प्रश्न १. कर्म किसे कहते हैं कर्म के मूल भेद कितने हैं ?
उत्तर—जो जीव को परतंत्र करता है अथवा जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। कर्म के मूलत: दो भेद हैं— १. द्रव्यकर्म — ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म द्रव्यकर्म कहलाते हैं। २. भावकर्म — राग—व्देषादि विकारी भाव भावकर्म कहलाते हैं। प्रश्न २. द्रव्यकर्म के आठ भेद और उनके कार्य क्या हैं ? उत्तर—द्रव्यकर्म के आठ भेद निम्न हैं— १. ज्ञानावरण कर्म — जो आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट नहीं होने देता, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जैसे—देवप्रतिमा के मुख पर ढका हुआ वस्त्र देव प्रतिमा के दर्शन नहीं होने देता। २. दर्शनावरण कर्म — जो आत्मा के दर्शन गुण को प्रकट नहीं होने देता, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जैसे—द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं होने देता। ३. वेदनीय कर्म — जो सुख—दु:ख का वेदन (अनुभव) कराता है, वह वेदनीय कर्म है। जैसे—मधुलिप्त तलवार। ४. मोहनीय कर्म — जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जैसे—मदिरा मध्यपायी के विवेक को नष्ट कर देती है। ५. आयुकर्म — जो जीव को मनुष्यादि के शरीर में रोककर रखता है। वह आयुकर्म है। जैसे—पैर में लगी हुई बेड़ियाँ। ६. नामकर्म — जो अनेक प्रकार के शरीर की रचना करता है, वह नामकर्म है। जैसे—चित्रकार (पेन्टर) अनेक प्रकार के चित्र बनाता है। ७. गोत्रकर्म — जो जीव को उच्चकुल अथवा नीचकुल में उत्पन्न कराता है, वह गोत्रकर्म है। जैसे—कुम्भकार छोटे—बड़े घड़े तैयार करता है। ८. अन्तरायकर्म — जो दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य में बाधा डालता है, वह अन्तराय कर्म है। जैसे—भण्डारी (मुनीम) राजा की आज्ञा होने पर भी अर्थ (धनादि) देने में बाधा डालता है।
प्रश्न ३.घातिया कर्म किसे कहते हैं और कितने होते हैं ? उत्तर—जो आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करते हैं, वे घातिया कर्म कहलातो हैं। घातियाकर्म चार होते हैं—१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अंतराय।
प्रश्न ४. अघातियाकर्म किसे कहते हैं। और कितने होते हैं ?
उत्तर—जो आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात नहीं करते हैं किन्तु संसार में रोके रखते हैं, वे अघातिया कर्म कहलाते हैं। अघातिया कर्म चार हैं— १. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र।
प्रश्न ५. ज्ञानावरण—दर्शनावरण कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ? उत्तर—१. ज्ञानी की निंंदा करना एवं उसके अवगुण निकालना। २. शिक्षागुरु का नाम छिपाना। ३. ज्ञान के साधनों का दुरुपयोग करना। ४. ज्ञान के प्रचार—प्रसार में बाधा डालना। ५. आजीविका हेतु ज्ञान के उपकरणों का विक्रय करना। प्रश्न ६. वेदनीय कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ? उत्तर—१. सभी प्राणियों पर दया भाव रखना। २. व्रतियों की सेवा करना, दान देना। ३. कषायों का उपशम एवं शांत भाव रखना। उपरोक्त कारणों से सातावेदनीय का बंध एवं इससे विपरीत कार्यों से असातावेदनीय का बंध होता है।
प्रश्न ७. मोहनीय कर्मबन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. केवली भगवान, श्रुत, संघ, धर्म आदि में झूठे दोष लगाने से दर्शनमोहनीय का बंध होता है। २. कषायों की तीव्रता से, चारित्र लेने से रोकने में, चारित्र से भ्रष्ट करने से चारित्रमोहनीय कर्म का बंध होता है। प्रश्न ८. आयुकर्मबन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. नरकायु — बहुत आरम्भ—परिग्रह रखने से, विषयासक्ति एवं क्रूर परिणामों से नरकायु का बंध होता है।
२. तिर्यञ्चायु — मायाचार, छलकपट, विश्वासघात करने से तिर्यञ्चायु का बंध होता है।
३. मनुष्यायु — अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, मृदुस्वभाव, संतोषवृत्ति से मनुष्यायु का बंध होता है।
४. देवायु — संयम, तपश्चरण करने से, कषाय मंद करने से, दान देने से, अकामनिर्जरा एवं बालतप करने से देवायु का बंध होता है।
प्रश्न ९. नामकर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—मन, वचन, काय की कुटिलता, चित्त की अस्थिरता आदि से अशुभनामकर्म का बन्ध होता है। २. मन, वचन, काय की सरलता, चित्त की स्थिरता आदि से शुभनाम कर्म का बन्ध होता है। प्रश्न १०. गोत्रकर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के गुणों का ढकना, अरिहंत आदि में भक्ति न होने से अशुभ गोत्र कर्म का बन्ध होता है। २. अपनी निन्दा, पर प्रशंसा, अपने गुणों को ढकना, दूसरों के दोषों को ढकना, अरहंत आदि में भक्ति करने से शुभ गोत्रकर्म का बन्ध होता है।
प्रश्न ११. अन्तराय कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—दानादि कार्यों के बाधा डालने से, शुभ क्रियाओं का निषेध करने से, निर्माल्य द्रव्य का सेवन करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।
प्रश्न १२. कर्म की विविध अवस्थाएं कितने प्रकार की होती हैं ?
उत्तर—कर्म की विविध अवस्थाएं दस प्रकार की होती हैं। १. बंध — कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ मिलना बंध है। २. उदय — द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कर्मों का फल देना उदय है। ३. सत्त्व —कर्मबंध के बाद और फल देने के पूर्व की स्थिति को सत्त्व कहते हैं। ४. उदीरणा — नियम समय से पहले कर्म का उदय में आ जाना उदीरणा है। ५.उत्कर्षण — पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना उत्कर्षण है। ६. अपकर्षण — पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में हानि होना अपकर्षण है। ७. संक्रमण — जिस किसी प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृति के रूप में परिणमन हो जाना संक्रमण कहलाता है। ८. उपशम — उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना अथवा काल विशेष के लिए उन्हें फल देने में अक्षम बना देना उपशम है। ९.निधत्ति — कर्म की जिस अवस्था में उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव हो उसे निधत्ति कहते हैं।