कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं।
इसके दो भेद हैं— पुण्यास्रव और पापास्रव।
अर्हंत भक्ति, जीवदया आदि क्रियारूप शुद्धयोग से पुण्यास्रव और जीविंहसा झूठ आदि क्रियारूप अशुभयोग से पापास्रव होता है।
ज्ञानावरण कर्म के आस्रवके कारण—ज्ञानी से ईष्र्या करना, ज्ञान के साधनों में विघ्न डालना, अपने ज्ञान को छिपाना, दूसरोें को नहीं बताना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादि कार्यों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
दर्शनावरण कर्म केआस्रवके कारण—जिनेन्द्र भगवान के दर्शनों में विघ्न डालना, किसी की आंख फोड़ना, दिन में सोना, मुनियों को देखकर ग्लानि करना, अपनी दृष्टि का गर्व करना इत्यादि से दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है।
वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण—अपने को अथवा दूसरे को दु:ख उत्पन्न करना, शोक करना, रोना, विलाप करना, जीववध करना इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय का आस्रव होता है। इससे विपरीत जीवदया करना, दान करना, संयम पालना, वात्सल्य करना, वैयावृत्ति करना आदि कार्यों से साता वेदनीय का आस्रव होता है।
मोहनीय कर्म के आस्रवके कारण—सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म में दोष लगाना आदि से दर्शन मोहनीयका आस्रव होता है। कषाय की तीव्रता रखना, चारित्र में दोष लगाना, मलिन भाव करना, आदि से चारित्र मोहनीय का आस्रव होता है।
आयुकर्म के आस्रव के कारण—बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव होता है। मायाचारी से तिर्यंचायु, थोड़ा आरम्भ तथा थोड़े परिग्रह से मनुष्यायु और सम्यक्त्व, व्रतपालन, देशसंयम, बालतप आदि से देवायु का आस्रव होता है।
नामकर्म के आस्रव के कारण—मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडश कारण भावना आदि से शुभ नाम कर्म का आस्रव होता है। इससे उल्टे कुटिल भाव, झगड़ा, कलह आदि से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
गोत्र कर्म के आस्रवके कारण—दूसरे की िंनदा और अपनी प्रशंसा करना, दूसरे के गुणों को ढकना और अपने झूठे गुणों का बखान करना, मद करना आदि से नीच गोत्र का आस्रव होता है। दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी िंनदा करना, दूसरे के दोषों को ढकना, अपने दोषों को प्रगट करना, गुरुओं के प्रति नम्र प्रवृत्ति रखना, विनय करना आदि से उच्च गोत्र का आस्रव होता है।
अंतराय कर्म के आस्रवके कारण—दान देने वाले को रोक देना, आश्रितों को धर्म साधन नहीं करने देना, मंदिर के द्रव्य को हड़प जाना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से अंतराय का आस्रव होता है।
इन कारणों से आये हुए कर्म पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ एकमेक हो जाते हैं उसी का नाम बंध है। इसलिए ये सभी कारण कर्मबंध के भी कारण हो जाते हैं। तीव्र, मंद आदि भावों से होने वाला आस्रव योग और कषाय आदि के निमित्त से १०८ भेदरूप भी माना गया है। समरंभ, समारंभ, आरंभ तीन, मन, वचन, काय ये तीन, कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय। इनका परस्पर गुणा करने से १०८ भेद हो जाते हैं।
जैसे—समरंभ आदि तीनों में मन आदि तीन का गुणा करने से ९, पुन: कृत आदि तीन से गुणा करने से ९²३·२७ पुन: चार कषाय से गुणने से २७²४·१०८ भेद हो जाते हैं। इनके निमित्त से जीव कर्मों का संचय करता रहता है।
समरंभ —हिसादि करने का प्रयत्न या संकल्प।
समारंभ—हिसादि करने के साधन जुटाना।
आरम्भ—हिसादि पाप शुरू कर देना।
कृत—स्वयं करना।
कारित—दूसरे से कराना।
अनुमोदना—करते हुये दूसरों को अनुमति देना।
बाकी के अर्थ स्पष्ट हैं।
बंध के कारण—मिथ्यादर्शन-१, अविरति-१२, प्रमाद-१५, कषाय-२५ और योग-१५, ये सब कर्म बंध के कारण हैं।