जैनधर्म के ९वें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ के गर्भ-जन्म-तप एवं केवलज्ञान, इन चार कल्याणकों से पवित्र भूमि कावंâदी तीर्थ है । वर्तमान में यह तीर्थ गोरखपुर (उ.प्र.) के निकट देवरिया जिले में स्थित है, जिसे खुखुन्दू के नाम से भी जाना जाता है । पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से किये जा रहे तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास क्रम में ही इस काकंदी तीर्थ का भी भव्य विकासकार्य वर्ष २०१० में सम्पन्न किया गया है । इस जन्मभूमि के विकास की गाथा अत्यन्त हृदयस्पर्शी है । इस तीर्थ पर प्राचीनकाल से एक जिनमंदिर बना हुआ है, जिसमें ४ स्तंभों पर मंडपनुमा एक वेदी बनी हुई है । यहाँ पर पहले एक शिला फलक में भगवान नेमिनाथ की काले पाषाण वाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान थी, जिसे मूलनायक प्रतिमा कहते थे तथा इसके अतिरिक्त एक श्वेत पाषाण वाली ११ इंच की भगवान पुष्पदंतनाथ की पद्मासन प्रतिमा, विक्रम संवत् १५४८ की थी एवं इसके साथ ही अन्य कुछ तीर्थंकर प्रतिमाएँ और यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियाँ भी विराजमान थीं । जैन समाज के अत्यन्त दुर्भाग्य से ये सारी प्रतिमाएं एक साथ चोरी चली गर्इं और वेदी पूर्णतया सूनी हो गई थी। इस प्रकार से यह तीर्थ अत्यन्त ही उपेक्षा का शिकार होकर जीर्णोद्धार और विकास की आशा में प्रतिक्षारत था। तभी गोरखपुर की जैन समाज द्वारा पूज्य माताजी से निवेदन किया गया एवं उनके निवेदन को गंभीरता से विचार करके पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी ने कावंâदी जाकर तीर्थभूमि का प्रत्यक्ष अवलोकन किया एवं तत्क्षण ही तीर्थ विकास का निर्णय ले लिया। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से काकंदी तीर्थ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा दिनाँक १७ जून से २१ जून २०१० अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठी से दशमी तक पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज एवं कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन (स्वामी जी) के सान्निध्य में सानंद सम्पन्न हुई । इस तीर्थ पर विशाल नूतन जिनमंदिर का निर्माण करके मंदिर जी में ९ फुट उत्तुंग भगवान पुष्पदंतनाथ की अत्यन्त मनोहारी ग्रेनाइट पाषाण की सुन्दर पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई। साथ ही मंदिर जी के सामने लाल पाषाण का विशाल कीर्तिस्तंभ भी बनाया गया है, जिसमें भगवान की ८ प्रतिमाएँ विराजमान करके यह प्रतिष्ठा महोत्सव सानंद सम्पन्न हुआ। तीर्थ पर प्राचीन जिनमंदिर बना हुआ है, जिसमें भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान की गई हैं । काकंदी तीर्थ भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि होने के साथ ही अन्तकृत्केवली महामुनिराज अभयघोष की निर्वाणभूमि भी है अत: ‘‘जन्मभूमि’’ के साथ ही इस तीर्थ को सिद्धक्षेत्र होने के रूप में जाना जाता है । ऐसी इस पावन तीर्थ भूमि का विकास कार्य आज समाज के समक्ष स्तुत्यरूप में जिनधर्म की पताका फहरा रहा है । यात्रियों की सुविधा हेतु तीर्थ पर कमेटी द्वारा आवास, भोजन आदि की समुचित व्यवस्था का प्रबंध किया गया है ।