कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामर स्तोत्र का तुलनात्मक अनुशीलन
स्तोत्र का जैन परम्परा में अर्थ
(स्तोत्रद्वय में साम्य)
स्तोत्र शब्द का अदादि गण की उभयपदी ‘स्तु’ धातु से ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्तुति शग्द स्तोत्र का पर्यायवाची है, जो स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है, जबकि स्तोत्र शब्द नपुसंक निङ्ग में प्रयुक्त होता है। गुणसंकीर्तन आराधक द्वारा आराध्य की भक्ति का एक माध्यम है, जो अभीष्ट सिद्धिदायक तो है ही, विशुद्ध हाने पर भवनाशक भी होता है।श्री वादीभसिंह सूरि ने भक्ति को मुक्ति रूपी कन्या से पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। उनका कहना है जो शुभ भक्ति मुक्ति को प्राप्त करा सकती है, वह अन्य क्षुद्र क्या-क्या कार्य सिद्ध नहीं कर सकती है –
‘श्रीपतिर्भगवान् पुष्याद् भक्तानां वा समीहितम् । यद्भक्ति:शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ।।’
‘सती भक्ति: भवति मुक्तयै क्षुदं किं वा न साधयेत् । त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभ: किं तुषोत्कर: ।।
क्षत्रचूडामणि, १.१,२
अत: स्पष्ट है कि भक्ति शिवेतरक्षित (अमंगलनाश) एवं सद्य: परनिर्वृति (त्वरित आनन्दप्राप्ति) के साथ पम्परया मुक्ति की भी साधिका है। यद्यपि स्तुति शग्द का प्रयोग प्राय: अतिप्रशंसा में होता है, किन्तु जैन परम्परा में स्तुति शब्द का प्रयोग अतिप्रशंसा में नहीं अपितु आंशिक गुणानुवाद के रूप में हुआ है। जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए श्री समन्तभद्राचार्य ने लिखा है –
अर्थात् थोड़े गुणों को पाकर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर कहना स्तुति कही जाती है, परन्तु हे भगवन् ! तुम्हारे तो अनन्त गुा हैं, जिनका वर्णन करना असंभव है। अत: तुम्हारे विषय में स्तुति का यह अर्थ कैसे संगत हो सकता है ? इस विषय में कल्याणमन्दिरस्तोत्र में तथा भक्तामरस्तोत्र में भी कहा गया है –
कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।’
-भक्तामर, ४
उक्त दोनों पद्यों का मुनि श्री सौरभसागरकृत पद्यानुवाद द्रष्टव्य है – ‘‘हे प्रभु मैं हूँ मतिहीन पर, तुम गुण-रत्नों के आगार फिर भी तेरी स्तुति करने, खड़ा हुआ बुद्धि अनुसार। अपनी छोटी भुजा से बालक, सहत भाव दर्शाता है देखो कितना बड़ा है सागर, और हाथ फैलाता है ।।’’ ‘‘प्रलयकाल की तीव्र पवन से क्रोधित मगरों से भरपूर । अम्बुनिधि को बाहुबल से पार करे न कोई शूर ।। हे गुणसागर चन्द्राकान्तमय तेरा रूप है आभावाना् । वृहस्पतिसम बुद्धिमान् भी कर न सके महिमा का वखान ।।’’
काव्य एवं स्तोत्र का प्रयोजन (स्तोत्रद्वय में समानता)
भारतीय मनीषियों के अनुसार काव्य का प्रयोजन मात्र प्रेय या ऐहिक न होकर श्रेय एवं आमुष्मिक भी है। आचार्य कुमुदचन्द्र के कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं आचार्य मानतुंगकृत भक्तामृतस्तोत्र में उभयविध प्रयोजन समाहित है। काव्यसरणि का अवलम्बन लेने से, गेय होने से एवं कष्टनिवारण में समर्थ होने से जहाँ ये प्रेय हैं एवं सद्य: परनिर्वृतिकाक हैं, वहाँ भक्ति का अंग होने से एवं परम्परया मुक्तिसाधक होने से श्रेस्य भी है। काव्यात्मक वैभव एवं भक्तहृदय के महनीय गौरव के कारण जहां ये दोनों स्तोत्र प्रथम श्रेणी के हैं, वहाँ मुनि अग्रणी स्थान की अधिकारी होगी। कल्याणमन्दिरस्तोत्र के अन्य पद्य में ‘अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते’कल्याणमन्दिर स्तोत्र, ४४ तथा भक्तामरस्तोत्र में ‘तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी:’भक्तामर स्तोत्र, ४८ कहकर श्रेय रूप प्रयोजन को स्पष्ट किया गया है। प्रेय रूप प्रयोजन का कथन तो स्तोत्रद्वय में सर्वत्र अनुस्यूत है ही।
गुणानुवाद का उद्देश्य एवं मनोविज्ञान – गुणानुवाद का मूल उद्देश्य तद्गुणप्राप्ति और तज्जन्य सुखप्राप्ति है। मनोविज्ञान का यह विचा शाश्वत सत्य है कि संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से डरता है। पण्डितप्रवर दौलतराम जी ने भी कहा है –
‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतैं भयवन्त। ’छहढाला, प्रथम छालकिन्तु सुख प्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ जड़वादी भौतिक सामग्री को सुख का कारण मानते हैं, वहाँ अध्यात्मवादी एवं कतिपय मनोवैज्ञानिक इच्छाओं के शमन या अभाव को वास्तविक सुख स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुखप्राप्ति का एक सूत्र बताया है – Achievement (लाभ) Expectation (आशा) = Satisfaction (संतुष्टि) अर्थात् लाभ अधिक हो- आशा कम हो तो सुख प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो लाभ कम हो तो दु:ख मिलता है। इस सूत्र का सार यह है कि मनुष्य को आशायें कम करके सुख प्राप्त करना चाहिए। जब आशायें शून्य हो जाती हैं, तब परमानन्द की प्राप्ति होती है। भातीय मनीषियों ने आशाओं की न्यूनता या शून्यता का प्रमुख कारण स्तुति (भाक्ति) एवं विरकिक्त को माना है। यत: कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के रचयिता दोनों दिगम्बराचार्य हैं तथा उनके पद्यानुवादक श्री सौरभसागर जी महाराज दिगम्बर मुनि हैं, अत: उनकी कृतियों में गुणानुवाद का मूल उद्देश्य सर्वत समाहित दृष्टिगोचर होता है। गुणानुवाद के उद्देश्य का कथन करते हुए कल्याणमन्दिर स्तोत्र में कहा गया है कि हे जिनेन्द्र ! जो मनीषी अभिन्न बुद्धि से आपको ध्यान करते हैं वे आपके प्रभाव से आपके समान ही बन जाते हैं –
प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन – साधना या वैराग्य की वृद्धि करने में सबसे बड़ा साधन प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन है।योगसूत्र, २.३३ यदि अशुभ को त्यागना है तो शुभ का संकल्प करना आवश्यक है और शुभ को प्राप्त करना है तो अशुभ को त्यागने का चिन्तन आवश्यक हैं महर्षि पातञ्जलि ने स्पष्टतया कहा है -‘वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ।’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ९ अर्थात् एक पक्ष को तोड़ना है, तो प्रतिपक्ष की भावना पैदा करो। आचार्य कुमुदचन्द्र ओर आचार्य मानतुंग दोनों ही भवसन्तति, पाप एवं कर्मबन्ध के विनाश के लिए भववत् चिन्तन को आवश्यक मानते हैं। कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के निम्नलिखित पद्य इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
भाव यह है कि हे भगवन् ! आपके हृदय में विराजमान होने पर क्षण भर में प्राणी के दृढ़ कर्मबन्धी उसी प्रकार शिथिल हो जो हैं, जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष के मध्य में मयूर के आने पर लिपटे हुए साँपों के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग भगवद्भक्ति के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं –
अर्थात् हे भगवन् ! आपकी स्तिति करने से प्राणियों का अनेक जनें से बंधा हुआ पापकर्म क्षण भर में उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणों से संसार भर में पैâला हुआ घोर अन्धकार क्षण भर में नष्ट हो जाता है। नामकरण में साम्य – कल्याणमन्दिर स्तोत्र का वास्तविक नाम पार्श्वनाथस्तोत्र तथा भक्तामर स्तोत्र का वास्तविक नाम आदिनाथ स्तोत्र या ऋषभस्तोत्र है, क्योंकि इनमें क्रमश: पार्श्वनाथ भगवान् एवं आदिनाथ भगवान् का स्तवन किया गया है। जिस प्रकार पाश्र्वनाथस्तोत्र का प्रथम पद ‘कल्याणमन्दिर’ (कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदिभकतामर स्तोत्र) के आधार पर उसका नाम कल्याणमन्दिर स्तोत्र पड़ गया है, उसी प्रकार आदिनाथ स्तोत्र क प्राथम पद ‘भक्तामर’ (भक्तामरप्रणतमौनिमणिप्रभाणकल्याणमन्दिरस्तोत्र, ४४) के आधार पर उसका नाम भक्तामर स्तोत्र पड़ गया है। कुछ अन्य एकीभावस्तोत्र आदि में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। ब्याजेन स्वनामोल्लेख में साम्य – जैसे कल्याणमन्दिरस्तोत्र के रचियता आचार्य कुमुदचन्द्र ने अन्तिम श्लोक में जिनेन्द्र भगवान् को ‘जननयनकुमुदचन्द्र’भक्तामर स्तोत्र, ४८ (प्राणियों के नेत्र रूपी कुमुदों को विकसित करने में चन्द्रमा) कहकर अपने नाम कुमुदचन्द्र का ब्याज से उल्लेख कर दिया है, वैसे ही भक्तामर स्तोत्र के रचियता आचार्य मानतुंग ने ‘मानतुंग’आत्मानुशासन, १८२ (स्वाभिमान से उन्नत पुरुष) को स्वतन्त्र मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है – ऐसा कहकर अपने नाम का ब्याज उल्लेख कर दिया है। इस प्रकार दोनों ही स्तोत्रों के रचयिताओं में स्वनामोल्लेख में साम्य है। नम्रता प्रदर्शन में समानता – आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपनी लघुता/नम्रता का प्रदर्शन करते हुए कहा है –
बालोऽपि किं न निजाबाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे: ।।’ -कल्याणमन्दिर, ५
अर्थात् हे स्वामिन् मतिहीन होने पर भी मैं असंख्य गुणों के सागर आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूूं। क्या छोटा सा बालक भी अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर अपनी बुद्धि से समुद्र की विस्तीर्णता का कथन नहीं करता ? अर्थात् करता ही है।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ।।’ -भक्ता, ३
अर्थात् हे देवों द्वारा अर्चित पादपीठ वाले भगवान् ! बुद्धिहीन होते हुए भी निर्लज्ज होकर मैं आपकी स्तुति करने में अपनी बुद्धि लगा रहा हूँ। जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बच्चे को छोड़कर अन्य कौन व्यक्ति पकड़ने की अच्छा करता है ? अर्थात् कोई नहीं। स्पष्ट है कि दोनों ही आचार्यो ने अपनी लघुता के प्रदर्शन में समान पद्धति अपनाई है दोनों ही उदाहरणों में बाल मनोविज्ञान की गजब की प्रस्तुति है। भय और काम की विवेचना – जैन दर्शनके अनुसार मोहनीय कर्म रूपी बीज से राग एवं द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए ज्ञान रूपी अग्नि से मोहनीय कर्म रूपी बीज को नष्ट करने की बात जैन शास्त्रों में कही गई है। आचार्य गुणभद्र ने लिखा है-
दु:ख का मूल कारण ये राग और द्वेष भाव ही हैं क्योंकि ये दोनों भाव कर्म के बीज हैं। कर्म से जन्म-मरण ओर जन्म-मरण से दु:ख होता है। कहा भी गया है –
‘रागो य दोसो वियं कम्मबीजं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ।
कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति ।।’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ४१
मनोविज्ञान के अनुसार भी अनुभूतियाँ दो प्रकार की हैं – प्रीत्यात्मक और अप्रीत्यात्मक। इनको काम एवं भय रूप मन:संवेग वाला कहा गया है। भय संसारी मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। भय से त्रस्त मानव भय के कारणों से संरक्षित होने का निरन्तर प्रयास करता है। अपनी रक्षा के लिए वह अपने आराध्य की शरण में जाकर अपने को सुरक्षित मानने की भावना करता है। कठिन परिस्थितियों में वह अदेव, कुदेव या स्वर्गादि देवों से भी याचना करने लगता है। किन्तु ये वास्तविक शरण नहीं है। वास्तविक शरण तो अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म ही है। यद्यपि वीतराग भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते हैं किन्तु उनकी प्र्राािना से दु:खों का नाश अवश्य होता है। पापकर्म भी पुण्य रूप में संक्रमित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे मार्गान्तीकरण (Redirection) कहते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र भगवान् पाश्र्वनाथ की स्तुति करते हुए उसे महान् भयानक दु:ख रूपी सागर से पार करने की प्रार्थना करते हैं –
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्ताकं स्तवामिमं मतिमानधीते ।।’ कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ११
अर्थात् जो व्यक्ति आपकी इस स्तुति को पढ़ता है, उसका मदमत्त हाथी, शेर, जंगल की अग्नि, सांप, युद्ध, समुद्रद्व जलोदर रोग और बन्धन से उत्पन्न भय स्वयं ही डरकर तत्काल भाग जाता है। ‘उपयाति भयं भियेव’ में स्तुति के अनुपम सामथ्र्य का वर्णन असाधारण है। भय के पश्चात् काम महत्त्वपूर्ण मन:संवेग है। यह प्राय: धीरों को भी विचलित कर देता है। जिनेन्द्र भगवान् ने ऐसी शक्ति प्रकट कर ली है कि काम उनका मन बिल्कुल भी विचलित नहीं कर पाता है। पाश्र्व प्रभु की स्तुति करते हुए आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
विध्ययापिता हुतभुज: पयसाथ येन पीतं न किं तदापि दुर्धरवाडवेन ।।’ भकतामरस्तोत्र, १५
अर्थात् जिस काम ने हर आदि का प्रभाव भी नष्ट कर दिया था, उस कामदेव को भी आपने क्षणभर में नष्ट कर दिया था। जो जल दावानल को नष्ट कर देता है, क्या वडवानल उस जल को नष्ट नहीं कर देता है? अर्थात् कर ही देता है। आचार्य मानतुंग भी ऋषभदेव की स्तुति करते हुए इसी भाव को अन्य रूप में प्रकट करते हुए कहते हैं।
‘चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि- र्नीतं मनागापि मनो न विकारमार्गम् ।
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।। वही, २२
अर्थात् यदि तुम्हारा मन देवांगनाओं के द्वारा जरा भी विकारमार्ग को प्राप्त नहीं कराया गया तो इसमें आश्चर्य है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की हवा के द्वारा क्या सुमेरु पर्वत का शिखर कभी हिना है ? अर्थात् नहीं हिला है। महापुरुषों के जन्मदायक सन्मातृत्व की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं –
सर्वा: दिशा दधति भानि सहस्ररशिमं प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।’ कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १९
अर्थात् सौकड़ों स्त्रियों पुंत्रों को उत्पन्न करती हैं, किन्तु अन्य किसी माता ने तुम जैसे पुत्र को उत्पन्न नहीं किया है। सभी दिशायें नक्षत्रों को धारण करती हैं, किन्तु पूव्र दिशा ही चमकदार किरणों वाले सूर्य को उदित करती हैं। निमित्त कारणा की सामथ्र्य की स्वीकार्य – आचार्य कुमुदचन्द्र एवं आचार्यमानतुंग भक्ति को एहिक एवं पारलौकिक फलप्राप्ति में कार्यकारी मानते हुए निमित्त की सामथ्र्य को स्वीकार करते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
‘धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा- दास्तां जनों भवति ते तरुरप्यशोक: ।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किं वा विवोधमुपयाति न जीवलोक: ।।’ भक्तामर स्तोत्र, ६
हे प्रभु ! आपके धर्मोपदेश के समय जो समीप आता है, उस मानव की बात तो रहने दो, वृक्ष भी अशोक (शोक रहित) हो जाता है। क्या सूर्य के उदित हो जाने पर वृक्षों के साथ जीवों का समूह जागरण को प्राप्त नहीं हो जाता है ? अर्थात् हो ही जाता है। आचार्य मानतुंग भी निमित्त कारण की शक्ति को स्वीकार करते हुए कहते हैं-
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैक हेतु: ।।’ कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ७
विद्वानों के हास्य के पात्र अल्पज्ञानी मुझको तुम्हारी भक्ति ही जबरन वाचाल बना रही है। वास्तव में जो कोयल बसन्त ऋतु में मधुर शब्द करती है, वह आम की सुन्दर कलियों के कारण ही है। आचार्य मानतुंग द्वारा प्रयुक्त ‘किल’ एवं ‘एकहेतु’ शब्द निमित्त की कार्यकारिता का दृढ़तापूर्वक समर्थन करते हैं। आराध्य के नाम-स्मरण का प्रभाव – प्राय: लोग ऐसा कहा करते हैं कि नामस्मरण रूप भक्ति में क्या रखा है ? किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि गाली का नाम सुनकर जब हमें क्रोध एवं प्रशंसा सुनकर हर्ष उत्पन्न हो जाता है, जो प्रभु के नामोच्चारण का प्रभाव न पड़े, ये कैसे हो सकता है? अचार्य नामस्मरण के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं –
तीव्रातपोपहतपान्थजनन् निदाधे प्रीणाति पद्मसरस: सरसानिलोऽपि ।।’ भक्तामरस्तोत्र, ९
हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपके संस्तवन कर अचिन्त्य महिमा की बात तो रहने दो आपका नाम भी जीवों की संसार के दु:खों से रक्षा करता है। ग्रीष्म काल में तीव्र सन्ताप से पीड़ित राहगीरों को जलनसाश की सरस पवन भी प्रसन्न कर देती है। इसी प्रकार आचार्य मानतुंग भी नाम के प्रभाव का कथन करते हुए लिखते हैं–
दृष्टव्य कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १९-२६ एवं भक्तामरस्तोत्र, २८-३५
हे भगवान् ! तुम्हारे निर्दोष स्तवन की बात तो दूर ही है, तुम्हारी चर्चा भी प्राणियों के पापों को नष्ट कर देती है। सूर्य की बात तो दूर, उसकी प्रभा ही जलाशयों में कमलों को विकसित कर देती है। प्रातिहार्यवर्णन में समानता – आचार्य कुमुदचन्द्र ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र मे और आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अशोक वृद्वा, पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, चमर, सिंहासन भमण्डल, दुन्दुभि और छत्रत्रय इन आछ प्रातिहोरों का वर्णन किया है, जो वण्र्यविषय, भाषा, भाव आदि की दृष्टि से अनेकत्र समानता लिए हुए हैं। यह समानता आकस्मिक नहीं है, किसी एक स्तोत्र से दूसरा स्तोत्र अवश्य प्रभावित प्रतीत होता है। भक्तामर स्तोत्र के पद्य संख्या ३२ से ३५ तक में दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भमण्डल और दिव्यध्वनि का विवेचन है। श्वेताम्बर परम्परा में इन चार श्लोकों को छोड़कर शेष ४४ श्लोकों को स्वीकार करती हैं किन्तु आठ प्रातिहार्य तो श्वोताम्बर परम्परा में भी मान्य है। वे स्वयं कल्याणमन्दिर स्तोत्र में तो आठों प्रातिहार्य मानते हें। ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित् कल्याणमन्दिरस्तोत्र की ४४ पद्य संख्या के आधार पर उन्होंने भक्मार स्तोत्र की ४४ ही पद्य संख्या स्वीकार करने लिए ऐसा मान लिया हो। सिंहासन प्रातिहार्य के वर्णन के सन्दर्भ में कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामर स्तोत्र के निम्नलिखित श्लोक तुलनीय है।‘
रूपसौन्दर्य वर्णन – आराधक अपने आराध्य को जगत् में सर्वाङ्गसुन्दर एवं अनुपम मानता है। उसे जगत् के सम्पूर्ण उपमान उसके समक्ष हीन दिखाई देते हैं। आराधक आराध्य के स्वरूप का वर्णन करने में अपने को असमर्थ पाता है। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं –
‘सामान्यतोऽपि तव वर्णायितुं स्वरूप – मस्मादृश: कथमधीश ? भवन्यधीशा: ।
धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धा रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मे: ।।’
कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ३ – कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ३
अर्थात् हे प्रभो ! तुम्हारे रूप का वर्णन करने में हम जैसे लोग सामान्य रूप से भी कैसे समर्थ हो सकते हैं। क्या धृष्ट उल्लू या दिवान्ध सूर्य के रूप का वर्णन कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है। रूप सौन्दर्य वर्णन के प्रसंग में आचार्य मानतुंग जिनेन्द्र देव का वर्णन करते हुए उनके मुख की प्रभा के समक्ष चन्द्रमा की प्रभा को भी हीन मानते हैं। दीपक, सूर्य आदि सभी उपनाम उनके समक्ष फीके हैं। श्री मानतुंग आचार्य द्वारा की गई एक सुन्दर अनन्वय-योजना दृष्टव्य है –
अर्थात् हे तीनोें लोकों में एकमात्र शिरोमणि ! वीतरागता में रूचि रखने वाले जिन परमाणुओं से तुम बनाये गये हो, निश्चित ही वे परमाणु उतने ही थे। क्योंकि सम्पूर्ण पृथिवी में तुम्हारे समान दूसरा रूप नहीं है। भाषा – काव्य की दृष्टि से कल्याणमन्दिर स्तोत्र और भक्तामरस्तोत्र दोनों ही महत्त्वपूर्ण स्तोत्र है। इनकी भाषा बड़ी प्रासादिक तथा स्वाभाविक है। कवि की उक्तियों में बड़ा चमत्कार है। कहीं-कहीं ओजगुण का बड़ा ही कमनीय प्रयोग हुआ है, जो भाषा में प्रसंगानुकूल दीप्ति उत्पन्न करने में समर्थ है। इस सन्दर्भ में दोनों का एक-एक पद्य द्रष्टव्य है
कल्याणमन्दिर स्तोत्र में ‘अस्मादृश: कथमधीश ! भवन्त्यधीशा:’वही,७ ‘प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽपि’वही, १९, आस्तां जनो तरुरप्यशोक:’भक्तामर स्तोत्र, २३ आदि स्थलों पर भाषा का अनुपम सौन्दर्य बलात् पाकों के हृदय को आकृष्ट करने में समर्थ है तो भक्तामरस्तोत्र में ‘नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्था:’वही, ३० ‘कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्’वही, ३३ दिव्या दि:पतति ते वचसां ततिर्वा’सुवृत्ततिलक तृतीय विन्यास, १३ आदि स्थलों में भाषा की चारुता भाषा के सौन्दर्य में चार चाँद लगाने में समर्थ है। छन्दो-योजना : भक्त कवि अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य का आश्रय लेता है। क्योंकि काव्य के चिरस्थायित्व का पद्य एक सशक्त माध्यम है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने भावानुरूप छन्दों के निवेश को आवश्यक माना है। उनका कहना है-
अर्थात् अनुचित स्थान पर किया गया छन्दों का प्रयोग गले में धारण की गई मेखला की तरह अज्ञता का ही बोध कराता है। अत: छन्दों का प्रयोग वर्ण्यर्विषय के अनुसार होना अपेक्षित है। छन्द:शास्त्रियों ने वसन्ततिलका और मन्दाक्रान्ता छन्दों को भक्ति की अभिव्यक्ति में सर्वाधिक उपयुक्त छन्द माना है। आचार्य कुमुदचन्द्र ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र में तथा आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग किया है। कल्याणमन्दिरस्तोत्र का अन्तिम चवालीसवाँ पद्य मात्रिक आर्या छन्द में है। अलडंकार- विनिवेश : शब्द और अर्थ काव्य की काया है और अलज्रर उस काया की शोभा को बढ़ाने वाले तत्त्व हैं। अतएव अलज्रर दो भागों में विभक्त है – शब्दालज्रर और अलज्रर। अलंज्ररों का यह विभाजन शब्दपरिवृत्यसहिष्णुत्व और शब्दपरिवृत्तिसहिष्णुत्व के आधार पर किया गया है। अर्थात् जहां शब्दों के बदल देने से अलज्रर की चमत्कृति समाप्त हो जाये वहां शब्दालज्रर और जहां शब्दों के बदल देने पर भी अलज्रर की चमत्कृति में अन्तर न आवे वहाँ अर्थालज्रर होता है। कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र में प्रयुक्त अलज्ररों में अनुप्रास की शोभा, यमन की मनोरमता तथा श्लेष की संयोजना सहज ही पाठकों के हृदय में अलौकिक आनन्द का संवर्धन करती है। अर्थालज्ररों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, दृष्टान्त अर्थान्तरन्यास, प्रतिवस्तूपमा समासोक्ति, अतिशयोक्ति, विषम आदि अलज्ररों विच्छित्ति वर्णनीय विषयों की मञ्जुल अभिव्यञ्जना करने में समर्थ है। यहाँ पर कतिपय शब्दालज्ररों एवं अर्थालज्ररों का दिग्दर्शन प्रस्तुत है। अनुप्रास – पदलालित्य के प्रतीक अनुप्रास अलज्रर का लक्षण करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है – ‘वर्णसाम्यमनुप्रास:’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ३२ कापूर्वाद्र्ध अर्थात् स्वरों की भिन्नता होने पर भी व्यञ्जनों की समानता को अनुप्रास कहते हैं। यथा –
यमक – अर्थ के होन पर जहाँ भिन्न अर्थ वाले वे ही वर्ण उसी क्रम से पुन: सुनाई देते हैं वहाँ यमक अलंकार होता है। काव्यप्रकाश में कहा गया है – ‘अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुन: श्रुति। यमकम्……..। कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ७ का पूर्वाद्ध
यहाँ पर ‘भवतो-भवतो’ में स्वरव्यंजनसमूह की उसी क्रम से पुन: आवृत्ति हुई है। दोनों पर सार्थक हैं। प्रथम पद का अर्थ है ‘आपका’ और द्वितीय पद का अर्थ है ‘भवत्र्संसार से’। अत: यहाँ यमक अलंकार है। इसी प्रकार उत्तराद्र्ध में ‘सरस:सरसोऽनिलो’ में भी यमक है। श्लेष- आचार्य मम्मट ने श्लेष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है –
अर्थात् अर्थ की भिन्नता के कारण भिन्न-२ शब्द जब एक साथ उच्चारण के कारण आपस में चिपक जाते हैं या एकाकार हो जाते हैं तो उसे श्लेष अलंकार कहते हैं। यथा- ‘जननयनकुमुदचन्द्र’भक्तामरस्तोत्र, ४८ में कुमुदचन्द्र के दो अर्थ हैं कुमुदों के लिए चन्द्रमा तथा ग्रन्थकर्ता आचार्य कुमुदचन्द्र तथा ‘तं’ मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी:’काव्यप्रकाश दशम उललास, सूत्र १२४ में मानतुंग के दो अर्थ हैं – स्वाभिमान से समुन्त पुरुष तथा भक्तामरस्तोत्र के रचियता आचार्य मानतुंग। उभयत्र उच्चारणसाम्य से शग्द शिलष्ट है। अत: श्लेष अलंकार है। उपमा – काव्य में चारुता के सन्निवेश के लिए साम्यमूलक उपमा अलंकार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अलंकार है। जहाँ उपमान और उपमेय अलग-अलग होने पर भी गुण, क्रिया के आधार पर साधम्र्य का वर्णन होता है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। उपमा अलंकार का लक्षण करते हुए आचार्य मम्ट ने लिखा है – ‘साध्म्र्यमुपमा भेदे।’कल्याणमन्दिरस्तोत्र,९ आचार्य कुमुदचन्द्र ने कल्याणमन्दिरस्तोत्र में और आचार्य मानतुंग ने भक्तामरस्तोत्र में उपमा अलंकार का बहुतायत से प्रयोग किया है। दोनों से एक-एक उदाहरण दृष्टव्य है –
‘मुच्यन्त एवं मनुजा: सहसा जिनेन्द्र! रौद्रैरुपद्रदवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि ।
हे जिनेन्द्र भगवन् ! तुम्हारे दर्शन होते ही मनुष्य के सैकड़ों भयानक उपद्रव्यों से उसी प्रकार मुक्त हो जाते हैं, जिस प्रकार तेजस्वी गोस्वामी के देखने मात्र से भाग जाने वाले चौरों से पशु शीध्र मुक्त हो जाते हैं। यहाँ उपद्रवों से मुक्ति उपमेय, पशुओं की चौरों से मुक्ति उपमान दर्शन होना साधारण धर्म तथा ‘इव’ वाचक शब्द है, अत: पूर्ण उपमा अलंकार है।
कुन्दपुष्प के समान सफेद ढुरते हुए चंवरों से सुन्दर शोभा वाले, स्वर्ण के समान सुन्दर आपका शरीर उदित चन्द्रमा के समान सफेद झरने की गिरती हुई जलधारा से सुमेरु पर्वत के सोने के ऊँचे तट के समान शोभायमान हो रहा है। यहाँ पर भगवान् का शरीर उपमेय, सुमेरु का स्वर्ण तट उपमान, शोभायमान होना साधारण धर्म तथा इव वाचक शब्द है। अत: यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है। रूपक – जहाँ पर अत्यन्त समानता के कारण उपमेय और उपमान को एक अभिन्न वर्णन किया जाता है वहाँ रूपक अलंकार होता है। रूपक का लक्षण ‘तद् रूपकमभेदो स, उपमानोपमेययो:’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, १ है। कल्याणमन्दिर स्तोत्र में ‘अध्रि.पद्म’ ‘संसारसागर’भक्तामरस्तोत्र, ४८ तथा भक्तामर स्तोत्र में ‘स्तोत्रस्रजम्’’, रूचिरवर्णविचित्रपुष्पाम्’काव्यप्रकाश नवम् उल्लास, सूत्र १३६ में अंध्रि (चरण) पर कमल का आरोप संसार पर समुद्र का आरोप स्तोत्र पर माला का आरोप एवं रुचिर वर्णों पर विचित्र पुष्पों का आरोप होने से रूपक अलंकार की निराली छटा द्रष्टव्य है। उत्प्रेक्षा – उपमेय की अपमान के साथ जहाँ संभावना होती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। कहा भी गया है- ‘संभावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।’कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ४ यथा-
मोहक्षदयादनुभवन्नपि नाथ मत्र्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत ।
मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से अनुभव करता हुआ भी मानव तुम्हारे गुणों को नहीं गिन सकता है। प्रलयकाल में सागर का पानी बाहर हो जाने पर भी सागर के रत्नों की राशि का अनुमान नहीं किया जा सकता है। यहाँ पर गुणगणन की रत्नराशि की गणना के रूप में संभावना होने से उत्प्रेक्षा अलंकार है।
तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग पृ. २७३ ५०. भक्तामरस्तोत्र, प्रस्तावना पृ. ११७
आपका नाम स्मरण रूपी जल प्रलय काल की तेज हवा से धधकती हुई अग्नि के समान जलती हुई निर्धूम चिनगारियों से युक्त विश्व को मानो खा जाने के लिए तैयार सामने आती हुई दावाग्नि को पूरी तरह बुझ देता है। यहाँ पर जगत् को खा जाने रूप संभावना करने से उत्पे्रक्षा अलंकार है। इसी प्रकार दोनों स्तोत्राों में अन्य अर्थालंकार भी विद्यमान है। इसी प्रकार कल्याणमन्दिर स्तोत्र के श्लोक संख्या २,३,४,५,६,११,१४,१५,३६ और ४३ भक्तामरस्तोत्र के श्लोक संख्या २,३,४,५,६,१५,२३,२७,४३ और ४७ के साथ क्रमश: तुलनीय है। कल्याणमंदिर और भक्तामर स्तोत्र के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह सहज निष्कर्ष निकलता है कि कोई एक स्तोत्र अपने पूर्ववर्ती स्तोत्र से प्रभावित अवश्य है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि – ‘भक्तामरस्तोत्र के अन्तरंग परीक्षण से प्रतीत कि यह स्तोत्र कल्याणमंदिर का परवर्ती है। कल्याणमंदिर में कल्पना की जैसी स्वच्छता है, वैसी प्राय: इस स्तोत्र में नहीं है। अत: कल्याणमन्दिर भक्तामर से पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है।’५० डॉ. नेमिचन्द्र द्वारा निर्धारित पूर्वपरता आदि प्रामाणिक है, तो यह कहना सर्वथा समीचीन है कि भक्तामर स्तोत्र पर कल्याणमन्दिर स्तोत्र का प्रभाव है। किन्तु इसके विपरीत श्री पं. अमृतलाल शास्त्री कल्याणमन्दिर पर भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव मानते हैं। वे लिखते हैं – आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने कल्याणमन्दिर स्तोत्र का अनुक्रम भक्तइामर स्तोत्र के आधार पर बनाया। वसन्ततिलका छन्दा, आरम्भ में युग्म श्लोक, आत्मलघुता का प्रदर्शन, स्तोव्य के गुणों के विषय में अपने असामथ्र्य का कथन, जिनागम के स्मरण या संकीर्तन की महिमा, हरिहरादि देवों का उल्लेख, जिनेन्द्र के संस्तव या ध्यान से परमात्म पद की प्राप्ति, आठ प्रातिहार्यों का वर्णन, स्तुति का फल मोक्ष और अन्तिम पद्य में श्लिष्ट नाम कुमुदचनद्र- इत्यादि साम्य भक्तामर स्तोत्र को देखे बिना अकस्मात् होना कथमपि संभव नहीं है।५१ जो कुछ भी हो, पर इतना तो निश्चित है कि दोनों स्तोत्रों में समता किसी एक पर अन्य के प्रभावजन्य है।