जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव हैं। इनका उल्लेख वेदों में भी प्राप्त होता है तो भी जैन धर्म हिन्दु धर्म से अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण पृथक्््â है और है अति प्राचीन। जैनधर्म की अपनी सबसे बड़ी विशेषता है समन्वयात्मक (अनेकान्तात्मक) मार्ग का निर्देश करना। प्रस्तुत ‘कल्याणकारक’ चिकित्साग्रंथ भी इसी सारिणी का अनुसरण करता है। ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर वर्धमान तक चिकित्सा की जैन वैद्यक परम्परा रही है, किन्तु इस कालखण्ड का कोई प्रामाणिक साहित्य प्राप्त नहीं होता है। तदुपरान्त का जो जैन साहित्य मिलता है उसमें चिकित्साग्रंथ विरल मिलते हैं।
जैन वैद्यक परम्परा आयुर्वेद से विचारधारा में बहुत अधिक भिन्न नहीं है, तथापि अपनी धार्मिक पृष्ठभूमि के कारण कुछ भिन्न सी प्रतीत होती है। जैन वैद्यक विचारकों ने वाग्भट्ट के समान चरकसुश्रुत आदि के विचारों को समुचित आदर प्रदान किया है और वाग्भट्ट को बौद्ध वैद्यक परम्परा का अनुगामी माना है। ठीक इसी प्रकार कल्याणकारक के रचयिता आचार्य उग्रादित्य ने किया है। यद्यपि उन्होंने ऐसा कहीं भी स्वीकार तो नहीं किया है, उन्होंने आयुर्वेदावतरण भिन्न प्रकार से माना है, तथापि जैन वैद्यक की परम्परा में बहुत से उपयोगी चिकित्साशास्त्र के सिद्धान्त हैं यह सिद्ध हो जाता है। कल्याणकारक के अध्ययन से ज्ञात होता है कि धर्म का दर्शन, विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र पर वैâसे प्रभाव होता है, यह ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तु है। अनेक विचार—धाराओं के मध्य में रहते हुए उनसे तालमेल रखते हुए अपना अस्तित्त्व बनाना महत्त्वपूर्ण है।
कल्याणकारक चिकित्साग्रंथ के रचयिता आचार्य उग्रादित्य थे। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि यह एक जैन आचार्य थे और राष्ट्रकूट वंशी राजा अमोघवर्ष प्रथम तथा चालुक्य वंशी राजा कालि—विष्णुवर्धन पंचम के काल में थे, जिनका समय ईस्वी की ९वीं शताब्दि है। उग्रादित्य के गुरु श्रीनन्दि थे जो ‘प्राणावाय विज्ञान’ के विद्वान थे उन्हीं से इन्होंने आयुर्वेद का ज्ञान ग्रहण किया था। कल्याणकारक में अनेकों आचार्यों के नामों का उल्लेख मिलता है जो जैन वैद्यक परम्परा में हैं, उन्होंने अलग—अलग चिकित्सा की शाखाओं पर ग्रंथ लिखे हैं।
महर्षि पूज्यपाद शलाक्य तंत्र (Diseases of Eye, Nose & Throat)
पात्र केसरी स्वामी शल्य तंत्र (Surgery)
सिद्धसेन भगवान अगद तंत्र एवं भूत विद्या (Toxicology)
दशरथ मुनीश्वर काय चिकित्सा (Medicine)
मेघनादाचार्य कौमार भृत्य (Children diseases)
सिंहनाद मुनीन्द्र वाजीकरण और रसायन तंत्र
समन्तभद्राचार्य ने अष्टांग आयुर्वेद पर विस्तार से ग्रंथ रचना की है। कल्याणकारक में उन्हीं का संक्षिप्त सार प्रस्तुत किया गया है। इनमें से उग्रादित्याचार्य के कल्याणकारक वैद्यकग्रंथ के अतिरिक्त कोई भी प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध नहीं है।
जैनधर्म के जीव एवं सृष्टि के सम्बन्ध में अपने मौलिक विचार हैं जिनकी संक्षिप्त चर्चा उग्रादित्य ने अपने ग्रंथ में की है। कर्म से जीव का जन्म तथा व्याधि की उत्पत्ति होती है। अन्य कारण जिनसे व्याधि उत्पन्न होती है गौण माने हैं जिनमें दोष तथा अभिघात हेतु होता है। रोगों की उत्पत्ति के लिए शरीर के विकृत दोष उत्तरदायी हैं। महारोगों में वे शीघ्र प्रभाव प्रदर्शित करते हैं। जबकि अन्य रोगों में मन्दगति से अपना प्रभाव दिखाते हैं, इसका कारण स्वभाव तथा कर्म माना है।
प्रकुपित दोष शरीर में प्रसरित होते हैं, उनके अनेक प्रकार हैं। १५ प्रकारों का वर्णन कल्याणकारक में किया गया है, जिसके अनुसार तीन दोष तथा रक्त मिलकर इस प्रकार के भेद बनते हैं। यह एक आयुर्वेद सम्मत सिद्धान्त है। तीन दोष के सिद्धान्त को मान्य करता हुआ लेखक रक्त को भी दोष की श्रेणी में लाने का प्रयत्न करता है। रोग की चिकित्सा कर्म की उपशान्ति है। उपाय या चिकित्सा की सहायता से रोग के शमन का काल आने पर रोगोपशमन होता है। ऐसा विचार आचार्य उग्रादित्य ने प्रतिपादित किया है। इसी प्रकार चिकित्सा क्रम में रोगी की चिकित्सा करते समय ज्योतिष के अनुसार ग्रह, स्वप्न तथा दोषों की स्थिति का विचार किया है। दोषों के बिना रोगात्पत्ति सम्भव नहीं है जहाँ रोग विशेष का नाम नहीं है वहाँ दोषों के अनुसार विचार करना चाहिए यह विचार आचार्य चरक के अनुसार है—
विकारणामकुशलो न जिह्वीयान् कदाचन।
न हि सर्वविकाराणां नामतोस्ति ध्रुवा स्थिति:।।
धार्मिक तथा आत्मिक दृष्टि से अिंहसा एक प्रधान तत्त्व है। जिसे आयुर्वेद में भी स्थान दिया गया है। इसी कारण से मांसाहार का निषेध जैनवैद्यक में किया गया है, अन्यथा नैतिक विरोध उत्पन्न हो जाता। जैनों ने मांसाहार को कभी भी किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया है। जैन वैद्यक में उसका पूर्ण पालन किया गया है। उसी प्रकार मधु का प्रयोग भी वर्जित माना है, मधु में असंख्य जीवों का आश्रय होता है। अत: मांस के तुल्य ही इसे चिकित्सा में स्थान नहीं दिया है। शल्य में अनेक कर्मों का सीमित एवं आवश्यक विधान बताया है।
जैनधर्म के अनुसार मद्य के प्रयोग को सर्वथा निषिद्ध माना है। अत: मद्यपान का चिकित्सा कार्य में कहीं प्रयोग नहीं बताया है। आयुर्वेद चिकित्सा में प्रयोग किये जाने वाले आसव, अरिष्ट को भी निषिद्ध माना है। मद्य, मांस व मधु का त्यागी ही जैनी होता है। जैन मतानुयायी के इस गुण को आचार्य उग्रादित्य ने चिकित्सा में सुरक्षित रखा है। गम्भीरता से विचार करने पर मद्य, मांस एवं मधु के दुर्गुणों का ज्ञान होगा। जैनदर्शन एवं तत्त्वज्ञान का अध्ययन इसके लिए अत्यावश्यक है, अन्यथा इसका ज्ञान व अनुभूति दोनों असम्भव हैं।
अहिंसा के इस सूक्ष्म विचार को कुछ लोग शल्य चिकित्सा के विकास में बाधक मानते हैं, किन्तु शरीर रचना, शरीर क्रिया एवं शल्य विषय ग्रंथ लेखन इस बात का द्योतक है कि जैनधर्म की अहिंसा शल्य चिकित्सा के विकास में अवरोधक नहीं रही है। विज्ञान के नाम पर अनावश्यक प्राणि िंहसा का निषेध ही किया है।
मद्य, मांस व मधु के द्रव्य गुणात्मक विचार को ध्यान में रखते हुए इन द्रव्यों के प्रतिनिधि द्रव्यों का स्थान—स्थान पर प्रयोग बताया है। मद्य के स्थान पर पुष्पों का रस, मांस के स्थान पर विभिन्न द्विदल धान्य, मधु के स्थान पर गुड़ का प्रयोग लिखा है, जो आचार्य उग्रादित्य की वैज्ञानिक मीमांसा का अच्छा उदाहरण है। इस प्रकार प्राचीन वेदानुयायी आयुर्वेद के समस्त विचारों को आत्मसात करते हुए समन्वय की दृष्टि कल्याणकारक में अपनाई गई है। त्रिसूत्र आयुर्वेद—हेतु, िंलग, औषध का पूर्ण विचार कल्याणकारक में किया है। औषध के लिए उग्रादित्य ने प्रशस्त औषध के प्रयोग के लिए ऐसा कहा है।
१. जो ज्ञान व चिकित्सा में व्यवहृत होती हो।
२. अल्प मात्रा में प्रयोग कर सकें।
३. गन्ध, वर्ण, स्वाद में प्रिय हों।
४. शुद्ध हो, जिससे किसी प्रकार के व्यापद (Complications)
५. शीघ्र प्रभावकारी हों।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी आज द्रव्य (Drug) के सम्बन्ध में यही विचार मानता है। औषधि के सभी विचार—आयुर्वेद के साथ पूर्ण सम्मत हैं। द्रव्य के कार्य को (The mode of action of the drug) १५ प्रकार से वर्गीकृत किया है जिसे ‘भेषजकर्म’ कहा है। यह सरल तथा सुगम वर्गीकरण है जो सामान्य चिकित्सक के लिए उपयोगी है।
(१) संशमन (२) अग्निपरीक्षा (३) रसायन (४) वृंहण (५) लेखन (६) संग्रहण (७) वृष्य (८) शोषकरण (९) विलयन (१०) अध:शोधन (११) ऊर्ध्वशोधन (१२) उभय भाग शोधन (१३) विरेचन (१४) विष (१५) विषौवध।
इस प्रकार औषधि कर्मों का वर्गीकरण अतिवैज्ञानिक व आयुर्वेद में विकास का द्योतक है। कुछ औषधियों के स्वरस का प्रयोग मंत्रोपचार के साथ किया है। मसूरिका (एस्aत्त् र्झ्दे) में वनौषधियों से निर्मित पंखे की हवा का सेवन बताया है। इसी प्रकार विषों की चिकित्सा का विशेष वर्णन किया है, जिसे ‘अगदतंत्र’ कहा जाता है। औषधि के अन्य प्रयोगों का वर्णन आयुर्वेद सम्मत है जैसे—अञ्जन, कर्णपूरण, नस्य, वर्तिकवल आदि। प्रमेह की चिकित्सा के उपक्रम चरक, सुश्रुत की अपेक्षा विशेषता युक्त हैं। प्रमेह की चिकित्सा में विभिन्न प्राणियों के मल (ऊप र्Eेम्rाूा दf ूप aहग्स्aत्े) का उपयोग बताया है। यह अनुसंधान का विषय है।
पारद का उपयोग—
कल्याणाकरक में संक्षिप्तरूप से पारद तथा उसके संस्कारों का वर्णन है। पारद से स्वर्ण निर्माण का कथन है। अनेक पारद योगों का शक्तिवर्द्धक योगों के रूप में वर्णन है।
शृंगार प्रसाधन—
कल्याणकारक में पालित नाशन, केश कृष्णीकरण, मुखकान्ति वर्द्धक शृंगार प्रसाधन योगों का वर्णन है।
विमर्श—
आयुर्वेद में जैन वैद्यक परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह प्रायोगिक तथा सैद्धान्तिक दोनों प्रकार का है। मद्य, मांस, मधु के निषेध के साथ उनका उचित पूरक बताया है। वात, पित्त, कफ, वात की सहायता से अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। इस प्रकार सामान्य चिकित्सक के सरल प्रयोग परक चिकित्सा ग्रंथ कल्याणकारक है। रोगों का वर्गीकरण दोषानुसार कर चिकित्सक का महान उपकार किया है। इस प्रकार कल्याणकारक एक मौलिक वैज्ञानिक जैन वैद्यक परम्परा का ग्रंथ है।
आयुर्वेद एक शाश्वत जीवन विज्ञान है। जीवन के प्रत्येक क्षण की प्रत्येक स्थिति आयुर्वेदीय सिद्धान्तों में सन्निहित है। आयुर्वेद मानव जीवन से पृथक््â कोई भिन्न वस्तु या विषय नहीं है, अपितु दोनों में अत्यधिक निकटता और कहीं—कहीं तो तादात्म्य भाव है। सामान्यत: मनुष्य के जीवन की आद्यन्त प्रतिक्षण चलने वाली शृंखला ही आयु है, वह आयु ही जीवन है, उस आयु (जीवन) का वेद (ज्ञानी) ही आयुर्वेद है; अत: आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवन—विज्ञान है। यह आयुर्वेद अनादिकाल से इस भूमण्डल पर प्रवर्तमान है। जब सृष्टि का आरम्भ और मानव जाति का विकास इस भूमण्डल पर हुआ है तब ही से उसके जीवन के अनुरक्षण, स्वास्थ्य—रक्षा हेतु नियमों का उपदेश और रोगोपचार हेतु विविध उपायों का निर्देश करने के लिए यह आयुर्वेदशास्त्र सतत प्रवर्तित रह रहा है। इसकी नवीन उत्पत्ति नहीं होती है, अपितु अभिव्यक्ति होती है। अत: यह अनादि है। इसका विनाश नहीं होता है, अपितु कुछ काल के लिए तिरोभाव है। अत: यह अनन्त है। अनाद्यनन्त होने से यह शाश्वत है।
आयुर्वेद में प्रतिपादित सिद्धान्त इतने सामान्य, व्यापक, जनजीवनोपयोगी एवं सर्वसाधारण के हितकारी हैं कि सरलता पूर्वक उन्हें अमल में लाकर यथा शीघ्र आरोग्य लाभ किया जा सकता है। आयुर्वेद शास्त्र केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए भी हितावह है। इसमें प्रतिपादित सिद्धान्त चिकित्सा के अतिरिक्त ऐसे नियमों का प्रतिपादन करते हैं जो मनुष्य के आध्यात्मिक, आचरण, मानसिक प्रवृत्ति, और बौद्धिक जगत् के क्रिया कलापों को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं। अत: यह केवल चिकित्सा शास्त्र ही नहीं है, अपितु शरीर विज्ञान, मानव विज्ञान, मनोविज्ञान, तत्त्व विज्ञान, दर्शनशास्त्र, आचार शास्त्र एवं धर्मशास्त्र का एक ऐसा अद्भुत समन्वित रूप है जो सम्पूर्ण जीवन के अन्यान्य पक्षों को व्याप्त कर लेता है। अत: नि:सन्देह यह एक सम्पूर्ण जीवन विज्ञान है।
वर्तमान में उपलब्ध वैदिक आयुर्वेद साहित्य के अनुसार भारतीय संस्कृति के आद्यस्रोत वेद और उपनिषद के बीच ही आयुर्वेद में प्रसार को प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि आयुर्वेद शास्त्र केवल भौतिक तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है, अपितु आध्यात्मिक तत्त्वों के विश्लेषण में भी अपनी मौलिक विशेषता रखता है। इसके अतिरिक्त समकालीन होने के कारण दर्शन शास्त्र एवं धर्मशास्त्र ने भी आयुर्वेद के अध्यात्म सम्बन्धी कतिपय सिद्धान्तों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। यही कारण है कि आयुर्वेद का अध्यात्म पक्ष भी उतना ही सबल एवं परिपुष्ट है जितना उसका भौतिकतत्त्व विश्लेषण सम्बन्धी पक्ष है। इसी का परिणाम है कि भारतीय संस्कृति के विकास में जहाँ धर्म—दर्शन—नीति शास्त्र—आचरणशास्त्र—व्याकरण—साहित्य—संगीत—कला आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है वहाँ आयुर्वेद शास्त्र ने भी अपनी जीवन पद्धति तथा शरीर, मन और बुद्धि को आरोग्य प्रदान करने वाले विशिष्ट सिद्धान्तों के द्वारा उसके स्वरूप को स्वस्थ और सुन्दर रखने के लिए अपनी विचारधारा से सतत आप्यायित किया है।
इस सन्दर्भ में यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि चाहे अभ्युदय प्राप्त करना हो या नि:श्रुयस्, दोनों की प्राप्ति के लिए मानव शरीर की स्वस्थता नितान्त अपेक्षित है। स्वस्थ शरीर ही समस्त भोगोपभोग अथवा मन: शान्तिकारक या आत्म—अभ्युन्नति कारक देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, त्याग, दान आदि धार्मिक क्रियाएँ करने में समर्थ है। विकार ग्रस्त अथवा अस्वस्थ शरीर न तो भौतिक विषयों का उपभोग कर सकता है और न ही धर्म का साधन। इसीलिए चतुर्विध पुरुषार्थ का मूल आरोग्य निरूपित किया गया है—‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्।’ शरीर को आरोग्य प्रदान करने और विकार ग्रस्त शरीर की विकाराभिनिवृत्ति करने में एक मात्र आयुर्वेद ही समर्थ है। अत: आयुर्वेद को भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग माना गया है। भारतीय संस्कृति में जो स्थान धर्म—दर्शन आदि का है वही स्थान आयुर्वेद का भी है।
आयुर्वेद शास्त्र की यह एक मौलिक विशेषता है कि इसमें मनुष्य की शारीरिक स्थिति के साथ—साथ उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक स्थिति के विषय में भी पर्याप्त गम्भीर विचार किया गया है। शरीर के साथ साथ प्राण तत्त्व का विवेचन, आत्मा और मन के विषय में स्वतन्त्र दृष्टिकोण तथा शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास क्रम का यथोचित वर्णन आयुर्वेद की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता के सबल प्रमाण हैं। उसकी वैद्यक विद्या अपनी पृथक््â पद्धति एवं चिकित्सा सम्बन्धी व्यापकता के कारण विशिष्ट महत्त्वपूर्ण है। पोषण सम्बन्धी तत्त्वों एवं रासायनिक पदार्थों का उसमें विशिष्ट रूप से विभक्तीकरण किया गया है जो पूर्णत: मात्रा और गुण पर आधारित है। विशिष्ट विधिपूर्वक निर्मित रस—रसायन—पिष्टी—भस्म—चूर्ण—वटी—लेप—घृतपाक—तैलपाक—अवलेह–मोदक आदि कल्पनाएँ और समस्त वनौषधियों के प्रयोग ने इस विज्ञान को निश्चय ही मौलिक स्वरूप प्रदान किया है। अपनी सरलता और रोगमुक्त करने की क्षमता के कारण आयुर्वेद की अनेक प्रक्रियाओं ने ग्रामीण जन जीवन में इतनी आसानी से प्रवेश पा लिया कि आज भी गांवों में किसी के व्याधित या रोग पीड़ित हो जाने पर विभिन्न काढ़ों (क्वाथ), लेपों आदि के द्वारा ग्रामीण जन उपचार करते देखे जाते हैं। इसका मूल कारण यही है कि आयुर्वेद मानव जीवन के अत्यधिक सन्निकट है।
आयुर्वेद द्वारा प्रतिपादित रोग निदान और चिकित्सा सम्बन्धी सिद्धान्तों में रोगी के अन्तरिम प्राण बल के अन्वेषण पर भी बल दिया गया है। रोग के मूल कारण को मिथ्या आहार—विहार जनित बतला कर जिस प्रकार संयम द्वारा आहारगत पथ्य के नियम बनाए गए हैं वे अत्यन्त उत्कृष्ट एवं व्यावहारिक हैं। जो लोग एलौपथी, होमियोपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा आदि में विश्वास रखते हैं वे भी आज आहार के महत्त्व को समझने लगे हैं और रोग निवारण के लिए रोगी के चिकित्सा क्रम में संयम द्वारा विर्निमित आहारगत पथ्य क्रम को महत्त्व देने लगे हैं।
आयुर्वेद शास्त्र को जिस प्रकार वैदिक विचार धारा और वैदिक तत्त्वों ने प्रभावित किया है उसी प्रकार जैनधर्म और जैन विचार ने भी उसे पर्याप्त रूप से प्रभावित कर अपने अनेक सिद्धान्तों से अनुप्राणित किया है यही कारण है कि जैन वाङ्मय में भी आयुर्वेद शास्त्र का स्वतन्त्र स्थान है। अन्य विषयों या अन्य शास्त्रों की भाँति वैद्यक शास्त्र की प्रामाणिकता भी जैन वाङ्मय में प्रतिपादित है। जैनागम में आयुर्वेद को भी आगम के अंगरूप में स्वीकार किया गया है। जैनागम में केवल उसी शास्त्र या विषय की प्रामाणिकता प्रतिपादित है जो सर्वज्ञ द्वारा कथित हो। सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय का कोई भी स्थान या महत्त्व नहीं है। सर्वज्ञ तीर्थंकर के मुख से जो दिव्य—ध्वनि खिरती है उसे श्रुतज्ञान के धारक गणधर अविकल रूप से ग्रहण करते हैं। गणधर द्वारा गृहीत वह दिव्यध्वनि (जो ज्ञानरूप होती है) उनके द्वारा आचारांग आदि बारह भेदों में विभक्त की गई। गणधर द्वारा निरूपित बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई है। इन द्वादशांगों में प्रथम ‘आचारांग’ है और बारहवां ‘दृष्टिवाद’ नाम का अंग है। उस बारहवें दृष्टिवादांग के पांच भेद हैं–परिकर्म, सूत्र; प्रथमानुयोग; पूर्वगत और चूलिका। इनमें जो ‘पूर्व’ या ‘पूर्वगत’ नामक भेद है उसके चौदह भेद हैं। उन चौदह भेदों में ‘प्राणावाय’ या ‘प्राणावाद’ नामक एक भेद है। इसी प्राणावाय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन अत्यन्त विस्तारपूर्वक किया गया है। जैन मतानुसार आयुर्वेद या वैद्यक शास्त्र का मूल द्वादशांग के अन्तर्गत यही ‘प्राणावाय’ नामक भेद है। इसी के अनुसार अथवा इसी के आधार पर जैनाचार्यों ने लोकोपयोगी वैद्यक शास्त्र की रचना की या आयुर्वेद प्रधान ग्रंथों का निर्माण किया। जैनाचार्यों ने ‘प्राणावाय’ की विवेचना इस प्रकार की है–‘‘कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद: भूतकर्मजांगुलिप्रक्रम: प्रणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम्।’’
अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तदगत दोष और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, पृथ्वी आदि पंच महाभूतों के कर्म, विषैले जीव जन्तुओं के विष का प्रभाव और उसकी चिकित्सा तथा प्राण—अपान वायु का विभाग जिसमें विस्तार पूर्वक वर्णित हो वह ‘प्राणावाय’ होता है।
द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणावाय पूर्व नामक अंग मूलत: अर्धमागधी भाषा में लिपिबद्ध है। इस प्राणावाय पूर्व के आधार ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन किया है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी प्राणावाय पूर्व के आधार पर ‘‘कल्याण कारक’’ नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की है। इसका उल्लेख आचार्य श्री ने स्थान पर किया हैं ग्रंथ के अन्त में वे लिखते हैं—
सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद् भाषापरिशेषोज्वलात्
प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपत:।
उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुगुणैरुद्भासि सौख्यास्पदं
शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयो:।
(कल्याणकारक, अ. २५ श्लो. ५४)
अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्धमागधी भाषा में जो प्राणावाय नामक महागम (महाशास्त्र) है उससे यथावत् संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रादित्य गुरु ने उत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में की। इन दोनों (प्राणावाय अंग और कल्याण कारक) में यही अन्तर है। याने प्राणावाय अंग अर्धमागधी भाषा में निबद्ध है और कल्याण कारक संस्कृत भाषा में रचित है बस दोनों में यही अंतर है।
जैनमतानुसार आयुर्वेद रूप सम्पूर्ण प्राणावाय के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हैं। इसके विपरीत वैदिक मतानुसार आयुर्वेद शास्त्र के आद्य प्रवर्तक या आद्युपदेष्टा ब्रह्मा हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना से पूर्व ही उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र की अभिव्यक्ति की जिस प्रकार बालक के जन्म के पूर्व ही माता के स्तनों में सतन्य (क्षीर) का आविर्भाव हो जाता है, किन्तु जैनमतानुसार यह सृष्टि अनादि और अनन्त है। अत: इसकी रचना का प्रश्न ही नहीं उठता। प्रथम और द्वितीय काल में यहाँ भोग भूमि को उत्कृष्ट दशा थी जिसमें सभी मनुष्यों में पारस्परिक सौहार्द भाव था। ईर्ष्या और द्वेष भाव से पूर्णत: रहित वे एक दूसरे को अत्यन्त स्नेह की दृष्टि से देखते थे। उनकी सभी अभिलाषाएँ कल्पवृक्षों से पूर्ण होती थीं, वे कल्पवृक्ष सभी प्रकार के मनोवांछित सुख के प्रदाता थे। अभिलषित सुख का उपभोग करने वाले भोगभूमि में उत्पन्न वे पुण्यात्मा मनुष्य यावज्जीवन उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सुखोपभोग कर अपने आयुकर्म के क्षय के अनन्तर स्वर्ग को प्राप्त होते थे। इस प्रकार भोगभूमि में मनुष्यों को किसी भी प्रकार कोई दु:ख नहीं था और न ही वे किसी व्याधि से पीड़ित होते थे।
भोगभूमि के पश्चात् इस क्षेत्र कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ। फिर भी उपपाद शय्या में उत्पन्न होने वाले देवगण, चरम व उत्तम शरीर को प्राप्त करने वाले पुण्यात्मा अपने पुण्य प्रभाव से विष—शस्त्रादि के द्वारा होने वाले अपघात् से सुरक्षित दीर्घायुषी शरीर को ही प्राप्त करते थे, किन्तु उस समय शनै:—शनै: कालक्रम से ऐसे मनुष्य भी उत्पन्न होने लगे जो विष शस्त्रादि द्वारा घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले होते थे। उन्हें वात—पित्त—कफ के उद्रेक से महाभय उत्पन्न होने लगा। ऐसी स्थिति में भरत चक्रवर्ती आदि भव्य जन भगवान ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचे जो अशोक वृक्ष, सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, चामर, रज्नजड़ित िंसहासन, भामण्डल और देव—दुन्दुभिरूप अष्ट महाप्रातिहार्य तथा बारह प्रकार की सभाओं से वेष्टित था। वहां पहुँच कर उन्होंने प्रभु से निम्न प्रकार निवेदन किया—
देव ! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ।
शीतातितापहिमवृष्टिनिपीडितानां कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम्।।
नानाविधामय भयादतिदु:खितानामाहारभेषजनिरुक्तिमजानतां न:।
तत्स्वास्थ्यरक्षणविधानमिहातुराणां का वा व्रिâया कथयतामथ लोकनाथ।।
—कल्याणकारक, अ. १/६-७
अर्थात् हे देव ! इस कर्मभूमि में अत्यधिक ठंड, गर्मी और वर्षा से पीड़ित तथा कालक्रम से मिथ्या आहार विहार के सेवन में तत्पर, व्याकुल बुद्धि वाले शरणागत हम लोगों के लिए आप ही शरण है। हे तीन लोक के स्वामिन्! अनेक प्रकार की व्याधियों के भय से अत्यन्त दु:खी तथा आहार औषधि के क्रम को नहीं जानने वाले हम व्याधितों (पीड़ितों) के लिए स्वास्थ्य रक्षा के उपाय और रोगों का नाश करने वाली क्रिया (चिकित्सा) बतलाने की कृपा करें।
इस प्रकार भगवान से निवेदन करने के पश्चात् वृषभसेन आदि प्रमुख गणधर और भरत चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष अपने अपने स्थान पर मौन होकर अवस्थित हो गए। तब उस महान् सभा रूप समवसरण में भगवान की उत्कृष्ट देवी (साक्षात् पट्टरानी) रूप सरस वाग्देवी दिव्य ध्वनि से युक्त प्रसारित हुई। उस दिव्यध्वनि रूप सरस्वती ने सर्वप्रथम पुरुष लक्षण, रोग लक्षण, औषधियाँ एवं सम्पूर्णकालरूप सकल वस्तु चतुष्टय का संक्षेपत: वर्णन किया जो सर्वज्ञत्व का सूचक है।
इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र का आविर्भाव आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के मुखारविन्द से नि:सृत दिव्यध्वनि के द्वारा हुआ। इससे स्पष्ट है कि आयुर्वेद शास्त्र के आद्युपदेष्टा भगवान ऋषभदेव हैं। उनसे उपदिष्ट आयुर्वेद की परम्परा किस प्रकार से प्रसार को प्राप्त हुई, इसका विवेचन श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारक में निम्न प्रकार से किया है—
दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजगे समस्तम्।
पश्चात् गणाधिप निरूपितवाक्प्रपंचमष्टार्ध निर्मलधियो मुनयोऽधिजग्मु:।।
एवं जिनान्तरनिबन्धनसिद्धमार्गादायातमायतमनाकुलमर्थगाढ़म्।
स्वायम्भुवं सकलमेव सनातनं तत्साक्षाच्छ्रु तं श्रुतदलै: श्रुतकेवलिभ्य:।।
—कल्याणकारक अ. १/९-१०
अर्थात् इस प्रकार भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा प्रकट हुआ परमार्थ रूप से उत्पन्न सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र को गणधर परमेष्ठी ने साक्षात् रूप से जान लिया। तत्पश्चात् गणधर प्रमुख द्वारा निरूपित उस वस्तु स्वरूप को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान को धारण करने वाले निर्मल बुद्धि वाले मुनियों ने जाना। इस प्रकार यह आयुर्वेद शास्त्रअन्य तीर्थंकर द्वारा भी प्रतिपादित होने से निरन्तर चला आया है। (याने आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकरों के मुखारविन्द से नि:सृत दिव्यध्वनि द्वारा इसका प्रतिपादन किया गया है।) अत: अन्य तीर्थंकरों द्वारा कथित सिद्ध मार्ग से आया हुआ यह आयुर्वेद शास्त्र अत्यन्त विस्तृत, दोषरहित एवं अर्थगाम्भीर्य से युक्त है। तीर्थंकरों के मुखकमल से स्वत: समुद्भूत होने से स्वयम्भू है और बीजांकुर न्याय से (पूर्वोक्त क्रम से) अनादि काल से सतत चले आने से सनातन है। ऐसा यह आयुर्वेद शास्त्र गोवर्धन, भद्रबाहु आदि श्रुतकेवलियों के मुख से अल्पांगज्ञानी या अंगांग ज्ञानी मुनिवरों द्वारा साक्षात् रूप से सुना हुआ (सुनकर ग्रहण किया हुआ) है। तात्पर्य यह है कि श्रुतकेवलियों ने अन्य मुनियों को इस शास्त्र का उपदेश दिया।
अल्पांगज्ञानी या अंगांगज्ञानी उन मुनिवरों ने अपने शिष्यों या अन्य मुनियों को इस शास्त्र का उपदेश दिया और उन्होंने उन ज्ञान के आधार पर पृथक््â—पृथक््â रूप से ग्रंथों के रूप में निबद्ध कर लोकहित की दृष्टि से उसे प्रचारित किया। इस प्रकार आयुर्वेद सम्बन्धी अनेक ग्रंथों का प्रणयन कालान्तर में करुणाधारी मुनिजनों द्वारा किया। कालक्रम, आलस्य और उपेक्षा के कारण आज अनेक ग्रंथ कालकवलित या विलुप्त हो चुके हैं। जो बचे हैं उनके संरक्षण की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है और न ही उसके लिए कोई उपाय किए जा रहे हैं। अत: शनै: शनै: बचे हुए ग्रंथों के भी विलुप्त होने की सम्भावना है।
आयुर्वेद शास्त्र का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने वाले और उसमें निष्णात व्यक्ति को ‘वैद्य’ कहा जाता है ऐसा कथन तज्ज्ञ मुनिजनों ने किया है। वैद्यों का शास्त्र होने से इसे वैद्य शास्त्र या वैद्यक शास्त्र भी कहते हैं। श्री उग्रादित्याचार्य ने वैद्य एवं आयुर्वेद शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है—
विद्येति सत्प्रकटकेवललोचनाख्या तस्यां यदेतदुपपन्नमुदारशास्त्रम्।
वैद्यं वदन्ति पदशास्त्रविशेषणज्ञा एतद्विचिन्त्य च पठन्ति च तेऽपि वैद्या:।।
वेदोऽयमित्यपि च बोधविचारलाभात्तत्वार्थसूचकवच: खलु धातुभेदात्।
आयुश्च तेन सह पूर्वनिबद्धमुद्यच्छास्त्राभिधानमपरं प्रवदन्ति तज्ज्ञा:।।
—कल्याणकारक अ. १/१८-१९
अर्थात् अच्छी तरह से उत्पन्न केवलज्ञान रूपी चक्षु को विद्या कहते हैं। उस विद्या से उत्पन्न उदार शास्त्र को व्याकरण शास्त्र के विशेषज्ञ वैद्यशास्त्र कहते हैं। उस उदार शास्त्र को जो लोग अच्छी तरह मनन पूर्वक पढ़ते हैं वे वैद्य कहलाते हैं। यह आयुर्वेद भी कहलाता है। इसमें ‘वेद’ शब्द विद् धातु से निष्पन्न है। विद् धातु बोध (ज्ञान), विचार और लाभ अर्थ वाली है। यहां वेद शब्द का अर्थ वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बतलाने वाला है याने तत्त्व के अर्थ को प्रतिपादित करने वाले वचन। इस वेद शब्द के पहले ‘आयु:’ शब्द जोड़ दिया जाय तो ‘आयुर्वेद’ शब्द निष्पन्न होता है। अत: उस वैद्यशास्त्र के ज्ञाता उस शास्त्र का अपर (दूसरा) नाम आयुर्वेद शास्त्र कहते हैं।
आयुर्वेद के विशिष्टार्थ एवं विस्तृत व्याख्या के सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जिस शास्त्र में आयु का स्वरूप प्रतिपादित किया गया हो, जिस शास्त्र का अध्ययन करने से आयु सम्बन्धी विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है अथवा जिस शास्त्र के विषय में विचार करने से हितकर आयु, अहितकर आयु, सुखकर आयु और दुखकर आयु के विषय में जानकारी प्राप्त होती है अथवा जिस शास्त्र में बतलाए हुए नियमों का पालन करने से दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है उसका नाम आयुर्वेद है। इसी प्रकार स्वस्थ और अस्वस्थ मनुष्य की प्रकृति, शुभ और अशुभ बतलाने वाले दूत एवं अरिष्ट लक्षण इत्यादि के उपदेशों से जो शास्त्र आयु का विषय अर्थात् यह स्वल्पायु है अथवा मध्यमायु है या दीर्घायु है इन सब विषयों का ज्ञान करा देता है वह आयुर्वेद हैं
यहां यह स्मरणीय है कि आयु शब्द का अर्थ वय नहीं करना चाहिये। आयु और वय में पर्याप्त भिन्नता है। आयु शब्द यावज्जीवन काल का बोधक है जबकि वय शब्द जीवन की एक निश्चित कालावधि का द्योतक है। अत: आयु शब्द का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए आयुर्वेद के सन्दर्भ में उसकी जो विवेचना मनीषियों द्वारा की गई है वह यथार्थ है। तदनुसार आयु के लिए कौन सी वस्तु लाभदायक है अथवा किस वस्तु या विषय के सेवन से आयु की हानि हो सकती है ? किस प्रकार की आयु हितकर है और किस प्रकार की आयु अहित कर है ? यह सम्पूर्ण विषय जिस शास्त्र में वर्णित होता है तथा आयु को बाधित करने वाले रोगों का निदान और उनका प्रतिकार करने के उपायों (चिकित्सा) का वर्णन जिस शास्त्र में किया गया है उसे विद्वानों ने आयुर्वेद संज्ञा से अभिहित किया है। इस शास्त्र के द्वारा पुरुष चूँकि आयु को प्राप्त करता है तथा आयु के विषय में जान लेता है, अत: मुनिश्रेष्ठों द्वारा इसे ‘आयुर्वेद’ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यदि समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है तो मनुष्य को दीर्घायु प्राप्त करने और अपनी आयु का संरक्षण करने का उपाय सहज ही ज्ञात हो जाता है, क्योंकि इस शास्त्र में प्रतिपादित आहार—विहार सम्बन्धी नियमों और अन्य सदाचारों का पालन करने से दीर्घायु की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए मुनिवरों ऋषियों और आचार्यों ने इसे आयुर्वेद के नाम से कहा।
इसका प्रयोजन द्विविध है—
१. स्वस्थ पुरुषों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और २. रोगी मनुष्यों के रोग का प्रशमन करना। श्री उग्रादित्याचार्य ने वैद्य शास्त्र के ये ही दो प्रयोजन बतलाए हैं। यथा—
लोकोपकरणार्थमिदं हि शास्त्रं, शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत्।
स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च, संक्षेपत: सकलमेव निरूप्यतेऽत्र।।
—कल्याणकारक अ. १/२४
इस शास्त्र में भगवान जिनेन्द्र देव के अनुसार दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है—पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यवहार स्वास्थ्य। इन दोनों में पारमार्थिक स्वास्थ्य मुख्य है। परमार्थ स्वास्थ्य का निम्न लक्षण बतलाया गया है—
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं यदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम्।
अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभि: तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्।।
—कल्याणकारक, अ. २/३
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने से उत्पन्न, अत्यन्त अद्भुत, आत्यन्तिक एवं अद्वितीय, विद्वानों द्वारा अपेक्षित जो अतीन्द्रिय मोक्षमुख है उसे ही पारमार्थिक सुख कहते हैं।
व्यवहार स्वास्थ्य का लक्षण निम्न प्रकार बतलाया गया है—
समाग्नि धातुत्व मदोषविभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रियसुप्रसन्नता।
मन: प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु।।
—कल्याणकारक अ. २/४
अर्थात् मनुष्य के शरीर में सम अग्नि (अवकिृत जठराग्नि) होना, धातुओं का सम होना, वात—वित्त—कफ तीनों का विभ्रम (विकृत) नहीं होना, मलों (स्वेद मूत्र—पुरीष) की विसर्जन किया यथोचित रूप से होना, आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता सदैव रहना यह व्यवहारिक स्वास्थ्य का लक्षण है।
इस प्रकार द्विविध स्वास्थ्य का लक्षण कहने का आशय यह है कि पहले मनुष्य सम्यक््â आहार विहार द्वारा व्यवहारिक स्वास्थ्य याने शारीरिक स्वास्थ्य का लाभ और उसका अनुरक्षण करे। तत्पश्चात् स्वस्थ शरीर द्वारा अशेष कर्म क्षयकारक तपश्चरण आदि क्रियाओं से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके अक्षय, अविनाशी सुखरूप पारमार्थिक स्वास्थ्य का लाभ लेवे। इसे ही अन्य शास्त्रों में आध्यात्मिक सुख भी कहा गया है। मनुष्य जब उस परम सुख को प्राप्त कर लेता है तो उसके लिए और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। उसे चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है और उसका जीवन सफल एवं सार्थक हो जाता है। यही इस आयुर्वेद शास्त्र का मूल प्रयोजन है और इसी प्रयोजन के लिए वह प्रवर्तित है।
जन सामान्य में रोगोपचार हेतु इसका व्यापक प्रचलन देखते हुए यहां कतिपय चिकित्सा योगों को उद्धृत करना आवश्यक है ताकि सभी लोग उनका व्यवहार कर उनसे अपेक्षित लाभ उठा सकें।
१. गिलोय, सोंठ, नागरमोथा और जवासा इन सबका क्वाथ बना कर देने से ज्वर नष्ट होता है।
२. गिलोय, सोंठ और पीपलामूल इन सबका काढ़ा बना कर पीने से वात ज्वर मिटता है।
३. पित्तपापड़ा, नागरमोथा, चिरायता इनका काढ़ा बनाकर १-१ तोला प्रात: सायं पीने से पित्त ज्वर नष्ट होता है।
४. मीठा अनार का रस पिलाने से या फालसा के रस में सेंधा नमक मिलाकर देने से पित्त ज्वर शान्त होता है।
५. नीम की छाल, सोंठ, गिलोय, कटा पोहकर मूल, कुटकी, कचूर, अडूसा, कायफल, पीपली और शतावरी इनवâो ३-३ माशा लेकर इनका काढ़ा बनाकर देने से कफ ज्वर शान्त होता है।
६. कायफल, पीपल, काकड़ािंसगी, पोहकर मूल समभाग लेकर इनका बारीक चूर्ण ३ माशा की मात्रा में मिश्री की चासनी के साथ देने से कफ ज्वर नष्ट होता है।
७. कायफल, पीपलामूल, इन्द्र जौ, भारंगी, सौंठ, चिरायता, काली मिर्च, पीपल, काकड़ािंसगी, पोहकरमूल, रास्ना, दोनों कटेरी, अजमोद, छड़ बच, पाठ, अडूसा, चव्य इन सबको समभाग लेकर ८ माशा का क्वाथ बनाकर दोनों समय देने से सन्निपात ज्वर, सभी प्रकार के वातरोग, ज्ञान का न होना, पेट का शूल, आफरा, वाय व कफ विकारों का नाश होता है।
८. धनिया और पित्तपापड़ा का क्वाथ पीने से जीर्ण ज्वर (पुराना ज्वर) मिटता है।
९. जो जीर्ण मलेरिया ज्वर कुनैन आदि औषधियों के सेवन से नहीं मिटता है वह ज्वर दारु हल्दी का चूर्ण या क्वाथ देने से मिट जाता है।
१०. पित्त पापड़ा और गिलोय के काढ़े में काली मिर्च का चूर्ण डालकर पिलाने से जीर्ण ज्वर और खांसी में लाभ होता है।
११. विषम ज्वर (मलेरिया) की स्थिति में सुदर्शन चूर्ण गरम जल से देने से ज्वर शान्त होता है।
१२. बकरी के दूध में सोंठ का बारीक चूर्ण मिलाकर या सोंठ को घिस कर सिर पर लेप करने से सिरदर्द ठीक होता है।
१३. अरीठा को १-२ काली मिर्च के साथ पानी में पीस कर नास देने से आघाशीशी मिट जाता है।
१४. हरड़ की गुठली को पानी में पीस कर लेप करने से आधा शीशी की पीड़ा मिट जाती है।
१५. प्रात: सायं दूध के साथ गुलकन्द का सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
१६. घी और दूध के साथ १ माशा बच का चूर्ण लेने से स्मृति की वृद्धि होती है।
१७. ब्राह्मी से निर्मित घृत या मण्डूकपर्णी का स्वरस या गव्य दुग्ध के साथ यष्टीमधु (मुलेठी) का चूर्ण या गिलोय स्वरस या मूल और पुष्प युक्त शंखपुष्पी के कल्क का प्रयोग करने से मेधा की वृद्धि होती है। अत: ये मेध्य रसायन हैं। इनमें ब्राह्मी एवं शंख पुष्पी विशेषत: मेध्य है।
१८. अडूसा, मुनक्का और मिश्री का सेवन करने से सूखी खांसी मिट जाती है।
१९. केर की लकड़ी की भस्म १ रत्ती की मात्रा में मिश्री की चासनी के साथ खाने से सूखी खांसी में लाभ होता है।
२०. अदरक का रस, नागरबेल के पान का रस और तुलसी पत्तों का रस सम भाग लेकर उसमें मिश्री मिला कर पीने से कफज खांसी में लाभ होता है।
२१. मिश्री १६ तोला, वंशलोचन ८ तोला, पिप्पली ४ तोला, छोटी इलायची २ तोला और दाल चीनी १ तोला इनको कूट छान कर बारीक चूर्ण बना लें। यह सितोपलादि चूर्ण श्वास, कास, हाथ—पैर की जलन, पित्त विकार आदि में अत्यधिक लाभकारी है।
जब ये संसार में मानव शरीर की उत्पत्ति हुई है—तब से उसके साथ ही रोग की भी उत्पत्ति हुई अतएव रोग की उत्पत्ति का इतिहास भी मनुष्य शरीर के साथ ही प्रारम्भ होता है, और जब से रोग की उत्पत्ति हुई तभी से मनुष्य उसको दूर करने के उपायों की खोज करने लगा और तभी से उसके उपाय चिकित्सा शास्त्र के रूप में प्रकट होने लगे अतएव यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कि चिकित्सा शास्त्र का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाति का इतिहास।
ज्यों—ज्यों औषधि विज्ञान का विस्तार होता गया त्यों—त्यों वनस्पति विज्ञान की महत्ता अधिकाधिक लोगों के ध्यान में आने लगी और क्रमश: इस विज्ञान ने एक स्वतन्त्र शास्त्र का रूप धारण किया जिसका नाम आयुर्वेद हुआ। वनस्पति विज्ञान के अन्तर्गत सुश्रुतसंहिता में ७०० वनस्पतियों का उल्लेख मिलता है।
अनादि सृष्टि का विभाग करने पर हमें दो ही भेद प्राप्त होते हैं एक सजीव—दूसरा निर्जीव। सजीव सृष्टि का अर्थ है जिनमें जीवनी शक्ति के चिन्ह प्राप्त हो सके जैसे—मनुष्य, पशु, पक्षी और पौधे। निर्जीव से अभिप्राय है पत्थर, चूना, नमक इत्यादि।
जितनी भी सृष्टि आप देखेंगे सर्वत्र चर सृष्टि में सदैव प्रत्येक प्राणी एक न एक घातक के भय से अपना रक्षा विधान सोचा करता है, हमारी वनस्पतियां भी उससे बच न सकीं। जिधर देखेंगे उसका सर्वनाश हो रहा है, पशुओं, मनुष्यों तथा हर प्रकार के पक्षियों की ये खाद्य वस्तुयें हो रही हैं। पशु वनस्पति पर ही अपना निर्वाह कर रहें हैं, मांसाहारी पशु भी शाकाहारी पशुओं के ही मांस पर जीवित हैं और मनुष्य तो हर प्रकार से इनका उपयोग करते हैं। अत: वनस्पितियों को इससे बचने के लिए प्रकृति ने विशेष प्रकार की शक्ति प्रदान की है। जो भिन्न—भिन्न रूप में होती है जैसे–कई प्रकार के कण्टक विषाक्त रोग, कड़वापन, चरपरापन, वा अन्य प्रकार के गन्धादि। वृहती आदि के पत्रों में कांटे, वर्चादि में गन्ध, शाखी वृक्षों में वल्कल, विशेष औषधियों में विष, वृश्चिकादि, रोम व कंटकारी आदि इसी बात के प्रदर्शक हैं कि जिससे इनकी रक्षा हो सके।
प्रत्येक प्राणी जानता है कि पौधे पृथ्वी से व सूर्य से तथा वायु से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। पृथ्वी से वे जितना पदार्थ ग्रहण करते हैं उससे कहीं अधिक वे वायु से पोषक पदार्थ ग्रहण करते हैं। वायु के संयोजक पदार्थों में से एक प्रकार का वायव्य (कार्बन द्वियोषित) अधिक परिमाण में इन वनस्पतियों द्वारा संग्रहीत है। अत: सर्व प्रधान शक्ति वायु जनित होती है, सूर्य से भी बहुत कुछ संग्रह करती हैं–वनस्पतियों के पत्र श्वास—प्र्ाश्वास का कार्य करते हैं–जैसे हम शरीर के भीतर की दूषित वायु को प्रश्वास द्वारा त्याग करके श्वास द्वारा शुद्ध वायु को ग्रहण करते हैं—वैसे ही वनस्पतियों में यह कार्य सूर्य की रश्मियों द्वारा उनके पत्रों का स्वयमेव सम्पादित हो जाता है। इस प्रकार सूर्य रश्मियों के ग्रहण से उनमें एक प्रकार की आग्नेय शक्ति (ताप) का संचय होता है पृथ्वी से वे जल तथा अन्य पोषक पदार्थ ग्रहण करते हैं। सूर्य की तरह अन्य कई ग्रह–उपग्रहों से उन्हें अन्य शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। जैसे चन्द्रमा से सोम या शीत प्रधान अंशादि। इस प्रकार वनस्पतियों में कई प्रकार के पदार्थों व शक्ति का संचय होता है।
उपर्युक्त क्रमों से यह विदित होता है कि वायु—सोम (द्रव्य) द्वारा वनस्पतियों का जीवन है, जिन पदार्थों से जिसका निर्माण होगा—उसमें वही पदार्थ अधिक पाये जायेंगे, इनको ही प्राचीन चिकित्सकों ने ध्यान में रखकर वात—पित्त—कफ की उपस्थिति का ज्ञान प्राप्त किया था और शरीर में वात—पित्त—कफ से उत्पन्न व्याधियों में इन औषधियों के इन प्रधान गुणों को लक्ष्य करके उपयोग किया है। प्राणी वर्ग में चाहे छोटे से छोटा जीव हो या बड़े से बड़ा सभी को जीवन के मुख्य लक्षणों में गुजरते रहने से जीवन क्रियाओं में बहुत कुछ साम्य है और विशेषकर वनस्पति व मनुष्यों में तो हर प्रकार से सादृश्य देखा जाता है अत: त्रिदोष की साम्य प्रकृति का ‘सोम’ ‘सूर्य’ के द्वारा पालित पोषित होने पर हर प्रकार से होता है।
आयुर्वेद में वनस्पतियों को उनके गुणावगुण द्योतनार्थ पांच विभागों में विभक्त किया गया है—रस—गुण—वीर्य—विपाक व शक्ति, जिनके कई विषयों के अन्वेषण मार्ग का आज का वैज्ञानिक अवहेलना की दृष्टि से देखता है और उसके अचिन्त्य महत्व में सन्देह करता है जैसे—शक्ति की वीर्य अचिन्त्य क्रिया। इस अचिन्त्य क्रिया का ज्ञान यांत्रिक विज्ञान बतलाने में असमर्थ है। जैसे गुलवनप्सा के विषय में उसका प्रतिश्याय हरत्व प्राप्त नहीं होता ऐसा लेबोरिट्रयां प्रतिध्वनित करती हैं, किन्तु प्रतिदिन ‘गुलवनप्सा’ पीकर हजारों व्यक्ति प्रतिश्याय से मुक्त होते हैं। चन्द्रोदय के ऊपर पाचक रसों की प्रत्यक्ष क्रियायें असिद्ध हैं, किन्तु वैद्य वर्ग दिन—रात चन्द्रोदय देकर मृतक में भी जान डालते हैं।
भारतवर्ष की बहुत सी औषधियाँ जिनको हम घास—फूस समझकर व्यर्थ ही फेंक देते हैं वही जब विदेशों में जाकर िंटचर—अर्क व एक्सट्रेक्ट का रूप धारण करके सुन्दर लेविल से युक्त होकर आती हैं तो हम उनके लिए विपुल धनराशि खर्च करके खरीदते हैं जैसे–अजवाइन, अनन्तमूल, धतूरा, मीठातेलिया आदि।
हमारे देश में कई ऐसी औषधियाँ हैं जो विलायती औषधियों से गुणों में अच्छा और निरुपद्रव काम करती हैं। जैसे—हृदय गति ठीक करने के लिए ‘डिजिटेलिस’ नाम की दवा काम करती है तो कुटकीक्वाथ से वही लाभ सफलतापूर्वक प्राप्त करते हैं।
‘पोटाशब्रोमाइड्’ नामक औषधि के मुकाबले हमारे देश की ‘हरमल’ नामक औषधि अच्छा कार्य करती है, ‘केलम्बा’ के मुकाबले गिलोय, गोवाकम, चम्पा, कालादाना, ‘थायमल’ के स्थान पर अजवाइन इस प्रकार अनेकों औषधियाँ है।
कई औषधियाँ ऐसी हैं। जिनकी बराबरी एलोपैथिक औषधियाँ नहीं कर सकती। जैसे कामला रोग पर ‘पोडोफोलिन’ या ‘टेरेक्सी’ की मात्रायें पीने से ठीक नहीं होता जबकि ‘बन्दाल’ के केवल सूंघने मात्र से कामला—पाण्डु रोग ठीक होता है, ‘‘ज्वरं हन्ति शिरोवद्धा सहदेवी जटा यथा’’ अर्थात्—शिर पर सहदेवी की जड़ बांधने मात्र में ज्वर ठीक होता है। ‘एस्प्रीन’ जिस शिर दर्द को ठीक नहीं कर सकती उसे ताजे ‘अपमार्ग’ के पत्रों का स्वरस कान में डालते ही शान्त करते हैं। ‘जंगलनी जड़ी बूटी’ में कहा गया है कि शान्ति निकेतन के एक छात्र को बड़े जोर से नाक से खून बहना चालू हुआ अनेकों डाक्टरों द्वारा चिकित्सा की गई, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ इतने में एक सेथाल उधर से गुजरा उसने ‘वक्सी’ की जड़ लेकर पानी के साथ पीसकर पिला दी जिससे रोगी का खून बहना तत्काल बन्द हो गया। इसी प्रकार महिलाओं को रक्त प्रदर में भी इस औषधि का चमत्कारिक प्रयोग सफलता से होता है।
नर्मदा के किनारे पर बड़ौदा की सरहद पर ‘‘गौला’’ नामक एक औषधि होती है इस विषय में कहा जाता है कि पानी में डूबा हुआ मनुष्य मृत्यु के मुंह में हो तो पुनर्जीवन देती है। डाक्टरों का मत है कि क्लोरोफार्म के समकक्ष अन्य कोई औषधि भारतवर्ष में पैदा नहीं होती है पर हिमालय पर्वत के अन्दर नेपाल से भूटान के बीच में ‘विखमा’ नामक एक वनस्पति के पौधे पाये जाते हैं, जिनकी ऊँचाई ४ से ५ फुट होती है इस औषधि की यह प्रवृत्ति है कि कोई भी व्यक्ति इसके पास से निकल जाता है तो वह मूर्छित हो जाता है। (अर्थात् इस औषधि को सूंघने से मूर्छित हो जाता है)। इस वनस्पति की तरह दर्पनाशक एक वन्सपति ‘निर्विषा’ है जो कि ‘विखमा’ के पास ही पैदा होती है, इसको सूंघने मात्र से बेहोश मनुष्य तत्काल होश में आ जाता है। आचार्य चरक ने कई दिव्य औषधियों के विषय में बताया है–जैसे ‘ब्रह्मसुर्वचला’ नाम की औषधि होती है जिसको ‘हिरण्य क्षीरा’ भी कहते हैं जिसके पत्ते कमल के सदृश होते हैं। एक औषधि ‘सूर्यकांता’ नामक है जिसका दूध सुवर्ण के समान पीला होता है और फूल सूर्य मण्डल के आकार के होते हैं। एक औषधि ‘नारी’ नामक होती है इसके पत्ते बकरे के सदृश होते हैं। एक ‘सर्पा’ नामक औषधि सर्प जैसी होती है। ‘सोम’ नामक औषधि जो सब औषधियों की रानी है, इसके पन्द्रह पत्ते होते हैं और चन्द्रमा की कला के अनुसार कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक एक पत्ता घटता जाता है और शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक एक पत्ता नवीन आता जाता है। उपरोक्त औषधियाँ महान दिव्य औषधियां हैं इनके रस का तृप्ति पर्यन्त पान करने से और ऊपर से बकरी का दूध पीने से तथा उसके बाद पलाश की हरी लकड़ी के बनाये हुए ढ़क्कनदार टब में नग्न स्थिति में सोने से नवीन शरीर की प्राप्ति होती है। वह मनुष्य आयु वर्ण स्वर—आकृति बल और प्रभा में देवताओं के सदृश हो जाता है। इसी प्रकार भूख और प्यास दूर करने वाली अनेकों औषधियाँ हैं तथा सोना बनाने वाली भी अनेकों चमत्कृत गुणों से युक्त औषधियाँ हमारे यहाँ के पर्वतों में पैदा होती हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश उनकी पूरी जानकारी न होने से इनके चमत्कृत प्रयोगों से वंचित हैं।
आज की बढ़ती हुई बीमारियों को देखते हुए वैद्य समाज का कर्त्तव्य है कि औषधियों के प्रति हमारी उदासीनता को दूर करें। हमारी उदासीनता—प्रमाद से और सरकार से वांछित सहयोग प्राप्त न होने से हम सभी औषधियों के लाभ से वंचित हैं उनकी जानकारी करके जन समुदाय के सामने लायें जिससे कि उनके विषय में अनुसन्धान करके उस पद्धति से जनता जनार्दन की समुचित सेवा हो सके।