(हिन्दी-काव्य)
-शंभु छंद-
हे आदिनाथ! हे आदीश्वर! हे ऋषभ जिनेश्वर! नाभिललन!
पुरुदेव! युगादि पुरुष ! ब्रह्मा, विधि और विधाता मुक्तिकरण।।
मैं अगणित बार नमूँ तुमको, वन्दूँ ध्याउँâ गुणगान करूँ।
स्वात्मैक परम आनन्दमयी, सुज्ञान सुधा का पान करूँ।।१।।
आषाढ़ वदी दुतिया तिथि थी, मरुदेवी गर्भ पधारे थे।
श्री हृी धृति आदि देवियों ने, माता के चरण पखारे थे।।
शुभ चैत्र वदी नवमी तिथि थी, भगवान यहाँ जब थे जन्में।
तब मेरु सुदर्शन के ऊपर, अभिषेक किया था इन्द्रों ने।।२।।
वो घड़ी धन्य थी धन्य दिवस, धन धन्य अयोध्या नगरी थी।
श्री नाभिराज भी धन्य तथा, तब धन्य प्रजा भी सगरी थी।।
प्रभु ने असि मसि आदिक किरिया, उपदेशों आदि विधाता थे।
थे युग के आदिपुरुष ब्रह्मा, श्रावक मुनि मार्ग विधाता थे।।३।।
थे कनक वर्ण धनु१ पंच शतक, तनु वे युग के अवतारी थे।
आयू चौरासी लाख पूर्व, धारक वृष लक्षण२ धारी थे।।
सब परिग्रह ग्रंथी को तजकर, निर्गं्रथ दिगम्बर रूप धरा।
वह चैत्र वदी नवमी शुभ थी, जिस दिन प्रभु ने कचलोच करा।।४।।
षट् मास योग में लीन रहे, लंबित भुज नासादृष्टी थी।
निज आत्म सुधारस पीते थे, तन से बिल्कुल निर्ममता थी।।
फिर ध्यान समाप्त किया प्रभु ने, आहार विधी बतलाने को।
भवसिंधू में डूबे जन को, मुनिमार्ग सरल समझाने को।।५।।
षट् मास भ्रमण करते-करते, प्रभु हस्तिनागपुर में आये।
सोमप्रभ नृप श्रेयांस तभी, आहारदान दे हर्षाये।।
रत्नों की वर्षा हुई गगन से, सुरगण मिल जयकार किया।
धन-धन्य हुई वैशाख सुदी, अक्षय तृतिया आहार हुआ।।६।।
अक्षय वटवृक्ष तले तिष्ठे, घाती पर ध्यान चक्र छोड़ा।
एकादशि फाल्गुन कृष्णा थी, केवलश्री से नाता जोड़ा।।
त्रिभुवन में ज्ञान लता पैâली, भविजन को छाया सुखद मिली।
फिर माघ कृष्ण चौदश के दिन, मुक्तिश्री प्रभु को स्वयं मिली।।७।।
क्रोधादिक रिपु को जीत प्रभो, स्वात्मा से जनित सुखामृत को।
पीकर अत्यर्थतया निशदिन, भवदधि से निकाला आत्मा को।।
त्रिभुवन के मस्तक पर जाकर, अब तक व अनंते कालों तक।
ठहरेंगे वे वृषभेश! मुझे, शुभ ‘‘ज्ञानमती’’ श्री देवें झट।।८।।
इन्द्रिय विषयों को जीत अजित, प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
त्रिभुवन पूज्या सुरगण मान्या, वह पुरी अयोध्या विजित मही।।
माता विजया भी धन्य हुईं, जितशत्रु पिता भी धन्य हुए।
इक्ष्वाकु वंश के भास्कर को, कर उदित उभय जग वंद्य हुए।।१।।
वह ज्येष्ठ अमावस्या शुभ थी, प्रभु गर्भ महोत्सव इन्द्र किया।
सुर ललनाओं ने माता की, सेवा कर अतिशय पुण्य लिया।।
वर माघ सुदी दशमी तिथि थी, सुरशैल शिखर पर इन्द्रों ने।
अभिषेक महोत्सव करके फिर, शृँगार किया प्रभु का शचि ने।।२।।
अठरह सौ हाथ तनू स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयु।
देवों के लाए भोजन औ, भूषण वसनादि भोग्य वस्तु।।
प्रभु ने न यहाँ के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर का।
नित सुर बालक खेलें संग में, औ इन्द्र सदा ही किंकर था।।३।।
शुभ माघ सुदी नवमी सुरगण, लौकांतिक सुरगण भी आए।
प्रभु द्वारा तजे वसन भूषण, औ केश पयोदधि पधराये।।
प्रभु घोर तपश्चर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, झट कर्मवनी को दग्ध किये।।४।।
वह पौष सुदी एकादशि थी, प्रभु ज्ञानानंद स्वभावी थे।
विजितेन्द्रिय केवलज्ञान लिए, घट-घट के अन्तर्यामी थे।।
धर्मामृत वृष्टि से भविजन, तरु को सींचा पुष्पित कीना।
वे स्वर्ग मोक्ष से फलित हुए, अगणित को अपने सम कीना।।५।।
थी चैत्र सुदी पंचमि प्रभु ने, पंचमगति का साम्राज्य लिया।
वे पंचकल्याणक के नायक, भव पंचभ्रमण का नाश किया।।
‘गज’ चिन्ह से जाने जाते वे, मुझको भी पंचमगति देवें।
सब रोग शोक से प्रगट हुए, भव दु:खों को झट हर लेवे।।६।।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, शिव सौख्य प्रदान करो मुझको।
प्रभु! पूर्णज्ञान साम्राज्य श्री, मेरी तुरन्त देवो मुझको।।
हे नाथ नमोस्तु है तुमको, हे अजित! अजय पद को दीजे।
भगवन्! मुझको श्री ‘‘ज्ञानमती’’ सुखसिद्धि समृद्धि भी कीजे।।७।।
हे मोहध्वांत हर ज्योतिरूप, भास्कर भवहर संभव स्वामी।
तव चरण सरोरुह को प्रणमूँ, धर्मेश्वर तीर्थेश्वर नामी।।
त्रैलोक्य अलोकाकाश सहित, सब तुमने अवलोकित कीना।
हे आप्त जिनेश्वर सब जग को, त्रैकालिक भी युगपत् जाना।।१।।
भगवन्। तव चरण कमल युग हैं, शुभदायक शरणभूत नामी।
हे संभव! भुवि पर भविजन को, शम् कीजे तुम्हें नमूँ स्वामी।।
श्रावस्ती में दृढ़राज पिता, औ मात सुषेणा धन्य हुए।
फाल्गुन शुक्ला अष्टमि तिथि थी, प्रभु मात गर्भ अवतीर्ण हुए।।२।।
कार्तिक पूर्णा में जन्म लिया, यश ज्योत्स्ना त्रिभुवन व्यापी।
हे नाथ! आपके वचनों की, सौरभता भी त्रिभुवन व्यापी।।
सोलह सौ हाथ तनू ऊँचा, आयू थी साठ लाख पूरब।
जन्में तब से दश अतिशययुत, प्रभु को नमते सुर मस्तकनत।।३।।
जिनरूप धरा मगशिर १पूर्णा, में कीर्ति चाँदनी फैल रही।
कार्तिक वदि चौथ तिथी के दिन, वैâवल्यश्री से भेंट हुई।।
जब चैत्र सुदी षष्ठी आई, शिवकन्या ने वरमाल लिया।
कनकाभतनू भी अतनु हुए, फिर भी ग्रीवा में डाल दिया।।४।।
सम्मेदगिरी पर शिवलक्ष्मी ने, वरण किया शिवधाम मिला।
जग अश्वचिन्ह से है जाने, सब भव्यों का मन कमल खिला।।
भुवि शांति हेतु भव हानि हेतु, सुख वृद्धि हेतु संभव जिन हो।
मुझ ‘‘ज्ञानमती’’ के सर्वसिद्धि, के हेतु सदा संभव जिन हो।।५।।
निज आत्म सुखामृत सारभूत!, भय शोक मान से रहित सदा।
हे वीतराग परमात्मप्रभो!, तुमको नमोऽस्तु हो मुदा सदा।।
सकलज्ञ सूर्य! सुखरत्नाकर, हे सर्वलोकमणि तीर्थंकर।
हे जगत्पिता भाक्तिक जन के, गुरु भव से त्राण करो जिनवर।।१।।
त्रिभुवन चूड़ामणि सुखदाता, चिन्तामणि कल्पतरु तुम हो।
मेरे मन में आनंद भरो, हे अभिनन्दन! भव कंद हरो।।
वह पुरी विनीता पूज्य हुई, इक्ष्वाकुवंश के चन्द्र हुए।
जननी सिद्धार्था मान्य हुई, औ पिता ‘स्वयंवर’ धन्य हुए।।२।।
वैशाख सुदी षष्ठी के दिन, प्रभु का गर्भोत्सव इन्द्र किया।
वर माघ सुदी द्वादश तिथि को, मंदरगिरि पर अभिषेक हुआ।।
आयु है लक्षपचासपूर्व, चौदहसौ कर तनुतुंग कहा।
कनकच्छवि, मर्कटलांछनयुत, मनमर्कट को झट वश्य किया।।३।।
फिर माघ सुदी बारस आयी, धन त्याग तपोधन कहलाये।
चौदस थी पौष सुदी जब ही, वैâवल्यरमापति सुर गाये।।
वैशाख सुदी षष्ठी के दिन, शिवकांता के भर्तार हुए।
सहजात्म समुद्भव आल्हादक, परमामृत सुख आनंद लिए।।४।।
सुखवर्द्धन हे अभिनन्दन! तव, वचनामृत भुवि आनंद करो।
भव सागर में डूबे जन को, तुम पोत सदृश अवलंबन हो।।
मम अन्त:करण पवित्र करो, सब जन मन को भी शुद्ध करो।
मम ‘‘ज्ञानमती’’ लक्ष्मी मुझको, देकर झट हे जिन! तृप्त करो।।५।।
जिनके वक्त्राम्बुज से निकली, दिव्यध्वनि अमृतरस झरिणी।
जो चित्तकुमति हरणी मन में, चैतन्य सुधारस की भरणी।।
उन सुमतिनाथ को वंदूँ मैं, वे ज्ञान ज्योति आनन्दघन हैं।
निज शुद्धात्मा को ध्या ध्याकर, कर्मारिनाश शिवधाम रहें।।१।।
यह आत्मा सिद्ध सदृश मेरी, चिच्चैतन्यामृत पूर्ण भरी।
यह ज्ञानानंद स्वभावमयी, प्रभु ने मुझमें ये सुमति भरी।।
हे भव्य कमलिनी सूर्य प्रभो! योगीन्द्र चित्त गोचर सुमते।
मुझ मन में सदा निवास करो, अगणित गुणसागर सिद्धिपते।।२।।
साकेतपुरी इक्ष्वाकुवंश, में पिता मेघरथ मान्य हुए।
मंगल जननी मंगलावति की, श्रीआदि देवियाँ सेव करें।।
श्रावण सुदि दुतिया में गर्भे, अवतार हुए मंगलकारी।
शुभ चैत्रसुदी एकादशि को, जन्मोत्सव इन्द्र किया भारी।।३।।
वैशाखसुदी नवमी तिथि में, दीक्षा लक्ष्मी ने वरण किया।
सित चैत्र इकादशि में तुमने, वैâवल्य बोध साम्राज्य लिया।।
इस तिथि में सम्मेदाचल से, प्रभुवर लोकांत विराजे जा।
त्रिभुवन के स्वामी सिद्ध हुए, अपने ही अन्दर राजे जा।४।।
बारह सौ कर उत्तुंग प्रभो, चालीस लक्ष पूर्वायु हो।
तनु कनकद्युति सौन्दर्यखान, फिर भी तनु विरहित सुन्दर हो।।
प्रभु अनुपम अतुल अलौकिक हो, चकवा लाञ्छन से जाने सब।
अज्ञानमती हर ‘ज्ञानमती’, कीजे मम शिवपद पाने तक।।५।।
तव विश्ववंद्य चरणारिंवद, संकल्पमात्र शुभ फलदायक।
गणधर मुनिगण नुत देव! सदा, मनवचतन से प्रणमूं सुखप्रद।।
तव पादयुगल की भक्ति से, मानव संसार जलधि तिरते।
पद्मा से आिंलगित मूर्ति, पद्मप्रभ! मुझको सम कीजे।।१।।
कौशाम्बी के नृप ‘धरण’ पिता, औ प्रसू सुसीमा ख्यात जगत्।
इक्ष्वाकुवंश के ओ भास्कर!, पद्मा के आलय तव पदयुग।।
इक सहस हाथ ऊँचा तनु था, औ तीस लक्ष पूर्वायु थी।
प्रभु लाल कमल सम देह कांति, औ लाल कमल था चिह्न सही।।२।।
प्रभु माघवदी षष्ठी तिथि में, गर्भागम मंगल प्राप्त किया।
कार्तिक कृष्णा१ तेरस के दिन, त्रैलोक्य विभाकर उदित हुआ।।
उस ही तिथि में तप लक्ष्मी से, आिंलगित पृथ्वी पर विहरे।
सित चैत पूर्णिमा के दिन ही, निज ज्ञान पूर्ण करके निखरे।।३।।
फाल्गुन वदि चौथ दिवस मुक्ति, लक्ष्मी के साथ निवास किया।
कृतकृत्य निरंजन सिद्ध हुए, निज आत्मजनित पीयूष पिया।।
मेरे मन के सब ही दु:ख को, निश्चित तुमने जाना भगवन्।
अब शीघ्र हरो दु:ख ‘ज्ञानमती’, श्री मम मुझको देना भगवन्।।४।।
प्रभु पास नहीं िंकचित् संग है, अतएव राग का लेश नहीं।
आयुध के पास न होने से, प्रभु तुम में िंकचित् द्वेष नहीं।।
तव वाणी दिव्या सत्य सुखद, अतएव दोष लवलेश नहीं।
तुमको प्रणमूँ सर्वज्ञ प्रभो ! जिन हे सुपार्श्व! जगवंद्य सही।।१।।
हरिताभ तनु फिर भी तनु से, विरहित अशरीरी सिद्ध तुम्हीं।
शिवरमणी में आसक्त सदा, फिर भी ब्रह्मचारी पूर्ण तुम्हीं।।
कर्मारि युद्ध में निर्दय हो, फिर भी करुणा के सागर हो।
सब छोड़ दिया फिर भी अपने, अगणित गुणनिधि रत्नाकर हो।।२।।
धनपति ने नगरि बनारस में, रत्नों की वर्षा वर्षायी।
पृथ्वी भी तृप्त हुई उस क्षण, पृथ्वीषेणा माँ हर्षायी।।
सित भादों षष्ठी को प्रभु ने, माता के गर्भ प्रवेश किया।
शुक्तापुट में मुक्ताफलवत्, निंह माँ को िंकचित् क्लेश हुआ।।३।।
शुभ ज्येष्ठ सुदी बारस प्रभु का, अभिषेक हुआ मंदर गिरि पर।
उस तिथि ही में जिनरूपधरा, धर ध्यान शस्त्र भी करुणाकर।।
फाल्गुन वदि षष्ठी को प्रभु के, घट में केवल रवि उदित हुआ।
फाल्गुन वदि सप्तमि मोक्ष बसे, सब कर्म नशे तम भाग गया।।४।।
अठ सौ कर तुंग शरीर प्रभो, मरकतमणि आभा धारी हो।
आयु है बीस लाख पूरब, इक्ष्वाकुवंश अवतारी हो।।
स्वस्तिक लांछन सुप्रतिष्ठ पिता, रत्नत्रय निधि के पूर्ण धनी।
प्रभु तव प्रसाद से पूर्ण ‘‘ज्ञानमति’, हो मुझको अर्हत् लक्ष्मी।।५।।
भव वन में घूम रहा अब तक, किंचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब दु:ख के ज्ञाता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
सुरपति गणपति नरपति नमते, तव गुणमणि की बहुभक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।१।।
काशी में चन्द्रपुरी सुन्दर, रत्नों की वृष्टि खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, पितु-मात के हर्ष की वृद्धि हुई।।
राका शशांक सम कांत तनु, धवलोज्ज्वल कांति यशोधारी।
चिंतित फलदाता िंचतामणि, औ कल्पतरू भी सुखकारी।।२।।
तिथि चैत्रवदी पंचमी कही, औ पौष वदी ग्यारस सुखदा।
फिर पौष वदी ग्यारस उत्तम, औ फाल्गुन वदि सप्तमी शुभा।।
फाल्गुन सुदि सप्तमि ये तिथियाँ, क्रम से पाँचों कल्याणक की।
चन्द्रप्रभ! पंचकल्याणकपति! मुझको दें पंचम सिद्धगती।।३।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कमल खिले लहिए।।
सब जात विरोधी गरुड़ सर्प, मृग सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिन पद चूम रहे।।४।।
महासेन पिता भी पूज्य हुए, जननी लक्ष्मणा पवित्र हुयी।
दशलाख वर्ष पुर्वायू थी, छह सौ करतुंग शरीर सही।।
शशि लांछनयुत भ्रम तम हरते, यश ज्योत्स्ना पैâली जग में।
मुझको भी निज संपद देवो, मैं नमूँ सदा तव चरणों में।।५।।
त्रैलोक्यपति देवेन्द्र नमित, साधूगण वंद्य सदा जिनवर।
सुख आत्माधीन अचल तव है, स्थान भ्रमण विरहित सुस्थिर।।
तव कीर्तिलता त्रिभुवन व्यापी, औ सिद्धिरमा तव चरणरता।
तव दिव्यसुधावच भव जलधि, से तिरने को उत्तम नौका।।१।।
काकंदी में सुग्रीव पिता, माता जयरामा जग पूजित।
फाल्गुनवदि नवमी के दिन प्रभु, गर्भावतरण मंगल मंडित।।
मगसिर शुक्ला प्रतिपद तिथि थी, जब जन्में थे भगवान यहां।
उन पुष्पदन्त की दिव्यकथा, हरती है भवमय त्रास महा।।२।।
मगसिर सुदि एकम के प्रभु ने, जिनमुद्रा धर मोहारि हना।
कार्तिक सुदि दूज दिवस केवल—लक्ष्मी ने आन लिया शरणा।।
भादों सुदि अष्टमि के दिन प्रभु, सम्मेदाचल से सिद्ध हुए।
सुखस्वात्मसुधारस पान तृप्त, त्रिभुवन के अग्र विराज गये।।३।।
चउशतकर तुंग मकर लाँछन, दो लाख वर्ष पूर्वायु कही।
शशिकांत देह भी पुष्पदंत! अंतक के अन्तक तुम्हीं सही।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय से, भूषित शिवकांता वरण किया।
मेरे भी उभय रत्नत्रय को, बस पूर्ण करो मैं शरण लिया।।४।।
यदि किसी तरह से हे शीतल! शशि किरण सदृश तव वचन मिले।
भव आतप से झुलसे प्राणी, के तत्क्षण ही मन कुमुद खिले।।
फव्वारागृह अमृतवाणी, मलयाचल चंदन भी फिर क्या ?
त्रिभुवन दुख दाव शांत करते, शीतल तव वचन अहो फिर क्या?।।१।।
वह भद्रपुरी प्रभु जन्म लिया, जग भद्रकरी सुर पूज्य हुई।
दृढ़रथ नरनाथ सुनंदा भी, सुरवंद्य प्रजा भी धन्य हुई।।
वदि चैत्र अष्टमी गर्भ बसे, वदि बारस माघ सुजन्मे थे।
शुभ माघ वदी बारस के प्रभु, दीक्षा ले वन—वन घूमे थे।।२।।
वदि पौष चतुर्दशि केवल रवि, किरणों ने जगत प्रकाश किया।
आश्विन सित अष्टमि के प्रभु ने, वर मुक्ति नगर का राज्य लिया।।
सम्मेदशिखर है पूज्य धाम, शीतल प्रभु शीतल कृत जग में।
सबसे शीतल है स्वात्मधाम, उसमें ही आप विराज रहे।।३।।
इक्ष्वाकु वंश कनकाभतनु, श्रीवृक्ष चिन्ह से जाने सब।
तनु तुंग तीन सौ साठ हाथ, आयु इक लक्ष वर्ष पूरब।।
शीतल प्रभु तुमको नमूं सदा, मेरे मन को शीतल करिए।
भव—भव में भक्ति रहे तुझमें, बस मुझ पर कृपा दृष्टि धरिये।।४।।
श्रेयस्कर चिच्चैतन्यात्मा, से प्रकटित अमृत को पीकर।
जो प्रभु श्रेयांस हुए जग में, वे मुझको भी हों श्रेयस्कर।।
श्रेयो अर्थी जो भविजन हैं तव चरण सरोरुह में नमते।
मैं भी श्रद्धा से नमूं सदा, नमते ही विघ्न कर्म भगते।।१।।
है िंसहपुरी सुरनर पूजित, नृप विष्णुमित्र भगवंत पिता।
नंदा जननी आनंदकरणी, सब नारी को मंगल दाता।।
छठ ज्येष्ठ वदी में गर्भ बसे, फाल्गुन वदि ग्यारस में जन्मे।
फाल्गुन वदि ग्यारस में प्रभु को, था वरण किया तप लक्ष्मी ने।।२।।
शुभ माघ अमावस में ज्ञानी, श्रावण पूर्णा को यम जीता।
तब सिद्धि कन्या ने आकर, प्रभु को लोकांत तरफ खींचा।।
पहले प्रभु ने प्रज्ञा असि से, नृप मोह का मस्तक काट लिया।
फिर ध्यान चक्र से मृत्यु को, मारा त्रिभुवन का राज्य लिया।।३।।
तनु तुंग तीन सौ बीस हाथ, आयु चौरासी लाख वर्ष।
तपनीय स्वर्णसम देह नाथ!, गेंडा लांछन से आप सहित।।
निज पर का भेद ज्ञान मेरा, दृढ़ हो ऐसी शक्ति दीजे।।
मैं स्वात्मसुधारस आनंद में, रम जाऊँ ऐसी मति दीजे।।४।।
आत्मा औ तनु के अन्तर को, कर तनु से निर्मम हो जाऊँ।
मैं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हूँ, यह समझ स्वयं में रम जाऊँ।।
इंद्रिय बल आयु श्वास चार, प्राणों को धर—धर मरता हूँ।
निश्चय नय से निंह जन्म—मरण, फिर भी निश्चय निंह करता हूँ।।१।।
मैं इन प्राणों से भिन्न सदा, पुद्गल से भिन्न निराला हूँ।
सुख सत्ता दर्शन ज्ञानवीर्य, चेतनमय प्राणों वाला हूँ।।
वे वासुपूज्य! तव चरण कमल, की भक्ति से यह मिल जावे।
जो खोई शक्ति अनन्त मेरी, तव नाम मंत्र से प्रगटावे।।२।।
चंपापुर में वसुपूज्य पिता, औ प्रसू जयावति इन्द्र नमित।
आसाढ़ वदी छठ को प्रभु ने, माँ गर्भ प्रवेश किया सुरनत।।
फाल्गुन वदि चौदस जन्म लिया, इस तिथि को ही जिनवेश धरा।
सित माघ द्वितीया के प्रभु को, केवल लक्ष्मी ने स्वयं वरा।।३।।
भादों सुदि चौदस को प्रभुवर, चम्पापुर से शिवधाम गये।
बाहत्तर लक्ष वर्ष आयु, दो सौ अस्सी कर तुंग कहे।।
कल्हार कमल छवि महिष चिन्ह, फिर भी तनुमुक्त अनन्तगुणी।
वासव गण पूजित वासुपूज्य! मम दीजे निज सम्पत्ति घनी।।४।।
कांपिल्यपुरी पितु कृतवर्मा, माता जयश्यामा विख्याता।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु का, माता के गर्भ निवासा था।।
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी, मल रहित गर्भ में तिष्ठे थे।
सितमाघ चतुर्थी१ के दिन में, इन्द्रों से पूजित जन्मे थे।।१।।
सित माघ चतुर्थी दीक्षा ली, सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि में, पंचम गति को प्रस्थान हुआ।।
दो सौ चालीस कर तुंग तनु, प्रभु साठ लाख वर्षायु थी।
कनकच्छवि घृष्टी२ लांछन तव, हे विमल! करो मम विमलमती।।२।।
मैं भाव कर्म और द्रव्यकर्म, नोकर्म मलों से भिन्न कहा।
मैं अमल अरूपी अविकारी, निश्चय नय से चििंत्पड कहा।।
चिच्चमत्कारमय ज्योतिपुंज, सहजानंदैक स्वभावी हूँ।
मैं केवलज्ञान अखंड िंपडमय, सुख चिद्रूप स्वभावी हूँ।।३।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं मुझमें स्थिर हो जाऊँ।
अणुमात्र नहीं िंकचित् मेरा, मैं पर से ममता बिसराऊँ।।
मैं तुमको प्रणमूँ बार—बार, बस मम पूरी इक इच्छा हो।
एकाकी ‘ज्ञानमती’ प्रगटे, जहाँ पर की पूर्ण उपेक्षा हो।।४।।
हे नाथ! अनंत गुणाकर तुम, साकेतपुरी में जन्म लिया।
जयश्यामा माँ सिंहसेन पिता, ने कीर्तिध्वजा को लहराया।।
कार्तिक वदि एकम गर्भ बसे, वदि ज्येष्ठ दुवादशि जन्मे थे।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, तप तपते वन वन घूमे थे।।१।।
चैत्री मावस में ज्ञानोत्सव, इस ही तिथि में प्रभु सिद्ध हुए।
दो सौ कर देह कनक कांति, प्रभु तीस लाख वत्सर१ थिति२ है।।
सेही लांछनयुत अंतकहर! हे देव अनंत! तुम्हें प्रणमूँ।
यह सब व्यवहार स्तुति भगवन्! निश्चय से गुण-गण को हि नमूँ।।२।।
यद्यपि ये कर्म अनादी से, मेरे संग बँधते आये हैं।
फिर भी अणुमात्र नहीं मुझमें, परिवर्तन करने पाये हैं।।
मैं सब प्रदेश में ज्ञानमयी, जड़कर्मों से क्या नाता है?
मैं हूँ चैतन्य अनंत गुणी, जड़ ही जड़ के निर्माता हैं।।३।।
यह निश्चयनय जब निश्चय से, ध्यानस्थ अवस्था पाता है।
तब कर्मों का कर्त्ता भोक्ता, नहिं होता बंध नशाता है।।
भगवन् ! तव चरण कमल सेवा, करते-करते यह फल पाऊँ।
अनुपम अनंत गुण के सागर, ‘वैâवल्यज्ञानमति’ पा जाऊँ।।४।।
हे धर्मधुरन्धर धर्मनाथ! धर्मामृतदायी मेघ तुम्हीं।
रत्नों की वर्षा होने से, वह रत्नपुरी थी रत्नमयी।।
यह सुतवन्ती सुप्रभावती, पितु भानुराज महिमाशाली।
वैसाख सुदी तेरस के दिन, गर्भागम उत्सव था भारी।।१।।
तिथि माघ सुदी तेरस शुभ थी, इन्द्रों ने जन्म न्हवन कीना।
उस ही तिथि में प्रभु दीक्षा ली, निज पर को पृथक्-पृथक् कीना।।
पौषी पूर्णा को ज्ञान पूर्ण, हो गया उजाला त्रिभुवन में।
शुभ ज्येष्ठ सुदी चौथी के प्रभु, शिवपद को प्राप्त किया क्षण में।।२।।
इक सौ अस्सी कर देह प्रभु! दस लाख वर्ष थिति३ कनक कांति।
है वङ्का चिह्न प्रभु कर्म शैल, को चूर किया तुम वङ्का भांति।।
हे धर्मतीर्थ के तीर्थंकर ! तुमने यम को चकचूर किया।
मैंने भी शरणा ले तेरी, अगणित दु:खों को दूर किया।।३।।
मैं मिथ्या अविरति क्रोध—मान, माया लोभों से भिन्न सही।
ये सब औपाधिक भाव कहे, मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी।।
मैं तुमको वंदन कर करके, बस तुम जैसा ही बन जाऊँ।
प्रभु ऐसा ही वर दो मुझको, मैं स्वयं स्वयंभू बन जाऊँ।।४।।
श्री शान्ति प्रभो! शरणागत जन, शान्ती के दाता कहें तुम्हें।
यह धन्य हुई हस्तिनापुरी, जहाँ राज्य किया शांतीश्वर ने।।
विश्वसेन पिता ऐरादेवी, माता का अतिशय पुण्य खिला।
भादों वदि सप्तमि के प्रभु को, गर्भागम का सौभाग्य मिला।।१।।
शुभ ज्येष्ठ वदी चौदस आई, शांतीश्वर ने जब जन्म लिया।
सुरगृह में बाजे बाज उठे, इन्द्रों ने मस्तक नमित किया।।
त्रिभुवन में शांति लहर दौड़ी, नरकों में कुछ क्षण शांति हुई।
गिरि मंदर पर अभिषेक हुआ, उत्सव में भू नभ एक हुई।।२।।
शांतीश प्रभू चक्रीश बने, षट्खंड मही का भोग किया।
शुभ ज्येष्ठ वदी चौदस के दिन, बस चक्ररत्न को त्याग दिया।।
इक शतक साठ कर तनु सुन्दर, आयू इक लाख वर्ष प्रभु की।
तपनीय कनक सम कांति विभो! मृग लांछन से जाने सब ही।।३।।
प्रभु ध्यान चक्र को ले करके, मोहारि नृपति को मारा था।
वर पौष सुदी दशमी के दिन, भव्यों को मिला सहारा था।।
षोडश तीर्थंकर कामदेव, पंचम चक्री त्रय पदधारी।
वर ज्येष्ठ वदी चौदस के दिन, त्रिभुवन साम्राज्य मिला भारी।।४।।
प्रभु नर्क निगोद और विकलत्रय, दु:खों को सहता आया हूँ।
तिर्यंच मनुज सुर गतियों के, दु:खों से खूब सताया हूँ।।
नौ महिने तक मैं माता के, उर में औंधे मुँह लटका था।
अति घृणित अशुचि में पड़ा-पड़ा, नहिं किंचित् हिल डुल सकता था।।५।।
वहाँ श्वांस घुटा करता प्रतिक्षण, नहिं पलभर आँखें खोल सका।
अति घोर कष्ट सहता रहता, नहिं किंचित् भी कुछ बोल सका।।
जैसे तैसे कर जन्म लिया, उस काल प्रभो! जो कष्ट हुआ।
संख्यातों जिह्वा कह न सकें, फिर वैâसे भी मैं कहूँ हहा।।६।।
बचपन में भी मैं मूक रहा, जो जो दुख भोगे हैं प्रभुवर।
मैं भूल गया बस फूल गया, कुछ क्षण तरुणाई को पाकर।।
अब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, के दुख से भी घबराया हूँ।
तुम शांती के दाता भगवन्! अतएव शरण में आया हूँ।।७।।
सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरण, ये रत्नत्रय निधि मुझे मिली।
तनु से ममता भव बीज अहा! सम्यग्दृक् कलिका आज खिली।।
हे शांतिनाथ! मैं नमूं सदा, बस भक्ती का फल एक मिले।
नहिं बार बार मैं जन्म धरूं, बस मुझको सिद्धी शीघ्र मिले।।८।।
जितने भी पुद्गल इस जग में, सबको भोगा छोड़ा मैंने।
अब सब उच्छिष्ट सदृश मुझको, हा फिर भी ममता है इनमें।।
नभ के प्रत्येक प्रदेशों को, मैं जन्म—मरण से पूर्ण किया।
त्रिभुवन में जी भर घूम चुका, निंह कुछ भी क्षेत्र अपूर्ण रहा।।१।।
जो हुए अनंतानंतों ही, उत्सर्पिणि—अवसर्पिणी समय।
उन सबमें जन्म—मरण करता, आया निंह छोड़ा एक समय।।
चारों गतियों की सब आयू, भोगी है बार अनंतों मैं।
ग्रैवेयक ऊपर नहीं गया, बस इतना बचा दिया मैंने।।२।।
सब मिथ्या अविरति भावों में, क्रोधादि कषाय विभावों में।
इन दुर्भावों में रहा किन्तु, निंह लिया अपूर्व भाव मैंने।।
इस तरह पंच परिवर्तन से, परिवर्तन करता आया हूँ।
मैं काल अनादी से अब तक, निंह िंकचित् भी सुख पाया हूँ।।३।।
अब काललब्धि को पाकर मैं, भव भ्रमणों से अकुलाया हूँ।
निज शुद्ध स्वभाव प्रगट करके, स्थिर पद पाने आया हूँ।।
हे कुंथुनाथ! मैं नमूं तुम्हें, अब दया करो भव फेर हरो।
तुम ही हो शरणागत रक्षक, अब मेरी बार न देर करो।।४।।
यह हस्तिनागपुर तीर्थ बना, प्रभु सूरसेन के घर जन्में।
श्रीकांता माता मुदित हुईं, जब गोद में खेला था तुमने।।
श्रावण वदि दशमी गर्भ तिथी, वैशाख सुदी एकम जनि१ की।
फिर वही तिथी दीक्षा दिन की, सित चैत्र तृतीया केवल की।।५।।
इक सौ चालिस कर देह तुंग, आयू पंचानवे सहस बरस।
अज२ लांछन कनक वर्ण सुन्दर, तुम कामदेव चक्रेश्वर प्रभु।।
वैशाख सुदी एकम् तिथि में, सम्मेदाचल से मुक्ति वरी।
मुझको भव दु:ख से मुक्त करो, बस यही प्रार्थना है मेरी।।६।।
अरनाथ ! स्वयं अरि कर्मों को, घाता अर्हत्पदवी पायी।
त्रिभुवन के नाथ उदर तिष्ठे, मित्रसेना माता हर्षायी।।
सुरपूज्य सुदर्शन जनक अहो, है धन्य हस्तिनापुरी अहा।
फाल्गुन वदि तीज गर्भ मंगल, मगसिर सुदि चौदस जन्म लहा।।१।।
मगसिर सित दशमी दीक्षा ली, बाह्याभ्यंतर तप तपते थे।
कार्तिक सित बारस के दिन में, केवलज्ञानी रवि चमके थे।।
चौरासि हजार वर्ष आयू, तनु इक सौ बीस हाथ सुन्दर।
मछली लाञ्छन युत कनक वर्ण, प्रभु कामदेव औ चक्रेश्वर।।२।।
शुभ चैत्र अमावस के प्रभुवर, सम्मेदाचल से मृत्युजयी।
निज भेद विज्ञान प्रगट करके, अपने को पाया आप सही।।
मैं भी प्रभु चरण कमल वंदूँ, यह कृपा प्रसाद मिले मुझको।
मैं केवल ‘‘ज्ञानमती’’ पाऊँ, मुझसे ही सिद्धि मिले मुझको।।३।।
जिन काम मोह यमराज मल्ल, तीनों को जीत विजेता हैं।
वे मल्लि जिनेश्वर मेरे भी, दुष्कर्म मल्ल के भेत्ता हैं।।
मिथिला नगरी के कुंभराज, औ प्रजावती मंगलकारी।
शुभ चैत्र सुदी एकम के दिन, था हुआ गर्भ मंगल भारी।।१।।
मगसिर सुदि ग्यारस के प्रभु को, सुरशैल शिखर पर ले जाके।
सुर देवी सह इंद्रादिकगण, अभिषेक किया गुण गा-गा के।।
मगसिर सित ग्यारस दीक्षा ली, वदि पौष दूज१ ध्यानाग्नि जला।
सब घाति कर्म को भस्म किया, उस ही क्षण ज्ञान प्रभात खिला।।२
सौ हाथ देह कांचन कांती, २थिति पचपन सहस वर्ष जानो।
मल्लिका कुसुम सम सुरभित तनु, कलशा लाञ्छन से पहचानो।।
फाल्गुन सित पंचमि तिथि आई, सम्मेदगिरी पर ध्यान धरा।
पंचमगति की लक्ष्मी आई, उसने प्रभु को था स्वयं वरा।।३।।
हे मल्लि प्रभो! मेरे त्रय विध, मल को हरिए निर्मल करिए।
मुरझाई सुखवल्ली मेरी, वचनामृत से पुष्पित करिये।।
मैं परमानंद सुखामृत के, झरने का अनुभव प्राप्त करूँ।
प्रभु शीघ्र हमारे क्लेश हरो, निज का आह्लाद विकास करूँ।।४।।
मुनिसुव्रत! सुव्रत के दाता, भव हर्ता मुक्ति विधाता हो।
मैं नमूँ तुम्हें मेरे स्वामी, मुझको भी सिद्धि प्रदाता हो।।
वह राजगृही नगरी धन है, त्रैलोक्य गुरू जहाँ थे जन्में।
हैं धन्य सुमित्र पिता माता, सोमा भी धन्य हुईं जग में।।१।।
श्रावण वदि दूज गर्भ बारस१, वैशाख वदी में जन्म लहा।
बैशाख वदी दशमी नवमी, क्रम से दीक्षा औ ज्ञान लहा।।
अस्सी कर तुंग शरीर कहा, प्रभु नील वर्ण अतिशय सुन्दर।
थी तीस हजार वर्ष आयु, कच्छप२ के चिन्ह से जानें नर।।२।।
फाल्गुन वदि बारस को गिरि पर, प्रभु ने सब कर्म विनाशा था।
सुरगण ने आकर के तत्क्षण, शिव हेतु नमाया माथा था।।
भगवन्! मैं वर्ण स्पर्श गंध, औ रस से रहित अरूपी हूँ।
बस तव भक्ती से व्यक्ती हो, मैं एक स्वयं चिद्रूपी हूँ।।३।।
हे देव! तुम्हारी भक्ती का, फल एक यही बस मिल जावे।
प्रतिदिन प्रतिपल अंतिम क्षण तक, तव नाम मंत्र जिह्वा गावे।।
नहिं पीड़ा हो नहिं हों कषाय, बस कंठ अकुंठित बना रहे।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों की, भक्ती में ही मन रमा रहे।।४।।
नमिनाथ ! नमन करते तुमको, मुनिगण सुर नर खेचर आके।
मैं नमूँ सदा तुम चरण कमल, मम रोग शोक संकट भागे।।
मिथिला में विजय पिता माता, वप्पिला उन्हें सुर नर पूजें।
आश्विन वदि दूज गर्भ आए, उस तिथि को भी अब तक पूजें।।१।।
आषाढ़ वदी दशमी जन्में, इन्द्रों ने उत्सव नृत्य किया।
इस ही तिथि में परिग्रह छोड़ा, प्रभु ने निज में विश्राम किया।।
मगसिर सित ग्यारस में प्रभु के, पूर्णैक ज्ञान रवि उदित हुआ।
भव्यों के हृदय सरोज खिले, बहु दिन तक शिव पथ प्रगट रहा।।२।।
तनु साठ हाथ है कनक वर्ण, आयु दस सहस वर्ष प्रभु की।
बैसाख वदी चौदस के दिन, निर्वाण पधारे नमि जिन जी।।
नीलोत्पल चिह्न सहित भगवन् ! सब आधी व्याधि विनाश करो।
मुझ भाक्तिक पर करुणा करके, तत्क्षण मेरे भव पाश हरो।।३।।
नमिनाथ ! नमन करते तुमको, मुनिगण सुर नर खेचर आके।
मैं नमूँ सदा तुम चरण कमल, मम रोग शोक संकट भागे।।
मिथिला में विजय पिता माता, वप्पिला उन्हें सुर नर पूजें।
आश्विन वदि दूज गर्भ आए, उस तिथि को भी अब तक पूजें।।१।।
आषाढ़ वदी दशमी जन्में, इन्द्रों ने उत्सव नृत्य किया।
इस ही तिथि में परिग्रह छोड़ा, प्रभु ने निज में विश्राम किया।।
मगसिर सित ग्यारस में प्रभु के, पूर्णैक ज्ञान रवि उदित हुआ।
भव्यों के हृदय सरोज खिले, बहु दिन तक शिव पथ प्रगट रहा।।२।।
तनु साठ हाथ है कनक वर्ण, आयु दस सहस वर्ष प्रभु की।
बैसाख वदी चौदस के दिन, निर्वाण पधारे नमि जिन जी।।
नीलोत्पल चिह्न सहित भगवन् ! सब आधी व्याधि विनाश करो।
मुझ भाक्तिक पर करुणा करके, तत्क्षण मेरे भव पाश हरो।।३।।
भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना, नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत को नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।१।।
शौरीपुर में प्रभु जन्में तक, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
धन धन्य समुद्रविजय राजा, कृतकृत्य शिवादेवी भी थी।।
कार्तिक सुदि छठ के गर्भागम, श्रावण सुदि छट्ठ जन्म लीना।
यौवन में राजमती के संग, परिजन ने ब्याह रचा दीना।।२।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजीमति मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
श्रावण सुदि छट्ठ सुखद प्यारी, सिरसा वन में जा ध्यान धरा।
आश्विन सुदि एकम आते ही, वैâवल्य श्री ने आन वरा।।३।।
तब राजमती भी दीक्षा ले, आर्या में गणिनी मान्य हुईं।
प्रभु ने शिव का पथ दर्शाया, धर्मामृत वर्षा खूब हुई।।
तनु चालिस हाथ प्रमाण कहा, प्रभु आयू एक हजार वर्ष।
वैडूर्य१ मणी सम कांति अहो, प्रभु शंख चिन्ह से हैं चिह्नित ।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन, पर चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।५।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहें, ढुरते हैें चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसें, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।६।।
आषाढ़ सुदी सप्तमि तिथि थी, प्रभु ऊर्जयंत से सिद्ध हुए।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, तुम पूजें ध्यावें भक्ति लिए।।
हे भगवन्! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टय श्री, ‘सज्ज्ञानमती’ सिद्धिप्रिय जो।।७।।
भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिवपथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१।।
वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेननंदन२! तुम से, वामा३ माँ भी मंगलकारी।।
वैशाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।२।।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहां।
शैशव में सुर संग खेल रहे, अहियुग१ को दीना मंत्र महा।।
तव नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावती होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनि श्रेष्ठ बने।।३।।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल-उगल।
पत्थर फेंके मूसलधारा, वर्षायी आंधी उछल-उछल।।४।।
निष्कारण ही कमठासुर ने, दश भव तक बैर निकाला था।
प्रभु को दुख दे देकर उसने, खुद को दुर्गति में डाला था।।
प्रभु महासहिष्णु क्षमासिन्धु, भव-भव से सहते आये हैं।
तन से ममता को छोड़ दिया, नहिं किंचित् भी घबराए हैं।।५।।
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावती, आ करके बहुभक्ति किया।।
प्रभु को मस्तक पर धारण कर, ऊपर से फण का छत्र किया।
प्रभुवर ने ही उस ही क्षण में, वैâवल्य श्री को वरण किया।।६।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हन्त बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्थी२ तिथि उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, ‘अहिच्छत्र’ तीर्थ यह नाम हुआ।।७।।
नव हाथ देह सौ वर्ष आयु, मरकतमणि सम आभाधारी।
अहि३ चिह्न सहित वे पार्श्वप्रभो! मुझको हों नित मंगलकारी।।
श्रावण सुदि सप्तमि तिथि के दिन, सिद्धीकांता से प्रीति लगी।
मैं नमूं ‘ज्ञानमती’ तुम्हें सदा, मेरी हो सर्वंसहा मती।।८।।
महावीर वीर सन्मति भगवन् ! अतिवीर सदा मंगल करिये।
हे वर्धमान! भव वारिधि से, अब मुझको पार तुरत करिये।।
वह कुंडलपुरि जग पूज्य हुई, सिद्धार्थ दुलारे जन्मे थे।
प्रियकारिणि माँ की गोदी में, त्रिभुवन के गुरुवर खेले थे।।१।।
आषाढ़ सुदी छठ पूज्य हुई, जब गर्भ में प्रभु अवतार लिया।
माता त्रिशला की सेवा का, सुर ललनाओं ने भार लिया।।
शुभ चैत्र सुदी तेरस का दिन, है धन्य धन्य वह सुखद घड़ी।
जब वर्द्धमान ने जन्म लिया, नभ से सुर पंक्ति उमड़ पड़ी।।२।।
प्रभु शैशव में अहिपति फण पर, चढ़कर संगम सुर जीता था।
नहिं ब्याह किया नहिं राज्य किया, जनता का मन भी फीका था।।
मगसिर वदि दशमी धन्य हुई, जब केशलोंच कीना तुमने।
नृप कूल ने प्रथम आहार दिया, पंचाश्चर्य किया देवों ने।।३।।
कौशाम्बी में चन्दना सती, सिर मुंडित जकड़ी बेड़ी में।
प्रभु दर्शन से बेड़ियाँ झड़ीं, सुन्दर तनु हुआ एक क्षण में।।
कोदों भोजन हो गया खीर, प्रभु को आहार दे धन्य हुईं।
यह महिमा तीर्थंकर प्रभु की, पंचाश्चर्यों की वृष्टि हुई।।४।।
अतिमुक्तक वन में ध्यान लीन थे, भव१ ने आ उपसर्ग किया।
तब अचलित प्रभु को देख स्वयं, भार्या सह पूजा भक्ति किया।।
बैशाख सुदी दशमी तिथि में, केवल रवि किरणें प्रकट हुईं।
शुभ समवसरण था रचा हुआ, दिव्यध्वनि फिर भी खिरी नहीं।।५।।
श्रावण श्यामा२ एकम उत्तम, गौतम गणधर जब आए हैं।
विपुलाचल पर ध्वनि प्रगट हुई, मुनिगण सुर नर हर्षाए हैं।।
हे वीर प्रभो! तव शासन में, मुझको रत्नत्रय निधी मिली।
मैं भक्ति सहित प्रणमूँ तुमको, मेरी मन कलियाँ आज खिलीं।।६।।
तनु सात हाथ कांचन कांति, आयू बाहत्तर वर्ष कही।
है चिन्ह मृगेन्द्र प्रभो! तेरा, जो ध्यावे पावे मोक्ष मही।।
कार्तिक वदि चौदस रात्रि अंत, आमावस का प्रत्यूष कहा।
सब कर्म नाश प्रभु मोक्ष गए, स्वात्मोत्थ सहज आनंद लहा।।७।।
पावापुरि के उपवन में जो, सरवर है कमल खिले उसमें।
प्रभु के निर्वाण कल्याणक से, अब तक भी कमल खिले सच में।।
देवों ने आकर पूजा की, महावीर प्रभू त्रिभुवन पति की।
अंधियारी में दीपक ज्वाले, तब से ही दीपावली हुई।।८।।
हे वीर प्रभो! मंगलमय तुम, लोकोत्तम शरणभूत तुम ही।
भव भव के संचित पाप पुँज, इक क्षण में नष्ट करो सब ही।।
मैं बारम्बार नमूँ तुमको, भगवन्। मेरे भव त्रास हरो।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धी देकर, स्वामिन् ! अब मुझे कृतार्थ करो।।९।।