यह ज्ञान-प्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु महाधिकार का तीसरा प्राभृत अधिकार कषायपाहुड़ नाम का है। इस पाहुड़ का ज्ञान ज्ञान आचार्य गुणधर (आज से लगभग २००० वर्ष पूर्ववत्र्ती) को था। उन्होंने करुणा और वात्सल्य से पूरित होकर भव्य प्राणियों के हित के लिए इस बृहत्यकाय कषाय पाहुड़ के सारांश रूप में अति संक्षिप्त सूत्र शैली मेें दो सौ तेंतीस गाथाओं में ‘‘कषाय पाहुड़’’ नाम के ही सूत्र ग्रंथ की रचना की थी। कहा जाता है कि उपलब्ध वर्तमान जैन वाङ्मय में यह प्रथम रचना है। इसका संबंध साक्षात् रूप से गौतम गणधर के द्वादशांग श्रुत से है। यह प्रथम लिपिबद्ध षट्खण्डागम के बाद लिपिबद्ध की गई। इसका दूसरा नाम ‘पेज्जदोसपाहुड’’ भी है। ‘पेज्ज’ का अर्थ राग है तथा ‘‘दोस’’ का अर्थ द्वेष है। राग-द्वेष कषाय का ही विस्तार है अत: कषाय पाहुड़ और पेज्जदोस पाहुड़ एकार्थवाची हैं। पाहुड़ की संस्कृतच्छाया प्राभृत होती है अत: इसे कषायप्राभृत भी कहते हैं। इसके उद् गम के बारे में आ. गुणधर स्वामी ने कहा है-
पुव्वम्मि पंचम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए।
पेज्जं ति पाहुडिम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम।।१।।
अर्थ-‘‘ज्ञान प्रवाद नामक पाँचवे पूर्व की दसवीं वस्तु में तीसरा पेज्ज पाहुड है उसे प्राकृत कषायपाहुड़ की उत्पत्ति हुई है ‘‘पेज्जदोस पाहुड’’ का संक्षिप्त नाम पेज्जापाहुड है। वैसे तो वस्तु शब्द शास्त्र अनेक अर्थों में रहता है तथापि प्रकरण वश यहाँ वस्तु शबद वाचक लेना चाहिए। गौतम स्वामी द्वारा रचित मूल कषायप्राभृत के चौबीस अनुयोगद्वार व १६००० पद थे। यह वर्तमान में अनुपलब्ध है। यहाँ मध्यम पद का ग्रहण है। एक मध्यम पद में १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं अत: मूल कषाय प्राभृत के अक्षरों की संख्या पद संख्या में अक्षर का गुणा करने पर २६१५७२९२६२०८००० होती है। पाहुड़- ‘‘पाहुडेत्ति का णिरुत्ती’’? जम्हा पदेिंह फुडं तम्हा पाहुड़ं।’’ -कषायपाहुड चूत्र्रिसूत्र, जयधवला पृ. २९७ पाहुड़ का निरूक्त्यर्थ क्या है? जो पदों से स्पुट अर्थात् व्यक्त है वह पाहुड़ है। प्रकृत कषाय पाहुड़ ग्रंथ पन्द्रह अर्थाधिकारों में विभक्त किया गया है। स्वयं गुणधर भट्टारक ने लिखा है-
पेज्जदोसविहत्ती ट्ठिदि-अणुभागे च बंधगे चेय।
वेदग उवजागे वि य चउट्ठाण-वियंजणो चेय।।१३।।
सम्मत्त देसविरदी संजम उवसामणा च खवणा च।
दंसण चरित्तमोहे, अद्धा परिमाण णिद्देसो।।१४।।
उपरोक्त कषायपाहुड़ की गाथाओं के अनुसार कषाय पाहुड के निम्न पन्द्रह अर्थाधिकार हैं।१. पेज्जदोसविहत्ती २. स्थितिविभक्ति ३. अनुभागविभक्ति ४. प्रदेश विभक्तिझीणा-झीणविभक्ति-स्थत्यन्तक ५. बंधक ६. वेदक ७. उपयोग ८. चतु:स्थान ९. व्यंञ्जन १०. दर्शनमोहोपशामना ११. दर्शनमोहक्षपणा १२. देशविरति १३. संयमलब्धि १४. चारित्रमोहोपशमना १५. चारित्रमोह की क्षपणा।
कषायपाहुड का विषय
इसका मुख्य विषय कषाय है। जो जीव को कष्ट देता है वह कषाय है। इसके दो रूप है-राग व द्वेष। चारित्र मोह कर्म के उदय से पर पदार्थों में प्रीति भाव राग कहलाता है तथा अप्रीति एवं अरुचि द्वेष कहलाता है। कुल कषाय पच्चीस हैं। सोलह कषाय तथा नौ नौकषाय। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेदों से क्रोध, मान, माया व लोभ, कुल सोलह कषायें हैं तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं। जैन परम्परा में जीव और पौद्गलिक कर्म का संंबंध अनादि काल से स्वीकार किया है। यह बंधन अविच्छिन्न धारा रूप से है। सारांश यह है कि आत्मा मूल रूप से शुद्ध नहीं है यदि शुद्ध हो, तो उसमें मुक्त आत्मा की तरह विकृति कदापि नहीं हो सकती अत: यह निश्चित होता है कि संसार में अनादि काल से ही जीव कर्मबद्ध एवं अशुद्ध है। उसमें स्व (उपादान) और पर (निमित्त) कारणों से अनेक प्रकार के विकार होते हैं। इनमें सर्वाधिक घातक मोह नाम का विकार है। कारण यह है कि इसी से अन्य विकारों का पोषण होता है तथा मोह के दो रूप हैें-१. मिथ्यात्व २. कषाय। कषाय से अभिभूत होकर आत्मा लोहे के प्रतप्त लाल गोले के समान विकृत हो जाता है, क्षोभ को प्राप्त हो जाता है जैसे उण्ण लोहे का गोला पानी को चतुर्दिक खींचता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से संतप्त आत्मा कर्मों को आकर्षित करता है, अष्ट कर्मों का आस्रवित करता है। मोह के हट जाने पर अन्य विकार धीरे-धीरे निष्प्राण हो जाते हैं। बंध के कारणों में इसी मोह की प्रधानता है। इसके बिना बंध के अन्य कारण अपनी उत्कृष्ट स्थिति या तीव्रतम अनुभाग से कर्मों को नहीं बांध सकते। जैन-ग्रंथों में मोह को कर्मों के राजा के रूप में अंकित किया गया है। इस मोह राजा के बल पर समस्त कर्म सेना में कार्य क्षमता बनी रहती है। इसके अभाव में अन्य कर्म निर्बल पड़ जाते हैं। कहा भी है-‘‘मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शना-वरणान्तरायक्षयाच्च केवलं’’-तत्त्वार्थ सूत्र। मोह कर्म के क्षय होने पर एक साथ शेष तीन घातिया कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों का नाश होता है, इससे केवलज्ञान प्रकट होता है। मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में मोह उत्पन्न होता है। मोहकर्म के दो भेद हैं-१. दर्शन मोहनीय २. चारित्रमोहनीय। दर्शन मोह के उदय से अतत्त्वश्रद्धान रूप मिथ्या दर्शन होता है तथा चारित्र मोहनीय के उदय से रागद्वेष (कषाय य नोकषाय) उत्पन्न होता है। ‘‘कषायपाहुड़’’ में उपरोक्त रागद्वेष-मोह का वर्णन है अत: कषाय पाहुड़ नाम सार्थक है। क्योंकि कषाय को ही रागद्वेष कहते हैं। राग को पेज्ज तथा द्वेष को दोस कहते हैं अत: इसका नाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ भी है अत: बिना पेज्ज के दोस उत्पन्न नहीं हो सकता, अत: द्वेष का मूल राग मानकर इस ग्रंथ का नाम पेज्जापाहुड़ भी सार्थकता के लिए हुए है। चूर्णिसूत्रकत्र्ता आ. यतिवृषभ ने कषायों के आठ भेद गिनाये हैं-१. नाम कषाय २. स्थापना कषाय ३. द्रव्य कषाय ४. भाव कषाय ५. प्रत्यय कषाय ६. समुत्पत्ति कषाय ७. आदेश कषाय ८. रस कषाय। इन आठ भेदों में ऐसे पदार्थों का संग्रह हो जाता है, जिनमें किसी भी दृष्टि से कषाय व्यवहार किया जा सकता है। इनमें भाव कषाय मुख्य कषाय है। इस ‘‘कषाय पाहुड़’’ ग्रंथ में भाव कषाय का तथा इसको उत्पन्न कराने में प्रबल कारण मोहनीय के भेद कषाय द्रव्य कर्म अर्थात् प्रत्यय कषाय का वर्णन है। इससे ज्ञान होता है कषाय स्वत: नहीं होता, अपितु कर्म के उदय से होता है। यदि कषाय बिना कर्म निमित्त के हो जाता हो तो आचार्य इस ग्रंथ में द्रव्य कषाय कर्म का वर्णन न करते। मुख्यत: इस कषायपाहुड़ में चारित्र मोहनीय और दर्शन मोहनीय कर्म का विविध अनुयोग द्वारों में निरूपण है। ज्ञान-प्रवाद पूर्व की परिभाषाओं से यद्यपि सामान्य तौर पर यह ज्ञान नहीं होता कि उसमें भाव कषाय और कषायोत्पादक द्रव्य कर्मों का समावेश है, किन्तु वण्र्य विषय में ज्ञान के साथ अज्ञान भी सम्मिलित होना अनिवार्य है। अज्ञान की परिणति कषाय के रूप में होती है और इसी हेतु से ज्ञान-प्रवाद के अंगभूत कषायपाहुड़ को रचित किया गया है। ऊपर कषाय पाहुड़ के १५ अर्थाधिकारों के नाम बतला आये हैं। उनको द्वितीय, तृतीय चतुर्थ आदि रीतियों से आ. यतिवृषभ और आ. वीरसेन स्वामी ने वर्णित किया है। कुछ अधिकारों के नाम आदि प्रकारान्तर से हैं वहाँ देख लेना चाहिए। सब का सारांश एक सा है। पृष्ठ २२ पर प्रकारान्तर से १५ अधिकार लिखे हैं। यहाँ कषाय पाहुड़ के वण्र्य विषय को अधिकारों के स्वरूप द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
१. पेज्जदोसविभक्ति- कषायप्राभृत का द्वितीय नाम पेज्जदोसप्राभृत की मुख्यता से प्रथम अध्याय का नाम पेज्जदोषविभक्ति रखा गया है। अगले चौदह अधिकारों में जिस प्रकार कषाय की बंध, उदय या सता आदि विविध दशाओं के द्वारा कषायों का विस्तृत व्याख्यान किया गया है, उस प्रकार व्याख्यान करके केवल उदय की प्रधानता से इसमें वर्णन किया गया है। अगले चौदह अधिकारों में कषाय का व्याख्यान करते हुए यथासंभव तीन दर्शनमोहनीय को गर्भित करके और पृथक् रूप से उनकी विविध दशाओं का भी जिस प्रकार व्याख्यान किया है वैसा पेज्जदोषविभक्ति अधिकार में नहीं किया है, किन्तु यहाँ उसके व्याख्यान को पूर्णत: छोड़ दिया गया है।
२. स्थितिविभक्ति- जब कोई विवक्षित पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को आवृत करता है या उसकी शक्ति का घात करता है तब साधारणतया आवरण करने वाले पदार्थ में आवरण करने का स्वभाव, आवरणकरने का काल, आवरण करने की शक्ति का हीनाधिक भाव तथा आवरण करने वाले पदार्थ का परिमाण, ये चार अवस्थाएं एक साथ प्रकट होती हैं। आत्मा आव्रियमाण है और कर्म आवरण अत: कर्म के द्वारा आत्मा के आवृत होने पर कर्म की भी उक्त चार अवस्थाएं होती हैं, जो कि आवरण करने के पहले समय में ही सुनिश्चित हो जाती हैं। आगम में इनको प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध कहा है। आ. गुणधर स्वामी ने इस अधिकार में प्रकृतिविभक्ति और स्थितिविभक्ति दोनों का वर्णन किया है। प्रकृति का अर्थ स्वभाव और विभक्ति का अर्थ विभाव है। प्रकृति में द्रव्यविभक्ति के तद्व्यतिरिक्त भेद का जो कर्मविभक्ति भेद है वह लिया गया है। प्रकृतिविभक्ति के दो भेद हैं-१. मूल प्रकृतिविभक्ति २. उत्तर प्रकृतिविभक्ति। इसमें से मूल प्रकृतिविभक्ति का सादि आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा विवेचन किया गया है। उत्तर प्रकृतिविभक्ति के एवैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृतिविभक्ति के दो भेद हैं। जहाँ मोहनीय की अट्ठाईस सत्ताईस आदि प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानों का कथन किया है उसे प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। इनमें से एवैâकउत्तरप्रकृतिविभक्ति का समुत्कीत्र्तना आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति का स्थानसमुत्कीत्र्तना आदि के द्वारा कथन किया है। जिसमें चौदह मार्गणाओं का आश्रय लेकर मोहनीय के अट्ठाईस भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बताई है, उसे स्थिति-विभक्ति कहते हैं। इसके मूल प्रकृतिस्थितिविभक्ति हैं उनके समूह को मूल प्रकृति कहते हैं। इसकी स्थिति को मूलप्रकृतिस्थिति कहते हैं तथा अलग-अलग मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की स्थिति को उत्तर प्रकृतिस्थिति कहते हैं। इनमें से मूल प्रकृति स्थितिविभक्ति का सर्वविभक्ति आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा कथन किया है और उत्तरप्रकृतिस्थिति का अद्धाच्छेद आदि अनुयोगद्वारों के द्वारा कथन किया है।
३. अनुभागविभक्ति- कर्मों में अपने कार्य करने की जो शक्ति पाई जाती है उसे अनुभाग कहते हैं। इसका विस्तार से इस अध्याय में व्याख्यान है। मूलप्रकृति-अनुभागविभक्ति और उत्तर प्रकृतिअनुभागविभक्ति इन दोनों का क्रमश: संज्ञा आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा तथा संज्ञा आदि अधिकारों में कथन किया है।
४. प्रदेशविभक्ति-झीणाझीण-स्थित्यन्तक- प्रदेश विभक्ति के दो भेद हैं-१. मूल प्रकृति २. उत्तर प्रकृति। इन दोनों का भागाभाग आदि अधिकारों में कथन किया गया है। किस स्थिति में स्थित प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य और अयोग्य हैं, इसका झीणाझीण अधिकार में कथन किया गया है। जो प्रदेश ऊपर कहे अवस्थाचतुष्क के योग्य हैं उन्हें क्षीण तथा अयोग्य हैं उन्हें अक्षीण कहते हैं। इस क्षीणाक्षीण का समुत्कीत्र्तना आदि चार अधिकारों में वर्णन है। स्थिति को प्राप्त होने वाले प्रदेश स्थितिक या स्थित्यन्तक कहलाते हैं अत: उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त आदि प्रदेशों का भी इस अधिकार में कथन है।
५. बंधक- बंधक के बंध और संक्रम ये दो भेद हैं। मिथ्यात्वादि कारणों से कर्मभाव के योग्य पुद्गलस्कन्धों का जीव प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह संबंध को बंध कहते हैं। जिस अनुयोगद्वार में इसका कथन है उसे बंध अनुयोग द्वार कहते हैं। इस प्रकार बंधे हुए कर्मों का यथायोग्य अपने अवान्तर भेदों में संक्रांत होने को संक्रम कहते हैं। इसका वर्णन संक्रम अनुयोगद्वार में है। बंध के अकर्मबंध और कर्मबंध दो भेद हैं। इस संपूर्ण विषय का वर्णन इस बंधक अधिकार में है, यह अध्याय बहुत विस्तृत है।
६. वेदक- इस अधिकार में उदय और उदीरणा का वर्णन है। कर्मों का अपने समय पर जो फलोदय होता है उसे उदय कहते हैं और उपायविशेष से उस समय से पूर्व में ही उनका जो फलोदय होता है, उसे उदीरणा कहते हैं, दोनों में ही फल का वेदन होता है इसलिए उदय और उदीरणा दोनों को ही वेदक कहा गया है। इन अधिकार में चार गाथाएँ हैं। यह अधिकार भी बहुत विस्मृत है।
७. उपयोग- इस अधिकार में कषायों के उपयोग का स्वरूप बताया है। इसमें साथ गाथाएँ हैं। इनमें बताया गया है कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितनी काल तक रहता है? किस जीव के कौन सी कषाय बार-बार उदय में आती है? एक भव में एक कषाय का उदय कितनी बार होता है व कितने भवों तक रहता है? आदि कषाय विषयक बातों का विवेचन इस अधिकार में है।
८. चतु:स्थान-घातियाकर्मों की शक्ति की अपेक्षा लता आदि रूप चार स्थानों का विभाग किया गया है, उन्हें क्रमश: एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु:स्थान कहते हैं। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया, लोभ के उन चारों स्थानों का वर्णन है इसलिए इस अधिकार का नाम चतु:स्थान है। इसमें सोलह गाथाएँ हैं।
९. व्यंजन- इस अधिकार में पाँच गाथाओं के द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ के पर्यायवाची शब्दों को बताया गया है। जैसे क्रोध के रोष, द्वेष तथा मान के मद, दर्प स्तंभ आदि। इनके द्वारा कषायों में समाविष्ट भावों का ज्ञान होता है। कषाय का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
१०. दर्शनमोहपोशाभना- दर्शनमोह की उपशामना के लिए जीव तीन करण करता है-अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इसका वर्णन इस अधाय में सोलह गाथाओं में है। पहली गाथा में प्रश्न किया गया है कि दर्शनमोह की उपशामना करने वाले जीव के परिणाम kकैसे होते हैं, उनके कौन योग, कौन कषाय, कौन उपयोग, कौन लेश्या और कौन वेद होता है आदि। इन सब प्रश्नों का समाधान करके चूर्णिसूत्रकार ने तीनों करणों का स्वरूप तथा उनमें होने वाले कार्यों का विवेचन किया है। इसके बाद पन्द्रह गाथाओं में दर्शनमोह के उपशामक की विशेषाताएं तथा सम्यग्दृष्टि का स्वभाव आदि बताया है।
११. दर्शनमोह की क्षपणा-इस अधिकार के प्रारंभ में पाँच गाथाओं द्वारा बताया गया है कि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारंभ कर्मभूमिज मनुष्य करता है। उसके बाद के तीन भवों तक मोक्ष प्राप्त करता है। इस क्षपणा का काल अन्तर्मुहूर्त होता है तथा प्रारंभ के बाद के तीन भवों तक मोक्ष प्राप्त करता है। इस क्षपणा के लिए भी तीन करण होते हैं। इन सबका विस्तार से वर्णन इसमें है।
१२. देशविरत –इस अधिकार में संयमासंयमलब्धि का वर्णन है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयाभाव से देशचारित्र को प्राप्त करने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होते हैं, उन्हें संयमासंयम लब्धि कहते हैं। इस अधिकार में अध:करण और अपूर्वकरण में होने वाले कार्यों का विवेचन स्वरूप एक ही गाथा है।
१३. संयम लब्धि- जो गाथा १२वें देशविरत अधिकार में है वही इस अधिकार में भी है। संयमासंयलब्धि के मान ही विवक्षित संयमालब्धि में भी दो ही करण होते हैं, जिनका विवेचन संयमासंयमलब्धि के समान ही किया गया है। अन्त में संयमलब्धियुक्त जीवों को आठ अनुयोगद्वारों से बताया है।
१४. चारित्र मोहनीय की उपशामना- इस अधिकार में आठ गाथाएं हैं। चार गाथाओं के द्वारा उपशामक का निरूपण किया गया है और चार गाथाओं द्वारा उपशामक के पतन का निरूपण किया गया है, जिसमें प्रतिपात के भेद आदि का सुन्दर विवेचन है।
१५. चारित्रमोह की क्षपणा- यह अधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें क्षपकश्रेणी का विवेचन विस्तार से किया गया है। अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के बिना-चारित्र मोह का क्षय नहीं हो सकता है अत: प्रारंभ में चूर्णिसूत्रकार ने इन करणों के कार्य का वर्णन किया है पश्चात् क्षपणा का विस्तृत वर्णन है। इस अध्याय में मूल २८ गाथाएं तथा ८६ भाष्य गाथाएं हैं। कुल एक सौ ग्यारह गाथाएं है। चारित्रमोह के क्षय से लेकर, द्वितीय शुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय का नाश करके जीव सर्वज्ञ होकर विहार करता है। तदनन्तर अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त करता है। यह सम्पूर्ण विषय पन्द्रहवें अधिकार का है। उपरोक्त प्रकार संक्षेप में ये अधिकार कषाय प्राभृत में वर्णित हैं। कषाय पाहुड़ की रचना शैली-सामान्यतया शास्त्र रचना के प्रारंभ में मंगलाचरण का विधान है। कहा-
आ. गुणधर ने कषाय पाहुड़ के प्रारंभ में तथा उसकी वृत्ति चूर्णिसूत्रों के प्रारंभ में आ. यतिवृषभ ने मंगल नहीं किया है। यह विशेषता है। इस विषय में आ. वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि-‘‘संपहि गुणहरभडारएण गाहासुत्ताणमादीए जइवसहत्थेरेण वि चुण्णसुत्तरस्स आदीए मंगलं-किण्ण कयं? ण एस दोसो मंगलं हि कीरदे पारद्धक-ज्जविग्घयरकम्मविणा-सणट्ठं। तं च परमागमुवजोगादो चेव णस्सदि।’’ प्रश्न-गुणधर भट्टारक ने गाथासूत्रों के आदि में तथा यतिवृषभ स्थविर ने भी चूर्णिसूत्रों के आदि में मंगल क्यों नहीं किया? समाधान इस प्रकार है-यह कोई दोष नहीं क्योंकि प्रारंभ किए हुए कार्य में विध्नों को उत्पन्न करने वाले कर्मों का विनाश करने के लिए मंगल किया जाता है और वे कर्म परमागम के उपयोग से ही नष्ट हो जाते हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कषाय पाहुड के समान कतिपय अन्य परमागम ग्रंथों, जिनका संबंध साक्षात् रूप से भगवान् की वाणी से हैं, में भी इसी हेतु से मंगलाचरण नहीं किया गया है। शेष ग्रंथों में मंगलाचरण अनिवार्य हैं। प्रकृत ग्रंथ की रचना गाथा सूत्रों में की गई है। वे गाथा सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त हैं और उनमें प्रतिपाद्य विषय की सूचना मात्र है। यह गुणधराचार्य का उद्भट बुद्धिकौशल और अगाध आगम ज्ञान एवं अपार पाण्डित्य ही है कि विशालकाय १६००० पदों को मात्र २३३ लघुकाय गाथाओं में निबद्ध कर दिया है। उन्होंने ग्रंथ लिखते समय तो १०८ गाथाओं की सूचना दी थी किन्तु अधिकारों से अतिरिक्त प्रतिपाद्य विषय संबंधी कुछ सहायक गाथाओं को लिखना भी उन्होंने उपयोगी समझा। वे गाथाएं भाष्य गाथाएं कहीं जा सकती हैं अत: कुल २३३ गाथाएं रचित हुई। बहुत सी गाथाएं केवल प्रश्नात्मक हैं, यथा गाथा नं. २२, यदि चूर्णिसूत्रकार चूर्णिसूत्रों के द्वारा इनका हार्द न खोलते तो इन गाथा सूत्रों का रहस्य उन्हीं में छिपा रह जाता। विस्तृत टीकाओं के पढ़ने से ज्ञान होता है कि गं्रथकार ने गागर में सागर भर दिया है। यह उनके प्रवचनवात्सल्य और अभीक्ष्ण्य ज्ञानोपयोग का परिणाम है।एक अति विशाल प्राभृत को जिसके अक्षरों की संख्या पन्द्रह अंकों में है, मात्र २३३ गाथाओं में गूँथे जाने का जो अति दुरूह एवं क्लिष्ट कार्य गुणधर भट्टारक ने किया है वह अनुपमेय है। इसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। इस पर चूर्णिसूत्र, उच्चारणाएं बृहत्काय साठ हजार श्लोक प्रमाण जल धवला लिखी गई है। इससे ज्ञात होता है कि गुणधर स्वामी का उद्देश्य विलुप्त होते हुए पेज्जदोसप्राभृत का उद्धार करना था। हम पर उनका असीम उपकार है कि उन्होंने आज हमें उस ग्रंथराज का स्वाद लेने का अवसर दिया है। निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनिराजों का स्वभाव करुणामय होता है। इस ग्रंथ में दो प्रकार की गाथाएं हैं-सूत्र व भाष्य। उन्हें जहाँ आवश्यक प्रतीत हुआ वहाँ भाष्य गाथाएं लिखीं हैं। रचना शैली गूढ़ होते हुए भी क्रमिक एवं संगत है। कथन सीधे रूप में किया गया है।
कषायप्राभृत की टीकाएँ
इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में लिखा है कि गुणधर आचार्य ने ‘‘कषायप्राभृत की रचना करके नागहस्ती तथा आर्यमंक्षु आचार्य को उनका व्याख्यान किया। उनके पास में कषायप्राभृत को पढ़कर आचार्य यतिवृषभ ने उस छः हजार प्रमाण चूर्णिसूत्रों की रचना की। यतिवृषभ आचार्य ने उन चूर्णिसूत्रों का अध्ययन करके उच्चारणाचार्य ने बारह हजार प्रमाण उच्चारणा सूत्रों की रचना की। इस प्रकार कषायप्राभृत उपसंहृत किया गया। षट्खण्डागम और कषायप्राभृत ये दोनों ही सिद्धान्त ग्रंथ ग्रहपरिपाटी से कुण्दकुण्द नगर में श्री पद्मनन्दि मुनि का प्राप्त हुए। उन्होंने षट्खण्डागम के आदि के तीन खण्डों पर बारह हजार प्रमाण परिकर्म नाम का टीकाग्रंथ लिखा। कतिपय काल व्यतीत होने पर शामकुण्ड नाम के आचार्य ने दोनों आगमों को जानकर महाबंध नाम के छठे खण्ड को छोड़कर शेष दोनों ग्रंथों पर बारह हजार प्रमाण प्राकृत, संस्कृत तथा कन्नड़ भाषा से मिश्रित पद्धति रूप ग्रंथ की रचना की। उसके बाद तुम्बलूर आचार्य ने षष्ठ खण्ड के सिवा पाँचों खण्डज्ञें पर तथा कषायप्राभृत पर कर्णाटक भाषा में ८४ हजार प्रमाण चूड़ामणि नाम की महती व्याख्या रची। उसके कुछ काल बाद स्वामी समतभद्र हुए। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों पर अति सुन्दर संस्कृत भाषा में ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की। जब वे कषायप्राभृत पर व्याख्या लिखने को तैयार हुए तो एक अन्य आचार्य ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया, क्या कारण रहा होगा, यह कहना संभव नहीं है-संभवत: आयु कम बची हो और वे इस अल्पावधि में टीका सम्पूर्ण न कर सकते हों। आगे चलकर वप्पदेवाचार्य ने षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की तथा कषायप्राभृत पर भी टीका लिखी। इसका प्रमाण ६० हजार श्लोक था। यह प्राकृत भाषा में थी तथा छहे खण्ड महाबंध पर आठ हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी। उसके बाद कितना ही काल व्यतीत हो जाने पर चित्रवूâटपुर में निवास करने वाले एलाचार्य सिद्धान्तों के ज्ञाता हुए। उनके पास में सकल सिद्धान्तों का अध्ययन करके श्री वीरसेन स्वामी ने वाटग्राम में आनतेन्दु के द्वारा बनवाये गये चैत्यालय में ठहर कर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की टीका को पाकर षट्खण्डागम पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका की रचना की तथा कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण ‘‘जय धवला’’ नाम की टीका लिखी। इसके पश्चात् वीरसेन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। तब उनके शिष्य जिनसेन स्वामी ने शेष कषाय पाहुड़ पर चालीस हजार श्लोक प्रमाण उपरोक्त जयधवला का अवशिष्ट भाग लिया। ये दोनों मिलाकर ६० हजार श्लोक प्रमाण हैं। श्रुतावतार के उपरोक्त वर्णन के आधार पर तथा अन्य आधार पर कषायपाहुड़ की कुल निम्न टीकाएं स्वीकृत हैं। (१) चूर्णिसूत्र – आचार्य यतिवृषभ (२) उच्चारणावृत्ति – आचार्य उच्चारणाचार्य (३) पद्धतिरूप टीका – आचार्य शामकुण्ड (४) चूडामणि – आचार्य तुम्बलूर (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति – आचार्य बप्पदेव (६) (उच्चारणा वृत्ति)
जय धवला
आचार्य वीरसेन एवं आचार्य जिनसेन इनके अतिरिक्त अन्य टीकाएं भी थीं। जयधवला के आधार से ऐसा ज्ञान होता है। मूल कषायपाहुड़, चूर्णिसूत्र, उच्चारणा तथा जयधवला वर्तमान में उपलब्ध हैं इन सबको ही सिद्धान्त ग्रंथ समझना चाहिए, स्वयं वीरसेनाचार्य ने जयधवला को सिद्धान्त ग्रंथ बताया है। मूल कषाय पाहुड का रचना काल प्रथम शताब्दी ज्ञात होता है, शेष टीकाएं मूल ग्रंथ के बाद से लेकर आठवीं-नवमीं शताब्दी तक रचित की गई है। कुल उपलब्ध जैन साहित्य में षट्खण्डागम और कषायपाहुड़ अपनी-अपनी टीकाओं सहित सिद्धान्त ग्रंथों के नाम से विख्यात हैं। ये ग्रंथ दक्षिण भारत में मूडबिद्री नामक स्थान में अधिष्ठित थे। इसी शताब्दी में पं. श्री फूलचंद जी, श्री महेन्द्र कुमार जी, श्री वैलाशचंद जी, डा. हीरालाल जी और ए.एन. उपाध्ये ने इनका हिन्दी अर्थ के साथ सम्पादन किया है। धवला टीका जैन श्रमण संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से प्रकाशित हुई है, जयधवला भा.दि. जैन संघ चौरासी मथुरा से तथा महाधवला टीका (षष्ठ खण्ड) की भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इस महत्कार्य की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। उपरोक्त कषाय प्राभृत पर चर्चा की गई। वर्तमान में ‘‘ज्ञानप्रवाद पूर्व’’ तो अप्राप्त है, उसके धारक मुनिराज नहीं हैं। केवल यह कषाय प्राभृत का सारांश है इसका विशद विवेचन टीकाओं में है। इससे ही संतोष करके ज्ञान के स्वरूप का अनुमान कर सकते हैं तथा रसवास्वादन कर सकते हैं।