आत्माओं के कर्म चेतनाकृत होते हैं, अचेतनाकृत नहीं। कर्म चिन्वन्ति स्ववशा:, तस्योदये तु परवशा भवन्ति। वृक्षमारोहति स्ववश:, विगलति स परवश: तत:।।
जीव कर्मों का बंध करने में स्वतंत्र है पर उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कर्मवशा: खलु जीवा:, जीववशानि कुत्रचित् कर्माणि। कुत्रचित् धनिक: बलवान् , धारणिक: कुत्रचित् बलवान्।।
कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। वैसे कहीं (ऋण देते समय तो) धनी बलवान् होता है तो कहीं (ऋण लौटाते समय) कर्जदार बलवान होता है। य इन्द्रियादिविजयी, भूत्वोपयोगमात्मवंâ ध्यायति। कर्मभि: स न रज्यते, कस्मात् तं प्राणा अनुचरन्ति।।
जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञानदर्शनमय) आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों से नहीं बंधता। अत: पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण केसे कर सकते हैं ? (अर्थात् उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता।) कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।।
अशुभ कर्म बुरा (कुशील) और शुभ कार्य अच्छा (सुशील) है, यह साधारणजन मानते हैं किन्तु वस्तुत: जो कर्म प्राणी को संसार में परिभ्रमण कराता है, वह अच्छा वैâसे हो सकता है, अर्थात् शुभ या अशुभ, सभी कर्म अन्तत: हेय ही हैं। कर्मत्वप्रायोग्या:, स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य। गच्छन्ति कर्मभावं, न हि ते जीवेन परिणमिता:।।
कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि (भावों) का निमित्त पाकर स्वयं ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जीव स्वयं उन्हें (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित नहीं करता। जह कोई इयरपुरिसो, रंधेऊणं सयं च तं भुंजे। तह जीवो वि सयं चिय, काउं कम्मं सयं भुंजे।।
जिस तरह कोई व्यक्ति रसोई बनाकर स्वयं उस रसोई को खाता है, वैसे ही जीव स्वय कर्म कर उसका उपभोग करते हैं। जह देहम्मि सिणिद्धे लग्गइ रेणू अलक्खिओ चेय। रायद्दोससिणिद्धे जीवे कम्मं तहच्चेव।।
जिस तरह स्निग्ध देह पर लगी रज दिखाई नहीं देती, वैसे ही रागद्वेष से स्निग्ध जीव पर लगे कर्म दिखाई नहीं देते। कम्मेहिं दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं। कम्मेहिं सुवाविज्जादि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।।
(जीव) को कर्म अज्ञानी बनाते हैं और ज्ञानी भी कर्म ही बनाते हैं। कर्म उसे सुलाते हैं और जगाते भी कर्म ही हैं। सौवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं।।
बंधन सोने का हो या लोहे का, पुरुष को जिस प्रकार बांधकर ही रखता है, उसी प्रकार कर्म अशुभ हो या शुभ, प्राणी को संसार के बंधन में ही रखा करता है। कम्मं पुण्णं पावं, हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा। मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया असच्छा हु।।
कर्म के दो रूप होते हैं—पुण्य और पाप। पुण्य कर्म स्वच्छ भाव से र्अिजत होता है और पाप कर्म अस्वच्छ अथवा अशुभ भाव से बंधता है। शुभ भाव मंद कषाय वाले जीवों का हुआ करता है और अशुभ भाव तीव्र कषाय वाले जीवों को होता है।