भारत में स्तम्भों पर अभिलेख उत्कीर्णन मौर्य शासक अशोक ने प्रारम्भ किया, जिसे कालान्तर में गुप्तवंशीय शासकों ने भी जारी रखा। उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले में सलेमपुर रेलवे स्टेशन से ५ किमी. की दूरी पर एक छोटा सा गाँव कहौम (ककुभग्राम, कहाऊँ, कहावम् कहांव) स्थित है, जहाँ बलुए प्रस्तर में निर्मित २७ फीट ऊँचा एक स्वतंत्र स्तंभ है। (चित्र १)। इस स्तम्भ का वैशिष्ट्य कई दृष्टियों से है। इस स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में १२ पंक्तियों वाला गुप्त शासक स्कन्दगुप्त के काल का तिथियुक्त लेख है (चित्र २)।१ स्तम्भ के शीर्षभाग में कुषाणकालीन जिन चौमुखी मूर्तियों की परम्परा में तीर्थंकरों की चार कायोत्सर्ग मूर्तियां उकेरी गयी हैं (चित्र ३)। स्तम्भ के सबसे निचले भाग में २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की सात सर्पफलों से युक्त कायोत्सर्ग मूर्ति भी उकेरी गयी हैं (चित्र ४)। सभी तीर्थंकर निर्वस्त्र हैं अर्थात् स्तम्भ दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध है। इस स्तम्भ का जैन धर्म से सम्बन्ध और गुप्तकाल में कहौम में जैन धर्म का प्रभाव तथा गुप्त शासन स्कन्दगुप्त के शान्त काल (यानि ४६० ई.) में मद्रनाम के व्यक्ति द्वारा इस स्तम्भ का निर्माण तत्कालीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों को उजागर करता है। प्रस्तुत लेख में उत्तर प्रदेश में जैनकला एवं इतिहास की दृष्टि से कहौम के जैन स्तम्भ का अध्ययन हमारा अभीष्ट है। कहौम स्तम्भ लेख को प्रकाश में लाने का श्रेय फ्रांसिस बुकानन, जेम्स प्रिंसेप, जनरल किंनघम, भगवानलाल इन्द्रजी, फ्लीट एवं कीलहार्न प्रभृति विद्वानों को है। परमेश्वरी लाल गुप्त की पुस्तक प्राचीन भारत के अभिलेख, भाग दो के अनुसार सर्वप्रथम सन् १८१६ में उत्तर प्रदेश का सर्वेक्षण करते हुए प्रâांसिस बुकानन ने इस लेख को देखा था। उनकी रिपोर्ट के आधार पर १८३८ ई. में माण्टगोमरी मार्टीन ने अपनी पुस्तक ईस्टर्न इण्डिया में एक लेख लिखा और इसकी छाप प्रकाशित की। इसी वर्ष जेम्स प्रिंसेप ने भी अंग्रेजी अनुवाद सहित इसका पाठ प्रकाशित किया। सन् १८६० ई. में फिट्ज एडवर्ड हाल ने इसके प्रथम श्लोक को अनुवाद सहित प्रकाशित किया। सन् १८७१ में किंनघम तथा १८८१ में भगवान लाल इन्द्रजी ने अपने पाठ प्रकाशित किये और फ्लीट ने उसका सम्पादन किया। इस लेख को विशेष प्रकाश में लाने का श्रेय उपरोक्त विद्वानों के साथ ही कीलहार्न को भी है। यह स्तम्भ नीचे चौपहल, बीच में अष्टपहल और ऊपर सोलह पहल है।
इस स्तम्भ पर गुप्त संवत् १४१ उत्कीर्ण है अर्थात् स्तम्भ के निर्माण की तिथि ४६० ई. है। लेख में ककुभग्राम यानि वर्तमान कहौम का जैनधर्म की दृष्टि से महत्त्व, ब्राह्मणों, गुरुजनों, यतियों के प्रति श्रद्धाभाव और स्वयं के लिए पुण्यार्जन और सम्पूर्ण जगत् के हितार्थ आदिकत्र्तृन् अर्हत् का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। आदिकत्र्तृन अर्हत् संभव है ऋषभनाथ या आदिनाथ का सूचक रहा हो। स्तम्भ के निचले भाग में पश्चिम दिशा की ओर की रथिका में सवा दो फुट ऊँची २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्ति उकेरी है। पूरी तरह गुप्त शैली में शांत और साधना में डूबी इस मूर्ति में सात सर्पफणों के छत्रों का भी सुन्दर अंकन हुआ है। साधना में उनका आध्यात्मिक सौन्दर्य अलौकिक सा जान पड़ता है, जिनके चरणों के समीप दोनों पाश्र्वों में पूजा के निमित्त जल—कलश धारण किये दो उपासक—उपासिकाओं की मूर्तियों को दर्शाया गया है। गुप्तकाल में निर्मित विभिन्न स्थलों से प्राप्त तीर्थंकर मूर्तियों में कला सौन्दर्य की दृष्टि से यह मूर्ति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि गुप्तकाल में कुषाणकाल की तुलना में पाश्र्वनाथ की कम मूर्तियाँ उकेरित हैं। स्तम्भ के शीर्षभाग में लगभग १/२ फुट की चार कायोत्सर्ग तीर्थंकर मूर्तियाँ चार दिशाओं में उत्कीर्ण हैं, जिनके साथ न तो कोई लांछन दिखलाया गया है और न ही कोई अन्य संकेत दिये गये हैं जिनसे उनकी पहचान की जा सके, किन्तु इन मूर्तियों का मथुरा की कुषाणकालीन सर्वतोभद्र मूर्तियों के अनुरूप चार दिशाओं में उकेरन की योजना उनके सर्वमंगल के भाव को अभिव्यक्त करता है, जैसा कि स्वयं इस स्तम्भ के निर्माणकर्ता मद्र ने अभिलेख में समस्त जगत के हितार्थ इसके स्थापना का उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि कुषाणकालीन ऐसी ही चौमुखी मूर्तियों में कम से कम दो ओर ऋषभनाथ और पाश्र्वनाथ की मूर्तियां उकेरी गयी हैं और मूर्तिलेखों में ऐसी चौमुखी एवं सरस्वती तथा अन्य जैन मूर्तियों के निर्माण का उल्लेख भी सभी के हित और सुख के लिए करने की बात कही गयी है जो जैन कला के निर्माण की पृष्ठभूमि में सर्वमंगल के भाव को रेखांकित करना है। इस प्रकार स्तम्भ में कुल पांच तीर्थंकर आकृतियां हैं, जिनके लिए लेखों में पंचेन्द्रान् स्थापयित्वा२ शब्द का व्यवहार किया गया है, जिसके आधार पर डी. सी. सरकार ने कहौम के स्तम्भ पर नीचे की पाश्र्वनाथ की मूर्ति के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकर मूर्तियों के सन्दर्भ में किसी लांछन के अभाव में भी उनकी पहचान प्रस्तावित किया। किन्तु स्वयं उस स्थल पर जाकर और स्तम्भ की जिन र्मूितयों को देखने के बाद पाँच अलग—अलग तीर्थंकरों (आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ, महावीर) के अंकन के विचार को किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऊपर के चार सर्वतोभद्र स्वरूप में किन जिनों की र्मूितयां बनायी गयीं यह बताने का कोई आधार नहीं है, अत: पंचेन्द्रान् शब्द की पुनव्र्याख्या की आवश्यकता है, क्योंकि कुषाण—गुप्तकाल तक पाश्र्वनाथ के अतिरिक्त ऋषभनाथ और नेमिनाथ के लांछन कला में दिखाये जा रहे थे।
महाराजाधिराज चन्द्र के लेख से युक्त नेमिनाथ की शंख लांछन वाली मूर्ति पाँचवी शती ई. के प्रथम दशक में राजगिर में बन चुकी थी और ऋषभनाथ के कंधों पर केश वल्लरियों या जटाओं का अंकन कुषाणकाल से अनेकश: उपलब्ध होता है। इस स्तम्भ पर पाश्र्वनाथ की उपस्थिति और उनका महत्त्व पूरी तरह स्पष्ट है। मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के मतानुसार सर्वतोभद्र जिन मूर्तियों के माध्यम से समवसरण की मूलभावना के अनुरूप एक ही तीर्थंकर की चार आकृतियों को यहाँ दर्शाने का प्रारम्भिक प्रयास किया गया है। इस दृष्टि से यह स्तम्भ और उसकी तीर्थंकर मूर्तियाँ विशेष महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। लेख में आये अर्हत् और आदिकत्र्तृन् शब्द ऋषभनाथ की चौमुखी से सम्बन्धित हो सकते हैं। स्तम्भ की पाश्र्वनाथ की मूर्ति के ऊपर १२ पंक्तियों का ब्राह्मी लिपि में लेख है, जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : सिद्धम् ! जिसकी उपस्थान—भूमि शत नृपतियों के सिर झुकने से उत्पन्न वायु से हिल उठती है, जिसका वंश गुप्त है, जिसका यश जगत् विख्यात है, जो समृद्धि में सर्वोत्तम है, जो शक्रोपम (इन्द्रतुल्य) है, जो शतक्षितिपति हैं, उस स्कन्धगुप्त के शान्ति वर्ष एक सौ इकतालिस (गुप्त सम्वत् १४१) के ज्येष्ठमास का यह रत्न ककुभ नाम से प्रख्यात है और साधु संसर्ग से पवित्र है। इस ग्राम में सोमिल का पुत्र प्रचुर गुणनिधि महात्मा भट्टसौम हुआ। उसका पुत्र प्रथुल मति और यश वाला रूद्रसौम हुआ, जिसे लोग व्याघ्र नाम से पुकारते थे। उसका पुत्र मद्र हुआ, वह ब्राह्मणों, गुरुजनों और साधु—संतों के प्रति श्रद्धाभाव रखता था। यह देखकर कि संसार सतत परिवर्तनशील है, भयभीत होकर उसने अपने लिए अधिकाधिक पुण्य बटोरने का प्रयास किया। समस्त जगत् के हितार्थ अर्हत् पद के आदिकर्ता पाँच इन्द्रों (जितेन्द्रों) की र्मूितयाँ उत्कीर्ण कराकर इस शैल स्तम्भ को भूमि पर खड़ा किया, जो हिमालय की चोटी की तरह दिखाई देता है। इस स्तम्भ में संर्दिभत और एक विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह शैल स्तम्भ अशोक के स्तम्भों के समान स्वतंत्र रूप से स्थापित था या इसकी स्थापना मानस्तम्भ के रूप में जैन मन्दिर के साथ में हुई। इससे २०-२५ फीट की दूरी पर समीप ही स्तम्भ की सीध में एक जैन मंदिर अवस्थित है। यह मान्यता है कि यह मंदिर ठीक उसी स्थान पर स्थित है जहाँ प्राचीन काल में कोई जैन मन्दिर था (चित्र ५)।
इस बात का समर्थन काले स्लेटी रंग की आदमकद एक सुन्दर गुप्तकालीन कायोत्सर्ग मुद्रा वाली निर्वस्त्र तीर्थंकर मूर्ति करती है (चित्र ६)। संभव है उस स्थल पर निर्मित गुप्तकाल का जैन मंदिर रहा हो जिसके स्थापत्यगत अवशेष वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। यह र्मूित लांछन रहित होते हुए भी गुप्तकालीन सौन्दर्य और सौष्ठव का एक सर्वप्रमुख उदाहरण अवश्य है। मुख पर आध्यात्मिक तेज और शांति, गुप्तशैली के होंठ, अद्र्धनिमीलित नेत्र, भरा हुआ किंतु इकहरा शरीर वृहत्संहिता३ के दिग्वासा तरूणों रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देव:’ के भाव पर पूरी तरह खरी उतरती है। तीर्थंकर के पाश्र्वो में चँवरधारी सेवकों की मनोहारी आकृतियाँ भी गुप्तकला सौन्दर्य की साक्षी हैं। इस लेख के माध्यम से भविष्य में निश्चित प्रमाणों एवं साक्ष्यों के आने तक इस शैल स्तम्भ को प्राचीनतम जैन मानस्तम्भ मानने की संभावना व्यक्त करना ठीक होगा। यह जैन मानस्तम्भ स्कन्दगुप्त के शांतिवर्ष के उल्लेख, पाश्र्वनाथ तथा शीर्षभाग की सर्वतोभद्र चार जिन र्मूितयाँ और संभवत: किसी प्राचीन मंदिर से सम्बन्धित काले स्लेटी रंग के तीर्थंकर र्मूित के साथ ही लेख में आये अर्हत् आदिकत्र्तृन् और पंचेन्द्रान् शब्दों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, जिसमें जिन या तीर्थंकर शब्द के गुप्तकाल तक व्यवहार में न आने का भी संकेत मिलता है।
सन्दर्भ १. डी.सी. सरकार, सेलेक्ट इन्सिक्रप्शन्स, भाग १, कलकत्ता, १९४२, पृ. ३०८-३१० २. ए.के. मित्तल, भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, आगरा, १९८९, पृ. ४६०-४६४ मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमाविज्ञान, वाराणसी, पृ. ५१ कार्पस इन्सक्रिप्सनम् इंडिकारम् खण्ड ३, पृ. ६५-६८ वमनलाल जे. शाह, जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, लन्दन, १९३२, पृ. २०८-२०९ यू.पी. शाह, स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९५५, पृ. १५ परमेश् वरी लाल गुप्त, प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख, खण्ड २, तृतीय संस्करण, वाराणसी, १९९९, पृ. १४६-१४७ ३. बृहत्संहिता, ५८.४५.