जैनदर्शन अपने मौलिक चिन्तन के लिए प्रसिद्ध रहा है। कर्म सिद्धान्त निक्षेप, नय, गुणस्थान, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। पर्याप्ति भी जैनदर्शन का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण तथ्य है। दार्शनिक दृष्टि से तो इसका महत्त्व है ही, साथ ही यह आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में भी अपना महत्त्व रखता है।
पर्याप्ति जीव की एक विशिष्ट शक्ति है, जिसके द्वारा वह आहार, शरीर आदि के योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है तथा उन्हें उपयुक्त आहार, शरीर, इन्द्रियादि के रूप में परिणत करता है। तात्पर्य यह है कि पर्याप्ति, आहार, शरीरादि की निष्पत्ति का ही दूसरा नाम है। वस्तुत: जीव एक स्थूल शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब भावी जीवन की यात्रा के निर्वाह के लिए अपने नवीन जन्म क्षेत्र में एक साथ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करता है। इसे या इससे उत्पन्न होने वाली शक्ति को या पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं जैन ग्रंथों में छह प्रकार की पर्याप्तियों का उल्लेख मिलता है। इनके नाम हैं-१. आहार पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, ५. भाषा पर्याप्ति ६. मन: पर्याप्ति। इन सब की विस्तृत चर्चा के पूर्व पर्याप्ति की व्याख्या विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में की जा रही है।
पर्याप्ति-शक्ति पुद्गल परमाणुओं के उपचय से उत्पन्न होती है अर्थात् पर्याप्ति वह शक्ति है जिसके द्वारा जीव उत्पत्ति-देश में आये हुए नवीन पुद्गल परमाणुओं को तथा प्रतिसमय जो अन्य परमाणु ग्रहण किए जा रहे हैं, उन दोनों में सम्पर्क कराता है और इस क्रिया के फलस्वरूप जो परिवर्तन होता है उसको आहार, शरीर, इन्द्रियादि रूपों में परिवर्तित करता है। तात्पर्य यह है कि पर्याप्ति के द्वारा ही जीव के शरीर, इन्द्रियादि की उत्पत्ति या निर्माण संभव है। काय या शरीर निर्माण के लिए आहारादि की आवश्यकता होती है। आहार रूप में समस्त वस्तुओं का उपयोग संभव नहीं है। यह निर्णय करना होता है कि कौन सी वस्तु आहार योग्य है और कौन सी अनाहार्य है और इसका निर्णय पर्याप्ति के द्वारा ही संभव है। आहार ग्रहण के बाद उसके पोषक तत्त्वों को शरीर-निर्माण की प्रक्रिया के योग्य बनाना भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। पर्याप्ति के द्वारा यह प्रक्रिया पूर्ण होती है। कमोबेश स्थिति यह है कि जीव को अपने जीवन क्रम को बनाए रखने के लिए पर्याप्ति शक्ति से युक्त होना आवश्यक है।
जीव प्रतिक्षण आहार योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता रहता है अर्थात् वह भोजन ग्रहण करता है। यह बात व्यवहार में कुछ अटपटी लगती है कि जीव प्रतिक्षण तो आहार ग्रहण नहीं करता; हाँ, कुछ अंतराल पश्चात् अवश्य आहार लेता है। दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रतिक्षण आहार पुद्गलों को ग्रहण करने की बात कुछ अर्थों में सही है; परंतु एक बात तो निश्चित है कि जीव आहार योग्य पुद्गल परमाणु को ग्रहण करता है। आहार ग्रहण के पश्चात् जीव के आंतरिक अंगों में उत्तेजनाएँ होती हैं, जिनके फलस्वरूप कुछ रासायनिक तत्त्व की उत्पत्ति होती है तथा कुछ यांत्रिक क्रियाएँ भी होती हैं और अंतत: आहार योग्य पुद्गल परमाणु रस रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। यही रस जीव के अंग-उपागों का निर्माण करता है।
जीवों में चय (Anabolic) एवं अपचय (Catabolic) नामक दो तरह की क्रियाएँ सम्पादित होती हैं। इन दोनों का संयुक्त नाम है चयापचय (Metabolism)। चय के द्वारा शरीर में निर्माण की प्रक्रिया होती है तथा अपचय के द्वारा नाश की। जीव का अस्तित्व इन दोनों क्रियाओं पर ही आधारित है क्योंकि जीव के शरीर के विभिन्न अवयवों के निर्माण के साथ-साथ उनके विनाश की प्रक्रिया भी आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं होगा तो जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
जब कोई रोगाणु जीव शरीर पर आक्रमण करता है, तब जीव के शरीर में उपस्थित श्वेत रक्तकण (White bloodcor-puscells) उसकी रक्षा इन आक्रमणकारियों से करता है इस क्रम में शरीर के अंदर रक्त की मात्रा अधिक बनने लगती है और ये रक्त कण रोगाणुओं से लड़ते हैं और उसे मार डालते हैं। श्वेत रक्त के बनने की प्रक्रिया चय की क्रिया है। जब रोगाणु मर जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं तब ये श्वेत रक्तकण भी नष्ट होने प्रारंभ हो जाते हैं। इनका नष्ट होना अपचय की क्रिया है।
श्वेत रक्तकण का नष्ट होना क्यों आवश्यक है, इसे इस ढंग से समझा जा सकता है। जीव के शरीर में श्वेत और लाल रक्तकण पाए जाते हैं और इनकी मात्राएँ भी निर्धारित होती हैं। अगर ये दोनों रक्तकण अपनी इस सीमा का अतिक्रमण करते हैं तो शरीर में चयापचय की क्रिया प्रारंभ होने लगती है और पुन: सीमा का निर्धारण हो जाता है।
लाल रक्त प्राणवायु को अपने साथ सारे शरीर में ले जाता है। इसके अतिरिक्त यह सम्पूर्ण शरीर को गर्मी भी प्रदान करता है। अगर शरीर में श्वेत रक्त की मात्रा बढ़ जाएगी तो लाल रक्त की मात्रा कम हो जाएगी जिसके फलस्वरूप शरीर विभिन्न तरह की व्याधियों से आक्रान्त हो जाएगा और अंतत: इसका अस्तित्व मिट जाएगा। अगर सिर्फ लाल रक्त ही अधिक बनेंगे तो श्वेत रक्त कम हो जाएगा और वस्तुस्थिति वही होगी अर्थात् शरीर का विनाश अत: शरीर में चयापचय या निर्माण एवं विनाश का महत्त्व समझ में आ जाता है।
पर्याप्ति और चयापचय का संबंध भी समझ में आ जाता है। चूँकि पर्याप्ति के द्वारा शरीर, इन्द्रियादि अंगों के निर्माण के साथ-साथ श्वासोच्छ्वास, भाषा तथा भावनाओं (मन) को भी जोड़ दिया गया है, इस अर्थ में यह चयापचय से कुछ भिन्न अवश्य लगता है परंतु वस्तुत: ऐसी बात नहीं है। चयापचय तो एक उदाहरण है और यह भी सत्य है कि जीव की अधिकांश क्रियाएँ इसी का परिणाम हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जीव अपने कार्यों के सम्पादन हेतु चयापचय क्रिया पर ही आधारित है।
१. आहार पर्याप्ति-जीव जन्म-ग्रहण करते समय आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। उन पुद्गलों या उनकी शक्ति को ‘आहार पर्याप्ति’ कहते हैं।
आहार पर्याप्ति के बारे में जीव वैज्ञानिकों की व्याख्या इस प्रकार है। आहार ग्रहण करना एवं उसे रस रूप में परिवर्तित करने के लिए जीवों के शरीर को विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएँ करनी पड़ती हैं। आहार ग्रहण करते ही मुँह से ही पाचन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। यहाँ ‘टाइलिन’ नामक एक रासायनिक तत्त्व निकलता है जो आहार में उपस्थित ‘वसा’ तत्त्व के साथ क्रिया करता है। ‘वसा’ एक कार्बनिक जटिल तत्त्व है, जो सरल तत्त्व में बदल जाता है। इसके बाद भोजन पेट में आता है। पेट में बहुत ही लंबी आहार नली होती है और इससे अनेक तरह के रासायनिक तत्त्व निकलते हैं। ये रासायनिक तत्त्व आहार को पूर्णत: रस के रूप में बदल देते हैं और यही रस शरीर के द्वारा सोख लिया जाता है तथा बाकी बचे हुए पदार्थ मल के रूप में निकल जाते हैं।
संभवत: जीव वैज्ञानिकों ने आहार पर्याप्ति को पाचन क्रिया के साथ जोड़ा है और यह जैन विद्वानों को मान्य नहीं भी हो सकता है परंतु आहार पर्याप्ति के द्वारा जो योग्य आहार (पुद्गल समूह) ग्रहण किया जाता है एवं उसे रसरूप में परिवर्तित किया जाता है, इसका क्या अर्थ लगाया जाए क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि पाचन क्रिया के द्वारा ही आहार रस रूप में बदल जाता है अत: ‘आहार पर्याप्ति’ को आधुनिक विज्ञान में वर्णित ‘पाचन क्रिया’ मानने में किसी तरह की समस्या नहीं होनी चाहिए।
२. शरीर पर्याप्ति-जिस शक्ति के द्वारा आहार-रस को सात धातुओं में बदल दिया जाता है, उसे ‘शरीर पर्याप्ति’ कहते हैं। शरीर में उपस्थित सात धातुएँ हैं-१. रस, २. रक्त, ३. मांस, ४. मेद, ५. हड्डी, ६. मज्जा, और ७. वीर्य। इन्हीं सात धातुओं से शरीर का निर्माण होता है क्योंकि प्रत्येक जीव के शरीर में किसी न किसी रूप में रक्त, मांसादि आवश्यक रूप से विद्यमान रहता है। इनके बिना किसी प्रकार से शरीर की कल्पना करना संभव नहीं है।
ग्राह्य आहार का जब पूर्णतया पाचन हो जाता है अर्थात् रस में बदल जाता है तब शरीर के आंतरिक अंग उन रसों को सोखते हैं और इसकी सहायता से सात प्रकार की धातुओं का निर्माण करते हैं। धातु निर्माण एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। भोजन के तत्त्व में कई तरह के कार्बनिक एवं अकार्बनिक रासायनिक तत्त्व होते हैं। इन तत्त्वों के परस्पर मिलने से ही इन सात तरह की धातुओं का निर्माण होता है।
रक्त में विशेषकर लाल रक्त में लौह तत्त्व होता है जो ऑक्सीजन से मिलता है और इन दोनों में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। इसके फलस्वरूप ऊष्मा की उत्पत्ति होती है। यही ऊष्मा हमारे शरीर को गमीं पहुँचाता है और हम स्वस्थ रहते हैं। ऑक्सीजन श्वसन के साथ शरीर के अंदर आता है तथा रक्त में लौह तत्त्व आहार के साथ आता है। लाल रक्त में जो लाली है वह लौह तत्त्व के कारण ही है। वैज्ञानिक इसे हीमोग्लोबिन कहते हैं। इसी प्रकार अन्य धातुओं के बारे में भी समझना चाहिए। अस्थि को ही लिया जाए, यह वैâल्शियम और कार्बोनेट नामक रासायनिक तत्त्व से बनती है। यद्यपि अस्थि बनने की क्रिया भी अत्यन्त जटिल है परंतु इतना तो मानना ही पड़ता है कि इसके निर्माण में आहार-रस का ही हाथ है।
३. इन्द्रिय पर्याप्ति-धातु रूप को इन्द्रिय रूप में परिवर्तित करने की शक्ति को ‘इन्द्रिय पर्याप्ति’ कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो आहार ग्रहण किया गया, वह ‘आहार पर्याप्ति’ के द्वारा धातु रूप में बदल गया और यही धातु जब इन्द्रिय रूप में बदलता है तो यह इन्द्रिय-पर्याप्ति कहलाती है अर्थात् धातु का इन्द्रिय रूप में बदलना इन्द्रिय पर्याप्ति के कारण संभव है। आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति एवं इन्द्रिय पर्याप्ति में एक तारतम्य दृष्टिगोचर होता है क्योंकि हम देखते है कि क्रमश: आहार, धातु एवं इन्द्रिय निर्माण की प्रक्रियाएँ एक क्रम में वर्णित पाचन क्रिया, पाचकरस के द्वारा निर्मित रसों से रक्तादि बनने की प्रक्रिया का ही दूसरा नाम है।
इन्द्रियादि अंगों के निर्माण की प्रक्रिया का नाम कायनिर्माण या (Morphology) है। इन्द्रिय पर्याप्ति के द्वारा ही जीव के बाह्य अंग बनते हैं अत: इन्द्रिय-पर्याप्ति काय निर्माण का ही दूसरा नाम है। इसे मेंढक के काय निर्माण के द्वारा समझाया जा सकता है। मेंढक के अंडे का जब निषेचन होता है तो उसमें कोशिका के विभाजन के बाद एक अल्प विकसित टैडपोल निकलता है। यह टैडपोल केवल मुँह और पूँछ से युक्त होता है अत: इस समय यह बाह्य आहार नहीं ले सकता है। इस समय यह अपने अंदर की कोशिका को ही आहार रस के रूप में ग्रहण करता है तथा उसे ही धातु रूप में बदलकर शरीर के अन्य अगांगों का निर्माण करता है। बाद में श्वसन हेतु आंतरिक एवं बाह्य गिल बन जाते हैं, मुँह के दोनों जबड़ों में दाँतें बन जाती हैं एवं देह गुहा का भी निर्माण हो जाता है। इस देह गुहा में एक लम्बी सी आहार नाल होती है। अब वह बाह्य आहार लेने लगता है।
बाह्य आहार लेने के बाद पुन: इसके अन्य अंगों का निर्माण होता है अर्थात् एक पूर्ण मेंढक बनने की प्रक्रिया शुरू होने लगती है और इसके बाह्य तथा आंतरिक अंगों के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इस क्रम में वह लगातार आहार लेता रहता है और आहार पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया भी उसके आहार नाल में चलती रहती है। इन पाचक रसों के विभिन्न घटकों के परस्पर समायोजन से उसके अंग-प्रत्यय भी बनने प्रारंभ हो जाते हैं और यह प्रक्रिया मेंढक के जीवन पर्यन्त चलती रहती है। प्रारंभ में यह प्रक्रिया उसके अंग-प्रत्ययों का निर्माण करती है तथा बाद में यही क्रिया अंगों को बलशाली बनाने, उसमें होने वाली टूट-फूट को ठीक करने में सहायक होती है।
मेंढक के काय निर्माण का यह वर्णन जैनाचार्य द्वारा प्रतिपादित इन्द्रिय पर्याप्ति से मेल बैठाने के लिए किया गया है। जैनाचार्यों ने इन्द्रियपर्याप्ति के बारे में जो कुछ भी कहा है वह आधुनिक विज्ञान में प्रतिपादित काय निर्माण की प्रक्रिया को ही इंगित करता है।
४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करने की शक्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ही है। इसे प्राणापाण पर्याप्ति भी कहा जाता है।
वायु में विभिन्न तरह के गैस हैं। श्वांस एवं प्रश्वांस की प्रक्रिया में ऑक्सीजन नामक गैस ली जाती है और कार्बन-डाईआक्साइड नामक गैस छोड़ी जाती है। जब हम श्वांस लेते हैं तब ऑक्सीजन के साथ-साथ वायु में मिली अन्य गैसें भी हमारे शरीर के अंदर चली जाती हैं। हम जो श्वांस लेते हैं, उसमें ऑक्सीजन के साथ-साथ अन्य कई गैसें भी रहतीं अवश्य हैं परन्तु शरीर के अंगों की बनावट एवं प्रक्रिया के फलस्वरूप मात्र ऑक्सीजन गैस ही उपयोग में लाई जाती है। ऑक्सीजन का संयोग अन्य तत्त्वों के साथ होता है जिसके फलस्वरूप ऊष्मा, कार्बनडाईआक्साइड आदि गैसें बनती हैं। कार्बनडाईआक्साइड प्रश्वांस के रूप में बाहर निकल आता है। यही प्रक्रिया श्वासोच्छ्वास कहलाती है।
श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति में कहा गया है कि श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना एवं उन्हें श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत कर देना ही श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है। वस्तुत: इसका यही अर्थ है कि ऑक्सीजन ग्रहण करना और कार्बनडाइआक्साइड छोड़ना, क्योंकि श्वासोच्छ्वास का सही अर्थ भी यही है।
५. भाषा पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणत करे और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि के रूप में छोड़े, वही शक्ति ‘भाषा पर्याप्ति’ है। भाषा-पर्याप्ति जीव की वाक् शक्ति का द्योतक है। इसी के माध्यम से जीव अपनी अभिव्यक्ति को शब्द या भाषा रूप में व्यक्त कर पाता है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार ध्वनि ऊर्जा का एक रूप है तथा इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में समय भी लगता है तथा माध्यम की भी आवश्यकता होती है। ध्वनि जब निकलती है तो वह वातावरण को कम्पित कर देती है और इसी कम्पन के फलस्वरूप वह सुनाई पड़ती है। जहाँ ध्वनि उत्पन्न होती है वहाँ कम्पन होता है और जब किसी वस्तु के कम्पन उत्पन्न होता है तो वह ध्वनि उत्पन्न करने लगता है। अब समस्या यह है कि ध्वनि बजती हुई घंटी से या अन्य माध्यम से हमारे कानों तक किस प्रकार पहुँचती है ?… अगर इस बिन्दु पर विचार करें तो हमारी समझ से ये दो तथ्य उपस्थित होते हैं—१. ध्वनि उत्पादक से छोटे-छोटे टुकड़े निकलते हैं जो हमारी आखों को दिखाई नहीं देते हैं परन्तु हमारे कानों से टकराकर ध्वनि का अनुभव कराते हैं; २. ध्वनि उत्पादक एक ऊर्जा केन्द्र के समान कार्य करता है और वायु से तरंगें उत्पन्न करता है और वे तरंगें हमारे कानों से टकराकर ध्वनि का अनुभव कराती हैं।
प्रमाण एवं प्रयोगों के आधार पर यह निश्चित हो गया है कि ध्वनि तरंगें वायु से तरंगें उत्पन्न करती हैं और यही तरंगें जब हमारे कानों के परदे से टकराती हैं, तब हमको ध्वनि सुनाई देती है। अब प्रश्न यह है कि हम जो बोलते हैं, वही बातें कैसे सुनाई पड़ती हैं ?…इसका समाधान इस तरह से किया गया है। प्रत्येक जीव में ध्वनि उत्पन्न करने के लिए स्वर रज्जु होता है और यह भिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है इसीलिए सभी जीवों की ध्वनि में अंतर होता है। वाक््âशक्ति इन्हीं स्वर रज्जु की बनावट पर निर्भर करती है। जब कोई जीव किसी तरह के शब्द निकालना चाहता है तब उसके स्वर रज्जु पर दबाव डालता है और स्वर रज्जु की बनावट ऐसी होती है कि जब उस पर दबाव डाला जाता है तो उससे ध्वनि निकल पड़ती है। जिस तरह के शब्द बोलने होते हैं उन्हीं के अनुरूप स्वर रज्जु का प्रयोग किया जाता है तथा वह शब्द वायुमंडल को उसी दबाव से कम्पित करता है और उसी तरह की कम्पित वायु हमारे कान के परदे पर दबाव डालती है एवं इस प्रकार हम अपने अनुरूप शब्द सुन लेते हैं।
६. मन: पर्याप्ति-मन को ग्रहण करने योग्य पुद्गल परमाणु को मन के परिणामी भावों में व्यक्त करने की शक्ति ‘मन: पर्याप्ति’ है। सत्य, असत्य, उभय और अनुभय रूप चार प्रकार के मन योग्य पुद्गल द्रव्यों का अवलंबन कर चार प्रकार के मन की रचना यह जीव वâरता है, उस कारण की परिपूर्णता का होना मन: पर्याप्ति है। मन: पर्याप्ति के विषय अन्य पर्याप्तियों से अलग हैं। चूँकि मन-जैसी सत्ता का जिस रूप में वर्णन दार्शनिकों ने किया है, उस तरह की व्याख्या वैज्ञानिकों ने नहीं की है अत: मन: पर्याप्ति की वैज्ञानिक व्याख्या एक समस्या है, फिर भी एक प्रयास किया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय से युक्त होते हैं। मन जैसी सत्ता मात्र पंचेन्द्रिय में ही होती है। यहाँ भी जैन दार्शनिकों ने सभी पंचेन्द्रियों को दो कोटियों में रखा है-१. संज्ञी, और २. असंज्ञी। संज्ञी पंचेन्द्रिय ही मन से युक्त होते हैं। नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव के रूप में भी जीवों का विभेद किया गया है और इनमें मनुष्य, देव, नारकी संज्ञी ही होते हैं तथा तिर्यंच संज्ञी-असंज्ञी दोनों रूप में माने हैं। संज्ञी की विवेचना करते हुए ‘पंचसंग्रह’ में कहा गया है-‘‘जो जीव किसी कार्य को करने से पूर्व कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्व का विचार करे, योग्य को सीखे और उसके नाम पुकारने पर आवे, वह संज्ञी जीव है और जो ऐसा नहीं करता है, वह असंज्ञी है। संज्ञी एवं असंज्ञी के लिए क्रमश: समनस्क एवं अमनस्क शब्द का ही प्रयोग मिलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संज्ञी जीव मन से युक्त होता है और यह विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति रखता है। यद्यपि चींटी जैसे निकृष्ट जीव में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति, प्रतिगमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है परंतु उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते हैं अर्थात् ऐसे जीव संज्ञी जीव की तरह विचार या तर्क नहीं कर पाते हैं।
‘संज्ञी’ और ‘असंज्ञी’ की इस चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वस्तुत: मन भी जीव की इन्द्रिय ही है परन्तु यह बाह्य नहीं आंतरिक इन्द्रिय है एवं आंतरिक संवेदनाओं यथा-सुख, दुःख जैसे मनोभावों को ग्रहण करता है। ‘आधुनिक विज्ञान में भी अंतरिन्द्रिय की परिकल्पना की गई है और यही भूख-प्यास, सुख-दुःख जैसी अनुभूतियों को ग्रहण करता है। मन बाह्य इन्द्रियों पर भी नियंत्रण रखता है तथा जब हमारे विरुद्ध कुछ घटित होता है तो हम तुरंत आक्रामक या गतिशील हो उठते हैं। जैन दार्शनिकों ने इन सबका कारण मन का सक्रिय होना माना है।
परन्तु वैज्ञानिकों ने जैनदर्शन में प्रतिपादित मन की अवधारणा को तंत्रिका तंत्र से जोड़ा है और यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि जीव के समस्त क्रिया कलाप जो एक नियम से संचालित होते हैं वह वस्तुत: तंत्रिका तंत्र के कारण ही होता है। तंत्रिका तंत्र के मुख्य भाग मस्तिष्क, रीढ़-रज्जु तथा विभिन्न तरह की तंत्रिकाएँ (Nerves fibre) हैं। जब भी संवेदनाएँ हमारे ऊपर प्रभाव डालती हैं, तंत्रिकाएँ उन संवेदनाओं को ग्रहण करती हैं और तुरंत मस्तिष्क के पास पहुँचाती हैं। मस्तिष्क इस संदेश को प्रभावी अंगों तक पहुँचाने वाली तंत्रिका को प्रेरणा के माध्यम से भेजता है और वह अंग उस संवेदना को ग्रहण कर लेता है। हमारे ऊपर जब किसी तरह का आक्रमण होता है तो हम अनायास ही इस आक्रमण का प्रतिकार कर उठते हैं। इसका मुख्य कारण रीढ़-रज्जु है और वैज्ञानिकों ने रीढ़-रज्जु की तथा जीव की इस क्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया (Reflexaction) का नाम दिया है अत: मन: पर्याप्ति के बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि यह आधुनिक विज्ञान के तंत्रिका संदेश तंत्र का ही दूसरा नाम है।