कल्पना
कल्पना की उपयोगिता असीम है। जो हम कल्पना करते हैं वही कल्पना हमारी प्रेरणा बनती है और उसके आधार पर ही हम प्रयास कर उसको साकार बनाते हैं। कल्पना मानव मस्तिष्क की सृजनशीलता की पहली कड़ी है। कोई भी विचार, सिद्धांत, आविष्कार चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, विज्ञान एवं तकनीकी, शिक्षा, मूल्य, दर्शन किसी से भी जुड़ा हो, वास्तविकता में आने से पूर्व व्यक्ति की कल्पना का हिस्सा होते हैं। तत्पश्चाप विभिन्न प्रयासों के द्वारा इन्हें मूर्त रूप दिया जाता है। कल्पना को आकार देने में एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है। कल्पना जब क्रियान्वित हो जाती है, आकार ले लेती है तभी कोई नई खोज
या नया तथ्य संसार के समक्ष प्रकट होता है। वस्तुतः, कल्पना वह देख सकती है, जो आंखें नहीं देख सकतीं। वह सुन सकती है, जो कान नहीं सुन सकते। वह अनुभूति कर सकती है, जो हृदय नहीं महसूस कर सकता। जिन लोगों ने भी महान उपलब्धियां हासिल की हैं, वे बड़ी-बड़ी कल्पना अथवा सपने देखने वाले रहे हैं। विचार और कल्पना हमारे वास्तविक जीवन का तीन-चौथाई से अधिक हिस्सा होते हैं। कल्पना ऐसी चीजों को जन्म देती है, जिन्हें देखकर, सुनकर और महसूस करके आश्चर्य होता है। ज्ञान रहित कल्पना ऐसे ही है जैसे पंख तो हैं, लेकिन पांव नहीं। सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति की कल्पना उसे और समाज को सुख देती हैं और नकारात्मक विचार वाले व्यक्ति
की कल्पना उसे और समाज को पीड़ा देती है। कल्पना ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञान उतनी सीमा में आबद्ध है जितना हम जानते और समझते हैं। जबकि कल्पना दुनिया को समेटे हुए है। लोग इस जीवन के बाद स्वर्ग की कल्पना करते हैं, जो उन्हें सुख की अनुभूति कराता है और बुरे कर्म करने से रोकता हैं। शिल्पकार पहले पत्थर में छिपी किसी आकार की कल्पना ही करता है तभी उसे साकार रूप देकर देवता की प्रतिमा में रूपांतरित करता है।