जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है, अच्छे कर्म का अच्छा फल मिलता है, बुरे कर्म का बुरा। इस मान्यता या सिद्धान्त को कर्म सिद्धान्त कहते हैं। लोक में भी यह सिद्धान्त प्रसिद्ध है, जो इन कहावतों से व्यक्त होता है—‘‘जैसा करोगे, वैसा भरोगे’’ ‘‘जो बोओगे, वही काटोगे’’, As you sow, so will you reap. सन्तों की वाणी और शास्त्रों में भी यह सिद्धान्त बहुश: वर्णित मिलता है। जैसे—
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा। (रामचरितमानस)
करता था तो क्यों रहा, अब करि क्यों पछताय।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।। (कबीर)
जैनदर्शन में भी इस नियम को कर्म सिद्धान्त माना गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे समयसार कलश में निम्नलिखित शब्दों में दर्शाया है—
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदु:खसौख्यम्।
अर्थात् अपने द्वारा किये गये कर्मों के उदय से ही जीवों को जन्म-मरण, सुख-दु:ख आदि फल प्राप्त होते हैं।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने यही बात समयसार की निम्न गाथा में कही है—
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।।१०२।।
अर्थात् आत्मा अपने जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उसका वह कर्त्ता और वही भाव उसका कर्म होता है तथा उसके ही फल को वह भोगता है।
जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त पूर्णत: मनोविज्ञान की आधारशिला पर स्थित है क्योंकि उसमें पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मों (पुद्गल निर्मित कर्मों) के उदय से आत्मा में उत्पन्न शुभाशुभ मनोभावों को ही मुख्यता से कर्म (भावकर्म) कहा गया है और बतलाया गया है कि उनके ही निमित्त से जीव नवीन द्रव्यकर्मों के बन्धन से बँधता है और वही जीव संसार में भ्रमण करते हुए क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि से मुक्त भी हो जाता है और जन्म-मरण आदि के दु:खों से सदा के लिए छुटकारा पा लेता है। इस प्रकार आत्मा के बन्ध ओर मोक्ष उसके शुभाशुभ मनोभावों के सद्भाव और अभाव पर ही आश्रित हैं, द्रव्य कर्म उनके ही अनुचर हैं अत: जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है। इसे आगे स्पष्ट किया जा रहा है।
जैनदर्शन में मन दो प्रकार का माना गया है—द्रव्य मन और भाव मन। आत्मा के नो इन्द्रिय मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशय से प्रकट मतिज्ञान विशेष को भाव मन कहते हैं। मनोज्ञानरूप ज्ञान आत्मा का गुण है इसीलिए उसका आत्मा में अन्तर्भाव है—‘‘मनोऽपि द्विविधं द्रव्यमनो भावमनश्चेति। तत्र भावमनो ज्ञानम्। तस्य जीव—गुणत्वादात्मन्यतर्भाव:।’’ (सर्वार्थसिद्धि)। ‘भावमन’ शब्द में भाव का अर्थ है चित्परिणाम, उस चित्परिणामात्मक इन्द्रिय का नाम भाव मन है—‘भाव: चित्परिणाम: तदात्मकमिन्द्रियं भावेन्द्रियम्।’ हृदयस्थल में जो अष्टदल कमल के आकार का पुद्गल से निर्मित, भाव मन के कार्य करने का (ज्ञानोपयोग रूप से परिणमित होने का) साधन है वह द्रव्य मन कहलाता है—‘द्रव्यमनश्च रूपादियोगात्पुद्गलद्रव्यविकार:। रूपादिवन्मन: ज्ञानोपयोग-करणत्वाच्चक्षुरिन्द्रियवत्। (स. सि.) ‘यदष्टपत्रार्पिताकारं द्रव्यमनस्तदाधारेण शिक्षालापोपदेशग्राहकं भावमन:।’’ (बृ. द्रव्यसंग्रह)।
भावमन को अन्त:करण भी कहते हैं क्योंकि उसे गुण—दोष—विचार तथा स्मरणादि व्यापार में इन्द्रियों की सहायता नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियों के समान इसकी बाहर उपलब्धि नहीं होती अत: अन्तर्गत होने के कारण वह अन्त:करण कहलाता है—‘‘तदन्त: करणमिति चोच्यते। गुण—दोष विचारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियान—पेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गतं करणामन्त: करणमित्युच्चते।’’ (स. सि.)।
भाव मन में जो पदार्थों को (स्व पर को) जानने की इच्छा होती है उसे लब्धि कहा गया है और जानने के व्यापार को ‘उपयोग’ नाम दिया गया है—‘भावमनस्तावल्लब्ध्युपयोगलक्षणम्।’ (पंचास्तिकाय)।
भाव मन का कार्य मतिज्ञान में भी होता है (तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्) और गुणदोषविचारात्मक श्रुतज्ञान में भी (‘‘श्रुतमनिन्द्रियस्य’’) अत: वह मतिज्ञानोपयोगरूप भी होता है और श्रुतज्ञानोपयोगरूप भी।
यद्यपि भाव मन ज्ञान का बहुमुखी साधन है। इन्द्रियाँ तो मात्र पदार्थों के वाचक शब्द को, पदार्थों को तथा पदार्थों की विचारगम्य विशेषताओं को भी जानती हैं और आत्मादि अरूपी पदार्थों तथा आत्मा के ज्ञानादि गुणों एवं शुभ—अशुभ—शुद्ध परिणामों को भी जानता है तथापि उसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय (ईषत् इन्द्रिय) कहा गया है। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थों को जानती हैं और कालान्तर में अवस्थित रहती हैं किन्तु मन नियत देश में स्थित पदार्थों को नहीं जानता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता।
मन इन्द्रियों का नायक—
मन इन्द्रियों का नायक है। उसी की प्रेरणा से इन्द्रियाँ अपने—अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए भट्ट अकलंकदेव लिखते हैं—
‘चक्षुरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिणामात् प्राक््â मनसो व्यापार:। कथम् ? शुक्लादिरूपं दिदृक्षु: प्रथमं मनसोपयोगं करोति ‘एवंविधं रूपं पश्यामि, रसमास्वादयामि’ इति। ततस्तद्वलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियन्ते। ततश्चास्याऽनिन्द्रियत्वम्।’ (राजवार्तिक)।
अनुवाद—चक्षु आदि इन्द्रियों के रूपादि विषयों को जानने में प्रवृत्त होने के पूर्व मन का व्यापार होता है।
कैसे ? शुक्लादिरूप को देखने का इच्छुक पुरुष पहले मन में सोचता है कि मैं इस प्रकार के रूप को देखूँ, इस प्रकार से रस को चखूँ। तब उस मन के उपयोग से प्रेरित होकर चक्षु आदि इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त होती हैं इसलिए मन अनिन्द्रिय कहलाता है।
श्री नागसेन मुनि ने तत्त्वानुशासन में कहा है कि इन्द्रियों का स्वामी मन है। वही उन्हें विषयों में प्रवृत्त करता है और वही उन्हें विषयों से निवृत्त करता है इसलिए मन को ही जीतना चाहिए। मन को जीत लेने वाला ही जितेन्द्रिय होता है—
इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मन: प्रभु:।
मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिञ्जितेन्द्रिय:।।
परमात्मप्रकाशकार जोइन्दुदेव ने मन की प्रभुता को इन शब्दों में प्रकट किया है—
पंचहं णायकु वसि करहु, जेण होंति वसि अण्ण।
मूल विणट्ठइ तरुवरहँ अवसइँ सुक्किंह पण्ण।।
अनुवाद—पाँच इन्द्रियों के नायक इस मन को वश में करो, जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं—‘येन वशीकृतेनान्यानीन्द्रियाणि वशीभवन्ति।’ वृक्ष की जड़ के नष्ट हो जाने पर पत्ते अवश्य सूख जाते हैं।
सभी इन्द्रियाँ एक साथ अपने विषयों में प्रवृत्त नहीं होतीं, भिन्न—भिन्न समय में भिन्न—भिन्न इन्द्रिय अपने विषय में व्यापृत होती हैं। इससे इन्द्रियों की विषय—प्रवृत्ति में मन की नियामकता सिद्ध होती है, और इसी में मन के अस्तित्व का भी अनुमान होता है। इस तथ्य की ओर भट्ट श्री अकलंकदेव ने इन शब्दों के द्वारा ध्यान आकृष्ट किया है—
‘‘युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पत्तिर्मनसो हेतु:। सत्सुचक्षुरादिकरणेषु शक्तिमत्सु, सत्सु च बाह्येषु रूपादिषु, सति चानेकस्मिन् प्रयोजने यतो ज्ञानानां क्रियाणां च युगपदनुत्पत्ति:, तदस्ति मन इत्यनुमीयते।’’
अनुवाद—एक साथ सभी इन्द्रियाँ ज्ञान और क्रिया में प्रवृत्त नहीं होतीं, यह मन के अस्तित्व का हेतु है। चक्षु आदि इन्द्रियों के समर्थ होने पर भी, बाह्य रूपादि पदार्थों के उपस्थित रहने पर भी तथा उसके युगपत् जानने का प्रयोजन होने पर भी इन्द्रियाँ एक साथ ज्ञान और क्रिया में प्रवृत्त नहीं होतीं। इससे अनुमान होता है कि मन का अस्तित्व है। मन जिस समय जिस इन्द्रिय के विषय का ज्ञान करना चाहता है, उस समय उसी के द्वारा ज्ञान और क्रिया होती है।
इस कथन की पुष्टि अकलंकदेव के इस वचन से भी होती है—‘मनसाऽधिष्ठितं हि इन्द्रियं स्वविषये व्याप्रियते।’ अर्थात् मन से अधिष्ठित होकर ही इन्द्रिय अपने विषय में संलग्न होती है।
मन तीन प्रकार के कार्य करता है : ज्ञानात्मक, श्रद्धानात्मक और आचरणात्मक।
ज्ञानात्मक कार्य—
१. मन इन्द्रियों की सहायता से मूर्त पदार्थों को जानता है और पूर्वानुभव के स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, लक्षण इत्यादि के द्वारा विचार करके उनकी अतीन्द्रिय विशेषताओं एवं गुण-दोषों को जानता है।
२. वह आगम की सहायता से आत्मा, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन अमूर्त द्रव्यों को, स्वर्ग, नरक आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों को, जीवादि सात तत्त्वों एवं मोक्षमार्ग को, चिन्तन-मनन, ऊहापोह (वितर्क श्रुतम्) आदि के द्वारा जानता है।
३. वह अतीन्द्रिय आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञानादि गुणों को, क्रोधादि एवं क्षमादि परिणामों को, सुख-दु:खादि भावों को, विभिन्न शुभाशुभ इच्छाओं को तथा चित्तप्रसादजन्य सामान्य अतीन्द्रिय सुख एवं निर्विकल्पसमाधिसंजात विशिष्ट अतीन्द्रिय सुख को जानता है, उनका वेदन करता है। ये सब परिणाम चेतनात्मक होने से स्वसंवेद्य (स्वयं ही आत्मा के अनुभव में आने योग्य) हैं, जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है—‘स्वसंवेद्यसुख—दु:खादिवत्’ (पंचास्तिकाय) तथा भावमन भी चेतनात्मक होने से अपने आप उनका संवेदन करता है, आस्वादन करता है।
ज्ञान आत्मा का गुण है अत: मन आत्मा के ज्ञान गुण के अनुभव द्वारा आत्मा के अस्तित्व का अनुभव करता है। ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने ज्ञान गुण के द्वारा अपने अनुभव में स्वयं आती है अर्थात् ज्ञान ही अपने द्वारा अपने को जानता है। यदि ज्ञान, ज्ञान होते हुए भी स्वयं को न जाने तो वह ज्ञान ही नहीं कहला सकता इसीलिए ज्ञानस्वरूप आत्मा और उसके सभी परिणाम (गुण पर्याय) ज्ञानरूप होने से स्वसंवेद्य हैं।
आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने भी कहा है कि केवलज्ञान के अंशभूत मतिज्ञानादि का ज्ञान सभी को स्वसंवेदन—प्रत्यक्ष द्वारा निर्बाध रूप से होता है। तात्पर्य यह है कि वे आत्मा के भाव मन रूप ज्ञान में स्वयं ही आते हैं अत: केवलज्ञान असिद्ध नहीं है—‘ण च केवलणाणमसिद्धं, केवलणाणस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिब्बाहेणुपलंभादो।’ ‘अर्थात् मतिज्ञानादिक केवलज्ञान के अंश रूप हैं और उनकी उपलब्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सभी को होती है अत: केवलज्ञान के अंशरूप अवयव के प्रत्यक्ष होने पर केवलज्ञानरूप अवयवी को परोक्ष कहना युक्त नहीं है।’’
आत्मा को अपने ज्ञानादि गुणों और सुख—दु:खादि परिणामों का स्वयं ही वेदन होना (स्वयं ही अपने अनुभव में आना) स्व संवेदन ज्ञान कहलाता है। यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह मिथ्यादृष्टि को भी होता है, जैसा कि आचार्य श्री जयसेन स्वामी के निम्नलिखित वचनों में ‘सर्वजन प्रसिद्ध’ शब्द से स्पष्ट है—‘विषयसुखानुभवानन्दरूपं स्वसंवेदनज्ञानं सर्वजनप्रसिद्धं सरागमप्यस्ति। शुद्धात्मसुखानुभूतिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं वीतरागमिति।’ (समयसार) अर्थात् विषयसुख के अनुभव से उत्पन्न आनन्दास्वादनरूप स्वसंवेदनज्ञान, जो कि सभी को होता है, सराग भी होता है और शुद्धात्मा के अनुभव से प्रकट सुखानुभूतिरूप स्वसंवेदनज्ञान वीतराग होता है।
आचार्य श्री जयसेन स्वामी का कथन है कि सभी लोगों को सामान्य अतीन्द्रियसुख का भी स्वसंवेदन होता है। इसका वर्णन उन्होंने समयसार की ४१५ वीं गाथा की टीका में किया है। यहाँ उसका हिन्दी अनुवाद मात्र दिया जा रहा है—‘‘शिष्य प्रश्न करता है—हे भगवान् ! आपने अतीन्द्रिय सुख की व्याख्या निरन्तर की है किन्तु लोग उसे जानते नहीं हैं। भगवान् उत्तर देते हैं—‘कोई देवदत्त नाम का पुरुष स्त्री सेवन आदि पंचेन्द्रिय विषयों का भोग नहीं कर रहा है किन्तु निर्व्याकुलचित्त होकर बैठा है।’ उससे कोई पूछता है—‘क्यों देवदत्त! सुख से बैठे हो! वह उत्तर देता है—‘हाँ, सुख से बैठा हूँ।’ यह सुख अतीन्द्रिय सुख है। क्यों ? इसलिए कि सांसारिक सुख पंचेन्द्रियों से उत्पन्न होता है किन्तु जो अतीन्द्रिय सुख है वह पंचेन्द्रियों के विषय भोग के बिना भी उपलब्ध होता है। यह सामान्य अतीन्द्रिय सुख है और जो पंचेन्द्रिय मनोजनित विकल्पों से रहित समाधि में स्थित परमयोगियों को स्वसंवेदनगम्य अतीन्द्रियसुख होता है वह विशेष अतीन्द्रिय सुख है तथा जो अतीन्द्रियसुख मुक्त जीवों को होता है, वह अनुमानगम्य और आगमगम्य है।……..अत: अतीन्द्रियसुख में सन्देह नहीं करना चाहिए।’’
यहाँ देवदत्त नामक पुरुष के अतीन्द्रिय सुख का दृष्टान्त एक सामान्य पुरुष के अतीन्द्रिय सुख का दृष्टान्त है जिससे सिद्ध होता है कि सामान्य पुरुष भी निर्व्याकुलचित्त होने पर अर्थात् मिथ्यात्व और कषाय के मन्द होने पर (कदाचिदनुक्तानुबन्धि कषायमन्दोदये सति’ जब चित्तगत कालुष्य या क्षोभ से रहित होकर चित्त प्रसाद की अवस्था को प्राप्त होता है तब पंचेन्द्रिय विषय भोग के अभाव में अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने केवलज्ञान के अंशभूत मतिज्ञानादि को स्वसंवेदनगम्य बतलाया है जिससे स्पष्ट होता है कि मतिज्ञान का स्वसंवेदन भी मानस—मतिज्ञान से होता है तथा श्रुतज्ञान का स्वसंवेदन श्रुतज्ञान से ही अर्थात् श्रुतज्ञान परिणत मन से होता है, इसके अतिरिक्त सामान्य लोगों को होने वाला चित्त प्रसादजन्य अतीन्द्रियसुख का स्वसंवेदन भी मानस—मतिज्ञान से होता है तथा निर्विकल्प समाधिगत योगियों को जो अतीन्द्रिय सुख का स्वसंवेदन होता है वह भावश्रुताण से अर्थात् भावश्रुतज्ञान-परिणत मन से होता है। इसी प्रकार विषयसुखानुभवरूप सराग स्वसंवेदन मानस मतिज्ञान से तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूप वीतराग स्वसंवेदन भाव श्रुतज्ञान परिणत मन से होता है ।
जो ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को जानता है, वह मतिज्ञान है तथा जो ज्ञान शब्दादि के द्वारा सूचित होने वाले पदार्थ को तथा उसकी अतीन्द्रिय विशेषताओं को जानता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं किन्तु उस अर्थबोध से आत्मा की जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणति तज्जन्य निर्विकल्पसमाधिरूप परिणति एवं सत्संजात विशिष्ट अतीन्द्रियसुखरूप परिणति होती है, उन सब का स्वसंवेदन करने वाला ज्ञान भावश्रुत या भावश्रुतज्ञान कहलाता है, यह निम्नलिखित आर्षवचनों से स्पष्ट है—
‘वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्यश्रुतेन तथैव तदा धारोत्पन्न—
निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन च पूर्णा: समग्रा: श्रुतपूर्णा:।’
(बृहद्द्रव्यसंग्रह)।
अत्र विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव- शुद्धात्मतत्त्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणाभेदरत्नत्रयात्मकं यद्भावश्रुतं…।
‘‘चिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्व-सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरण-रूपाभेद—रत्नत्रयात्मक-निर्विकल्पसमाधि-जात-वीतराग-सहजापूर्व-परमाधदरूप-सुखरसानुभव….।” (समयसार)।
‘‘समाधिस्थपरमयोगिनां स्वसंवेदनगम्यमतीन्द्रियसुखं…..।”
४. स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान आदि भी मन के ज्ञानात्मक कार्य हैं।
श्रद्धानात्मक कार्य—
आत्मा, शरीर, सुख-दुख, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष, देव, शास्त्र, गुरु आदि के स्वरूप, उनकी हिताहितकरता तथा हेयोपादेयता के विषय में सम्यक् या मिथ्या धारणाएँ बनाना, सही या गलत श्रद्धा अर्थात् विश्वास करना भी मन का कार्य है । जैनदर्शन में सम्यक् धारणा या श्रद्धा को सम्यग्दर्शन तथा मिथ्याधारणा या श्रद्धा को मिथ्यादर्शन नाम दिया गया है ।
आचरणात्मक कार्य—
अनादिबद्ध मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद आदि अस्वाभाविक भाव उत्पन्न होते हैं । ये भावमनरूप परिणत आत्मा में ही आविर्भूत होते हैं अर्थात् भाव मन ही इन अस्वाभाविक भावों के रूप में परिणत होता है । इनके कारण मन में अनेक प्रकार के पदार्थों की इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, उनमें ये छह प्रमुख हैं—वैभव (श्दहाब्), प्रभुत्व (झ्दैी), ख्याति (ज्दज्ल्त्arग्ूब्), सम्मान (rोजम्ू), समाज में सर्वोच्च स्थान (ज्rदस्ग्हाहम) और इन्द्रियसुख (ज्तर््ीेल्rा)। इनको पाने के लिए मनुष्य िंहसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह और छल-कपट आदि पापों में प्रवृत्त होता है। ये पाप भाव भी मन में ही आते हैं और मन ही मनुष्यों को पापमय वचन बोलने और पापात्मक क्रिया करने के लिए प्रेरित करता है। उपर्युक्त पाप भाव अशुभ भाव कहलाते हैं।
परोपदेश, स्वाध्याय या स्वबुद्धि के द्वारा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शुभ भावों का महत्त्व मालूम होने पर और उनमें श्रद्धा उत्पन्न हो जाने पर मन में ये शुभभाव भी उद्भूत होते हैं और मन जीव को शुभ वचन बोलने और शुभ क्रिया करने के लिए प्रेरित करता है ।
जिनोपदिष्ट तत्त्वों का ज्ञान और श्रद्धान होने पर मोक्ष की इच्छा भी मन में ही जन्म लेती है और तब मन शुभाशुभ परिणामों को छोड़कर शुद्ध रूप से परिणमन करता है, जिसे शुद्धोपयोग या निर्विकल्प समाधि कहते हैं और जो मोक्ष का परमार्थभूत मार्ग है।
इस प्रकार पुण्य-पाप का बन्ध कराकर संसार भ्रमण कराने वाले शुभाशुभ भाव रूप से या शुभाशुभ चारित्र रूप से तथा मोक्ष प्राप्त कराने वाले शुद्धभावरूप से या शुद्ध चारित्र रूप से मन ही परिणत होता है। इसके समर्थक आगमवचन नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं—
‘‘मिथ्यात्व-विषय-कषायादि—विकल्पसमूहपरिणतं मनो वीतरागनिर्विकल्प समाधिशस्त्रेण मारयित्वा’’- (परमात्मप्रकाश)।
अर्थात् मिथ्यात्व, विषयकषायादि, विकल्पसमूहरूप से परिणत मन को वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप शस्त्र से मारकर…।
‘अनेकमानसविकल्पजालरहिते परमात्मनि स्थित्वा शुभाशुभ विकल्पजालरूपं मनो मारय।” (परमात्म प्रकाश)।
अर्थात् अनेक मानस विकल्पजाल से रहित परमात्मा में स्थित होकर शुभाशुभ विकल्पजालरूप मन को मारो।
‘‘मोहो वा रागो वा द्वेषश्चित्तप्रसादश्च यस्य जीवस्य भावे मनसि विद्यते तस्य शुभोऽशुभो वा भवति परिणाम इति।” (पंचास्तिकाय)।
अर्थात् जिस जीव के भाव में अर्थात् मन में मोह अथवा राग अथवा द्वेष या चित्त-प्रसाद होता है, उससे शुभ या अशुभ परिणाम होता है।
शुभाशुभ विकल्पों को त्यागकर मन के शुद्ध रूप अथवा निर्विकल्प समाधि रूप से परिणत होने का उल्लेख निम्नलिखित उद्धरणों में किया गया है—
एवं जीवपदार्थमधिगम्य कै 😕 पर्यायै:….निश्चयेनाभ्यन्तरै: रागद्वेषमोहरूपैरशुद्धैस्तथैव च नीराग-निर्विकल्प-चिदानन्दैकस्वाभावात्मपदार्थ-संवित्ति पस-जात-परमानन्दरसुस्थित-सुखामृत-रसानुभव-समरसीभाव-परिणत-मनोरूपै: शुद्धैश्चान्यैरपि — पश्चात् जानातु — अजीवपदार्थम् । ”(पंचास्तिकाय)।
अर्थात् इस प्रकार जीव पदार्थ को अन्य पर्यायों के द्वारा भी, जैसे—निश्चयनय से राग द्वेष मोहरूप अभ्यन्तर अशुद्ध पर्यायों के द्वारा तथा वीतराग, निर्विकल्प, चिदानन्दैक स्वभाव वाले आत्मपदार्थ के संवेदन से उत्पन्न परमानन्द में स्थित सुखामृत रस के अनुभव में समरसीभाव से परिणत मनोरूप शुद्ध पर्यायों के द्वारा जानकर, फिर अजीव पदार्थ को जानना चाहिए।
यहाँ निर्विकल्पक समाधि में स्थित होने तथा तज्जन्य अतीन्द्रियसुख के वेदन को मन की शुद्ध पर्याय कहा गया है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में इसे ही मन:शुद्धि कहा है—
मन:शुद्ध्यैव शुद्धि : स्याद्देहिनां नात्र संशय:।
वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम्।
ध्यानशुद्धिं मन:शुद्धि: करोत्येव न केवलम्।
विच्छिनत्त्यपि नि:शेषकर्मजालानि देहिनाम्।।
अनुवाद—नि:संदेह मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना निरर्थक है । मन की शुद्धि केवल ध्यान को ही शुद्ध नहीं करती, जीवों के कर्मों का भी क्षय करती है। यहाँ मन की शुद्धि को कर्म क्षय का हेतु कहा गया है, इससे सिद्ध है कि मन की शुद्धि का नाम ही शुद्धोपयोग या निर्विकल्प-समाधि है।
इस प्रकार मन ही मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से परिणत होता है और मन ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप से परिणमन करता है। आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान मन वâे ही परिणाम हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान (क्षीणमोह गुणस्थान तक) भी मन की ही अवस्थाएँ हैं। अशुभोपयोग और शुभोपयोग भी मन की ही पर्यायें हैं तथा शुद्धोपयोग भी मन की ही परिणति है।
मन की शुभ-अशुभ और शुद्ध इन तीन परिणतियों में से शुभ और अशुभ परिणतियाँ जीव के कर्मबन्ध की हेतु हैं।
भावकर्म के फल का दाता—द्रव्यकर्म—
जिनशासन में कर्म के दो भेद बतलाये गये हैं : भावकर्म और द्रव्यकर्म। शुभाशुभ मनोभाव भावकर्म हैं। उनके प्रभाव से आत्मा के समीप स्थित कार्मणवर्गणा नामक पुद्गलद्रव्य (भूत ·रूप रस गन्धस्पर्शात्मक द्रव्य) आत्मा की ओर आकृष्ट होता है और ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार के कर्मों के रूप में परिणत होकर आत्मा के साथ संश्लिष्ट हो जाता है। ये पुद्गल निर्मित कर्म द्रव्यकर्म कहलाते हैं। इनमें जीव के ज्ञानादि गुणों को आच्छादित करने, उसमें शुभाशुभ मनोभावों को प्रेरित करने तथा नाना प्रकार की सुखदुःखोत्पादक सामग्री का संयोग कराने एवं सुख-दुःखानुभव कराने की योग्यता आ जाती है । आत्मा के साथ संश्लिष्ट होने के बाद आबाधाकाल पूर्ण होने पर द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव और भव का निमित्त पाकर ये द्रव्यकर्म उदय में आते हैं और जीव को सुख-दुःख का अनुभव कराते हैं। इस प्रकार द्रव्यकर्म जीव को अपने पूर्वकृत शुभाशुभ भावकर्म का फल भोगने में निमित्त बनते हैं।
कर्मफलदाता ईश्वर का अस्तित्व असिद्ध-
जैनेतर भारतीयदर्शन मानते हैं कि जीव के शुभाशुभ मनोभावों के प्रभाव से उसके चित्त में पुण्य-पाप रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं जिन्हें कर्माशय और वासना भी कहते हैं। ये ही जीव के अदृष्ट या कर्म कहलाते हैं। पातंजलयोगदर्शन में कहा गया है—‘क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय:।’ तात्पर्य यह कि ‘‘शुभाशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप जो धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) होते हैं, वे आशयरूप से अर्थात् वासनारूप से चित्त में तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक सुख-दुःख रूप फल प्राप्त नहीं हो जाते। कर्म के आशय अर्थात् वासनारूप होने से पुण्य-पाप कर्माशय कहे जाते हैं।” इन दर्शनों की मान्यता यह भी है कि जीव को अपने पुण्य-पाप रूप कर्मों के फल का भोग ईश्वर कराता है। इसी उद्देश्य से वह स्वर्ग-नरक आदि की सृष्टि करता है। महाभारत में कहा गया है—
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मन: सुखदु:खयो:।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।।
इसका अभिप्राय यह है कि अज्ञानी जीव अपने कर्मों का सुख-दु:ख रूप फल प्राप्त करने में स्वयं समर्थ नहीं है। ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है।
…….किन्तु यह मान्यता युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती क्योंकि यदि ईश्वर जीवों को अपने कर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्ग या नरक में भेजता है, तो वह उन्हें ऐसी प्रेरणा भी दे सकता है कि वे स्वर्ग-नरक में जाने योग्य कर्म न करें, मोक्ष पाने योग्य ही कर्म करें किन्तु ऐसा होते हुए दिखायी नहीं देता। अत: ईश्वर को जीवों को कर्मफल प्रदान करने वाला मानना युक्ति-संगत सिद्ध नहीं होता। अत: जीव के भावकर्मों के प्रभाव से उत्पन्न हुए पौद्गलिक द्रव्यकर्म ही सुखदु:खादिरूप फल का भोग कराने वाली सामग्री का सम्पादन करते हैं, यह मत ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
जीव के मनोभावों से पुद्गल द्रव्य प्रभावित होता है, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। हमारी समस्त शारीरिक क्रियाओं का संचालन मन के भावों, मन में उत्पन्न इच्छाओं के अनुसार होता है। हम जिस वस्तु को देखना चाहते हैं और देखने का मानसिक प्रयत्न करते हैं, उसी की तरफ आँख उठती है, जिस वस्तु को उठाना चाहते हैं और उठाने की मानसिक चेष्टा करते हैं उसी की तरफ हाथ बढ़ाने की शारीरिक चेष्टा होती है। जिस दिशा में जाने की इच्छा और मानसिक प्रयत्न होता है उसी दिशा मे पैर आगे बढ़ते हैं। मन में काम-भाव आते ही शरीर में काम-विकार उत्पन्न हो जाता है, मन में भय पैदा होने पर शरीर रोमांचित हो जाता है। जब मन मे हर्ष, विषाद, भय, शोक, चिन्ता आदि भावों की उत्पत्ति होती है तब मुख के पुद्गल स्कन्धों (मांसपेशियों) में ऐसा परिवर्तन हो जाता है कि चेहरे पर हर्ष-विषाद आदि के भाव झलकने लगते हैं और हम समझ जाते हैं कि सामने वाला व्यक्ति दुखी, भयभीत, शोकग्रस्त या चिन्ताग्रस्त है इसीलिए हम कभी-कभी पूछ बैठते हैं—‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश दिखाई दे रहे हो”, ‘बात क्या है, आज तुम उदास दिख रहे हो’ ‘‘आप किस चिन्ता में डूबे हुए हैं” इत्यादि।”
मनोभावों का शारीरिक स्वास्थ्य पर बड़ा असर पड़ता है। क्रोधादि आवेगों की अवस्था में रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) बढ़ जाता है, पाचन प्रणाली अस्त व्यस्त हो जाती है। विभिन्न ग्रन्थियों (उत्aह्े) के रस क्षण में अनियमितता आ जाती है किसी ग्रन्थि का रसक्षरण बन्द हो जाता है, किसी का सामान्य से कम और किसी का सामान्य से अधिक हो जाता है । इससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। जो मनुष्य सदा दुःखी और चिन्तित रहता है उसे मधुमेह जैसा खतरनाक रोग हो जाता है। इसके विपरीत जब मन प्रसन्न (चित्तप्रसाद) होता है, मन में धनात्मक (ज्देग्ूग्न) विचारधारा प्रवाहित होती है, वह आशा और उत्साह से भरा होता है तब शरीर पर अनुकूल (स्वास्थप्रद) प्रभाव पड़ता है। चित्तप्रसाद औषधि बनकर शरीर के रोगों का उन्मूलन करता है, शरीर को पुष्ट करता है ।
मनोभावों का पुद्गल पर उक्त प्रभाव देखकर यह अनुमान युक्तिसंगत सिद्ध होता है कि आत्मा के शुभाशुभ मनोभावों के प्रभाव से आत्मा के समीप स्थित कार्मणवर्गणा नामक पुद्गलद्रव्य के स्कन्ध ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों के रूप में परिणत होकर आत्मा में संश्लिष्ट हो जाते हैं और आगामी काल में आत्मा को सुखदु:खादि रूप फल प्रदान करते हैं।
यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि विभिन्न पौद्गलिक पदार्थ मन में शुभाशुभ भाव उत्पन्न करते हैं। रास्ते में पड़ा हुआ स्वर्ण मनुष्य के मन में लोभ भाव जगाता है। किसी स्त्री का सुन्दर शरीर पुरुष के मन में काम-भाव उद्दीप्त करता है, पंचेन्द्रियों के इष्ट विषयों को देखकर उनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती है। शरीर में भूख, प्यास की स्वाभाविक पीड़ा होने पर तो मन में संक्लेश परिणाम उत्पन्न होता ही है, इसके अलावा जब बीड़ी, तम्बाकू, चाय, मदिरा आदि अनावश्यक पदार्थों के सेवन की लत लग जाती है तब शरीर के पुद्गल स्कन्धों (मांसपेशियों) में ऐसा व्यसन उत्पन्न हो जाता है कि जिस समय जिस पदार्थ के सेवन की आदत पड़ गई है ठीक उस समय उस पदार्थ के सेवन के लिए शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है, जिसे तलब कहते हैं। तब मन में इतनी बेचैनी पैदा होती है कि उसे बरबस इन्द्रियों को उस पदार्थ के सेवन में प्रवृत्त करना पड़ता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का प्ररूपण श्रीमद्भगवत्गीता में इन शब्दों में किया गया है—
यततो ह्यपि कौन्तेय, पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमादीनि हरन्तिप्रसभं मन:।।
अनुवाद—हे अर्जुन! (व्यसनग्रस्त) इन्द्रियाँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि ज्ञानी पुरुष के यत्न करने पर भी ये उसके मन को बलपूर्वक विषयों की ओर खींच ले जाती हैं।
इष्टमिष्टोतकटरसैराहारैरुद्भटीकृता ।
यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयन्ति बहिर्मन:।।
अनुवाद—इन इन्द्रियरूपी योद्धाओं को यदि इष्ट, मिष्ट और अत्यन्त स्वादिष्ट आहार से अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया जाता है तो ये मन को अपनी इच्छानुसार बाह्य पदार्थों में भ्रमण कराते हैं।
इसी तरह जिस धर्मगुरु और इष्टदेव के प्रति हमारी श्रद्धा होती है उसकी प्रतिमा या चित्र के दर्शन होने पर हमारे मन में आदर-सम्मान और भक्ति का शुभ भाव उत्पन्न होता है। इसके विपरीत किसी अप्रिय व्यक्ति का चित्र देखकर अनादर की अशुभ भावना जन्म लेती है।
इस प्रकार यह सर्वमान्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि पुद्गल द्रव्य मनुष्य के मन में शुभाशुभ भावों की उत्पत्ति में निमित्त होता है। इससे यह अनुमान युक्तिसम्मत सिद्ध होता है कि आत्मा के शुभाशुभ मनोभावों के प्रभाव से उत्पन्न हुए पौद्गलिक द्रव्यकर्म आत्मा में सुख-दुःखादि भावों की उत्पत्ति में निमित्त बनते हैं।
शुभाशुभ मनोभाव अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्मों के बन्ध के कारण हैं अत: शुभाशुभ मनोभावों के निरोध से जो शुद्ध मनोभाव अर्थात् शुद्धोपयोग या निर्विकल्प समाधि घटित होती है उससे द्रव्य कर्मों का क्षय होता है और जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जिसमें सदा आत्मोत्थ अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता रहता है। इस प्रकार कर्मों के बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया एकमात्र शुभाशुभ मनोभावों के सद्भाव और अभाव पर आश्रित है अतएव जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है ।