कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामर स्तोत्र का तुलनात्मक अनुशीलन
स्तोत्र का जैन परम्परा में अर्थ
(स्तोत्रद्वय में साम्य)
स्तोत्र शब्द का अदादि गण की उभयपदी ‘स्तु’ धातु से ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्तुति शग्द स्तोत्र का पर्यायवाची है, जो स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है, जबकि स्तोत्र शब्द नपुसंक निङ्ग में प्रयुक्त होता है।
गुणसंकीर्तन आराधक द्वारा आराध्य की भक्ति का एक माध्यम है, जो अभीष्ट सिद्धिदायक तो है ही, विशुद्ध हाने पर भवनाशक भी होता है।श्री वादीभसिंह सूरि ने भक्ति को मुक्ति रूपी कन्या से पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। उनका कहना है जो शुभ भक्ति मुक्ति को प्राप्त करा सकती है, वह अन्य क्षुद्र क्या-क्या कार्य सिद्ध नहीं कर सकती है –
‘श्रीपतिर्भगवान् पुष्याद् भक्तानां वा समीहितम् ।
यद्भक्ति:शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ।।’
‘सती भक्ति: भवति मुक्तयै क्षुदं किं वा न साधयेत् ।
त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभ: किं तुषोत्कर: ।।
क्षत्रचूडामणि, १.१,२
अत: स्पष्ट है कि भक्ति शिवेतरक्षित (अमंगलनाश) एवं सद्य: परनिर्वृति (त्वरित आनन्दप्राप्ति) के साथ पम्परया मुक्ति की भी साधिका है। यद्यपि स्तुति शग्द का प्रयोग प्राय: अतिप्रशंसा में होता है, किन्तु जैन परम्परा में स्तुति शब्द का प्रयोग अतिप्रशंसा में नहीं अपितु आंशिक गुणानुवाद के रूप में हुआ है। जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए श्री समन्तभद्राचार्य ने लिखा है –
‘गुणस्तोकं समुल्लंघ्य तद्बहुत्वकथा स्तुति: ।
आनन्त्यास्ते गुणा: वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ।।
स्वयंभूस्तोत्र,
अर्थात् थोड़े गुणों को पाकर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर कहना स्तुति कही जाती है, परन्तु हे भगवन् ! तुम्हारे तो अनन्त गुा हैं, जिनका वर्णन करना असंभव है। अत: तुम्हारे विषय में स्तुति का यह अर्थ कैसे संगत हो सकता है ? इस विषय में कल्याणमन्दिरस्तोत्र में तथा भक्तामरस्तोत्र में भी कहा गया है –
‘अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ !जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य।
बालोऽपि किं निजबाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे: ।।’
-कल्याणमंदिर, ५
‘वक्तुं गुणान्गुणसमुद्रशशांककान्तान् कस्ते क्षम: सुरगुरुप्रतिमोऽवि बुद्धया ।
कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।’
-भक्तामर, ४
उक्त दोनों पद्यों का मुनि श्री सौरभसागरकृत पद्यानुवाद द्रष्टव्य है – ‘‘हे प्रभु मैं हूँ मतिहीन पर, तुम गुण-रत्नों के आगार फिर भी तेरी स्तुति करने, खड़ा हुआ बुद्धि अनुसार। अपनी छोटी भुजा से बालक, सहत भाव दर्शाता है देखो कितना बड़ा है सागर, और हाथ फैलाता है ।।’’ ‘‘प्रलयकाल की तीव्र पवन से क्रोधित मगरों से भरपूर । अम्बुनिधि को बाहुबल से पार करे न कोई शूर ।। हे गुणसागर चन्द्राकान्तमय तेरा रूप है आभावाना् । वृहस्पतिसम बुद्धिमान् भी कर न सके महिमा का वखान ।।’’
काव्य एवं स्तोत्र का प्रयोजन (स्तोत्रद्वय में समानता)
भारतीय मनीषियों के अनुसार काव्य का प्रयोजन मात्र प्रेय या ऐहिक न होकर श्रेय एवं आमुष्मिक भी है। आचार्य कुमुदचन्द्र के कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं आचार्य मानतुंगकृत भक्तामृतस्तोत्र में उभयविध प्रयोजन समाहित है। काव्यसरणि का अवलम्बन लेने से, गेय होने से एवं कष्टनिवारण में समर्थ होने से जहाँ ये प्रेय हैं एवं सद्य: परनिर्वृतिकाक हैं, वहाँ भक्ति का अंग होने से एवं परम्परया मुक्तिसाधक होने से श्रेस्य भी है।
काव्यात्मक वैभव एवं भक्तहृदय के महनीय गौरव के कारण जहां ये दोनों स्तोत्र प्रथम श्रेणी के हैं, वहाँ मुनि अग्रणी स्थान की अधिकारी होगी। कल्याणमन्दिरस्तोत्र के अन्य पद्य में ‘अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते’कल्याणमन्दिर स्तोत्र, ४४ तथा भक्तामरस्तोत्र में ‘तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी:’ भक्तामर स्तोत्र, ४८ कहकर श्रेय रूप प्रयोजन को स्पष्ट किया गया है। प्रेय रूप प्रयोजन का कथन तो स्तोत्रद्वय में सर्वत्र अनुस्यूत है ही।
गुणानुवाद का उद्देश्य एवं मनोविज्ञान –
गुणानुवाद का मूल उद्देश्य तद्गुणप्राप्ति और तज्जन्य सुखप्राप्ति है। मनोविज्ञान का यह विचा शाश्वत सत्य है कि संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से डरता है। पण्डितप्रवर दौलतराम जी ने भी कहा है –
‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतैं भयवन्त। ’छहढाला, प्रथम छालकिन्तु सुख प्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है।
जहाँ जड़वादी भौतिक सामग्री को सुख का कारण मानते हैं, वहाँ अध्यात्मवादी एवं कतिपय मनोवैज्ञानिक इच्छाओं के शमन या अभाव को वास्तविक सुख स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुखप्राप्ति का एक सूत्र बताया है – Achievement (लाभ) Expectation (आशा) = Satisfaction (संतुष्टि) अर्थात् लाभ अधिक हो- आशा कम हो तो सुख प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो लाभ कम हो तो दु:ख मिलता है। इस सूत्र का सार यह है कि मनुष्य को आशायें कम करके सुख प्राप्त करना चाहिए।
जब आशायें शून्य हो जाती हैं, तब परमानन्द की प्राप्ति होती है। भातीय मनीषियों ने आशाओं की न्यूनता या शून्यता का प्रमुख कारण स्तुति (भाक्ति) एवं विरकिक्त को माना है। यत: कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के रचयिता दोनों दिगम्बराचार्य हैं तथा उनके पद्यानुवादक श्री सौरभसागर जी महाराज दिगम्बर मुनि हैं, अत: उनकी कृतियों में गुणानुवाद का मूल उद्देश्य सर्वत समाहित दृष्टिगोचर होता है।
गुणानुवाद के उद्देश्य का कथन करते हुए कल्याणमन्दिर स्तोत्र में कहा गया है कि हे जिनेन्द्र ! जो मनीषी अभिन्न बुद्धि से आपको ध्यान करते हैं वे आपके प्रभाव से आपके समान ही बन जाते हैं –
‘आत्मा मनीषिभिरयं त्वभेदबुद्धया ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभाव: । ’
कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १७ का पूर्वाद्र्ध
भक्तामरस्तोत में इस बात को शब्दान्तर में इस प्रकार कहा गया है कि उसकी स्तुति से क्या लाभ है, जो अपने आश्रित को अपने समान नहीं बना देता है-
‘तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।
–भक्तामरस्तोत्र, १० का उत्तराद्र्ध
प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन – साधना या वैराग्य की वृद्धि करने में सबसे बड़ा साधन प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन है।योगसूत्र, २.३३ यदि अशुभ को त्यागना है तो शुभ का संकल्प करना आवश्यक है और शुभ को प्राप्त करना है तो अशुभ को त्यागने का चिन्तन आवश्यक हैं महर्षि पातञ्जलि ने स्पष्टतया कहा है -‘वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ।
’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ९ अर्थात् एक पक्ष को तोड़ना है, तो प्रतिपक्ष की भावना पैदा करो। आचार्य कुमुदचन्द्र ओर आचार्य मानतुंग दोनों ही भवसन्तति, पाप एवं कर्मबन्ध के विनाश के लिए भववत् चिन्तन को आवश्यक मानते हैं। कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के निम्नलिखित पद्य इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
‘हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तो: क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धा: ।
सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग- मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।।’
– कल्याणमन्दिर, ८
भाव यह है कि हे भगवन् ! आपके हृदय में विराजमान होने पर क्षण भर में प्राणी के दृढ़ कर्मबन्धी उसी प्रकार शिथिल हो जो हैं, जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष के मध्य में मयूर के आने पर लिपटे हुए साँपों के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग भगवद्भक्ति के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं –
‘त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरजाम् ।
आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकरम् ।।’
– भक्तामर, ७
अर्थात् हे भगवन् ! आपकी स्तिति करने से प्राणियों का अनेक जनें से बंधा हुआ पापकर्म क्षण भर में उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणों से संसार भर में पैâला हुआ घोर अन्धकार क्षण भर में नष्ट हो जाता है। नामकरण में साम्य – कल्याणमन्दिर स्तोत्र का वास्तविक नाम पार्श्वनाथस्तोत्र तथा भक्तामर स्तोत्र का वास्तविक नाम आदिनाथ स्तोत्र या ऋषभस्तोत्र है, क्योंकि इनमें क्रमश: पार्श्वनाथ भगवान् एवं आदिनाथ भगवान् का स्तवन किया गया है।
जिस प्रकार पाश्र्वनाथस्तोत्र का प्रथम पद ‘कल्याणमन्दिर’ (कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदिभकतामर स्तोत्र) के आधार पर उसका नाम कल्याणमन्दिर स्तोत्र पड़ गया है, उसी प्रकार आदिनाथ स्तोत्र क प्राथम पद
‘भक्तामर’ (भक्तामरप्रणतमौनिमणिप्रभाणकल्याणमन्दिरस्तोत्र, ४४)
के आधार पर उसका नाम भक्तामर स्तोत्र पड़ गया है। कुछ अन्य एकीभावस्तोत्र आदि में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। ब्याजेन स्वनामोल्लेख में साम्य – जैसे कल्याणमन्दिरस्तोत्र के रचियता आचार्य कुमुदचन्द्र ने अन्तिम श्लोक में जिनेन्द्र भगवान् को ‘जननयनकुमुदचन्द्र’ भक्तामर स्तोत्र, ४८ (प्राणियों के नेत्र रूपी कुमुदों को विकसित करने में चन्द्रमा) कहकर अपने नाम कुमुदचन्द्र का ब्याज से उल्लेख कर दिया है, वैसे ही भक्तामर स्तोत्र के रचियता आचार्य मानतुंग ने ‘मानतुंग’आत्मानुशासन, १८२ (स्वाभिमान से उन्नत पुरुष) को स्वतन्त्र मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है – ऐसा कहकर अपने नाम का ब्याज उल्लेख कर दिया है। इस प्रकार दोनों ही स्तोत्रों के रचयिताओं में स्वनामोल्लेख में साम्य है। नम्रता प्रदर्शन में समानता – आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपनी लघुता/नम्रता का प्रदर्शन करते हुए कहा है –
‘अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ! जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य ।
बालोऽपि किं न निजाबाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे: ।।’
-कल्याणमन्दिर, ५
अर्थात् हे स्वामिन् मतिहीन होने पर भी मैं असंख्य गुणों के सागर आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूूं। क्या छोटा सा बालक भी अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर अपनी बुद्धि से समुद्र की विस्तीर्णता का कथन नहीं करता ? अर्थात् करता ही है।
बुद्धया विनापि विबुधार्चितपादपीठ । स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोहम् ।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ।।’
-भक्ता, ३
अर्थात् हे देवों द्वारा अर्चित पादपीठ वाले भगवान् ! बुद्धिहीन होते हुए भी निर्लज्ज होकर मैं आपकी स्तुति करने में अपनी बुद्धि लगा रहा हूँ। जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बच्चे को छोड़कर अन्य कौन व्यक्ति पकड़ने की अच्छा करता है ? अर्थात् कोई नहीं। स्पष्ट है कि दोनों ही आचार्यो ने अपनी लघुता के प्रदर्शन में समान पद्धति अपनाई है दोनों ही उदाहरणों में बाल मनोविज्ञान की गजब की प्रस्तुति है। भय और काम की विवेचना – जैन दर्शनके अनुसार मोहनीय कर्म रूपी बीज से राग एवं द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए ज्ञान रूपी अग्नि से मोहनीय कर्म रूपी बीज को नष्ट करने की बात जैन शास्त्रों में कही गई है। आचार्य गुणभद्र ने लिखा है-
‘मोहबीजाद् रतिद्वेषौ बीजान्मूलांकुराविव ।
तस्मान्ज्ज्ञानाग्निना दाह्यं एतेतौ निर्दिधिक्षुणा ।।
उत्तराध्ययन सूत्र, ३२७
दु:ख का मूल कारण ये राग और द्वेष भाव ही हैं क्योंकि ये दोनों भाव कर्म के बीज हैं। कर्म से जन्म-मरण ओर जन्म-मरण से दु:ख होता है। कहा भी गया है –
‘रागो य दोसो वियं कम्मबीजं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ।
कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति ।।
’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ४१
मनोविज्ञान के अनुसार भी अनुभूतियाँ दो प्रकार की हैं – प्रीत्यात्मक और अप्रीत्यात्मक। इनको काम एवं भय रूप मन:संवेग वाला कहा गया है। भय संसारी मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। भय से त्रस्त मानव भय के कारणों से संरक्षित होने का निरन्तर प्रयास करता है।
अपनी रक्षा के लिए वह अपने आराध्य की शरण में जाकर अपने को सुरक्षित मानने की भावना करता है। कठिन परिस्थितियों में वह अदेव, कुदेव या स्वर्गादि देवों से भी याचना करने लगता है। किन्तु ये वास्तविक शरण नहीं है। वास्तविक शरण तो अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म ही है। यद्यपि वीतराग भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते हैं किन्तु उनकी प्र्राािना से दु:खों का नाश अवश्य होता है।
पापकर्म भी पुण्य रूप में संक्रमित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे मार्गान्तीकरण (Redirection) कहते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र भगवान् पाश्र्वनाथ की स्तुति करते हुए उसे महान् भयानक दु:ख रूपी सागर से पार करने की प्रार्थना करते हैं –
देवेन्द्रवन्द्य विदिताखिलवस्तुसार ! संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! त्रायस्व देव !
करुणाहृद ! मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशे: ।।’
भक्तामर स्तोत्र, ४७आचार्य मानतुंग भगवान् आदिनाथ की स्तुति से सभी भयों को निवारणीय मानते हुए कहते हैं –
‘मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि- संग्रामवारिधिजलोदरबन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्ताकं स्तवामिमं मतिमानधीते ।।’
अर्थात् जो व्यक्ति आपकी इस स्तुति को पढ़ता है, उसका मदमत्त हाथी, शेर, जंगल की अग्नि, सांप, युद्ध, समुद्रद्व जलोदर रोग और बन्धन से उत्पन्न भय स्वयं ही डरकर तत्काल भाग जाता है। ‘उपयाति भयं भियेव’ में स्तुति के अनुपम सामथ्र्य का वर्णन असाधारण है। भय के पश्चात् काम महत्त्वपूर्ण मन:संवेग है।
यह प्राय: धीरों को भी विचलित कर देता है। जिनेन्द्र भगवान् ने ऐसी शक्ति प्रकट कर ली है कि काम उनका मन बिल्कुल भी विचलित नहीं कर पाता है। पाश्र्व प्रभु की स्तुति करते हुए आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
‘यस्मिन्हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावा: सोऽपि त्वया रतिपति: क्षपित: क्षणेन ।
विध्ययापिता हुतभुज: पयसाथ येन पीतं न किं तदापि दुर्धरवाडवेन ।।’
भकतामरस्तोत्र, १५
अर्थात् जिस काम ने हर आदि का प्रभाव भी नष्ट कर दिया था, उस कामदेव को भी आपने क्षणभर में नष्ट कर दिया था। जो जल दावानल को नष्ट कर देता है, क्या वडवानल उस जल को नष्ट नहीं कर देता है? अर्थात् कर ही देता है। आचार्य मानतुंग भी ऋषभदेव की स्तुति करते हुए इसी भाव को अन्य रूप में प्रकट करते हुए कहते हैं।
‘चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि- र्नीतं मनागापि मनो न विकारमार्गम् ।
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।।
वही, २२
अर्थात् यदि तुम्हारा मन देवांगनाओं के द्वारा जरा भी विकारमार्ग को प्राप्त नहीं कराया गया तो इसमें आश्चर्य है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की हवा के द्वारा क्या सुमेरु पर्वत का शिखर कभी हिना है ? अर्थात् नहीं हिला है। महापुरुषों के जन्मदायक सन्मातृत्व की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं –
‘स्त्रीणां शतानि शतशोजनयन्ति पुत्रान् नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा: दिशा दधति भानि सहस्ररशिमं प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।’
अर्थात् सौकड़ों स्त्रियों पुंत्रों को उत्पन्न करती हैं, किन्तु अन्य किसी माता ने तुम जैसे पुत्र को उत्पन्न नहीं किया है। सभी दिशायें नक्षत्रों को धारण करती हैं, किन्तु पूव्र दिशा ही चमकदार किरणों वाले सूर्य को उदित करती हैं। निमित्त कारणा की सामथ्र्य की स्वीकार्य – आचार्य कुमुदचन्द्र एवं आचार्यमानतुंग भक्ति को एहिक एवं पारलौकिक फलप्राप्ति में कार्यकारी मानते हुए निमित्त की सामथ्र्य को स्वीकार करते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
‘धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा- दास्तां जनों भवति ते तरुरप्यशोक: ।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किं वा विवोधमुपयाति न जीवलोक: ।।’
हे प्रभु ! आपके धर्मोपदेश के समय जो समीप आता है, उस मानव की बात तो रहने दो, वृक्ष भी अशोक (शोक रहित) हो जाता है। क्या सूर्य के उदित हो जाने पर वृक्षों के साथ जीवों का समूह जागरण को प्राप्त नहीं हो जाता है ? अर्थात् हो ही जाता है। आचार्य मानतुंग भी निमित्त कारण की शक्ति को स्वीकार करते हुए कहते हैं-
‘अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैक हेतु: ।।’
विद्वानों के हास्य के पात्र अल्पज्ञानी मुझको तुम्हारी भक्ति ही जबरन वाचाल बना रही है। वास्तव में जो कोयल बसन्त ऋतु में मधुर शब्द करती है, वह आम की सुन्दर कलियों के कारण ही है। आचार्य मानतुंग द्वारा प्रयुक्त ‘किल’ एवं ‘एकहेतु’ शब्द निमित्त की कार्यकारिता का दृढ़तापूर्वक समर्थन करते हैं। आराध्य के नाम-स्मरण का प्रभाव – प्राय: लोग ऐसा कहा करते हैं कि नामस्मरण रूप भक्ति में क्या रखा है ? किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि गाली का नाम सुनकर जब हमें क्रोध एवं प्रशंसा सुनकर हर्ष उत्पन्न हो जाता है, जो प्रभु के नामोच्चारण का प्रभाव न पड़े, ये कैसे हो सकता है? अचार्य नामस्मरण के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं –
‘आस्तामचिन्त्यमहमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।
तीव्रातपोपहतपान्थजनन् निदाधे प्रीणाति पद्मसरस: सरसानिलोऽपि ।।’
हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपके संस्तवन कर अचिन्त्य महिमा की बात तो रहने दो आपका नाम भी जीवों की संसार के दु:खों से रक्षा करता है। ग्रीष्म काल में तीव्र सन्ताप से पीड़ित राहगीरों को जलनसाश की सरस पवन भी प्रसन्न कर देती है। इसी प्रकार आचार्य मानतुंग भी नाम के प्रभाव का कथन करते हुए लिखते हैं–
‘आस्तां तवस्तवनमस्तसमस्तदोषं त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।’
दृष्टव्य कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १९-२६ एवं भक्तामरस्तोत्र, २८-३५
हे भगवान् ! तुम्हारे निर्दोष स्तवन की बात तो दूर ही है, तुम्हारी चर्चा भी प्राणियों के पापों को नष्ट कर देती है। सूर्य की बात तो दूर, उसकी प्रभा ही जलाशयों में कमलों को विकसित कर देती है। प्रातिहार्यवर्णन में समानता – आचार्य कुमुदचन्द्र ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र मे और आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अशोक वृद्वा, पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, चमर, सिंहासन भमण्डल, दुन्दुभि और छत्रत्रय इन आछ प्रातिहोरों का वर्णन किया है, जो वण्र्यविषय, भाषा, भाव आदि की दृष्टि से अनेकत्र समानता लिए हुए हैं। यह समानता आकस्मिक नहीं है, किसी एक स्तोत्र से दूसरा स्तोत्र अवश्य प्रभावित प्रतीत होता है।
भक्तामर स्तोत्र के पद्य संख्या ३२ से ३५ तक में दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भमण्डल और दिव्यध्वनि का विवेचन है। श्वेताम्बर परम्परा में इन चार श्लोकों को छोड़कर शेष ४४ श्लोकों को स्वीकार करती हैं किन्तु आठ प्रातिहार्य तो श्वोताम्बर परम्परा में भी मान्य है। वे स्वयं कल्याणमन्दिर स्तोत्र में तो आठों प्रातिहार्य मानते हें।
ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित् कल्याणमन्दिरस्तोत्र की ४४ पद्य संख्या के आधार पर उन्होंने भक्मार स्तोत्र की ४४ ही पद्य संख्या स्वीकार करने लिए ऐसा मान लिया हो। सिंहासन प्रातिहार्य के वर्णन के सन्दर्भ में कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामर स्तोत्र के निम्नलिखित श्लोक तुलनीय है।‘
श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न-‘सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् ।
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् ।
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै –बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं श्चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ।।
’तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मे: ।।’
–कल्याणमन्दिरस्तोत्र, २३ –भक्तामरस्तोत्र, २९