नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से कर्म चार तरह का है। इनमें पहला भेद संज्ञारूप है। प्रकृति, पाप, कर्म और मल ये कर्म की संज्ञायें हैं। इन संज्ञाओं को ही नामनिक्षेप से कर्म कहते हैं।
अब प्रकरणवश इन चार निक्षेपों का स्वरूप कहते हैं क्योंकि इनका स्वरूप जाने बिना वस्तु का किस तरह व्यवहार होता है सो मालूम नहीं होता। जो युक्ति से सुयुक्त मार्ग होते हुए कार्य के वश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से पदार्थ का व्यवहार करना, उसे निक्षेप कहते हैं वह नामादि भेद से चार प्रकार का है।
नाम निक्षेप-जिस वस्तु में जो गुण नहीं है उनको उस नाम से कहना, उसे नाम निक्षेप कहते हैं। जैसे किसी ने अपने लड़के की संज्ञा ऋषभदेव रखी। उसमें यद्यपि ऋषभदेव तीर्थंकर के गुण नहीं हैं, फिर भी केवल व्यवहार के लिए वह संज्ञा रखी है अतएव उसको ऋषभदेव का नामनिक्षेप कहेंगे। स्थापना निक्षेप वह है जो कि साकार तथा निराकार (मनुष्यादि शरीर का आकार न हो और किसी आकार का पिंड हो) काठ, पत्थर, चित्राम (मूर्ति) वगैरह में ‘‘ये वे ही ऋषभदेव तीर्थंकर हैं’’ इस प्रकार का अपने परिणामों से निवेश करना। इन दोनों में इतना ही भेद है कि नाम के मूल पदार्थ की तरह सत्कार आदिक की प्रवृत्ति नहीं होती और स्थापना में मूल पदार्थ सरीखा ही आदर सत्कार किया जाता है।
जो पदार्थ आगामी (होने वाली) पर्याय की योग्यता रखता हो उसको द्रव्य निक्षेप कहते हैं। जैसे-राजा के पुत्र को राजा कहना अथवा केवलज्ञान अवस्था को जो प्राप्त होने वाले हैं उन ऋषभदेव को गृहस्थादि अवस्था में तीर्थंकर कहना। वर्तमान पर्याय सहित वस्तु को भावनिक्षेप कहते हैं। जैसे-राज्यकार्य करते हुए को राजा कहना अथवा केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर ऋषभदेव को तीर्थंकर कहना। इस तरह चार निक्षेपों का स्वरूप कहा।
स्थापनारूप कर्म को कहते हैं-
सदृश अर्थात् कर्मसरीखा और असदृश अर्थात् जो कर्म के समान न हो, ऐसे किसी भी द्रव्य में अपनी बुद्धि से ऐसी स्थापना करना कि जो जीव में कर्म मिले हुए हैं वे ही ये हैं, इस अवधानपूर्वक किये गये निवेश को ही स्थापना कर्म कहते हैं।
द्रव्य निक्षेपरूप कर्म का स्वरूप दिखाते हैं-
द्रव्य निक्षेपरूप कर्म दो प्रकार का है-एक आगमद्रव्य कर्म, दूसरा नोआगमद्रव्य कर्म। इन दोनों में जो कर्म का स्वरूप कहने वाले शास्त्र का जानने वाला परन्तु वर्तमान काल में उस शास्त्र में उपयोग (ध्यान) नहीं रखने वाला जीव है, वह पहला आगमद्रव्य कर्म हैं।
अब दूसरा नोआगम द्रव्य कर्म कहते हैं-
दूसरा जो नोआगमद्रव्य कर्म है वह ज्ञायकशरीर, भावि, तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें से ज्ञायक शरीर कर्म (कर्मस्वरूप के जानने वाले जीव का शरीर) भूत-वर्तमान-भावी, इस तरह तीन कालों की अपेक्षा तीन प्रकार का है। उन तीनों में से वर्तमान तथा भावी शरीर इन दोनों का अर्थ समझने में सुगम है, कठिन नहीं है क्योंकि वर्तमान शरीर वह है जिसको कर रहा है और भावि शरीर वह है कि जिसको आगामी काल में धारण करेगा।
आगे भूत शरीर (जिसको छोड़कर आया है वह शरीर) के भेद दिखलाते हैं-
भूत ज्ञायकशरीर, च्युत, च्यावित, त्यक्त के भेद से तीन तरह का है। उनमें जो दूसरे किसी कारण के बिना केवल आयु के पूर्ण होने पर नष्ट हो जाए वह च्युत शरीर है। यह च्युत शरीर कदलीघात (अकालमृत्यु) और सन्यास इन दोनों अवस्थाओं से रहित होता है।
अब कदलीघात मरण का लक्षण कहते हैं-
विष भक्षण से अथवा विष वाले जीवों के काटने से, रक्तक्षय अर्थात् लोहू के संबंध से यहाँ धातुक्षय भी समझना चाहिए) भयंकर वस्तु के दर्शन से या उसके बिना भी उत्पन्न हुए भय से, शस्त्रों (तलवार आदि हथियारोें) के घात से, संक्लेश अर्थात् शरीर, वचन तथा मन द्वारा आत्मा को अधिक पीड़ा पहुँचाने वाली क्रिया होने से, श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से और आहार (खाना-पीना) नहीं करने से इस जीव की आयु कम हो जाती है। इन कारणों से जो मरण हो अर्थात् शरीर छूटे उसे कदलीघात मरण अथवा अकालमृत्यु कहते हैं।
आगे च्यावित और त्यक्त भूतज्ञायक शरीर का लक्षण कहते हैं-
जो ज्ञायक का भूत शरीर कदलीघात सहित नष्ट हो गया हो परन्तु सन्यास विधि से रहित हो उसे च्यावित शरीर कहते हैं और जिसने कदलीघात सहित अथवा कदलीघात के बिना सन्यास रूप परिणामों से शरीर छोड़ दिया हो उसे त्यक्त कहते हैं।
अब त्यक्त शरीर (सन्यास सहित शरीर) के भेद दिखाते हैं-
त्यक्त शरीर-भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोग्य की विधि से तीन प्रकार का है। उनमें भक्तप्रतिज्ञा जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट के भेद से तीन तरह का है।
आगे इन जघन्य आदि भेदों का काल कहते हैं-
भक्तप्रतिज्ञा अर्थात् भोजन की प्रतिज्ञा कर जो सन्यास मरण हो उसके काल का प्रमाण जघन्य (कम से कम) अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट (ज्यादा से ज्यादा) बारह वर्ष प्रमाण है तथा मध्य के भेदों का काल एक-एक समय बढ़ता हुआ है। उसके अंतर्मुहूर्त से ऊपर और बारह वर्ष के भीतर जितने भेद हैं, उतना प्रमाण समझना।
अब इंगिनीमरण और प्रायोपगमन (प्रायोग्य विधि) मरण का लक्षण कहते हैं-
अपने शरीर की टहल आप ही अपने अंगों से करे, किसी दूसरे से रोगादि का उपचार न करावे, ऐसे विधान से जो सन्यास धारण कर मरे उस मरण को इंगिनीमरण सन्यास कहते हैं और जिसमें अपना तथा दूसरे का भी उपचार (सेवा) न हो अर्थात् अपनी टहल न तो आप करे, न दूसरे से ही करावे ऐसे सन्यास मरण को प्रायोपगमन कहते हैं।
आगे नोआगमद्रव्य कर्म का दूसरा भेद जो भावी है उसे कहते हैं-
जो कर्म के स्वरूप को कहने वाले शास्त्र का जानने वाला आगे होगा, वह ज्ञायकशरीर भावी जीव है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
अब तीसरा भेद जो तद्व्यतिरिक्त है उसे कहते हैं-
तद्व्यतिरिक्त जो नोआगमद्रव्य कर्म का भेद है वह कर्म और नोकर्म के भेद से दो प्रकार का है। ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतिरूप अथवा उनके भेद मतिज्ञानावरणादि उत्तरप्रकृतिस्वरूप परिणमता हुआ जो कार्मणवर्गणा रूप पुद्गल द्रव्य, वह कर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य कर्म है, ऐसा नियम से जानना।
(४) आगे नोकर्म तद्व्यतिरिक्त का स्वरूप और भावनिक्षेपरूप कर्म के भेद दिखाते हैं-
कर्मस्वरूप द्रव्य से भिन्न जो द्रव्य है वह नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य कर्म है और भावनिक्षेपस्वरूप कर्म आगम तथा नोआगम के भेद से दो प्रकार का कहा है।
अब आगमभाव निक्षेपकर्म का स्वरूप कहते हैं-
जो जीव कर्मस्वरूप के कहने वाले आगम (शास्त्र) का जानने वाला और वर्तमान समय में उसी शास्त्र के चिन्तवन (विचार) रूप उपयोग सहित हो उसी जीव का नाम भाव आगम कर्म अथवा आगम भाव कर्म निश्चय से कहा जाता है।
आगे नोआगम भावनिक्षेपकर्म को कहते हैं-
कर्म के फल को भोगने वाला जो जीव, वह नोआगम भाव कर्म है। इस तरह निक्षेपों की अपेक्षा सामान्य कर्म चार प्रकार का नियम से जानना।
आगे कर्म के विशेष भेद जो मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतियाँ हैं उनमें नामादि चार निक्षेप के भेदों की विशेषता दिखाते हैं-
कर्म की मूल प्रकृति ८ तथा उत्तर प्रकृति १४८ हैं। इन दोनों के जो नामादि चार निक्षेप हैं उनका स्वरूप सामान्य कर्म की तरह समझना परन्तु इतनी विशेषता है कि जिस प्रकृति का जो नाम हो उसी के अनुसार नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव निक्षेप होते हैं।
अब कुछ और भी विशेषता दिखाते हैं-
मूल प्रकृति तथा उत्तर प्रकृतियों के नामादिक चार भेदों का स्वरूप समझना सरल है परन्तु उनमें द्रव्य तथा भावनिक्षेप के भेदों में से नोकर्म तथा नोआगम भावकर्म का स्वरूप समझना कठिन है।
अतएव उन दोनों को अर्थात् नोकर्म और नोआगम भावकर्म को मूल तथा उत्तर दोनों प्रकृतियों में घटित करते हैं और उसमें भी क्रमानुसार पहले नोकर्म को मूल प्रकृतियों में जोड़ते हैं-
द्रव्यनिक्षेप कर्म का जो एक भेद ‘नोकर्म तद्व्यतिरिक्त’ है उसी को यहाँ नोकर्म शब्द से समझना और जिस प्रकृति के फल देने में जो निमित्तकारण हो (सहायता करता हो) वही उस प्रकृति का नोकर्म जानना। इस अभिप्राय को धारण करके ही यहाँ पर नोकर्मों को बताते हैं। ज्ञानावरणादि ८ मूलप्रकृतियों के नोकर्म द्रव्यकर्म क्रम से, वस्तु के चारों तरफ लगा हुआ, १. कनात का कपड़ा, २. द्वारपाल, ३. शहद लपेटी तलवार की धार, ४. शराब, ५. अन्नादि आहार, ६. शरीर, ७. प्रशस्त-अप्रशस्त शरीर और ८. भंडारी, ये आठ जानना।
वस्तुस्वरूप के ढकने वाले वस्तु आदि पदार्थ मतिज्ञानावरण के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं और इंद्रियों के रूपादिक विषय श्रुतज्ञान (शास्त्र ज्ञान व एक पदार्थ के ज्ञान) को नहीं होने देते, इस कारण श्रुतज्ञानावरण कर्म के नोकर्म हैं अर्थात् जो विषयों में मग्न रहता है उसे शास्त्र के विचार करने में रुचि नहीं होती इसलिए (शास्त्रज्ञान अथवा अपने आत्मा के स्वरूप का विचार करने में बाधा करने वाले होने से) इंद्रियों के विषयों को श्रुतज्ञानावरण का नोकर्म कहा है।
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन दोनों के घात करने का निमित्त कारण जो संक्लेशरूप (खेदरूप) परिणाम है उसको करने वाली जो बाह्य वस्तु, वह अवधि ज्ञानावरण तथा मन:पर्यय ज्ञानावरण का नोकर्म है और केवलज्ञानावरण का नोकर्म द्रव्यकर्म कोई वस्तु नहीं है क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक (कर्मों के क्षय से प्रगट) है। वहां संक्लेश परिणाम नहीं हो सकते और इसीलिए उस केवलज्ञान का घात करने वाले संक्लेशरूप परिणामों को कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं कर सकती।
पाँच निद्राओं का नोकर्म भैंस का दही, लहसन, खली इत्यादिक हैं क्योंकि ये निद्रा की अधिकता करने वाली वस्तुयें हैं और चक्षु तथा अचक्षुदर्शन के रोकने वाले वस्त्र वगैरह द्रव्य चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण कर्म के नोकर्म द्रव्य कर्म हैं।
अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण का नोकर्म अवधिज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण के नोकर्म की तरह ही जानना और सातावेदनीय तथा असातावेदनीय का नोकर्म क्रम से अपने को रुचने वाली तथा अपने को नहीं रुचे ऐसी खाने-पीने वगैरह की वस्तु जानना।
१. जिन, २. जिनमंदिर, ३. जिनागम, ४. जिनागम के धारण करने वाले, ५. तप और ६. तप के धारक ये छह आयतन सम्यक्त्व प्रकृति के नोकर्म हैं और १. कुदेव, २. कुदेव का मंदिर, ३. कुशास्त्र, ४. कुशास्त्र के धारक, ५. खोटी तपस्या और ६. खोटी तपस्या के करने वाले ये ६ अनायतन मिथ्यात्व प्रकृति के नोकर्म हैं तथा आयतन और अनायतन दोनों मिले हुये सम्यग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय के नोकर्म हैं, ऐसा निश्चय कर समझना।
अनंतानुबंधी कषाय के नोकर्म मिथ्या आयतन अर्थात् कुदेव वगैरह छह अनायतन हैं और बाकी बची हुई बारह कषायों के नोकर्म देशचारित्र, सकलचारित्र तथा यथाख्यातचारित्र के घात में सहायता करने वाले काव्य, नाटक, कोक शास्त्र इत्यादि और पापी जार (कुशीली) पुरुषों की संगति करना इत्यादिक हैं, ऐसा नियम से जानना।
स्त्रीवेद का नोकर्म स्त्री का शरीर, पुरुषवेद का नोकर्म पुरुष का शरीर है और नपुंसकवेद का नोकर्म द्रव्यकर्म उक्त दोनों का कुछ-कुछ मिश्रित चिन्ह रूप नपुंसक का शरीर है। हास्यकर्म के नोकर्म विदूषक व बहुरूपिया वगैरह हैं जो कि हँसी ठठ्ठा करने के पात्र हैं। रति कर्म का नोकर्म अच्छा गुणवान् पुत्र है क्योेंकि गुणवान् पुत्र पर अधिक प्रीति होती है।
अरति कर्म का नोकर्म द्रव्य इष्ट का (प्रिय वस्तु का) वियोग होना और अनिष्ट अर्थात् अप्रिय वस्तु का संयोग (प्राप्ति) होना है। शोक का नोकर्म द्रव्य सुपुत्र, स्त्री वगैरह का मरना है और सिंह आदिक भय के करने वाले पदार्थ भय कर्म के नोकर्म द्रव्य हैं तथा निंदित वस्तु जुगुप्साकर्म की नोकर्म द्रव्य हैं।
अनिष्ट आहार अर्थात् नरक की विषरूप मिट्टी आदि नरकायु का नोकर्म द्रव्य है और बाकी तिर्यंच आदि तीन आयु कर्मों का नोकर्म इंद्रियों को प्रिय लगे, ऐसा अन्न-पानी वगैरह है और गति नामकर्म का नोकर्म द्रव्य चार गतियों का क्षेत्र (स्थान) है।
नरकादि चार गतियों का नोकर्म द्रव्य नियम से नरकादि गतियों का अपना-अपना क्षेत्र है और जातिकर्म का नोकर्म द्रव्येन्द्रिय रूप पुद्गल की रचना है।
एकेन्द्रिय आदिक पाँच जातियों के नोकर्म अपनी-अपनी द्रव्येन्द्रियाँ हैं और शरीर नामकर्म का नोकर्म द्रव्य शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए अपने शरीर के स्कंध रूप पुद्गल जानना।
औदारिक-वैक्रियक-आहारक-तैजस शरीर नामकर्म का नोकर्म द्रव्य अपने उदय से प्राप्त हुई शरीरवर्गणा हैं क्योंकि उन वर्गणाओं से ही शरीर बना है और कार्मण शरीर का नोकर्म द्रव्य विस्रसोपचयरूप (स्वभाव से कर्मरूप होने योग्य कार्मण वर्गणा) परमाणु हैं।
शरीर बंधन नामकर्म से लेकर जितनी पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं उनका और पहले कही हुई प्रकृतियों के सिवाय जीवविपाकी प्रकृतियों में से जितनी बाकी बची उनका नोकर्म शरीर ही है क्योंकि उन प्रकृतियों से उत्पन्न हुये सुखादिरूप कार्य का कारण शरीर ही है। क्षेत्रविपाकी चार आनुपूर्वी प्रकृतियों का नोकर्म द्रव्य अपना-अपना क्षेत्र ही है, इतनी विशेष बात जाननी।
स्थिर कर्म का नोकर्म अपने-अपने स्थान पर स्थिर रहने वाले रस, रुधिर वगैरह और अस्थिर प्रकृति के नोकर्म अपने-अपने स्थान से चलायमान हुए रस, रुधिर आदिक हैं। शुभ प्रकृति के नोकर्म द्रव्य शरीर के शुभ अवयव हैं तथा अशुभ प्रकृति के नोकर्म द्रव्य शरीर के अशुभ (जो देखने में सुंदर न हों ऐसे) अवयव हैं। स्वर नामकर्म का नोकर्म सुस्वर-दु:स्वर रूप परिणमें पुद्गल परमाणु हैं।
उच्च गोत्र का नोकर्म द्रव्य लोकपूजित कुल में उत्पन्न हुआ शरीर है और नीच गोत्र का नोकर्म लोकनिंदित कुल में प्राप्त हुआ शरीर है। दानादिक चार का अर्थात् १. दान, २. लाभ, ३. भोग और ४. उपभोगान्तराय कर्म का नोकर्म द्रव्य दानादिक में विघ्न कराने वाले पर्वत, नदी, पुरुष,स्त्री वगैरह जानना चाहिए।
वीर्यांतराय कर्म के नोकर्म रूखा आहार वगैरह बल के नाश करने वाले पदार्थ हैं। इस प्रकार उत्तर प्रकृतियों के नोकर्म द्रव्यकर्म का स्वरूप कहा गया है।
जिस-जिस कर्म का जो-जो फल है उस फल को भोगते हुए जीव को ही उस-उस कर्म का नोआगमभाव कर्म जानना। पुद्गलविपाकी प्रकृतियों का नोआगमभावकर्म नहीं होता क्योंकि उनका उदय होने पर भी जीवविपाकी प्रकृतियों की सहायता के बिना साताजन्य सुखादिक की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस तरह सामान्य कर्म की मूल-उत्तर दोनों प्रकृतियों के चार निक्षेप कहे गए हैं।