषायों की शक्ति को निम्न तालिका से स्पष्ट कर सकते हैं-
कषाय की अवस्था | क्रोध | मान | माया | लोभ | फल |
अनंतानुबंधी | शिला रेखा | शैल | बांस की जड़ | किरिमिजी | नरक |
अप्रत्याख्यान | पृथ्वी रेखा | अस्थि | भेड़ का सींग | अक्षमल | तिर्यंच |
प्रत्याख्यान | धूली रेखा | कास्ट | गोमूत्र | कीचड़ | मनुष्य |
संज्वलन | जल रेखा | लता/बेल | खुरपा | हल्दी | देव |
जिनका उदय कषायों के साथ होता है या जो कषायों से प्रेरित होती हैं, वे नोकषाय हैं। इन्हें अकषाय भी कहते हैं। नोकषाय या अकषाय का तात्पर्य कषायों का अभाव नहीं, अपितु ईषत् कषाय है। इनके नौ भेद हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद। इनका अर्थ इनके नामों से ही स्पष्ट है।
इस प्रकार दर्शन मोहनीय के तीन तथा कषाय वेदनीय के सोलह और नोकषाय वेदनीय के नौ, इस प्रकार मोहनीय कर्म के कुल अट्ठाईस भेद हो जाते हैं।
मोहनीय कर्म के बंध का कारण
सत्यमार्ग की अवहेलना करने से और असत्य मार्ग का पोषण करने से आचार्य, उपाध्याय, गुरु, साधु संघ आदि सत्य-पोषक आदर्शों का तिरस्कार करने से दर्शन-मोहनीय कर्म का बंध होता है, जिसके फलस्वरूप जीव के संसार का अंत नहीं होता।
स्वयं पाप करने से तथा दूसरों को कराने से, तपस्वियों की निंदा करने से, धार्मिक कार्यों में विघ्न उपस्थित करने से, मद्य-मांसादि का सेवन करने और कराने से, निर्दोष व्यक्तियों में दूषण लगाने से चारित्र मोहनयी कर्म का बंध होता है।
जीव की किसी विवक्षित शरीर के टिके रहने की अवधि का नाम आयु है। इस आयु का निमित्तभूत कर्म ‘आयु’ कर्म कहलाता है। जीवों के जीवन की अवधि का नियामक आयु है। इस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु के मुख में जाता है। मृत्यु का कोई देवता या उस जैसी कोई अन्य शक्ति नहीं है। अपितु आयु कर्म के सद्भाव और क्षय पर ही जन्म और मृत्यु अवलंबित है। इस कर्म की तुलना कारागार से की गई है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को अपराध के अनुसार नियत समय के लिए वैâद में डाल देता है। अपराधी की इच्छा होने पर भी वह अपनी अवधि को पूर्ण किये बिना मुक्त नहीं हो सकता वैसे ही आयु कर्म के कारण जीव देह-मुक्त नहीं हो सकता। आयु कर्म का कार्य दु:ख देना नहीं है, किन्तु निश्चित समय तक किसी एक भव में रोके रहना है।
आयु दो प्रकार की होती है-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय।
कारण प्राप्त होने पर जिस आयु की काल मर्यादा में कमी हो सके, उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं, तथा बड़े-बड़े कारण आने पर भी निर्धारित आयु की काल मर्यादा एक क्षण को भी कम न हो, उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। अपवर्तनीय आयु विष, वेदना, रक्तक्षय, शस्त्रघात, पर्वतारोहण आदि निमित्तों के मिलने से अपनी अवधि से पूर्व ही समाप्त हो सकती है। इसे ही ‘अकालमरण’ या ‘कदलीघात’ मरण कहते हैं। जैसे यदि किसी की १० वर्ष की अवधि में कभी भी मरण प्राप्त कर सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपनी शेष आयु को अगली योनि या पर्याय में जाकर भोगता है, अपितु मृत्यु के क्षय में ही वह अपनी शेषायु को भोग लेता है। जैन दर्शन के नियमानुसार आयु के क्षय होने पर ही मरण होता है। जब तक आयु कर्म का एक भी परमाणु शेष रहता है, तब तक मरण नहीं हो सकता। इस दृष्टि से एक आयु को दूसरी योनि में जाकर भोगना मात्र कल्पना की उड़ान है।
इसे ऐसे समझें। यदि किसी पेट्रोमेक्स में तेल भरा हो, तो वह अपने क्रम से जलने पर छह घंटे जलता है। यदि उसका बर्नर लीक करने लगे तो, वह पूरा तेल जल्दी ही जल जाता है तथा टैंक के फट जाने पर तो सारा तेल उसी क्षण जल जाता है। इसी प्रकार आयु कर्म भी तेल की तरह है। जब तक कोई प्रतिकूल निमित्त नहीं आते, तब तक वह अपने क्रम से उदय में आता है तथा प्रतिकूल निमित्तों के जुटने पर वह अपने क्रम का उल्लंघन भी कर देता है। यह भी संभव है कि वह एक अंतर्मुहूर्त में ही अपनी करोड़ों वर्ष की आयु को भोग कर समाप्त कर डाले।
देव, नारकी, भोगभूमि के जीव, चरम देहधारी, तीर्थंकर, अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं। इनकी आयु का घात समय-पूर्व नहीं होता। इसीलिए इनका अकाल मरण भी नहीं होता। शेष जीवों में दोनों प्रकार की संभावना है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन दर्शन के नियमानुसार आयु कर्म घट तो सकता है, किन्तु पूर्व में बांधी हुई आयु में एक क्षण की भी वृद्धि नहीं हो सकती।
आयु कर्म के बंध संबंधी विशेष नियम
आठ मूल कर्मों में आयु कर्म का बंध सदा नहीं होता। इसके बंध का विशेष नियम है। अपने जीवन की दो तिहाई आयु व्यतीत होने पर ही आयु कर्म बंधता है, वह भी अंतर्मुहूर्त तक। इसे अपकर्षकाल कहते हैं। एक मनुष्य/तिर्यंच के जीवन में ऐसे आठ अवसर आते हैं जिनमें वह आयु बांधने के योग्य होता है। इसके मध्य वह आयु का बंध कर ही लेता है अन्यथा मृत्यु से अंतर्मुहूर्त पूर्व तो आयु का बंध हो ही जाता है। कोई भी जीव नयी आयु का बंध किए बिना, नूतन भव को प्राप्त नहीं होता। आयु का बंध न होने पर जीव मुक्त हो जाता है।
मान लीजिये किसी व्यक्ति की आयु ८१ वर्ष की आयु हो, तो वह ५४ वर्ष की अवस्था तक आयु कर्म के बंध के योग्य नहीं होता। वह पहली बार आयु कर्म का बंध ५४ वर्ष की अवस्था में कर सकता है। यदि उस काल में न हो, तो शेष २७ में से दो-तिहाई (अर्थात् १८ वर्ष बीतने पर) यानि ७२ वर्ष की अवस्था में। उस काल में भी न हो तो शेष नौ वर्ष में से छह वर्ष बीतने पर, अर्थात् ७८ वर्ष की अवस्था होने पर। उसमें भी न हो तो शेष तीन में से दो वर्ष बीतने पर, अर्थात् ८० वर्ष की अवस्था मेंं। और यदि उसमें भी न हो तो शेष एक वर्ष में से ८ माह बीतने पर अर्थात् ८० वर्ष ८ माह की अवस्था में। यदि उसमें भी न बंधे तो शेष चार माह में से ८० दिन बीत जाने के बाद अर्थात् ८० वर्ष, १० माह और २० दिन की अवस्था में। यदि उसमें भी न बंधे, तो शेष ४० दिन के त्रिभाग, २६ दिन १६ घंटे बीत जाने के उपरांत अर्थात् ८० वर्ष, ११ माह, १६ दिन तथा १६ घंटे की अवस्था में। यदि इसमें भी न बंधे, तो शेष अवधि में से ८ दिन, २१ घंटे तथा २० मिनिट बीत जाने पर अर्थात् ८० वर्ष, ११ माह, २५ दिन, १३ घंटे, २० मिनिट की आयु में आयु कर्म का बंध हो जाता है यदि उसमें भी न हो पाये तो मरण के अंतर्मुहूर्त पूर्व तो आयु बंध कर ही लेता है।
आयु बंध का यह नियम मनुष्य और तिर्यंचों के लिए है। देव, नारकी तथा भोगभूमि के जीव अपने जीवन के ६ माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। इस छह माह में उनके भी आठ अपकर्ष होते हैं।
हिंसा आदि कार्यों में निरंतर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का हरण, इंद्रिय विषयों में अत्यंत आसक्ति तथा मरण के समय क्रूर परिणामों से ‘नरकायु’ का बंध होता है।
धर्मोपदेश में मिथ्या बातों, को मिलाकर उसका प्रचार करना, शील रहित जीवन बिताना, अति संधान प्रियता अर्थात् विश्वासघात, वंचना और छल-कपट करना आदि ‘तिर्यंच’ आयु के बंध के कारण हैं।
स्वभाव से विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्पकषाय का होना, तथा मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि ‘मनुष्यायु’ के बंध के कारण हैं।
संयम, तप धारण करने से, व्रताचरण से, मंद कषाय करने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने से, धर्मायतनों की सेवा तथा रक्षा करने से तथा सम्यक्दृष्टि होने से ‘देवायु’ का बंध होता है।
‘नाना मिनोतीति नाम:’ जो जीव के चित्र-विचित्र रूप बनाता है वह नाम कर्म है। इसकी तुलना चित्रकार से की है। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगों के योग से सुंदर-असुंदर आदि अनेक चित्रों को निर्मित करता है, उसी तरह नाम कर्म रूपी चितेरा, जीव के भले-बुरे, सुन्दर-असुंदर, लंबे-नाटे, मोटे-पतले, छोटे-बड़े, सुडौल-बेडौल आदि शरीरों का निर्माण करता है। जीव का विविध आकृतियों एवं शरीरों का निर्माण इसी नाम कर्म की कृति है। विश्व की विचित्रता में नाम कर्म रूप चितेरे की कला अभिव्यक्त होती है। इस नाम-कर्म के मुख्य बयालीस भेद हैं, तथा इसके उपभेद कुल तेरानवें हो जाते हैं-
१. गति-जिस कर्म के उदय से जीव एक योनि से अगली योनि में जाता है, वह ‘गति’ नाम-कर्म है। गतियाँ चार हैं-मनुष्य, देव, नरक एवं तिर्यंच।
२. जाति-जिस नाम-कर्म के उदय से सदृशता के कारण जीवों का बोध हो, उसे जाति नाम-कर्म कहते हैं। जातियाँ पाँच हैं-एकेन्द्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय तथा पाँच इंद्रिय।
३. शरीर-शरीर की रचना करने वाले कर्म को शरीर नाम-कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण शरीर।
४. आंगोपांग-जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग और उपांगों की रचना होती है, अर्थात् शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों की रचना करने वाला कर्म ‘आंगोपांग’ नाम-कर्म है। इसके तीन भेद हैं-औदारिक, वैक्रियिक व आहारक। तीनों अपने-अपने शरीर के अनुरुप आंगोपांगों की रचना करते हैं। तैजस और कार्माण शरीर सूक्ष्म होने के कारण आंगोपांग रहित होते हैं।
५. निर्माण-शरीर के आंगोपांगों की समुचित रूप से रचना करने वाला ‘निर्माण’ नाम-कर्म है।
६. बंधन-शरीर का निर्माण करने वाले पुद्गलों को परस्पर बांधने वाले कर्म-बंधन नाम-कर्म हैं। पूर्वोक्त शरीर के अनुसार यह पाँच प्रकार का है।
७. संघात-निर्मित शरीर के परमाणुओं को परस्पर छिद्र रहित बनाकर एकीकृत करने वाले कर्म को शरीर-संघात नाम-कर्म कहते हैं। इसके अभाव में शरीर तिल के लड्डू की तरह अपुष्ट रहता है। यह भी शरीरों की तरह पाँच प्रकार का होता है।
८. संस्थान-शरीर की विविध आकृतियाँ प्रदान करने वाला कर्म ‘संस्थान’ नाम-कर्म है।
संस्थान छह भेद हैं-
(१) समचतुरस्र संस्थान-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जीव के सुंदर, सुडौल और समानुपातिक शरीर बनाने वाले कर्म को ‘समचतुरस्त्र-संस्थान नाम-कर्म’ कहते हैं।
(२) न्यग्रोध परिमंडल-न्यग्रोध अर्थात् ‘वट के वृक्ष’ की तरह, नाभि के ऊपर की ओर मोटे और नीचे की ओर पतले शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को ‘न्यग्रोध’ परिमंडल संस्थान नाम-कर्म कहते हैं।
(३) स्वाति-सर्प की वामी की तरह नाभि के ऊपर पतले तथा नीचे की ओर मोटे आकार वाला शरीर बनाने वाला कर्म स्वाति संस्थान नाम-कर्म है।
(४) कुब्जक-कुबड़ा शरीर बनाने वाले कर्म को ‘कुब्जक संस्थान नाम-कर्म’ कहते हैं।
(५) वामन-बौना शरीर बनाने वाला कर्म ‘वामन-संस्थान नाम-कर्म’ है।
(६) हुंडक-अनिर्दिष्ट आकार को हुंडक कहते हैं। ऐसे अनिर्दिष्ट आकार का विचित्र शरीर बनाने वाले कर्म को ‘हुंडक संस्थान नाम-कर्म’ कहते हैं।
अस्थि बंधनों में विशिष्टता को उत्पन्न करने वाले कर्म को ‘संहनन नाम कर्म’ कहते हैं। वेष्टन, त्वचा, अस्थि और कीलों के बंधन की अपेक्षा इसके छह भेद हैं-१.वङ्कावृषभनाराच, २.वङ्कानाराच संहनन, ३. नाराच संहनन, ४. अर्द्ध्रनाराच संहनन, ५. कीलक संहनन, ६. असंप्राप्तसृपाटिका संहनन।
१०. वर्ण-शरीर को वर्ण (रंग) प्रदान करने वाले कर्म को ‘वर्ण नाम-कर्म’ कहते हैं। यह कृष्ण, नील, रक्त, पीत एवं श्वेत रूप पाँच प्रकार के होते हैं।
११. गंध-शरीर को सुगंध एवं दुर्गंध प्रदान करने वाले कर्म को ‘गंध नाम-कर्म’ कहते हैं।
१२. रस-तिक्त, कटु, आम्ल, मधुर और कसैला रस अर्थात् स्वाद उत्पन्न करने वाले कर्म को ‘रस नाम-कर्म’ कहते हैं।
१३. स्पर्श-हल्का, भारी, कठोर, मृदु, शीत, उष्ण तथा स्निग्ध, रूक्ष आदि स्पर्श के भेदों से शरीर को प्रतिनियत स्पर्श उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘स्पर्श नाम-कर्म’ कहलाता है।
१४. आनुपूर्व्य-देहत्याग के बाद नूतन शरीर धारण करने के लिए होने वाली गति को ‘विग्रह गति’ कहते हैं। विग्र्रह गति में पूर्व शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को ‘आनुपूर्व्य नाम-कर्म’ कहते हैं। गतियों के आधार पर यह चार प्रकार का है।
१५. अगुरुलघु-जो कर्म शरीर को न तो लोह पिण्ड की तरह भारी, न ही रुई के पिण्ड की तरह हल्का होने दे, वह ‘अगुरुलघु नाम-कर्म’ है। इस कर्म से शरीर का आयतन बना रहता है। इसके अभाव में जीव स्वेच्छा से उठ-बैठ भी
नहीं सकता।
१६. उपघात-इस कर्म के उदय से जीव विकृत बने हुए अपने ही अवयवों से कष्ट पाता है। जैस प्रतिजिह्वा और चोरदन्त आिद।
१७. परघात-दूसरों को घात करने के योग्य तीक्ष्ण नख, सींग, दाढ़ आदि अवयवों को उत्पन्न करने वाले ‘कर्म को ‘परघात नाम-कर्म’ कहते हैं।
१८. उच्छ्वास-इस कर्म की सहायता से श्वासोच्छवास चलता है या ग्रहण होता है।
१९. आतप-जिस कर्म के उदय से अनुष्ण शरीर में उष्ण प्रकाश निकलता है। यह कर्म सूर्य और सूर्यकांत मणियों में रहने वाले एकेन्द्रियों को होता है। उनका शरीर शीतल होता है तथा ताप उष्ण होता है।
२०. उद्योत-चंद्रकांत मणि और जुगनू आदि की तहर शरीर में शीतल प्रकाश उत्पन्न करने वाला कर्म ‘उद्योत नाम-कर्म’ है।
२१. विहायोगति-जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन होता है, वह विहायोगति नामकर्म है। यह प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार की है।
२२. प्रत्येक-जिस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, वह ‘प्रत्येक शरीर नाम-कर्म’ है। अर्थात् जिस कर्म के उदय से भिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त होता है, वह ‘प्रत्येक शरीर नाम-कर्म’ है।
२३. साधारण-जिस कर्म के उदय से अनंत जीवों को एक ही शरीर प्राप्त हो वह ‘साधरण नाम-कर्म’ है।
२४. त्रस-जिस कर्म के उदय से द्विइन्द्रियादि जीवों में उत्पन्न हों उसे ‘त्रस नाम-कर्म’ कहते हैं।
२५. स्थावर-पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘स्थावर नाम-कर्म’ है।
२६. बादर-स्थूल शरीर उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘बादर नाम-कर्म’ है।
२७. सूक्ष्म-सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को बाधित एवं दूसरों से बाधित न होने वाले शरीर को उत्पन्न करने वाला कर्म ‘सूक्ष्म नाम-कर्म’ है। इस कर्म का उदयमात्र एकेन्द्रिय जीवों के होता है।
२८. पर्याप्ति-जिस कर्म के उदय से जीव स्व-योग्य आहारादिक पर्याप्तियों को पूर्ण कर सके इसे ‘पर्याप्ति नाम-कर्म’ हैं।
२९. अपर्याप्ति-जिस कर्म के उदय से जीव स्व-योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर सके, उसे ‘अपर्याप्ति नाम-कर्म’ कहते हैं।
३०. स्थिर-शरीर के अस्थि, मांस, मज्जा आदि धातु, उपधातुओं को यथा स्थान स्थिर रखने वाले कर्म को ‘स्थिर नामकर्म’ कहते हैं।
३१. अस्थिर-शरीर का धातु तथा उपधातुओं को अस्थिर रखने वाला कर्म ‘अस्थिर नाम-कर्म’ है।
३२. शुभ-शरीर के अवयवों को सुंदर बनाने वाला कर्म ‘शुभ नाम-कर्म’ है।
३३. अशुभ-‘अशुभ नाम-कर्म’ असुंदर शरीर प्राप्त कराता है।
३४. सुभग-सौभाग्य को उत्पन्न करने वाला कर्म ‘सुभग नाम-कर्म’ है। अथवा जिस कर्म के उदय से सबको प्रीति कराने वाला शरीर प्राप्त होता है। उसे ‘सुभग नाम-कर्म’ कहते हैं।
३५. दुर्भग-गुण युक्त होने पर भी दुर्भग नाम-कर्म’ अन्य प्राणियों को अप्रीति उत्पन्न कराने वाला शरीर प्रदान करता हैं
३६. सुस्वर-प्रिय स्वर उत्पन्न कराने वाला कर्म ‘सुस्वर नाम-कर्म’ हैं
३७. दु:स्वर-‘दु:स्वर नाम-कर्म’ के उदय से कर्ण-कटु, कर्कश स्वर होता है।
३८. आदेय-इस कर्म के उदय से जीव बहुमान्य एवं आदरणीय होता है। प्रभायुक्त शरीर भी ‘आदेय नाम-कर्म’ की देन है।
३९. अनादेय-‘अनादेय नाम-कर्म’ के उदय से अच्छा कार्य करने पर भी गौरव प्राप्त नहीं होता। यह निषभ शरीर का कारण भी है।
४०. यश:कीर्ति-जिस कर्म के उदय से लोक में यश, कीर्ति, ख्याति और प्रतिष्ठा मिलती है। वह ‘यश:कीर्ति नाम-कर्म’ है।
४१. अयश: कीर्ति-इस कर्म के उदय से अपयश और अप्रतिष्ठा मिलती है।
४२. तीर्थंकर-‘तीर्थंकर नाम-कर्म’ त्रिलोक पूज्य एवं धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक बनाता है। इस प्रकार नाम कर्म के मूल बयालीस भेद तथा उत्तर भेदों को मिलने पर कुल ९३ (तेरानवें) भेद हो जाते हैं। इनमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं।
नाम कर्म के बंध का कारण
मन-वचन-काय की कुटिलता अर्थात् सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ, इसी प्रकार अन्यों से कुटिल प्रवृत्ति करना, मिथ्या दर्शन, चुगलखोरी, चित्त की अस्थिरता, परवंचन की प्रवृत्ति, झूठे माप-तौल आदि रखने से अशुभ नाम-कर्म का बंध होता है।
इसके विपरीत मन-वचन-काय की सरलता, चुगलखोरी का त्याग, सम्यक् दर्शन, चित्त की स्थिरता, आदि शुभ नाम-कर्म के बंध का कारण होता है। तीर्थंकर प्रकृति नाम-कर्म की शुभतम प्रकृति है, इसका बंध भी शुभतम परिणामों से होता है। तीर्थंकर प्रकृति के बंध के सोलह कारण बताए गए हैं।
सम्यक्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, शील और व्रतों का निर्दोष परिपालन, निरंतर ज्ञान साधना, मोक्ष की ओर प्रवृत्ति (संसार से सतत् भीति), शक्ति अनुसार तप और त्याग, भले प्रकार की समाधि, साधुजनों की सेवा/सत्कार, पूज्य आचार्य, बहुश्रुत व शास्त्र के प्रति भक्ति, आवश्यक धर्म कार्यों का निरंतर पालन, धार्मिक प्रोत्साहन व धर्मीजनों के प्रति वात्सल्य यह सब तीर्थंकर प्रकृति बंध के कारण हैं।
लोक-व्यवहार संबंधी आचरण को गोत्र माना गया है। जिस कुल में लोक मान्य आचरण की परम्परा है। उसे उच्च ‘गोत्र’ कहते हैं तथा जिसमें लोकनिन्दित आचरण की परम्परा है, उसे नीच गोत्र नाम दिया गया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म ‘गोत्र-कर्म’ कहलाता है।
इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गयी है। जैसे-कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही ऐसे होते हैं, जिन्हें लोक कलश बनाकर चंदन, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों से अलंकृत करते हैं और कितने ही ऐसे होते हैं जिनमें मदिरा आदि निन्द्य पदार्थ रखे जाते हैं, इसलिए निम्न माने जाते हैं। इसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से जीव कुलीन/पूज्य/अपूज्य/अकुलीन घरों में उत्पन्न होता है। गोत्र कर्म दो प्रकार का होता है-१. उच्च गोत्र तथा २. नीच गोत्र।
गोत्र कर्म के बंध का कारण-परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के सद्भूत गुणों का आच्छादन तथा अपने असद्भूत गुणों को प्रकट करना- यह सब नीच गोत्र के बंध का कारण है। इसके विपरीत स्व की निंदा, पर की प्रशंसा, अपने गुणों का आच्छादन, पर के गुणों का उद्भावन, गुणाधिकों के प्रति विनम्रता तथा ज्ञानादि गुणों में श्रेष्ठ रहते हुए भी उसका अभिमान न करना ये सब उच्च गोत्र के बंध का कारण है।
जो कर्म विघ्न डालता है, उसे अंतराय-कर्म कहते हैं। इस कर्म के कारण आत्मशक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है। अनुकूल साधनों और आंतरिक इच्छा के होने पर भी जीव इस कर्म के कारण अपनी मनोभावना को पूर्ण नहीं कर पाता।
इस कर्म को भण्डारी से उपमित किया है। जिस प्रकार किसी दीन-दु:खी को देखकर दया से द्रवीभूत राजा भण्डारी को दान देने का आदेश करता है, फिर भी भण्डारी बीच में अवरोधक बन जाता है। वैसे ही यह अंतराय-कर्म जीव के दान-लाभादिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न करता है। इसके पाँच भेद हैं-
१. जिस कर्म के उदय से दान देने की अनुकूल सामग्री और पात्र की उपस्थिति में भी दान देने की भावना न हो, वह ‘दानांतराय कर्म’ है।
२. जिस कर्म के उदय से बुद्धिपूर्वक श्रम करने पर भी लाभ होने में बाधा हो वह ‘लाभांतराय कर्म’ है।
३. जिसके उदय से प्राप्त भोग्य वस्तु का भी भोग न किया जा सके, वह ‘भोगांतराय कर्म’ है।
४. जिसके उदय से प्राप्त उपभोग्य वस्तु का उपभोग न किया जा सके, वह ‘उपभोगांतराय कर्म’ है।
५. जिसके उदय से सामर्थ्य होते हुए भी कार्यों के प्रति उत्साह न हो, उसे ‘वीर्यांतराय कर्म’ कहते हैं।
अंतराय कर्म के बंध के कारण-दानादि में बाधा उपस्थित करने से, जिन पूजा का निषेध करने से, पापों में रत रहने से, मोक्ष-मार्ग के दोष बताकर विघ्न डालने से अंतराय कर्म का बंध होता है।