‘केवली कवलाहार करते हैं या नहीं’ यह विषय आज जितने और जैसे विवाद का बन गया है शायद दर्शनयुग के पहिले उतने विवाद का नहीं रहा होगा। ‘सयोग केवली तक जीव आहारी होते हैं’ यह सिद्धान्त दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य है क्योंकि—‘‘विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा।।यह आहारी और अनाहारी जीवों का विभाग करने वाली गाथा दोनों ही परम्पराओं में प्रचलित है। जीवसमास (गा. ८२) और श्री उमास्वामिकृत श्रावकप्रज्ञप्ति में यह विद्यमान हैं तथा धवलाटीका में उद्धृत है। जीवकांड में भी यह गाथा दर्ज है। षट्खंडागम मूलसूत्र (पृ. ४०९) में ‘‘आहार एइंदियप्पहुडि जाव सजोगकेवलि त्ति’’ यह सूत्र है। इससे सामान्यत: इस विषय में दोनों परम्पराएँ एकमत हैं कि केवली आहारी होते हैं। विवाद हैं उनके कवलाहार में। वे हम लोगों की तरह ग्रास लेकर आहार करते हैं या नहीं ? श्वेताम्बर समवायांग (सू. ३४) में ‘‘पच्छन्ने आहारनगीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा’’ अर्थात् केवली के आहार और नीहार चर्मचक्षुओं के अगोचर माना है। जब केवली के शरीर में हम लोगों के शरीर से कोई वैशिष्टय नहीं है तब क्या कारण है कि केवली के हाथ में में दिया जाने वाला आहारिंपड तो दिख जाय पर केवली कैसे खाते हैं यह नहीं दिखे ? अस्तु। ज्ञात होता है कि यापनीय संघ के आचार्यों ने जो स्वयं नग्न रहकर भी श्वेताम्बर आगमों को तथा केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति के सिद्धान्त को युक्तिसंगत मानते थे, जब केवलिभुक्ति जैसे दिगम्बरपरम्परा विरोधी सिद्धान्तों का समर्थन प्रारम्भ किया तो दिगम्बरों ने इसका तीव्रता से प्रतिवाद भी किया। हम केवलिभुक्ति स्वतन्त्रतभाव से समर्थन शकटायन के केवलिभुक्ति प्रकरण में व्यवस्थित रीति से पाते हैं। इसके पहले भी संभव है हरिभद्रसूरि ने बोटिक निषेध प्रकरण में दिगम्बरों का खंडन करते समय कुछ लिखा हो, पर शाकटायनने तो इन दो सिद्धान्तों के स्वतन्त्रभाव से समर्थन करने वाले दो प्रकरण ही लिखे हैं। मलयगिरि आचार्य ने शाकटायन को ‘यापनीययतिग्रामाग्रणी’ लिखा है, दिगम्बराचार्यों का केवलिभुक्ति जैसे विवादग्रस्त विषयों पर श्वेताम्बरों से उतना विरोध नहीं था जितना इस नग्न यापनीयों से था। यही कारण है कि प्रभाचन्द्र के न्यायकुमकुमुदचन्द्र में यापनीय शाकटायन के केवलिभुक्तिप्रकरण का आनुपूर्वी से खण्डन है। श्वेताम्बर तर्क ग्रंथों में सन्मतितर्क टीका और उत्तराध्ययन पाइयटीका में केवलिभुक्ति समर्थन प्राय: यापनीयों की दलीलों के आधार पर ही किया गया है। हाँ, वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमात्र्तण्डगत युक्तियों की भी समालोचना की है। इस तरह भुक्ति के बाह्य आभ्यन्तर कारणों का अभाव होने से केवली कवलाहारी नहीं होते । कवलाहार का सविस्तार खंडन न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ८५२, प्रमेयकमल मात्र्तण्ड पृ. ३००, रत्नकरण्ड टीका पृ. ५, प्रवचनसार जयसेनीय टीका पृ. २८, आदि में देखना चाहिए।
नय—निक्षेपादि विचार
यों तो एकन्दररूप से भारतीय संस्कृतियों का आधार गौण—मुख्यभाव से तत्त्वज्ञान और आचार दोनों हैं पर जैन संस्कृति का मूल पाया मुख्यत: आचार पर आश्रित है। तत्त्वज्ञान तो उस आचार के उद्गमन संपोषण तथा उपबृंहण के लिए उपयोगी माना गया है। आचार की प्राण—प्रतिष्ठा बाह्य क्रियाकाण्ड में नहीं है अपितु उस उत्प्रेरणा बीज में है जिसके बल पर वीतरागता अजुरित पल्लवित और पुष्पित होकर मोक्षफल को देने वाली होती है। अहिंसा ही एक ऐसा उत्प्रेरक बीज है जो तत्त्वज्ञान के वातावरण में आत्मा की उन्नतिका साधक होता है। कायिक अहिंसा के स्वरूप के संरक्षण के लिए जिस प्रकार निवृत्ति या यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति के विविध रूपों में अनेक प्रकार के व्रत और चरित्र अपेक्षित हैं उसी तरह वाचिक और मानसिक अहिंसा के लिए तत्त्वज्ञान और वचन प्रयोग के उस विशिष्ट प्रकार की आवश्यकता है जो वस्तुस्पर्शी होने के साथ ही साथ अहिंसा की दिशा में प्रवाहित होता हो।
वचन प्रयोग की दिशा तो वक्ता के ज्ञान की दिशा या विचारदृष्टि के अनुसार होती है। या यों कहिये कि वचन बहुत कुछ मानस विचारों के प्रतिबिम्बक होते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह व्यक्तिगत कितना भी एकान्तसेवी या निवृत्तिमार्गी क्यों न हो उसे अन्तत: संघनिर्माण के समय तो उन अहिंसाधार वाले सामान्य तत्त्वों की और दृष्टिपात करना ही होगा। जिनसे विविध विचार वाले चित्रल व्यक्तियों का एक एक संघ जमाया जा सके। यह तो बहुत ही कठिन मालूम होता है कि अनेक व्यक्ति एक वस्तु के विषय में विरुद्ध दृष्टिकोण रखते हों और अपने—अपने दृष्टिकोण के समर्थन के लिए ऐकान्तिकी भाषा का प्रयोग भी करते हों फिर भी एक दूसरे के प्रति मानस समता तथा वचनों की समतुला रख सके। किन्तु कभी—कभी तो इस दृष्टिभेदप्रयुक्त वचनवैषम्य के फलस्वरूप कायिकहिंसा अर्थात् हाथापाई तक का अवसर आ जाता है। भारतीय जल्पकथा का इतिहास ऐसे अनेक हिंसा काण्डों से रक्त रंजित है। चित्त की समता के होने पर तो वचनों की गति स्वयं ही ऐसी हो जाती है जो दूसरे के लिए आपत्ति के योग्य नहीं हो सकती। यही चित्तसमता अहिंसा की संजीवनी है। जैन तत्त्वर्दिशयों ने इसी मानस अहिंसा स्थैर्य के लिए तत्त्वविचार की वह दिशा बताई है जो वस्तुस्वरूप का अधिक से अधिक स्पर्श करने के साथ ही साथ चित्तसमता की साधक है। उन्होंने बताया कि वस्तु में अनन्त धर्म हैं, उसका अखण्ड स्वरूप वचनों के अगोचर है। पूर्णज्ञान में ही वह अपने पूरे स्वरूप में झलक सकता है, हम लोगों के अपूर्णज्ञान और चित्त के लिए तो वह अपने यथार्थ पूर्ण रूप में अगम्य ही है। इसीलिए उसे वाङ्मानसागोचर कहा है।
उस अनन्तधर्मा तत्त्व को हम लोग अनेक दृष्टियों से विचार के क्षेत्र में उतारते हैं। हमारी प्रत्येक दृष्टियाँ या विचार की दिशाएँ उस पूर्ण तत्त्व की ओर इशारा मात्र करती हैं। कुछ ऐसी भी विकृत दृष्टियाँ होती हैं जो उस पूर्ण तत्त्व का अन्यथा ही भान कराती हैं। तात्पर्य यह है कि जैन तत्त्वर्दिशयों ने अनन्तधर्मात्मक वाङ्मानसागोचर परिपूर्ण तत्त्व को अपूर्णज्ञान तथा वचनों के गोचर बनाने के लिए वस्तुस्पर्शी साधार उपाय बताए हैं। इन्हीं उपायों में जैनतत्त्वज्ञान के प्रमाण, नय, निक्षेप, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि की चर्चाओं का विशिष्ट स्थान है।
जगत में व्यवहार तीन प्रकार से चल रहे हैं—कुछ व्यवहार ऐसे हैं जो शब्दाश्रयी हैं कुछ ज्ञानाश्रयी और कुछ अर्थाश्रयी। उस अनन्तधर्मां वस्तु को संव्यवहार के लिए इन तीन व्यवहारों का आधार बनाना निक्षेप है। तात्पर्य यह है कि उस अनेकान्त वस्तु को ऐसे विभागों में बाँट देना जिससे वह जगत् के विविध शब्दव्यवहार का विषय बन सके। अथवा, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उसकी शाब्दिक, आरोपित, भूत, भावी और वर्तमान आदि पर्यायों का विश्लेषण करना निक्षेप का मुद्दा हो सकता है। प्राचीन जैनपरम्परा में किसी भी पदार्थ का वर्णन करते समय उसके अनेक प्रकार से विश्लेषण करने की पद्धति पाई जाती है। जब उस वस्तु का अनेक प्रकार से विश्लेषण हो जाता है तब उसमें से विवक्षित अंश को पकड़ने में सुविधा हो जाती है। जैसे—‘घटको लाओ’ इस वाक्य में घट और लाना का विवेचन अनेक प्रकार से किया जायेगा। बताया जायेगा कि घटशब्द, घटाकृति अन्यपदार्थ, घट बनने वाली मिट्टी, फूटे हुए घट के कपाल, घटवस्तु, घटको जानने वाला ज्ञान आदि अनेक वस्तुएँ घट कही जा सकती हैं, पर इनमें हमें वर्तमान घटपर्याय ही विवक्षित है। इसी तरह शाब्दिक, आरोपित भूत, भावि, ज्ञानरूप आदि अनेक प्रकार का ‘लाना’ हो सकता है पर हमें नोआगमभाव निक्षेपरूप लाना क्रिया ही विवक्षित है। इस तरह पदार्थ के ठीक विवक्षित अंश को पकड़ने के लिए उसके संभाव्य विकल्पों का कथन करना निक्षेपका लक्ष्य है। इसीलिए धवला (पु. १, पृ. ३०) में निक्षेपविषयक एक गाथा उद्धृत मिलती है, यह किंचित् पाठ भेद के साथ अनयोगद्वार सूत्र में भी पाई जाती है—
जत्थ बहुं जाणिज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा।
जत्य बहुवं ण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ।।
अर्थात् जहाँ बहुत जाने वहाँ उतने ही प्रकारों से पदाथों का निक्षेप करे तथा जहाँ बहुत न जाने वहाँ कम से कम चार प्रकार से निक्षेप करके पदार्थों का विचार अवश्य करना चाहिए। यही कारण है कि मूलाचार में षडावश्यकाधिकार (गा. १७) में सामायिक के तथा त्रिलोक प्रज्ञप्ति (गा. १८) में मंगल के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ६ निक्षेप किए हैं तथा आवश्यक निर्युक्ति (गा. १२९) में इन छह में वचन को और जोड़कर सात प्रकार के निक्षेप बताए गए हैं। इस तरह यद्यपि निक्षेपों के संभाव्य प्रकार अधिक हो सकते हैं तथा कुछ ग्रंथकारों ने किए भी हैं परन्तु नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से चार निक्षेप मानने में सर्वसम्मति हैं। पदार्थों का यह विश्लेषण प्रकार पुराने जमाने में अत्यन्त आवश्यक रहा है—आचार्य स्वामी यतिवृषभ त्रिलोकप्रज्ञप्ति (गा. ८२) में लिखते हैं कि—जो मनुष्य प्रमाण नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ की ठीक समीक्षा नही करता उसे युक्त भी अयुक्त तथा अयुक्त भी युक्त प्रतिभासित हो जाता है। धवला (पु० १, पृ. ३१) में तो स्पष्ट लिख दिया है कि निक्षेप के बिना किया जाने वाला तत्त्व—निरूपण वक्ता और श्रोता दोनों को ही कुमार्ग में ले जा सकता है।
अकलज्र्देव (लघी. स्व. वि. श्लो. ७३-७६) लिखते हैं कि श्रुतप्रमाण और नय के द्वारा जाने गए परमार्थ और व्यावहारिक अर्थों को शब्दों में प्रतिनियत रूप से उतारने को न्यास या निक्षेप कहते हैं। इसी लघीयस्त्रय (श्लो. ७०) में निक्षेपों को पदार्थों के विश्लेषण करने का उपाय बताया है। और स्पष्ट निर्देश किया है कि मुख्यरूप से शब्दात्मक व्यवहार का आधार नाम—निक्षेप ज्ञानात्मक व्यवहार का आधार स्थापना निक्षेप तथा अर्थात्मक व्यवहार के आश्रय द्रव्य और भाव निक्षेप होते हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने (सर्वार्थ सि० १५) १/५) निक्षेप का प्रयोजन बताते हुए जो एक वाक्य लिखा है, वह न केवल निक्षेप के फल को ही स्पष्ट करता है किन्तु उसके स्वरूप पर भी विशद प्रकाश डालता है। उन्होंने लिखा है कि—अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत के निरूपण करने के लिए निक्षेप करना चाहिए। भाव यह है कि निक्षेप में वस्तु के जितने प्रकार संभव हो सकते हैं वे सब कर लिए जाते हैं और उनमें से विवक्षित प्रकार को ग्रहण करके बाकी छोड़ दिए जाते हैं। जैसे—‘घटकों लाओ’ इस वाक्य में आए हुए घटशब्द के अर्थ को समझने के लिए घटके जितने भी प्रकार हो सकते हैं वे सब स्थापित कर लिए जाते हैं। जैसे—टेबिल का नाम घट रख दिया तो टेबिल नामघट हुई, घटके आकार वाले चित्र में या चांवल आदि घटाकर शून्य पदार्थों में घटकी स्थापना करने पर वह चित्र और चावल आदि स्थापनाघट हुए। जो मृत्पिड घट बनेगा वह मूिंत्पड द्रव्यघट हुआ। जो घटपर्याय से विशिष्ट है वह भावघट हुआ। जिस क्षेत्र में घड़ा है उस क्षेत्र को क्षेत्रघट कह सकते हैं। जिस काल में घड़ा विद्यमान है वह काल कालघट है। जिस ज्ञान में घड़े का आकार आया है वह घटाकार ज्ञान ज्ञानघट है। इस तरह अनेक प्रकार से घड़े का विश्लेषण करके निक्षेप किया जाता है। इनमें से वक्ता को लाने क्रिया के लिए भावघट विवक्षित है अत: श्रोता अन्य नामघट आदि का, जो कि अप्रकृत हैं निराकरण करके प्रकृत भावघट को लाने में समर्थ हो जाता है।
कहीं पर भावनिक्षेप के सिवाय अन्य निक्षेप विवक्षित हो सकते हैं, जैसे ‘खरविषाण है’ यहाँ खरविषाण, शब्दात्मक स्थापनात्मक तथा द्रव्यात्मक तो हो सकता है पर वर्तमानपर्याय रूप से तो खरविषाण की सत्ता नहीं है अत: यहाँ भावनिक्षेप का अप्रकृत होने के कारण निराकरण हो जाता है। तथा अन्य निक्षेपों का प्रकृतनिरूपण में उपयोग कर लिया जाता है। अत: इस विवेचन से यही फलित होता है कि पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ निश्चय करने के लिए उसका संभाव्य भेदों में विश्लेषण करके अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करने की पद्धति निक्षेप कहलाती है। इस प्रकार इस निक्षेपरूप विश्लेषण पद्धति से वस्तु के विवक्षित स्वरूप तक पहुँचने में पूरी मदद मिलती है। इसीलिए धवला तथा विशेषावश्यकभाष्य में निक्षेप शब्द की सार्थक व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है—कि जो निर्णय या निश्चय की तरफ ले जाय वह निक्षेप है। धवला (पु. १, पृ. ३१) में निक्षेप का फल बताने वाली एक प्राचीन गाथा उद्धृत है। उसमें अप्रकृतनिराकरण और प्रकृतनिरूपण के साथ ही साथ संशयविनाश और तत्त्वार्थवधारण को भी निक्षप का फल बताया है। और लिखा है कि यदि अव्युत्पन्न श्रोता पर्यार्यािथक दृष्टिवाला है तो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिए निक्षेप करना चाहिए। और यदि द्रव्र्यािथकदृष्टिवाला है तो उसे प्रकृतनिरूपण के लिए निक्षेपों की सार्थकता है। पूर्णविद्वान् या एकदेश ज्ञानी श्रोता तत्त्व में यदि सन्देहाकुलित हैं तो सन्देहविनाश के लिए और यदि विपर्यस्त है तो तत्त्वार्थ के निश्चय के लिए निक्षेपों की सार्थकता हैं अकलज्र्देव ने लघी. (श्लो. ७४) में निक्षेप के विषय के सम्बन्ध में यह कारिका लिखी है—
अर्थात्—नयाधीन निक्षेपों से, जो भेदज्ञान के उपायभूत हैं, अर्थ, वचन और ज्ञानस्वरूप पदार्थ भेदों की रचना करके…… इस कारिका में श्री अकलज्र्देव ने निक्षेपों को नयाधीन बताने के साथ ही साथ निक्षेपों की विषयमर्यादा अर्थात्मक, वचनात्मक और ज्ञानात्मक भेदों में परिसमाप्त की है। द्रव्य जाति गुण क्रिया परिभाषा आदि शब्दप्रवृत्ति के निमित्तों की अपेक्षा न करके इच्छानुसार जिस किसी वस्तु का जो चाहे नाम रखने को नाम निक्षेप कहते हैं। जैसे किसी बालक की गजराज, संज्ञा यह समस्त व्यवहारों का मूल हेतु है। जाति गुण आदि के निमित्त निक्षेपों के लक्षण किया जाने वाला शब्दव्यवहार नामनिक्षेप की मर्यादा में नहीं आता है। जो नाम रखा जाता है वस्तु उसी की वाच्य होती है पर्यायवाची शब्दों की नहीं। जैसे गजरात नाम वाला करिस्वामी आदि पर्यायवाची शब्दों का वाच्य नहीं होगा। पुस्तक पत्र चित्र आदि में लिखा गया लिप्यात्मक नाम भी नामनिक्षेप है। जिसका नामकरण हो चुका है उसकी उसी आकार वाली र्मूित में या चित्र में स्थापना करना तदाकार या सद्भावस्थापना है। यह स्थापना लकड़ी में बनाए गए, कपड़े में काढ़े गए, चित्र में लिखे गए, पत्थर में उकेरे गए तदाकार में ‘यह वही है’ इस सादृश्यमूलक अभेदबुद्धि की प्रयोजक होती है। भिन्न आकारवाली वस्तु में उसकी स्थापना अतदाकार या असद्भाव स्थापना है। जैसे शतरंज की गोटों में हाथी घोड़े अदि की स्थापना।
नाम और स्थापना यद्यपि दोनों ही सांकेतिक हैं पर उनमें इतना अन्तर अवश्य है कि नाम में नाम वाले द्रव्य का आरोप नहीं होता जब कि स्थापना में स्थाप्य द्रव्य का आरोप किया जाता है। नाम वाले पदार्थ की स्थापना अवश्य करनी ही चाहिए यह नियम नहीं है, जब कि जिसकी स्थापना की जा रही है उसका स्थापना के पूर्व नाम अवश्य ही रख लिया जाता है। नामनिक्षेप में आदर और अनुग्रह नहीं देखा जाता जब कि स्थापना में आदर और अनुग्रह आदि होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अनुग्रहार्थी स्थापना जिनका आदर या स्तवन करते हैं उस प्रकार नाम जिनका नहीं। अनुयोगद्वारसूत्र (११) और बृहत्वकल्पभाष्य में नाम और स्थापना में यह अन्तर बताया है कि—स्थापना, इत्वरा और अनित्वरा अर्थात् सार्वकालिकी और नियतकालिकी दोनों प्रकार की होती है जब कि नामनिक्षेप नियम से यावत्कथिक अर्थात् जब तक द्रव्य रहता है तब तक रहने वाला सार्वकालिक ही होता है। विशेषावश्यकभाष्य (गा. २५) में नाम को प्राय: सार्वकालिक कहा है। उसके टीकाकार कोट्याचार्य ने उत्तकुरु आदि अनादि नामों की अपेक्षा उसे यावत्कथिक अर्थात् सार्वकालिक बताया है। भविष्यत् पर्याय की योग्यता और अतीतपर्याय के निमित्त से होने वाले व्यवहार का आधार द्रव्य निक्षेप होता है। जैसे अतीत इन्द्रपर्याय या भावि इन्द्रपर्याय के आधारभूत द्रव्य को वर्तमान में इन्द्र कहना द्रव्यनिक्षेप है। इसमें इन्द्रप्राभृत को जानने वाला अनुपयुक्तव्यक्ति, ज्ञायक के भूत भावि वर्तमानशरीर तथा कर्म नोकर्म आदि भी शामिल हैं। भविष्यत् में तद्विषयकशास्त्र को जो व्यक्ति जानेगा, वह भी इसी द्रव्यनिक्षेप की परिधि में आ जाता है।
वर्तमान पर्यायविशिष्ट द्रव्य में तत्पर्यायमूलक व्यवहार का आधार भाव निक्षेप होता है। इसमें तद्विषयक शास्त्र का जानने वाला उपयुक्त आत्मा तथा तत्पर्याय से परिणत पदार्थ ये दोनों शामिल हैं। बृहत्कल्पभाष्य में बताया है कि—द्रव्य और भावनिक्षेप में भी पूज्यापूज्यबुद्धि की दृष्टि से अन्तर है। जिस प्रकार भावजिन श्रेयाथियों के पूज्य और स्तुत्य होते हैं उस तरह द्रव्यजिन नहीं। विशेषावश्यकभाष्य (गा. ५३-५५) में नामादिनिक्षेपों का परस्पर भेद बताते हुए लिखा है कि—जिस प्रकार स्थापना इन्द्र में सहस्रनेत्र आदि आकार, स्थापना करने वाले को सद्भूत इन्द्र का अभिप्राय, देखने वालों को इन्द्राकार देखकर होने वाली इन्द्रबुद्धि, इन्द्रभक्तों के द्वारा की जाने वाली नमस्कार क्रिया तथा उससे होने वाली पुत्रोत्पत्ति आदि फल ये सब होते हैं उस प्रकार के आकार, अभिप्राय, बुद्धि, क्रिया और फल नामेन्द्र से तथा द्रव्येन्द्र में नहीं देखे जाते। जिस प्रकार द्रव्य आगे जाकर भावपरिणाति को प्राप्त हो जाता है या भावपरिणति को प्राप्त था उस प्रकार नाम और स्थापना नहीं। द्रव्य भाव का कारण है तथा भाव द्रव्य की पर्याय है उस तरह नाम और स्थापना नहीं। जिस प्रकार भाव तत्पर्यायपरिणत या तदर्थोपयुक्त होता है, उस प्रकार द्रव्य नहीं। अत: इन चारों में परस्पर भेद हैं।
कौन निक्षेप किस नय से अनुगत हैं इसका विचार अनेक प्रकार से देखा जाता है। आचार्य सिद्धसेन स्वामी और पूज्यपाद स्वामी सामान्यरूप से द्रव्र्यािथकनयों के विषय नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन निक्षेपों को तथा पर्यार्यािथकनयों के विषय केवल भावनिक्षेप को कहते हैं। इतनी विशेषता है कि सिद्धसेन स्वामी, संग्रह और व्यवहार को द्रव्र्यािथकनय कहते हैं, क्योंकि इनके मत से नैगमनय का संग्रह और व्यवहार में अन्तर्भाव हो जाता है। और पूज्यपाद स्वामी नैगमनय को स्वतन्त्र नय मानने के कारण तीनों को द्रव्र्यािथकनय कहते हैं। दोनों के मत से ऋजुसूत्रादि चारों ही नय पर्यार्यािथक हैं। अत: इनके मत से ऋजुसूत्रादि चार नय केवल भावनिक्षेप को विषय करने वाले हैं और नैगम, संग्रह और व्यवहार नाम, स्थापना और द्रव्य को विषय करते हैं। आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि ने षटखंडागम प्रकृति अनुयोगद्वार आदि (पृ. ८६२) में तथा आचार्य यतिवृषभ स्वामी ने कषायपाहुड के चूर्णीसूत्रों में इसका कुछ विशेष विवेचन किया है। वे नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों में चारों ही निक्षेपों को स्वीकार करते हैं। भावनिक्षेप के विषय में आचार्य वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि कालान्तर स्थायी व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा से जो कि अपने काल में होने वाली अनेक अर्थपर्यायों में व्याप्त रहने के कारण द्रव्यव्यपदेश को भी पा सकती है।, भावनिक्षेप बन जाता है। अथवा, द्रव्र्यािथकनय भी गौणरूप से पर्याय को विषय करते हैं अत: उनका विषय भावनिक्षेप हो सकता है। भाव का लक्षण करते समय आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहा है। इस लक्षण में द्रव्य विशेष्य है तथा वर्तमान पर्याय विशेषण, अत: ऐसा वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य द्रव्र्यािथकनयों का विषय हो ही सकता है। ऋजुसूत्रनय स्थापना के सिवाय अन्य तीन निक्षेपों को विषय करता है। चूँकि स्थापना सादृश्य मूलक अभेदबुद्धि के आधार से होती है और ऋजुसूत्रनय सादृश्य को विषय नहीं करता अत: स्थापना निक्षेप इसकी दृष्टि नहीं बन सकता। कालान्तर स्थायी व्यञ्जनपर्याय को वर्तमान रूप से ग्रहण करने वाले अशुद्ध ऋजुसूत्रनय में द्रव्यनिक्षेप भी सिद्ध हो जाता है। इसी तरह वाचक शब्द की प्रतीति के समय उसके वाच्यभूत अर्थ की उपलब्धि होने से ऋजुसूत्रनय नामनिक्षेप का भी स्वामी हो जाता है।
तीनों शब्दनय नाम और भाव इन दो निक्षेपों को विषय करते हैं। इन शब्दनयों का विषय लिङ्गादिभेद से भिन्न वर्तमान पर्याय है अत: इनमें अभेदाश्रयी द्रव्यनिक्षेप नहीं बन सकता। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विशेषावश्यकभाष्य में ऋजुसूत्रनय को द्रव्र्यािथक मानकर ऋजुसूत्रनय में भी चारों ही निक्षेप मानते हैं। वे ऋजुसूत्रनय में स्थापना निक्षेप सिद्ध करते समय लिखते हैं कि जो ऋजुसूत्रनय निराकार द्रव्य को भावहेतु होने के कारण जब विषय कर लेता है तब साकार स्थापना को विषय क्यों नहीं करेगा ? क्योंकि प्रतिमा में स्थापित इन्द्र के आकार से भी इन्द्रविषयक भाव उत्पन्न होता है। अथवा, ऋजुसूत्रनय नाम निक्षेप को स्वीकार करता है यह निर्विवाद है। नाम निक्षेप या तो इन्द्रादि संज्ञा रूप होता है या इन्द्रार्थ से शून्य वाच्यार्थ रूप। अत: जब दोनों ही प्रकार के नाम भाव के कारण होने से ही ऋजुसूत्र नय के विषय हो सकते हैं तो इन्द्राकार स्थापना भी भाव में हेतु होने के कारण ऋजुसूत्रनय का विषय होना चाहिए। इन्द्र संज्ञा का इन्द्ररूप भाव के साथ वाच्यवाचकसम्बन्ध ही संभव है, जो कि एक दूरवर्ती सम्बन्ध है, परन्तु अपने आकार के साथ तो इन्द्रार्थ का एक प्रकार से तादात्म्य सम्बन्ध हो सकता है जो कि वाच्यवाचकभाव से सन्निकट है। अत: नाम को करने वाले ऋजुसूत्र में स्थापना निक्षेप बनने में कोई बाधा नहीं है।
विशेषावश्यकभाष्य में ऋजुसूत्रनय में द्रव्यनिक्षेप सिद्ध करने के लिए अनुयोगद्वार (सू. १४) का यह सूत्र प्रमाण रूप से उपस्थित किया गया है—‘‘उज्जसुअस्स एगो अणुवजुत्तो आगमतो एगं दव्वावस्सयं पुहुत्तं नेच्छइ त्ति’’ अर्थात् ऋजुसूत्रनय वर्तमानग्राही होने से एक अनुपयुक्त देवदत्त आदिको आगमद्रव्यनिक्षेप मानता है। वह उसमें अतीतादि कालभेद नहीं करता और न उसमें परकी अपेक्षा पृथक्त्व ही मानता है। इस तरह जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के मत से ऋजुसूत्रनय में चारों ही निक्षेप संभव हैं। वे शब्दादि तीन नयों में मात्र भावनिक्षेप ही मानते हैं और इसका हेतु दिया गया है इन नयों का विशुद्ध होना।
विशेषावश्यकभाष्य में एक मत यह भी है कि ऋजुसूत्रनय नाम और भाव इन दो निक्षेपों को ही विषय करता है। एक मत यह भी है कि संग्रह और व्यवहार स्थापना निक्षेप को विषय नहीं करते। इस मत के उत्थापक का कहना है कि स्थापना चूँकि सांकेतिक है अत: वह नाम से ही अन्तर्भूत है। इसका प्रतिवाद करते हुए उन्होंने लिखा है कि जब नैगमनय स्थापना निक्षेपकों स्वीकार करता है और संग्रहिक नैगम संग्रहनयरूप और असंग्रहिक नैगम व्यवहारनयरूप है तो नैगमनय के विभक्तरूप संग्रह और व्यवहार में स्थापना निक्षेप विषय हो ही जाता है।