कषाय के उदय से अंनुरजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते है इसके छः भेद है –
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल |
इसमें प्रारंभ की तीन अशुभ लेश्या और बाद की ३ शुभ लेश्या है | प्रत्येक के उत्तर भेद अनंत है |
तीव्र क्रोधी , बैर ना छोड़ने वाला , युद्धप्रिय , धर्म व दया से रहित , दुष्ट , किसी के वश में न आने वाले व्याक्ति की कृष्ण लेश्या है | काम करने में मन्द, स्वच्छन्द, विवेकरहित , कलाचातुर्य से रहित इन्द्रिय विषयों का लम्पति,मानी, मायाचारी , आलसी , अति मिद्रालू, वंचना में दक्ष , धन लोलुपी होना यी सब नीललीश्या के चिन्ह है | दूसरे के ऊपर क्रोध करना , निन्दा करना , दुख देना , वैर करना , शोकाकुलित होना , दूसरे के ऐश्वर्य आदि को सहन न कर सकना , दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा करना, रण में मरने की इच्छा आदि कापोतलेश्या के चिन्ह है | अपने कार्य- अकार्य, सेव्य असेव्य को समझने वाला , सबके विषय में समदर्शी , दया, दान में तत्पर, मन वचन काय के विषय में कोमल परिणामी हो यह पितलेश्या वाले लक्षण है | दान देने वाला, भद्र परिणामी , उत्तम कार्य करने के स्वभाव वाला, कष्ट रूप और अनिष्ट रूप उपसर्गों को सहने वाला, मुनिजन , गुरुजन की पूजा में प्रीति युक्त होना पद्मलेश्या एवं पक्षपातरहित, निदान का अबंधक समदर्शी इष्ट से राग व अनिष्ट से द्वेष न करना , स्त्री पुत्रादि में स्नेह रहित ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण है |