स्थापना-शंभु छंद
हे प्रभुवर पारस नाथ! तुम्हीं, कल्याण के मंदिर कहलाते।
सब कार्यों की सिद्धी हेतु, सब भव्य तुम्हारे गुण गाते।।
श्री कुमुदचन्द्र आचार्य रचित, स्तोत्र पाठ का अर्चन है।
सबसे पहले निज हृदय महल में, आह्वानन स्थापन है।।१।।
दोहा
निज आतम का ध्यान कर, किया स्व पर कल्याण।
बने पंचकल्याणपति, पार्श्वनाथ भगवान।।२।।
हम भी निज कल्याण हित, करें स्तोत्र विधान।
पार्श्वनाथ को नमन कर, हम भी बनें महान।।३।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिर अधिनायक सर्वसिद्धिकारक! श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिर अधिनायक सर्वसिद्धिकारक! श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिर अधिनायक सर्वसिद्धिकारक! श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
तर्ज-ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी……
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान……भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु ने तो जन्म लिया, पर बने अजन्मा हैं।
निज कर्मों से ही वे, बन गये अकर्मा हैं।।
प्रभु की इस मनहर मूरत को, हम आज निरखने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
भव भव में प्रभु हमने, कितना जल पी डाला।
पर शान्त न हो पाई, मेरे मन की ज्वाला।।
भव भव के ताप मिटाने को, जलधारा करने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान……भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
तुमने निज आतम का, क्रोधानल शान्त किया।
अज्ञान अमावस्या में, वैâवल्य प्रकाश दिया।।
तेरा पावन आलोक प्रभो, हम मन में बसाने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
मेरे चैतन्य सदन में, क्रोधाग्नी जलती है।
अज्ञान के अँचल में, छिप-छिप वह पलती है।।
हम इसीलिए चंदन लेकर, भवताप मिटाने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान…भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
अधिपति तुम धवल भवन के, है धवल तेरा दर्शन।
क्षत भी विक्षत होते हैं, सौंदर्य तेरा लखकर।।
तेरी सुन्दर आतमनिधि का, अवलोकन करने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
मेरा जीवन खंडित है, मद मोह व माया में।
अब करना अखंडित है, तव शीतल छाया में।।
अतएव अखण्डित पुँजों से, अक्षयपद पाने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये है।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
चैतन्य वाटिका में तुम, ज्ञानांजलि भरते हो।
आत्मा की सुरभि में तुम, पुष्पांजलि करते हो।।
निष्काम तुम्हारे यौवन को, हम वंदन करने आए हैं।।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
कितने उद्यानों में जा, पुष्पों की गंध लिया।
कभी घर को सजाया मैंने, कभी निज शृँगार किया।
अब तेरे पावन चरणों में, हम पुष्प चढ़ाने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान……भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
वेदनी कर्म पर प्रभु जी, तुमने आक्रमण किया।
भग गई क्षुधा तव तन की, आत्मा में रमण किया।।
परमौदारिक तन युक्त प्रभो की, कान्ति निरखने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
हमने कितने भव-भव में, पकवान बहुत खाए।
लेकिन इस नश्वर तन की, नहिं भूख मिटा पाए।।
क्षुध रोग निवारण हेतु प्रभो! नैवेद्य थाल भर लाए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान….भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
विज्ञान नगर में तुमने, निज ज्ञानालोक किया।
वैâवल्य कला के द्वारा, जग को आलोक दिया।।
तेरी उस ज्ञान प्रभा को हम, शत वंदन करने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
अज्ञान नगर में मेरा, चिरकाल से है रमना।
नृप मोह के बंधन में, नहिं पूर्ण हुआ सपना।।
अज्ञान अंधेर मिटाने को, हम दीप जलाकर लाए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान……भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आय्ो हैं।।टेक.।।
कर्मों की धूप जलाकर, सुरभित निज महल किया।
नोकर्मों को भी गलाकर, विकसित गुणमहल किया।।
तेरा गुणमहल निरखने को, हम द्वार तिहारे आये हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
हमने कर्मों में निज को, आनन्दित माना है।
अतएव निजातम सुख को, िंकचित् नहिं जाना है।।
कर्मों के ज्वालन हेतु प्रभो, हम धूप जलाने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान…….भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।
भव भव की पुण्य प्रकृतियाँ, तीर्थंकर फल लाईं।।
तेरी अर्चा के बहाने, तव शरण प्रभो आईं।।
तेरे वैभव अवलोकन को, हम समवसरण में आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।।
मैं क्षणिक विनश्वर फल के, स्वादों में पँâसा रहा।
जिव्हा की लोलुपता में, उत्तम फल को न लहा।।
तुम सम फल की प्राप्ती हेतू, फल थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पार्श्व तुम्हारी पूजा से, सब संकट हरने आये हैं।
भगवान……..भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।टेक.।।
सब दोष रहित प्रभु पारस, जग पारस करते हो।
तुम निज में रम करके, ज्ञानामृत भरते हो।।
तेरा ज्ञानामृत चखने को, हम भक्ती करने आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।१।। मैं अष्टद्रव्य लेकर के, तव सन्निध आया हूँ।
अष्टम वसुधा पाने को, मैं भी ललचाया हूँ।।
प्रभु सिद्धशिला की प्राप्ति हेतु, कुछ भक्त तेरे दर आए हैं।
भगवान तुम्हारी भक्ती से, सब सिद्धी करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं कल्याणमंदिरअधिनायकसर्वसिद्धिकारक श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तर्ज-करती हूँ तुम्हारी भक्ति……..
जब तक गंगा यमुना में, जलधार बहेगी।
पारस प्रभुवर के ज्ञान गंग की, धार रहेगी।।
हे पार्श्व प्रभू जी, हे पार्श्वप्रभू जी ।।टेक.।।
कंचनझारी से चरणों में, त्रयधारा करनी है।
सांसारिक जन्म जरा मृत्यू की बाधा हरनी है।।
मेरे आतम मंदिर में सुख का, सार भरेगी।
पारस प्रभुवर के ज्ञानगंग की, धार बहेगी।।हे पार्श्व.।।१।।
शांतये शांतिधारा।
जब तक स्वर्गों में कल्पवृक्ष का, वास रहेगा।
पारसप्रभु के गुणपुष्पों का, इतिहास रहेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा……..
चंपा चमेली पुष्पों से, पुष्पांजलि करना है।
आध्यात्मिक गुण से अन्तर्मन को, सुरभित करना है।।
उस क्षमा पुष्प का जीवन में, संवास रहेगा।
पारस प्रभु के गुणपुष्पों का, इतिहास रहेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा।।२।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तर्ज-आए महावीर भगवान, माता त्रिशला के आँगन में……..
कर के पारस प्रभू का ध्यान, हम पारस बन जाएंगे।
हम पारस बन जाएंगे, मुक्तिश्री पा जाएंगे।।कर के…..।।
वैशाख कृष्ण दुतिया को, माता के गर्भ पधारे।
माता वामा ने सोलह, सुपने देखे थे प्यारे।।
कर के भक्ति गर्भकल्याण, हम पारस बन जाएंगे।।१।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ पौष कृष्ण ग्यारस को, तीर्थंकर बालक जन्मे।
शचि गई प्रभू को लेने, माता के प्रसूति गृह में।।
पूजा करके जन्मकल्याण, हम पारस बन जाएंगे।।२।।कर के…..।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौषी कृष्णा एकम को, दीक्षाधारी जा वन में।
लौकान्तिक सुरगण आए, प्रभु की संस्तुति भी करने।।
जज के दीक्षा शुभकल्याण, हम पारस बन जाएंगे।।३।।कर के….।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत्र चतुर्थी के दिन, प्रभु केवलज्ञान हुआ था।
सबने प्रभु समवसरण में, दिव्यध्वनि पान किया था।।
भज लें प्रभु का केवलज्ञान, हम पारस बन जाएंगे।।४।। कर के….।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा चतुर्थ्यां केवलज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण शुक्ला सप्तमि को, प्रभु का निर्वाण हुआ था।
सम्मेदशिखर पर्वत पर, इन्द्रों ने हवन किया था।।
पूजन करें मोक्षकल्याण, हम पारस बन जाएंगे।।५।।कर के…..।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।