जैनदर्शन सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र इन तीनों की युति रूप जीवन को मोक्षमार्ग मानता है और इन तीनों में सम्यग्दर्शन को प्रथमत: स्वीकार किया गया है तथा सम्यग्दर्शन का महत्त्व इस प्रकार कहा गया है-
नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तप इन चारों प्रकार की आराधनाओं में सम्यक्त्व ही प्रधान है। जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि व श्रावक दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है। जैन आगम और अध्यात्म ग्रंथों में सम्यग्दर्शन की महिमा इस प्रकार ही वर्णित है।
जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थों का आज्ञा या अधिगम से श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निर्ग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग व गुरु, इनमें श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की निर्मल परिणति है ‘‘सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म है और केवलज्ञान के द्वारा गोचर है तथा अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा भी गोचर है परन्तु खास बात यह है कि मति व श्रुतज्ञान और देशावधि इनके द्वारा सम्यक्त्व की उपलब्धि या सम्यक्त्व का माप संभव नहीं है इसलिए कोई भी जीव उसके विधिपूर्वक कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है।’’
सम्यग्दर्शन का निमित्त जिनसूत्र है अथवा जिनसूत्र के जानने वाले पुरुष हैं, सम्यग्दर्शन के अन्तरंग हेतु मोह के क्षय, उपशम व क्षयोपशम हैं।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार अनन्तानुबन्धी की क्रोध—मान—माया—लोभ और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से सम्यग्दर्शन होता है।
‘‘प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबंधी की विसंयोजना की विधि को यह जीव उत्कृष्ट रूप से अर्थात् अधिक से अधिक पल्य के असंख्यातवें भाग के जितने समय हैं, उतनी बार छोड़—छोड़कर पुन:-पुन: ग्रहण कर सकता है, पश्चात् नियम से सिद्धपद को प्राप्त होता है।
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी प्रकार के सम्यक्त्व से समन्वित तथा चरित्र मोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यन्त अविरति रूप रहते हैं, उसको परम्परा में असयंत सम्यग्दृष्टि कहा गया है।’’
वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता है और उसके इस गर्व न करने के भाव को उपशम भाव माना गया है और इसीलिए सम्यग्दृष्टि जीव अपने को तृण समान मानता है। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मीजनों से अनुराग करता है वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है।
कर्मों की कुल १४८ प्रकृतियाँ हैं उसमें अभेद विवक्षा से १२० प्रकृतियाँ बंध योग्य कही गई हैं। उन प्रकृतियों में से ४३ प्रकृतियों का बंध चतुर्थ गुणस्थान में नहीं होता है, वे इस प्रकार से हैं-मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरगत्यानुपूर्वी, नरकायु, अनन्तानुबन्धी कषाय ४, स्त्यानगृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और वामन संस्थान, वङ्कानाराच, अर्द्धनाराच, कीलित संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु, उद्योत, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति।
चतुर्थ गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बंध होता है, वे निम्न हैं-अप्रत्याख्यान ४, वङ्काबृषभनाराच संहनन, औदारिकशरीर, औदारिक आंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, प्रत्याख्यानावरण चार, अस्थिर, अशुभ, असाता वेदनीय, अयश:कीर्ति, अरति, शोक, देवायु, निद्रा, प्रचला, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्माण, समचतुर-स्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी वैक्रियकशरीर, वैक्रियकआंगोपांग, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन ४, अन्तराय ५, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र, साता वेदनीय इस प्रकार ६६ प्रकृतियाँ चतुर्थ गुणस्थान में बंधरूप हैं। इन प्रकृतियों के बंध रूप परिणामों का सूक्ष्म रूप समझना कठिन है क्योंकि परिणाम निरन्तर परिणमनशील होते हैं।
इस प्रकार अंतरंग में सूक्ष्म रूप से समझ पाना असंभव है कि ये परिणाम ४ गुणस्थानों के योग्य हैं और ये परिणाम चतुर्थ गुणस्थान के अयोग्य हैं। आगम की विवक्षा से अन्तरंग परिणाम सामान्य जीवों के ज्ञान के अविषय हैं।
चतुर्थ गुणस्थान में १०४ प्रकृतियों का उदय है, उदय योग्य १२२ प्रकृतियों में से तीर्थंकर, आहारक शरीर, शरीरांगोपांग, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थावर, एकेन्द्रिय, विकलत्रय एवम् अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन अठारह प्रकृतियों के बिना शेष १०४ प्रकृतियों का उदय है। उक्त तीर्थंकरादि १८ प्रकृतियों का अनुदय है।
अप्रत्याख्यानचतुष्क, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, दुर्भग अनादेय एवम् अयश:कीर्ति इन १७ प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति होती है।’’ इस उदय, अनुदय और उदय से व्युच्छत्ति होने वाली प्रकृतियों की व्यवस्था से भी यही स्पष्ट होता है कि ८ कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों के उदय से परिणामों की विचित्रता सम्भव है, जिसका निर्णय स्व—पर गम्य नहीं है।
अब साथ में चतुर्थ गुणस्थान में सत्व, असत्त्व और सत्व व्युच्छित्ति की व्यवस्था भी आगम के परिपेक्ष्य में देखेंगे।
‘‘असंयत गुणस्थान में सभी १४५ प्रकृतियों का सत्त्व है। असत्व का अभाव है तथा नरकायु की सत्व व्युच्छित्ति होती है।
सत्त्व की व्यवस्था से भी हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि सम्यग्दृष्टि शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाये, यह कोई नियम नहीं है। उसे मुक्त होने के लिए अर्द्ध पुद्गल परावर्तनकाल तक लग सकता है।
प्रथम गुणस्थान में जो कर्म बन्ध होता है और चतुर्थ गुणस्थान में जो कर्म बन्ध होता है। वह बंध व्यवस्था से समझने में स्पष्ट होता है कि बहुत कम होता है क्योंकि ४३ प्रकृतियों का इस गुणस्थान में बंध नहीं होता है, इससे संसार परिभ्रमण की प्रक्रिया कम हो जाती है। आन्तरिक परिणामों में जो सुधार होता है वह कषायों के उपशम रूप है। बहुत स्थायी कषायरूप परिणाम उसके नहीं रहते हैं। इस गुणस्थान में मानसिक उद्वेगों में एक हल्कापन आता है जो बाह्य में हम भले ही निर्णय नहीं कर पायें किन्तु अंतरंग में ऐसा होता ही है। यह कर्मसिद्धान्त की अकाट्य व्यवस्था है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यरूप परिणाम रखता है और नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना रूप जीवन में जीना चाहता है। आठ अंगों का पृथक््â—पृथक््â अवलोकन नहीं किया जा सकता है किन्तु उसके परिणामों में धर्म के प्रति एक ऐसा श्रद्धा भाव जाग्रत हो जाता है जिससे अपने जीवन का परिष्कार उसे पसन्द होता है। इसलिए कहा भी है-‘‘निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रियसुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं। इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय-व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है। आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रियसुख का अनुभव करता है।’’
किन्तु सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति इस प्रकार होना चाहिए और इस प्रकार नहीं होना चाहिए, ऐसा कोई भी निर्णय हम नहीं कर सकते क्योंकि परिणामों का सूक्ष्म रूप हम नहीं समझ सकते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों की भी प्रवृत्तियाँ कषाय के उदय से अनेक विसंगति रूप प्रथमानुयोग में देखने को प्राप्त होती हैं इसलिए सम्यग्दर्शन का सूक्ष्म रूप हमारे मापने का विषय नहीं है किन्तु जो जीव मुहूर्त काल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अनन्तर छोड़ देते हैं, वे भी इस संसार में अनन्तानन्त काल पर्यन्त नहीं रहते हैं अर्थात् उनका भी अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन काल मात्र ही संसार शेष रहता है, इससे अधिक नहीं।