(रूपक अलंकार से समन्वित इस कथानक में कर्मों का जिनराज के साथ युद्ध दर्शाया गया है। इसमें भव-संसार को एक मनोहर नगर की उपमा दी है, मकरध्वज-कामदेव को उस नगर का राजा नियुक्त किया है, मोह नाम का व्यक्ति उस राजा के यहाँ मंत्रीपद पर कार्यरत है पुन: राजा सिद्धसेन की पुत्री सिद्धी नामक सुन्दरी कन्या के पति जिनराज के साथ मकरध्वज का युद्ध दर्शाते हुए कर्मों का कथानक प्रारम्भ होता है)— महाराज मकरध्वज की जय हो, जय हो। इस जयकार के साथ भव नामक सुन्दर नगर के राजा मकरध्वज/कामदेव के राज दरबार में ‘मोह’ नाम का प्रधानमंत्री प्रवेश करता है और अपना आसन ग्रहण कर सभासदों के मध्य अपने महाराज के अनुपम शौर्य-पराक्रम आदि का वर्णन बतलाता है— प्रिय बन्धुओं! तीनों लोकों में प्रसिद्ध यह हमारा भव-संसार नामका महानगर है। जहाँ आकर किसी भी प्राणी का वापस जाने का मन नहीं करता है। हमारे नगर के राजा मकरध्वज की तो महिमा ही अपरम्पार है, समस्त विश्व पर एकछत्र शासन करने की जिनमें अपूर्व क्षमता है। देखो न, हमारे राजा इतने सुन्दर हैं कि जिन्हें देखते ही संसार की समस्त स्त्रियाँ कामविह्वल हो जाती हैं….इत्यादि। ‘‘मद्ना पराजय’’ नामक ग्रंथ में ‘‘नागदेव’’ नाम के कवि ने मकरध्वज के बल-वीर्य का वर्णन करते हुए लिखा है— ‘‘मकरध्वज अपने धनुष-बाण से मण्डित था और उसके द्वारा उसने इन्द्र, नरेन्द्र आदि सबको अपने अधीन कर रखा था। वह अतिशय रूपवान था, महान प्रतापी था, दानशील था और भोग-विलास में सदा मस्त रहता था। रति और प्रीति नाम की उसकी दो प्राणबल्लभाएँ-पत्नियाँ थीं। इसके प्रधानमंत्री का नाम मोह था। मकरध्वज त्रैलोक्य विजयी था और अपने प्रधान सचिव के सहयोग से बड़े आराम के साथ राज्य का संचालन करता था।’’ इस प्रकार असीम प्रसन्नता के साथ मकरध्वज का विशाल राज्यकाज चल रहा है। उसके सभाभवन में शल्य, गारव, दण्ड, कर्म, दोष, आस्रव, विषय, अभिमान, मद, प्रमाद, दुष्परिणाम, असंयम और व्यसन आदि समस्त योद्धा उपस्थित हैं। अनेक राजा-महाराजा, मकरध्वज की सेवा-सुश्रूषा में लगे हुए हैं। तभी आनन्द के हिलोरों में डूबते-उतरते मकरध्वज अपने प्रधान सचिव मोहराज से पूछते हैं— मंत्रिवर! क्या तीनों लोकों में कहीं नया समाचार तुम्हें सुनने को मिला? मेरे राज्य में कहीं कोई प्राणी दुखी तो नहीं है? मंत्री जी राजन् के स्वस्थ मस्तिष्क को देखकर विनयपूर्वक अपनी बात कहते हैं— ‘‘महाराज! मैंने एक नई बात अवश्य सुनी है जो कि बिल्कुल अपूर्व है—इससे पहले कभी नहीं सुनी थी। एकान्त में ही आपको वह बात बताई जा सकती है। राजा मकरध्वज विस्मय से मंत्री की ओर देखने लगे, तब मोह ने उन्हें सांत्वना प्रदान की कि ‘‘राजन्! घबड़ाने जैसी कोई बात नहीं है, आप तो त्रैलोक्यविजयी इस पृथ्वी के अधिपति हैं, कोई न कोई समस्याएँ तो राजाओं के पास आती ही रहती हैं।’’ एकान्त में ही मैं आपको सारी बात बताकर मंत्रणा करूँगा क्योंकि इन्द्र के गुरु वृहस्पति ने बतलाया है कि राजसभा में राजा के लघु कार्य की भी चर्चा नहीं होनी चाहिए। कहा भी है—
‘‘षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्ण: स्थिरी भवेत्। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, षट्कर्णोऽरक्ष एव स:।।’’
अर्थात् तीन व्यक्तियों के छ: कानों तक पहुँचकर किसी भी गुप्त बात का भेद खुल जाता है। जब तक बात मात्र दो व्यक्तियों के चार कानों तक रहती है, तभी तक सुरक्षित रहती है अत: इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि मंत्र- मंत्रणा (गुप्तबात) दो व्यक्तियों तक ही सीमित रहे। इस नीति कथन के पश्चात् मंत्रिवर मोहराज अपनी अपूर्व बात सुनाने के लिए मकरध्वज को एकान्त में ले गये। वहाँ उन्होंने राजा मकरध्वज के हाथ में एक विज्ञप्ति पत्र दिया और कहा—महाराज! संज्वलन ने यह विज्ञप्ति आपके पास भेजी है, आप इसका अवलोकन करें। आतुरतापूर्वक विज्ञप्ति लेकर मकरध्वज ने ज्यों ही उसे पढ़ा, उसके ललाट पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आर्इं। वह मोह से कहने लगा—मोह! आज तक तो मैंने ऐसी बात कभी सुनी नहीं है। संज्वलन ने जो लिखा है कि ‘‘जिन’’ नाम का राजा मकरध्वज से भी बड़ा है सो उसकी यह बात मुझे सच नहीं लगती है। मुझे तो इसके पीछे कोई षड्यंत्र नजर आता है। वह पुन: क्रोधित हो कहने लगा— ‘‘जब मैं तीनों लोकों को अपने आधीन कर चुका हूँ तो त्रिभुवन से अतिरिक्त यह जिन नामका राजा कहाँ से आ गया? नहीं, यह बिल्कुल संभव नहीं है। भव नगर के महाराज की मानसिक स्थिति अब बदल सी गई, उसके परमोत्कृष्ट सुख में जिनराज एक शूल बनकर खड़ा हो गया। तभी मंत्री जी कहने लगे—हे देव! आपकी चिन्ता स्वाभाविक है किन्तु आप असंभव कहकर जिनराज का अस्तित्व कभी मिटा नहीं सकते। संज्वलन जो कि सदैव आपको सत्य और गुप्त समाचार देता रहा है, वह झूठ नहीं बोल सकता। वह इस बात को खूब समझता है कि—
‘‘सर्वदेवमयो राजा, वदन्ति विबुधा जना:। तस्मात्तं देववत् पश्येन्न व्यलीकं कदाचन।।’’
अर्थात् ‘‘विद्वज्जन राजा को समस्त देवों का प्रतीक मानते हैं इसलिए राजा को देव का स्वरूप ही समझकर उसके साथ असत्य व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए।’’अन्यथा क्रोधित होकर राजा सारे देश का सर्वनाश भी कर सकता है। पुन: मोह कहने लगा— राजन् ! आप मुझे क्षमा करना, मैं संज्वलन द्वारा कथित एक कटु सत्य भी उजागर करता हूँ—
‘‘सर्वदेवमयस्यापि, विशेषो भूपतेरयम्। शुभाशुभफलं सद्यो, नृपाद्देवाद्भवान्तरे।।’’
महाराज! यद्यपि न्यायप्रिय राजा समस्त देवों का प्रतिनिधि है फिर भी उसमें और देव में एक अंतर यह है कि राजा के पास अच्छा-बुरा परिणाम तत्काल ही मिल जाता है जबकि देव के पास से वह जन्मान्तर में प्राप्त होता है। अर्थात् राजा तो उसका हिताहित करने वाले के प्रति तत्काल ही धन या सजा देने आदि की आज्ञा देते हैं तथा देव तो वीतरागी भगवान हैं अत: उनके सामने जो भी शुभाशुभ कर्म किए जाते हैं, प्राणी जन्मांतर में स्वयमेव उसका फल भोगते हैं। मकरध्वज चिन्ता में डूबा हुआ संज्वलन की विज्ञप्ति पर विचार कर रहा था। उसने मोह से पूछा-मुझे स्मृति में नहीं आ रहा है कि ‘‘जिनराज’’ नामका यह शक्तिशाली राजा आखिर रहता कहाँ है और इसका पूरा परिचय क्या है? तब मोह उसे पुरानी यादें दिलाते हुए कहने लगा— राजन्! बहुत वर्ष पहले यह जिनराज हमारे इसी भव-नगर में निवास करता था और दुर्गति-वेश्या के यहाँ पड़ा भोग-विलास करता रहता था। चोरी करने की इसकी रोज की आदत थी। फलस्वरूप यह कोतवाल के द्वारा पकड़-पकड़कर पीटा जाता और यहाँ तक कि इसे मृत्युदण्ड देने की धमकियाँ भी मिलती थीं लेकिन उस समय इसकी बुद्धि कभी ठीक न हुई। सजा के कुछ दिन बाद ही यह पुन: अपने काले धन्धे प्रारंभ कर देता था।
(प्रिय पाठकों ! मोहराज मंत्री यहाँ जिस जिनराज का प्राचीन कथानक सुना रहे हैं वह किसी एक का नहीं बल्कि भगवान बनने से पूर्व सभी संसारी प्राणियों की अवस्था पर आधारित है क्योंकि अनादिकाल से हम और आप सभी लोग इस भव नगर-संसार में नरक-निगोद आदि दुर्गतिरूपी वेश्या के आधीन हो रहे हैं।) मोह अपने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहता है— एक दिन उस जिन को कुछ सद्बुद्धि आई अत: वह दुर्गति-वेश्या से विरक्त होकर अपने श्रुत-मंदिर में घुसा अर्थात् जैनशास्त्रों का स्वाध्याय करने लगा। राजन्! वहाँ जानते हो क्या हुआ? अरे, क्षणमात्र में उसका जीवन ही बदल गया। वहाँ त्रिभुवन के तीन अनमोल रत्न (सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) इसके हाथ लग गए। फिर तो वह उन रत्नों में इतना आकर्षित हो गया कि घर, परिवार, पत्नी-बच्चे सभी को भूल कर उपशम सम्यक्त्त्वरूपी घोड़े पर सवार होकर चारित्रपुर नामक नगर में पहुँच गया अर्थात् दिगम्बर मुनि बन गया। मकरध्वज बीच में ही पूछ बैठा—उसने हमारा नगर इतनी आसानी से कैसे छोड़ दिया? तब मोह ने बतलाया— हाँ! मुझे भी आश्चर्य है। राजन्! अपने नगर के इन्द्रिय और विषय योद्धाओं ने उसकी बड़ी खुशामद की परन्तु वे सभी उसे रोकने में असमर्थ रहे। महाराज! वह भले ही व्यसनी था किन्तु निज और पर के अनुशासन में पूर्ण दक्ष था अत: ज्यों ही उसने खोटे कार्यों का त्याग किया कि तुरन्त चारित्रपुर के पाँच महाव्रतरूपी महाभटों ने उसे अपना राजा ही बना लिया। अब वह जिनराज रत्नत्रयी निधि का स्वामी है। तपोराज्य के उस अधिपति ने हमारे नगर की ओर तो अब देखना भी बन्द कर दिया है शायद अपनी पुरानी आदतों को वह कभी याद भी नहींं करता है वर्ना कभी भूलकर भी तो यहॉँ चक्कर लगाता। इस प्रकार अब मैंने सुना है कि वह जिनराज आज तेरह गुणस्थानरूपी सीढ़ियों से सुशोभित और दुर्ग जैसे दुर्गम चारित्रपुर में सुखपूर्वक राज्य कर रहा है। मकरध्वज ने कहा—भले ही वह चारित्रपुर का राजा बनकर अपना दम्भ दर्शा रहा है किन्तु आखिर है तो वह वुंâवारा ही। स्त्रीसुख से वंचित वह राजसुख भी भला उसे क्या सुख पहुँचा पाते होंगे? मंत्रिवर! संसार में जिसे स्त्रीसुख प्राप्त नहीं है, समझो, उसका जीवन ही अधूरा है। मोह ने आगे बताया—महाराज! उसके सम्बन्ध के बारे में एक नया समाचार और सुना है कि चन्द दिनों में ही जिनराज का विवाह मोक्षपुर में सिद्धसेन की अपूर्व सुन्दरी कन्या के साथ होने जा रहा है अत: वहाँ जोरदार तैयारियाँ चल रही हैंं। सिद्धि (मुक्ति) नामक उस कन्या का अनुपम सौन्दर्य संसार की किसी भी स्त्री में नहीं है।
हे स्वामिन! एक दया नाम की दूती ने जिनराज का यह सम्बन्ध ज़ुडवाया है। वह इस बात के लिए कटिबद्ध है कि शीघ्र ही जिनराज और मुक्ति कन्या के ये प्रेम सम्बन्ध परिणय में परिवर्तित हो जावें क्योंकि इस युगल जोड़ी के सौन्दर्य एवं गुणों से सारा नगर अतिशय प्रभावित है। एक सुन्दर स्त्रीपात्र का नाम आते ही मकरध्वज का खून खौल गया, वह कामविह्वल हो उठा। वह क्रोध से लाल- पीला होकर बोल पड़ा— ‘‘हे मंत्रिवर! तुम मेरी भीष्म प्रतिज्ञा भी सुन लो।’’ मैं निश्चय करता हूँ कि ‘‘युद्ध में जिनराज को परास्त कर मुक्ति कन्या के साथ यदि मैंने विवाह नहीं किया तो अपना मकरध्वज नाम बदल दूँगा। यह कहकर मकरध्वज ने अपने कुसुम-बाण वाला धनुष हाथ में ले लिया और जिनराज से संग्राम करने हेतु प्रयाण करने को उद्यत हुआ, तभी मोह मंत्री ने उसे समझाते हुए कहा कि ‘‘योग्य राजा को अपनी शक्ति के पहचाने बिना अकेले युद्ध हेतु नहीं निकलना चाहिए अन्यथा कीट पतंग के समान उसे प्रतिद्वंद्वी के समक्ष नष्ट होना पड़ता है। उस समय मंत्री ने अपने नाम को सार्थक करते हुए मकरध्वज राजा को कई अमूल्य सलाह प्रदान कीं। जैसे— ‘‘राजा का भृत्यों के बिना काम नहीं चल सकता और न ही भृत्यों का राजा के बिना। अत: राजा और भृत्यों की स्थिति एक दूसरे के आश्रित समझनी चाहिए।’’ साथ ही ‘‘राजा भृत्यों से प्रसन्न होकर केवल धन ही देता है किन्तु भृत्य यदि राजसम्मानित होते हैं तो अवसर आने पर वे राजा के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर डालते हैंं।’’ इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आपको अपने भट योद्धाओें के बिना युद्धक्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। राजन्! समुदाय में ही बल रहता है, अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। मोह की बात सुनकर मकरध्वज ने कहा—मोह! यदि तुम्हारा ऐसा ही आग्रह है तो शीघ्र ही सेना तैयार करके मेरे समक्ष लाओ। सेना तैयार करने हेतु मोह के चले जाने पर मकरध्वज गंभीर चिंता में निमग्न होकर सोचने लगा—‘‘मेरे लिए कब वह शुभ दिन आएगा, जब मुक्तिप्रिया को जीतकर मैं अपनी रानी बनाऊँगा और परमसुख का उपभोग करूँगा।’’ कामबाणों से बिद्ध मकरध्वज ने अपना विवेक खो दिया था। रति और प्रीति नामक उसकी पत्नियाँ भी अब उसे सुखी नहीं कर पा रही थीं। मकरध्वज अब अपने सुखों को भूलकर जिनराज के भावी सुख के बारे में सोच-सोचकर अत्यंत व्याकुल हुआ जा रहा था। अत: राजा के अन्त:पुर में भी अब खुशियों की जगह गम पैâला हुआ था। पति की चिन्तित अवस्था में दोनोें प्राणप्यारी भी अपने जीवन को कोमल-शुष्क डाली की भाँति समझ रही थीं किन्तु वे पति से कुछ भी पूछने की हिम्मत न कर पाती थीं।
इस मदन पराजय कथानक के मर्म को जानने के लिए पाठकों को इसमें वर्णित बार-बार आने वाले कुछ शब्दों के अर्थ जानना भी आवश्यक हैं जो निम्न प्रकार हैं- मकरध्वज-कामदेव/कामवासना शल्य-जो कांटे के समान हृदय में चुभती रहे, उसे शल्य कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान। गारव-ऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारव ये मुनियों में हो सकते हैं अपनी ऋद्धि आदि का घमंड होने से। दण्ड-मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं। कर्म-आत्मा के साथ बंधे हुए पुद्गल परमाणुओें को कर्म कहते हैं। इनके आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। दोष-अज्ञान, मोह, राग, द्वेष आदि दोष कहलाते हैं। आस्रव-आत्मा में कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। विषय-पञ्चेन्द्रियों के विषय रूप, रस आदि। अभिमान-अहंकार या मान कषाय को अभिमान कहते हैं। मद-अपनी जाति, कुल, विद्या आदि का घमण्ड करना मद कहलाता है। प्रमाद-आत्मा के साथ असावधानी बरतने को प्रमाद कहते हैं। इसमें विकथा आदि १५ भेद हैं। दुष्परिणाम-आत्मा के कुटिल या खराब भावों को दुष्परिणाम कहते हैं। असंयम-व्रतों का पालन नहीं करना असंयम कहलाता है। व्यसन-बुरी आदतों को व्यसन कहते हैं। संज्वलन-यह एक कषाय का भेद है। अर्थात् कषाय के सोलह भेद होते हैं-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ। अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ। इनमें से जो अंतिम संज्वलन कषाय है, यह मुनियों में पाई जाती है। जिनराज-चार घातिया कर्मों का नाश करने वाले अरिहंतों को जिनराज कहते हैं। यहाँ चार घातिया कर्मों को नष्ट करने के सन्मुख हुए जिनकल्पी दिगम्बर मुनि को जिनराज कहा हैै। मोह-आठ कर्मों में से एक कर्म का नाम ‘मोह’ है। रति-पर में आसक्ति को रति कहते हैं। प्रीति-प्रेम करने को प्रीति कहते हैं।
पुनश्च अब कथानक प्रारंभ होते हैं- मकरध्वज-कामदेव की पत्नी एक बार अपने पति का चित्त अत्यन्त चंचल देखकर प्रियसखी प्रीति से पूछने लगी-बहन! पता नहीं, इन दिनों अपने पतिदेव को क्या हो गया है? न तो चेहरे पर हँसी दिखती है और न पूर्व की भाँति विलासिता। प्रतिदिन उन्हें चिंतित और क्रोधित देखकर मेरा मन बड़ा दुखी रहता है। रति की बात सुनकर प्रीति कहने लगी-सखी! हो सकता है कि राजनीति से संबंधित कोई जटिल समस्या ने उन्हें ऐसा कर दिया हो। जो भी हो, हमें उनकी इस प्रवृत्ति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि निष्प्रयोजन किसी के बीच में अपनी टाँग अड़ाने से अपनी दुर्दशा होने का भय रहता है। रति पुन: प्रीति से कहती है-सखि! तुम्हारी यह बात मुझे कदापि नहीं जंचती है। क्या पतिव्रता स्त्रियों का यही धर्म है कि पति की कोई चिन्ता न करें? इस मीठी फटकार से डरकर प्रीति बोली-यदि ऐसी बात है तो आप ही प्राणनाथ से पूछिए कि वे इतने चिंतित और खेदखिन्न क्यों रहते हैं? दोनों सखियों ने वार्तालाप करके पतिदेव से उनकी चिन्ता का कारण पूछने की योजना बनाई। पुन:- एक बार रात के समय महाराज मकरध्वज अपने शयनागार में शय्या पर लेटे हुए थे, इतने में रति अपनी शंका का समाधान करने के लिए मकरध्वज के पास पहुँचती है। वहाँ पहँुचकर पतिदेव का प्रेमपूर्वक आलिंगन करके उनसे पूछती है-‘‘महाराज! आजकल न आप ठीक से भोजन करते हैं, न सुख की नींद लेते हैं, न हम लोगों से अच्छी तरह से प्रेमालाप करते हैं और न ही राजकाज में पहले जैसा चित्त लगाते हैं।’’ सो क्या कारण है? मुझे बताकर आप अपना मन हल्का कर लीजिए, मैं आपकी ऐसी अवस्था देखकर भला सुखी कैसे रह सकती हूँ? ‘‘मुझे कुछ भी तकलीफ नहीं है’’ यह कहकर मकरध्वज बात टालना चाहता था किन्तु रति फिर पतिदेव से उनकी हृदयव्यथा जानने हेतु कहती है- स्वामी! संसार में कोई भी प्राणी तो ऐसा नहीं है जो आपके वश में न हो। ऐसी कोई स्त्री नहीं है जिसका आपने उपभोग न किया हो, कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जिसने आपकी सेवा न की हो। फिर समझ में नहीं आता कि आपकी इस प्रकार की अवस्था क्यों हो गई है? बड़े अनुनय-विनयपूर्वक रति के द्वारा इस प्रकार पूछने पर मकरध्वज कहता है-प्रिये! मेरे हृदय के दुख को तुम दूर नहीं कर सकतीं अत: तुमसे बताने से क्या लाभ है? फिर भी बार-बार उसके आग्रह पर मकरध्वज अपनी व्यथा सुनाने लगा-हे प्राणवल्लभे! जिस दिन से संज्वलन द्वारा लाई विज्ञप्ति मैंने पढ़ी है और सिद्धिकन्या के रूप एवं लावण्य का मनोहर विवेचन सुना है उसी दिन से मेरी यह शोचनीय स्थिति हो गई है। मुझे कुछ समझ नहीं आता कि अब मैं क्या करूँ? रति ने कहा-स्वामिन्! आपके पास तो मोह जैसे सुभट मंत्री मौजूद हैं, आपने उन्हें यह बात क्यों नहीं बताई? नीतिकारों ने कहा है-
‘‘जनन्या यच्च नाख्येयं, कार्यं तत् स्वजने जने। सचिवे कथनीयं स्यात्, कोऽन्यो विश्रम्भभाजन:।।’’
अर्थात् जो बात माता को नहीं बतलाई जा सकती, उसे अपने स्वजन से कह देना चाहिए और मंत्री को तो अवश्य ही बता देना चाहिए। भला, मंत्री को छोड़कर अन्य कौन विश्वासपात्र हो सकता है? मकरध्वज उत्तर में कहने लगा-हे शुभे! मेरा यह समाचार मोह से भी छिपा नहीं है। मैंने उसे सेना तैयार करने का आदेश दिया है परन्तु तुमसे भी मुझे एक बात कहनी है कि जब तक मोह सेना लेकर आता है, तब तक तुम सिद्धिकन्या के पास जाकर इस प्रकार का प्रयत्न करो कि वह जिनराज के प्रति द्वेष करने लगे और अपने विवाहोत्सव के अवसर पर मुझे ही अपना जीवनसंगी चुने। रति चिंतित होकर कुछ विचार करने लगी, तभी मकरध्वज पुन: कहता है- प्रिये! तुमने मुझे अपना समझकर सहजभाव से मेरी बात पूछी, इसीलिए मैंने तुम्हें सब कुछ बतला दिया। अब यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम मेरी मनोव्यथा दूरकर मुझे सुखी करो, इसमें ही तुम्हारा पातिव्रत्य धर्म निहित है। पतिदेव की बात सुनकर रति बड़े असमंजस में पड़ गई। वह कहने लगी- स्वामिन्! लगता है आप एक नवीन सुन्दरी का नाम सुनकर उसको पाने के लिए उचित-अनुचित का विवेक भी खो बैठे हैं। एक पत्नी होने के नाते भी उसे पति की यह बात बुरी लगी अत: उसने एक कटु नीति भी सुना दी- ‘‘जिस प्रकार से कौवा भरे हुए तालाब का पानी पसंद नहीं करता, उसे घड़े के सड़े हुए पानी में ही संतोष मिलता है। उसी प्रकार नीच कामी पुरुष अपनी पत्नी के सुलभ होने पर भी परस्त्री लम्पट होते हैं।’’ रति आगे और कहने लगी-क्या कभी किसी की पत्नी ने भी दूती का काम किया है जो कार्य आप मुझे सौंपने चले हैं? मकरध्वज ने कहा-प्रिये! तुम्हारी बात तो बिल्कुल सत्य है, लेकिन तुम्हीं सोचकर बतलाओ कि क्या तुम्हारे बिना यह कार्य संभव है? यह कार्य मैं तुम्हें इसलिए सौंप रहा हूँ कि स्त्रियाँ स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वासशील देखी जाती हैं। हे देवि! समान स्वभाव वालों में ही परस्पर मित्रता देखी जाती है। मकरध्वज की बात सुनकर रति को बड़ी चिंता हुई। उसने मकरध्वज से कहा-देव! आप ठीक कहते हैं, परन्तु मुक्तिकन्या तुम जैसे कामुक को तीन काल में भी नहीं मिल सकती। वह तो जिनराज को छोड़कर किसी का नाम सुनना भी पसंद नहीं करती, फिर पति बनाने की बात तो बहुत दूर है। राजन्! वह सिद्धिकन्या रागी-द्वेषी मनुष्यों के पास तो फटकती भी नहीं है अत: आप बेकार उसके लिए परेशान न होवें, किन्हीं भी युक्तियों से वह आपके वश में नहीं हो सकती है। मेरी बात पर यदि आप ध्यान नहीं देंगे तो आपको एक स्त्री द्वारा अपमानित होना पड़ेगा। लेकिन मकरध्वज, जो कामवासना का पुतला ही था, उसे भला ये शिक्षास्पद बातें संतुष्ट कैसे कर सकती थीं अत: वह तो इष्टवियोगज आत्र्तध्यान में और भी घुटने लगा। उसकी प्राणवल्लभा रति उसे बार-बार संबोधन प्रदान कर रही है-
‘‘व्यर्थमात्र्तं न कर्तव्यमात्र्तात्तिर्यग्गतिर्भवेत्’’
अर्थात् निष्प्रयोजन आत्र्तध्यान नहीं करना चाहिए क्योंकि आत्र्तध्यान के कारण पशु-पर्याय में जन्म लेना पड़ता है। जैसा कि एक बार मुनिराज चन्द्रसेन ने एक सेठ के आत्र्तध्यानसंबंधी सत्य कथानक को बतलाया था। अपने दुखी मन को प्रिया के साथ वार्तालाप में सुखी करने के भाव से मकरध्वज वह सत्य कथा सुनाने की जिज्ञासा व्यक्त करता है अत: रति उसे कथा सुनाना प्रारंभ करती है- राजगृह नामक नगर में एक जिनदत्त नामक धर्मात्मा सेठ रहता था, वह प्रतिदिन दान, पूजन आदि श्रावकोचित क्रियाओं को करता हुआ परम आनंद में मग्न रहता था। उसकी धर्मपत्नी जिनदत्ता भी अत्यंत धार्मिक परिणाम वाली थी, दोनों आनंंदपूर्वक गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे। एक दिन अचानक जिनदत्त का अन्तकाल उपस्थित हो गया और ज्यों ही उसके प्राण निकलने लगे, उसकी नजर अपनी स्त्री के रूप-लावण्य पर पड़ी और वह पत्नी के वियोग का आत्र्तध्यान करता हुआ पीड़ापूर्वक मर गया, मरकर वह तुरंत अपने घर के आँगन की बावड़ी में मेंढ़क हो गया। देखो! कहाँ वह धर्मात्मा सेठ और कहाँ मेंढ़क की तुच्छ पर्याय! यह सब व्यर्थ आत्र्तध्यान का फल ही तो है।
पुन: मोह की विचित्रतावश वह पानी भरने जाती अपने पूर्वभव की पत्नी के ऊपर ही उछल-उछल कर आता। इसी प्रकार की परिणति कई बार देखकर जिनदत्ता ने एक बार दिगम्बर मुनिराज से मेंढ़क का पूर्वभव पूछा। तब उन अवधिज्ञानी मुनिवर ने बताया कि ‘‘तुम्हारे पति का जीव ही इस मेंढ़क की पर्याय में आया है क्योंकि मृत्यु के समय तुम्हारे वियोग का तीव्र दु:ख होने से उसे तिर्यंच गति में जन्म लेना पड़ा है। अब मकरध्वज को एक नया विषय मिल गया, वह अपनी पत्नी से कहने लगा-देखो न, जीवन भर का धर्मध्यान भी उस सेठ के कहाँ काम आया? इसका मतलब यह हुआ कि मरते समय जैसे परिणाम होते हैं, वैसा ही गतिबंध होता है सो मैं जीवन के अंतिम क्षणों में अच्छे कर्म कर लूँगा। अभी तो मुझे जीवन का मजा लेने दो, पूरे जीवन काल तक इच्छाओं का दमन करने से क्या लाभ है? रति कहने लगी कि राजन्! ऐसा ही प्रश्न जिनदत्ता सेठानी के मन में भी आया था अत: उसने मुनिराज से पूछा था कि महाराज! जब अन्त समय के भावों के अनुसार ही गतिबंध होता है तो श्रावकों को गृहस्थ धर्म का पालन करना व्यर्थ ही है? स्वामिन्! जिनदत्ता के इस प्रश्न का उत्तर मुनिराज ने बड़ा सुन्दर दिया था, सो आपके लिए भी श्रोतव्य है- ‘‘न ही प्राणियों की जीवनभर की धर्मसाधना व्यर्थ जाती है और न ही शुभाशुभ भाव। जो जीव जीवन भर शुभ धर्माचरण करता रहता है और अन्तसमय कदाचित् उसके मन में अशुभ भाव आता है तो उस अशुभ भाव के कारण उसे अशुभ गति में जन्म लेना पड़ता है। वहाँ थोड़े समय तक कर्मफल भोगने के पश्चात् उसे शुभगति मिल जाती है क्योंकि बंधी हुई गति की स्थिति में तो अन्तर हो जाता है लेकिन मूलगति में अन्तर नहीं आता। इसलिए न अन्त समय के भाव ही व्यर्थ हैं और न जीवन की सदाचार साधना ही। मुनिराज ने उन्हें बताया कि तुम्हारा पति भी कुछ ही दिन में मेंढक पर्याय छोड़कर देव हो जाएगा। जिनदत्ता उसके बाद घर जाकर मेंढक को धर्मसम्बोधन प्रदान करती है और कुछ ही दिनों बाद वह मेंढक भगवान महावीर के समवसरण में दर्शन हेतु कमल पांखुड़ी लेकर चला किन्तु बीच में राजा श्रेणिक के हाथी के पैरों तले दबकर मर जाने से स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से भी पूर्वभव के भक्तिसंस्कार के कारण वह पहले भगवान के दर्शन करने ही आया। जैसे ‘‘चोर को चाँदनी अच्छी नहीं लगती है’’ उसी प्रकार मकरध्वज को भी रति की शिक्षास्पद कथा से बहुत अरुचि हुई, तब वह बोल पड़ा- अरी दुश्चरित्रे! तू अधिक प्रलाप क्यों कर रही है? मुझे मारकर दूसरा पति करने की इच्छा से ही तूने यह सारा प्रपंच तैयार किया है, यह मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ। वह स्त्रियों की अनेक प्रकार से निंदा करता हुआ रति पर तीव्र आक्रोश प्रकट करता है, क्योंकि अब उसे रति द्वारा अपने कार्य की सिद्धि होने की संभावना नहीं नजर आ रही थी। मकरध्वज के इस व्यर्थ बकवास को दूसरी पत्नी प्रीति भी सुन रही थी। वह अपनी प्रिय सखी रति को सांत्वना तथा उलाहना देते हुए कहने लगी- बहन! इन्होंने (पतिदेव ने) वास्तव में बहुत ही अनुचित बात कही है लेकिन अब इस व्यर्थ के विवाद से क्या मतलब? वह रति को समझाती हुई बोली- मैंने तो तुम्हें पहले ही इनसे बात करने को मना किया था लेकिन तुम्हीं ने तो जान-बूझकर ओखली में अपना सिर डाला था, अब सहन करो मूसल की चोट। देखो! मेरा तो यही कहना है कि ‘‘कच्ची समझ वाले मूर्खों के साथ बात करने के चार ही परिणाम निकलते हैं-वाणी का व्यय, मन का ताप, ताड़न और बकवाद।’’ हे सखि! जो पुरुष दुराग्रही है, उन्हें कोई विद्वान भी बदल नहीं सकता।
जैसे मेघ काले पत्थरों को जरा भी मृदु नहीं कर सकते हैं। इन वार्तालापों के पश्चात् रति को मकरध्वज से घृणा हो गई अत: वह वैराग्यवश जिनराज के पास जाने के लिए आर्यिका का वेष बनाकर निकल पड़ी। जैसे ही रति निग्र्रन्थ मार्ग से (सब कुछ छोड़कर अकंचन भावरूपी मार्ग से) जा रही थी, राजा का महामंत्री मोह उसके सामने आ गया और उसकी दुर्बल काया, परिवर्तित वेष देखकर बोल पड़ा-देवि! आपने यह कठोर, विषम मार्ग क्यों अंगीकार किया है? रति ने उसे सारी घटना सुना दी, तब मोह बोला-रानी साहब! संज्वलन की विज्ञप्ति सुनाते समय मैं भी कुछ समझ गया था कि आगे ऐसा घटना चक्र चल सकता है किन्तु मेरे द्वारा सेना लेकर आने से पूर्व महाराज आपके प्रति ऐसी अनुचित कार्यवाही कर डालेंगे यह मुझे उम्मीद नहीं थी। दोनों की वार्ता कुछ देर चली पुन: मोहमल्ल ने कहा-देवि! आपको हमारे साथ महाराज के पास वापस चलना पड़ेगा, मैं आपको लिए बिना राजमहल वापस नहीं जा सकता हूँ।
इस प्रकार मोहमंत्री जबर्दस्ती रति को साथ में लेकर मकरध्वज के निकट जा पहुँचा। महाराज की जयकार करते हुए मंत्रीराज मोह का राज-सभा में प्रवेश होता है। मकरध्वज ने जैसे ही रति के साथ आए हुए मोह को देखा, वह लज्जा से लाल-लाल हो गया और उसके मुख से एक शब्द भी न निकला। रति का अपमान करके तो वह स्वयं ही लज्जित था किन्तु राजमद में चूर मकरध्वज अब भला रति को बुला कैसे सकता था? इसीलिए वह रति आर्यिका बनने के लिए चल दी थी किन्तु अभी तो उसके भाग्य में भव नगर का अन्न दाना था अत: मोह का निमित्त भी मिल गया और वह पुन: अपने पतिदेव मकरध्वज के पास आ गई। राज सम्मान के पश्चात् मोह ने अपना आसन ग्रहण किया और मकरध्वज से वार्तालाप प्रारंभ कर दिया, वह बोला— महाराज! आपने यह कैसा अनुचित कार्य किया है? आप इतने अधीर हो गये कि मुझे लौटकर वापिस भी न आने दिया? फिर राजन्! क्या किसी ने कभी अपनी पत्नी को भी दूत बनाया है? और क्या आपको इतना भी नहीं मालूम है कि निग्र्रन्थ मार्ग, जिस पर हमारी महारानी जी जा रही थीं, वह कितना विषम कंटकाकीर्ण है? कृत्रिम क्रोध दर्शाते हुए मोहराज पुन: अपना वक्तव्य जारी रखते हुए कहते हैं—स्वामिन्! कुछ तो सोचा होता कि कदाचित् इस मार्ग से जाती हुई रति की मुक्तिस्थान के संरक्षक लोग हत्या कर देते तो वृहत् आत्महत्या के पाप का भागी कौन होता? बोलिए न राजन्! तब आपका संसार में कितना अपयश फैलता? आप इतने व्याकुल हो जाएंगे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी। इसीलिए नीतिज्ञों ने कहा है कि ‘‘राजा का कर्तव्य है वह बिना मंत्री की सलाह के कोई निर्णय न लेवे।’’ मकरध्वज मोह की बात सुनकर कहने लगा— अरे मोह! बार-बार एक ही बात तुम क्यों दुहरा रहे हो? तुम जिस काम के लिए भेजे गये थे, उसका क्या हुआ? पहले यह तो बताओ। उत्तर में मोह बोला—स्वामिन्! मैंने सेना तैयार कर ली है। इसके साथ ही ऐसा प्रयत्न भी किया है कि ाqसद्धि कन्या आपकी ही पत्नी बने और जिनराज भी पुन: आकर आपकी ही सेवा करे। मोह की बात सुनकर मकरध्वज बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा— मोह! मैं तो जानता था कि तुम्हारे सिवा यह कार्य कोई नहीं कर सकता है। अपनी वशीकरण प्रभा पैâलाता हुआ मोह बोल उठा— महाराज! ‘‘जब मनुष्य सर्प, व्याघ्र, गज और सिंह को भी उपायों से वश में कर लेते हैं तो जागरूक बुद्धिमान पुरुषों के लिए जिनदेव को अधीन करना क्या कठिन चीज है।’’ कहा भी है—
‘‘वरं बुद्धिर्न सा विद्या, विद्याया धीर्गरीयसी। बुद्धिहीना विनश्यन्ति, यथा ते सिंहकारका:।।’’
अर्थात् ‘‘विद्या से अधिक श्रेष्ठ बुद्धि है। बुद्धिहीन मनुष्य उसी तरह विनश जाते हैं जैसे सिंह बनाने वाले वे तीन पंडित नष्ट हो गये थे। सिंह का नाम सुनते ही भयाक्रांत हुआ मकरध्वज मोह से पूछने लगा ‘‘क्या सिंह भी किसी के द्वारा बनाए जाते हैं? वे तो शेरनी के गर्भ से जन्म लेते हैं। हे मोह! तुमने मेरे मन को क्षुभित करने वाली यह कैसी बात कही है, इसे स्पष्ट तो करो। अब मोह एक कथानक प्रारंभ करता है—‘‘पौण्ड्रवर्धन’’ नामक नगर में चार मित्र रहते थे। उनमें से एक शिल्पकार था, एक चित्रकार था, एक वणिक् पुत्र था और एक मंत्रशास्त्र का ज्ञाता था। एक बार चारों ने विचार किया कि हम लोगों को अर्थोपार्जन करने के लिए परदेश में जाना चाहिए और कुछ दिनों बाद ही कार्यक्रम निश्चित करके चारों चल दिये। चलते-चलते वे रात्रि के समय में एक भयंकर जंगल में पहुँच गये। वन का विकराल रूप देखकर उन्हें अपने प्राणों की चिन्ता हुई अत: चारों ने फिर विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हम चारों में से प्रत्येक को १-१ प्रहर जागरण करना है अन्यथा चोर या व्याघ्र आदि जंगली पशुओं से कुछ भी अनिष्ट हो सकता है। आपसी निर्णय के अनुसार शिल्पकार को जागरण में पहला प्रहर बिताना था अत: शेष तीनों मित्र सो गए। शिल्पकार ने अपनी नींद भगाने के लिए एक उपाय सोचा। उसने एक लकड़ी लाकर महाभयंकर िंसह तैयार किया। इतने में उसका जागरण काल समाप्त हो गया और वह चित्रकार मित्र को जगा कर सो गया। चित्रकार ने जागकर जैसे ही चारों तरफ नजर फैलाई तो उसे लकड़ी का भयंकर सिंह दिखाई दिया। उसे देखकर और कुछ सोचकर चित्रकार कहने लगा—अच्छा, इस उपाय से शिल्पकार ने अपनी नींद भगाई है। अब मुझे नींद न आने का कुछ प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार सोचकर उसने उस लकड़ी के सिंह को लाल-काले-पीले और नीले आदि रंगों से रंगना शुरू कर दिया। जब वह चित्रकार उस सिंह को रंगानुरंजित कर चुका तो मंत्रसिद्धि मित्र के निकट गया और बोला—मित्र! उठो-उठो, तुम्हारे जागने का नम्बर आ गया है। इस प्रकार मंत्रसिद्धि को जगाकर चित्रकार सो गया। मंत्रसिद्धि जैसे ही उठा, उसने अपने सामने एक महाभयंकर सिंह देखा और डर गया। अत: तुरन्त ही उसने तीनों मित्रों को जगाकर कहा कि— ाqमत्रों ! उठिए, उठिए। जंगल में कोई भयंकर जन्तु आ गया है। मंत्रसिद्धि का कोलाहल सुनकर तीनों साथी उठ बैठे और कहने लगे—आप हम लोगों को व्यर्थ में क्यों परेशान कर रहे हो? मंत्रसिद्धि बोला—अरे, देखो तो सही, सामने कितना भयानक शेर है, मैंने मंत्र द्वारा उसे कीलित कर दिया है, इसी कारण यह आगे नहीं बढ़ पा रहा है। मंत्रसिद्धि की बात सुनकर उसके साथी हँस पड़े और कहने लगे—अरे पगले! यह तो लकड़ी का शेर है। क्या तुम इतना भी नहीं पहचान सके? हम लोगों ने अपनी नींद को भगाने के लिए अपनी विद्या का चमत्कार दिखाया है।
मित्रों की बात सुनकर मंत्रसिाqद्ध उस काष्ठ सिंह के पास गया और उसे अचेतन देखकर बहुत लज्जित हुआ। अपनी झेंप मिटाने के लिए वह अपने साथियों से बोला कि मैं इसे जीवित न कर दूँ तो मैं मंत्रसिद्धि ही किस काम का? मंत्रसिद्धि की इस चुनौती पर अन्य मित्रों ने तो ध्यान नहीं दिया लेकिन वणिक्पुत्र के मन में उसकी बात समा गई और अपने भावी मरण की आशंका से उसका हृदय भयाक्रांत हो गया। अत: लघुशंका के बहाने से वह वणिक्पुत्र वहाँ से कुछ दूर जाकर एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़कर उन मित्रों की स्थिति का निरीक्षण करने लगा— देखते ही देखते मंत्रसिद्धि ने ध्यानारूढ़ होकर उस सिंह के समक्ष कुछ मंत्र जाप किया और उस काष्ठमय शेर में जीवन डाल दिया। शेर जीवित हो गया और भयंकर गर्जना के साथ तीनों मित्रों को मारकर गिरा डाला। मोह मंत्री राजा मकरध्वज से कहने लगा— देखा राजन्! उन तीनों ने विद्या का उपयोग तो किया लेकिन बुद्धिहीन होने से अपने कृत्य द्वारा स्वयं ही नष्ट हो गये। इस घटना को सुनकर मकरध्वज कहने लगा—मोह! तुम्हारी बात बिल्कुल सत्य है कि बुद्धि के बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम्हारी सेना कहाँ है? मोह बोला—देव, आपकी आज्ञा होते ही सारी सेना यहाँ उपस्थित हो जाएगी। मकरध्वज मोह की बातों से इतना संतुष्ट हुआ कि मानो उसे साक्षात् ही सिद्धि कन्या प्राप्त हो गई है। वह मोह को सीने से लगाकर कहने लगा— ‘‘जब राज्य पर गंभीर संकट उपस्थित होता है तो मंत्रियों की बुद्धि की परीक्षा होती है और किसी को सन्निपात होने पर वैद्य की परीक्षा होती है। स्वस्थ अवस्था में तो सभी कुशल कहलाते हैं।’’ आगे-आगे मोह ने मकरध्वज को सलाह दी कि सेना से पहले हमें एक बार ‘‘जिनराज’’ के पास दूत भेजना चाहिए क्योंकि राजाओं की यही सनातन रीति है। राजा और मंत्री दोनों ने समुचित सलाह करके राग और द्वेष नामक दो विश्वासपात्रों को बुलवाया और उन्हें वस्त्राभूषण से खूब सम्मानित कर उन्हें दूत कार्य करने की आज्ञा प्रदान की।
(हमारे पाठक शायद अब तक समझ गए होंगे कि यह कर्म और चेतन का युद्ध चल रहा है। जिनराज बनने के सन्मुख चेतन आत्मा के पास मकरध्वज अर्थात् कामदेव राग-द्वेष कर्मों को दूत बनाकर भेज रहा है। यूँ तो प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ राग-द्वेष अनादिकाल से भूत के समान चिपके हुए हैं जो उसे वीतरागी नहीं बनने देते हैं। ये राग-द्वेष महान वीर योद्धा हैं और ज्ञान राज्य के समूल विध्वंसक हैं।) राजा मकरध्वज की आज्ञा पाते ही राग-द्वेष कहने लगे— ‘‘महाराज! आपकी आज्ञा का हम पूर्णरूपेण पालन करेंगे। कहिए, क्या आज्ञा है, हम लोगों को किसके पास किस कार्य के लिए जाना है?’’ कामदेव ने उन दोनों को समझाते हुए कहा— आप लोग चारित्रपुर में जाकर जिनेश्वर को कहिए कि ‘‘हे जिन! सिद्धि अंगना के साथ जो तुम विवाह करने जा रहे हो सो क्या त्रैलोक्य के स्वामी कामदेव की आज्ञा ले चुके हो? साथ ही यह भी कहना कि वह त्रिभुवन के अनमोल तीनों रत्न वापस दे दें अन्यथा कामदेव शीघ्र ही समस्त सेना के साथ उसके ऊपर चढ़ाई कर देंगे।’’ इस प्रकार राजसभा से विदाई लेकर दोनों दूत अपना कार्य करने चल पड़े। उन्हें अत्यंत विषम मार्ग से जिनराज के महल तक पहुँचना था अत: वे बेचारे चलते-चलते बहुत थककर चूर हो गए। अंत में उस दुरूह स्थान तक पहुँचने में खुद को असमर्थ जानकर ये दोनों संज्वलन के पास पहुँचे और कहने लगे— मित्र संज्वलन! तुम हम लोगों को किसी तरह जिनराज के पास पहुँचा दो।(संज्वलन कषाय और रोग-द्वेष में यहाँ मित्रता इसलिए दशाई है कि ये सभी कर्म महामुनियों के नवमें-दशवें गुणस्थान तक रहते हैं, उसके बाद वीतराग अवस्था प्राप्त होती है) संज्वलन ने राग-द्वेष से पूछा—‘‘तुम लोग जिनराज के पास किसलिए आये हो?’’ तब राग-द्वेष कहने लगे-‘‘हम लोग अपने स्वामी मकरध्वज की आज्ञा का पालन करने हेतु यहाँ दूत बनकर कुछ प्रस्ताव लेकर आये हैं, जो हम जिनराज से साक्षात्कार होने पर ही बतलाएंगे।’’ राग-द्वेष की बात सुनकर संज्वलन चिंता में पड़ गया और कहने लगा— ‘‘मित्र! मैं जिनराज के दर्शन तो करा सकता हूँ लेकिन मुझे मालूम पड़ रहा है कि जिनराज से भेंट करना आप लोगों के हित में अच्छा नहीं है। कारण यह है कि जिनराज काम/मकरध्वज का तो नाम ही नहीं सुनना चाहते हैं। फिर भेंट होने पर कदाचित् उनके द्वारा आप लोगों का कुछ अहित हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा।’’ किन्तु वे दोनों दूत तो स्वामीभक्त थे अत: बोले-‘‘जो कुछ होगा, देखा जाएगा, हमें तो आप किसी भी तरह जिनराज के पास पहुँच दीजिए। उनके बार-बार निवेदन पर संज्वलन जिनराज के पास गया और कहने लगा-‘‘हे देव! कामदेव के द्वारा प्रेषित दो दूत आपसे भेंट करने आये हैं। यदि आप आज्ञा दें तो उन्हें अंदर ले आऊँ।’’ संज्वलन की बात सुनकर परमेश्वर जिनराज ने हाथ के संकेत से उन दूतों को अंदर लाने की आज्ञा प्रदान की। जिनराज की आज्ञानुसार संज्वलन राग-द्वेष को बुलाने जा ही रहा था कि इतने में सम्यक्त्व ने कहा-अरे संज्वलन! यह क्या कर रहे हो? जहाँ निर्वेद और उपशम आदि वीर योद्धा मौजूद हैं, वहाँ राग-द्वेष भला कुशल कैसे रह सकते हैं? मैं तो इन्हें परमेश्वर के पास नहीं जाने दे सकता। (यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि नवमें गुणस्थान में तीनों वेद की बंधव्युच्छित्ति हो जाती है अत: आगे निर्वेद अवस्था प्रगट हो जाती है और ग्यारहवें गुणस्थान में उपशम चारित्र रहता है इसीलिए यहाँ निर्वेद और उपशम इन दोनों को वीर योद्धा की उपमा दी गई है) तब संज्वलन सम्यक्त्व से बोला—‘‘ जो भी हो, परन्तु राग-द्वेष का बल भी तो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। फिर अभी तो ये केवल दूतकार्य ही करने आए हैं इसलिए इन्हें मत रोको।’’ संज्वलन और सम्यक्त्व की इस चर्चा को सुनकर परमेश्वर जिनराज कहने लगे-‘‘अरे! आप लोग आपस में क्यों विवाद कर रहे हैं? प्रात: मुझे स्वयं सैन्य सहित मकरध्वज को पराजित करना है इसलिए अधिक क्या सोचना, दोनों दूतों को भीतर आने दीजिए।’’ जिनराज की आज्ञा पाते ही संज्वलन राग-द्वेष को जिनराज के पास ले आया। वहाँ आकर राग-द्वेष का मस्तिष्क तब चकरा गया, जब उन्होंने वहाँ का असीमित ठाट-बाट देखा। जिनराज सिंहासन पर विराजमान हैं, उनके सिर पर तीन शुभ छत्र लटक रहे हैं, चौंसठ चामर ढुर रहे हैं। भामण्डल के प्रभा-पुंज से वह दमक रहे हैं। अनंत चतुष्टय से सुशोभित हैं और कल्याणातिशयों से सुन्दर हैं। जिनराज का इस प्रकार का वैभव देखकर राग-द्वेष एकदम चकित हो गये। उन्होंने जिनराज को प्रणाम किया और उनके पास बैठ गये। तदुपरान्त वे जिनराज से कहने लगे—स्वामिन्! हमारे स्वामी ने जो आदेश दिया है उसे सुन लीजिए-प्रथम तो, उनका आदेश है कि आप जो त्रिभुवन के सारभूत अमूल्य रत्न हमारे स्वामी के ले आए हैं उन्हें वापिस संसार में आपके लिए कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहेगी। जब वे दोनों (राग-द्वेष) मकरध्वज की भरपूर प्रशंसा कर चुके तो मंदमुस्कराहटपूर्वक जिनराज ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा- अरे! तुम अज्ञानतावश ही उस अधम की प्रशंसा कर रहे हो। आप समझते हैं क्या मैं उस पापी ‘‘काम’’ की सेवा कर सकता हूँ? रही बात, सिद्धि सुंदरी से विवाह करने की, सो मेरा और उसका कुल समान कोटि का है। इसलिए उसे कोई रोक नहीं सकता। अधिक कहने से क्या लाभ? तुम यह निश्चय कर लो कि ‘‘मुझे युद्धक्षेत्र में यदि मोह बाण और सैन्य सहित काम (मकरध्वज) मिल गया तो मैं निश्चित ही उसे समाप्त कर दूँगा।’’
जिनराज की यह बात सुनकर राग-द्वेष बड़े व्रुद्ध हुए और बोले- हे जिनराज! व्यर्थ का बकवास क्यों कर रहे हो? महापुरुष कभी आत्मप्रशंसा नहीं करते हैंं। तुम तभी तक अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन कर रहे हो, जब तक ‘‘काम’’ तुम्हें अपने बाणों से नहीं भेदता है। अर्थात् जब तुम कामदेव में आसक्त हो जाओगे, तब यह सारा प्रवचन नि:सार लगने लगेगा। दूत इस प्रकार कहकर चुप ही हुए थे कि वहाँ पर बैठा हुआ संयम उठा और राग-द्वेष को एक-एक चाँटा जड़कर दरवाजे से बाहर निकाल दिया। (वास्तव में जो जीव संयम को धारण कर लेते हैं, वे ही राग-द्वेष को अपने मनरूपी महल से बाहर निकाल कर परमसुख का अनुभव करते हैं।) संयम से अपमानित होने पर राग और द्वेष बड़े व्रुद्ध हुए। वे वहाँ से चल कर सीधे कामदेव के पास पहुँचे और उसे प्रणाम करके बैठ गये। तब कामदेव उनसे आतुरतापूर्वक जिनराज के बारे में और उसकी सेना आदि के बारे में पूछने लगा। दोनों दूत अपने स्वामी से हाथ जोड़कर निवेदन करते हैं-राजन्! हम तो उसकी बात भी करने में अक्षम हैं। जिनराज इतना बलवान है कि उसके समक्ष आप भी टिक नहीं सकते। कामदेव की कुछ क्रोधित मुद्रा देखकर राग-द्वेष आगे कहने लगे-स्वामी! हम लोगों ने उसे साम, दाम, दण्ड और भेद-सब तरह से समझाया, धमकाया परन्तु अपनी शक्ति के अभिमान में उसे किसी की परवाह नहीं है। महाराज! जिनराज ने तो यह भी कहा है कि मैं पापी कामदेव की सेवा नहीं कर सकता और मुझे तो उसे प्रात:काल ही पराजित करना है। तभी सभा में विराजे शल्यवीर नामक महाभट कहने लगे-तुम लोगोें को दूत बनाकर जिनराज के पास भेजा गया था तो अपने राजा का ऐसा पराभव सहन करके वापस आते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई? पुन: राग-द्वेष बोले- महाराज शल्यवीर! यदि आप भी जिनराज के पास दूत बनकर जाते तो वापस आकर यही उत्तर देते। अरे भाई! वहाँ का तो वातावरण ही इतना शुद्ध है कि हर प्राणी कुछ देर को शांत परिणामी हो जाता है। हम तो स्वयं समझ नहीं पा रहे हैं कि हमारे महाराज कामदेव उस भोले-भाले जिनराज के पीछे क्यों पड़े हैं? एक नीति है कि ‘‘जो महामना होते हैं वे छोटों को सताते नहीं हैं क्योंकि बलवान लोग स्वल्पबलशाली पर कदापि क्रोध नहीं करते हैं।’’ राग-द्वेष की बात सुनकर कामदेव इस प्रकार क्रोध से भड़क उठा जैसे अग्नि पर घी डाला गया हो। उसने भेरी बजाने वाले अन्याय१ को बुलाकर आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही अपनी भेरी बजाओ जिससे समस्त सेना एकत्रित हो जाए, मुझे शीघ्र ही यहाँ से युद्ध के लिए प्रस्थान करना है। स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य करके अन्याय ने बड़े जोर से अपनी भेरी बजाई जिससे सारी सेना शीघ्र एकत्र हो गई। हमारे पाठक सोच रहे होंगे कि कामदेव की सेना में कौन-कौन से योद्धा होंगे ? सो यहाँ उनकी सैन्य व्यवस्था दर्शाई जा रही है- अठारह दोष-जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, अरति, खेद, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेद, राग, द्वेष, मरण। तीन गारव-रस, ऋद्धि और सात ये ३ गारव हैं। सात व्यसन-जुआ, माँस, मदिरा, वेश्यासेवन, शिकार, चोरी, परस्त्रीगमन। पाँच इंद्रियाँ-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। तीन दण्ड नामक सुभट-मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति। तीन शल्य नामक राजा-माया, मिथ्या, निदान। इन सबकी उपस्थिति के बाद चार आयुकर्म तथा पाँच आस्रव नामक राजा आ पहुँचे। फिर तो मदोन्मत्त सिंह की तरह राग-द्वेष नामके दोनों सुभट भी तैयार हो गए। गोत्र नाम के अत्यंत मानी दो राजा, एक अज्ञान नरेश भी आ गये। समस्त शत्रु संहारक पाँच अन्तराय और दो आशा नरेश भी आ पहुँचे। ज्ञानावरण नामक पाँच राजा तथा शुभ-अशुभ नृपति के साथ दुर्जय दर्शनमोह भी तैयार होकर आ गया। अपने अधीनस्थ भृत्यों के साथ नामकर्म नामके तिरानवे नरेश और सौ जुआरियों के संघ सहित प्रमुख आठ कर्म नरेश भी रोष में भरे आ पहँुचे। दर्शनावरणीय रूपी नौ राजा भी उपस्थित हो गए। इन राजाओं से कामदेव की सेना इस प्रकार सुशोभित होने लगी जैसे नवग्रहों से सुमेरु पर्वत सुशोभित होता है। पुन:- सोलह कषाय, नौ नोकषाय और तीन मिथ्यात्व नामक राजाओं के परिवार के साथ महाबलशाली मोह भी आ डटा। जिसने इंद्र, महादेव, ब्रह्मा आदि सभी को पराजित किया है ऐसे मोहमल्ल को देखकर कामदेव अत्यंत प्रसन्न हो गया और तीव्र उल्लास में भरकर उसने अनेक वस्त्रालंकारों से मोहराज का सन्मान किया पुन: कहने लगा-‘‘हे मोहमल्ल! अब तुम्हें ही इस पूरे राज्य की रक्षा करनी है। मेरी सेना के सेनापति तुम्हीं हो, संग्राम में तुम्हारा सामना भला कौन कर सकता है? मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं अब जिनेन्द्र को अवश्य ही जीत लूँगा।’’ यह वार्ता चल ही रही थी कि आठ मदरूपी हाथियों के समरांगण में घण्टे बजने लगे और अत्यंत चंचल, वेगवान् मनरूपी घोड़ों का सैन्यसमूह भी उपस्थित हो गया।
यहाँ मद को हाथी की उपमा दी है क्योंकि हाथी के गंडस्थल से मद झरता है और मन को चंचल घोड़े की उपमा दी गई है क्योंकि उसकी चंचलता लोकप्रसिद्ध है जो समस्त अनर्थों की जड़ है। इस प्रकार कामदेव की सेना सुसज्जित हो गई जिसमें दुष्ट लेश्यारूपी (कृष्ण, नील, कापोत) ध्वजाएँ थीं। वे ध्वजाएँ विकथारूपी (स्त्री, राज, चौर, भोजन) ऊँचे दण्डों में सुशोभित हो रही थीं। इतना ही नहीं, यह सैन्य जन्म, जरा और मरणरूपी स्तंभों से सुशोभित था, पाँच मिथ्यादर्शनरूपी पाँच प्रकार के शब्दों से जगत् को बहरा कर रहा था और दश१ कामावस्थारूपी छत्रों के कारण इसमें सर्वत्र अंधकार सा फैल गया था। कामदेव अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ मनोगज पर सवार होकर प्रस्थान करने ही वाला था कि इतने में तीन मूढ़ता और तीन शंकादि वीर राजाओं के साथ संसार-दंड को हाथ में लेकर अपनी जयकारों से तीनों लोकों को कंपायमान करता हुआ मिथ्यात्व राजा आकर उपस्थित हो गया और कहने लगा-महाराज! इस कार्य को तो मैं अकेला ही संपन्न करने में सक्षम हूँ, आपको इतना परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है। राजन्! आप ठहरें और मैं अभी जिनेन्द्र को पराजित करके आता हूँ। मिथ्यात्व की इस उन्मादपूर्व वार्ता को सुनकर मोह ने उसे खूब फटकारा और कहने लगा कि चल, तेरा पराक्रम युद्ध भूमि में ही पता लग जायेगा। तूने जिनेन्द्र को जितना साधारण समझ रखा है वह उतना ही दुर्जेय है। अरे मूर्ख! हम सब मिलकर भी यदि उसे पराजित कर लें तो समझो, एक वृहद् कार्य सिद्ध होगा। कामदेव यह सब सुन रहा था, उसने अपने संकल्पपूर्ण स्वर में समस्त सैन्य समूह को सम्बोधित करते हुए कहा-आप सब अपने प्रलाप बंद करें और मेरे दृढ़ निश्चय को कान खोल कर सुनें-‘‘मैंने हरि, हर और ब्रह्मा की जो दशा की है, वही दशा कल सबेरे यदि जिनराज की न कर सका तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा। नीतिकारों की यह बात सदैव ध्यान रखना चाहिए।
‘‘सकृज्जल्पन्ति राजान:, सकृज्जल्पन्ति पण्डिता:।
सकृत् कन्या: प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत्।।’’
अर्थात् राजा एक बार अपनी बात कहते हैं, पंडित एक बार कहते हैं और कन्याएँ एक बार ही दी जाती हैं (एक बार ही उनका विवाह होता है) ये तीन काम एक बार होते हैं। कामदेव के कहने का तात्पर्य यह था कि मैंने जो यह संकल्प लिया है उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा और जिनराज को पराजित करके ही वापस अपने भव नगर में प्रवेश करूँगा। ==
(इधर कामदेव की सेना प्रस्थान के सम्मुख है और उधर जिनराज की सेना भी सज-धज कर युद्ध की तैयारी कर रही है।) जैसे ही जिनराज के पास से मकरध्वज के राग-द्वेष नामक दोनों दूत चले गए तो उन्होंने भी अपने सचिव संवेग को बुलाकर कहा-संवेग, तुम शीघ्र सेना तैयार करो। जिनराज की आज्ञा पाते ही संवेग ने वैराग्यडिंडिम को बुलाकर कहा-‘‘तुम अपनी भेरी बजाकर समस्त सैनिकों को आह्वान करो’’ वैराग्यिंडडिम ने अपनी भेरी बजाई और उसके शब्द को सुनते ही कामदेव की सेना का विध्वंस करने वाले योद्धा शीघ्र ही एकत्रित होने लगे। जिनराज की सेना में मकरध्वज की सेना से बिल्कुल विपरीत राजागण शामिल हुए जो निम्न प्रकार हैं- दश धर्मरूपी नरेश, दश संयम नरेश और दश प्रचण्ड मुण्ड नरेश जिनराज के एक इशारे पर सबसे पहले उपस्थित हो गए तथा युद्ध की सूचना सुनते ही वयोवृद्ध शम और दम दोनों शूरवीर भी प्रायश्चित्त नामक दश राजाओं के साथ आकर जिनराज की सेना में सम्मिलित हो गये। इसी प्रकार सात तत्त्व राजा और महागुणरूपी आठ नरेश भी आ पहुँचे। बारहतपरूपी महाराज भी पीछे नहीं थे, उनके साथ ही पाँच आचार नरेश, अट्ठाईस मूलगुण नृप भी मकरध्वज को मार गिराने की डींग भरते हुए पधारे। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जिनराज के पास मुनिव्रत धारण करने के पश्चात् से जिनेन्द्र की स्थिति प्राप्त करने तक जो भी पुण्य योद्धा उनके आस-पास मंडराते रहते थे वे सभी जल्दी-जल्दी एकत्रित हो गये क्योंकि उन सभी को अब मकरध्वज शत्रु के समान प्रतीत होने लगा था। देखते ही देखते शत्रु को त्रस्त करने में समर्थ अत्यन्त तेजस्वी द्वादश अंग नरेश, तेरह वीर चारित्र राजा भी आ पहुँचे और चौदह पूर्व नृप भी जिनराज की सेना में प्रसन्नतापूर्वक शामिल हो गए। इन सबको जाते देखकर वीर कामदेव के कुल को विध्वंस करने वाले नौ ब्रह्मचर्य नरेश (जिन्हें शील की नौ बाड़ कहते हैं) भी उपस्थित हो गए। इसके बाद तो नय राजा, त्रयगुप्ति राजा, अनुकम्पा आदि नरेश भी आ पहुँचे। इनके अतिरिक्त पाँच मुखवाला (भेदवाला) स्वाध्याय नरेश भी सिंह के समान गर्जना करता हुआ आ गया और धर्मचक्र से सम्पन्न चतुर्भुज (चार भेदवाला) दर्शन वीर भी आकर युद्ध की तैयारी करने लगा। अपने तीन सौ छत्तीस राजाओं सहित मतिज्ञान नरेश, तीन भेद युक्त अवधिज्ञान राजा के साथ ही मोहवीर के विनाश के लिए महान शूरवीर केवलज्ञान भूपति भी आ गए। इसके पश्चात् सम्यक्त्व नरेश के आते ही जिनराज की सेना अत्यंत सुशोभित हो उठी। जिनराज की जय- जयकारों से आकाशमण्डल गूंज उठा। पाँच समिति, पाँच महाव्रतों के संदेश और स्याद्वाद भेरी के शब्द ने चारों दिशाओं को बहरा कर दिया। गगनचुम्बी शुभलेश्यारूपी विशाल दण्डों से कामदेव की सेना को भी भय होने लगा। इस प्रकार चतुरंग सेना के साथ क्षायिक सम्यग्दर्शनरूपी हाथी पर सवार होकर, अनुप्रेक्षामय कवच पहन कर, मस्तक पर आगमरूपी मुकुट धारण कर, हाथ में महासमाधि शस्त्र को लेकर और सिद्धस्वरूपरूपी स्वर शास्त्र के तत्त्वज्ञ को साथ में लेकर जिनराज काम के ऊपर चढ़ाई करने के लिए जैसे ही तैयार हुए, अनेक भव्यजीव उनका अभिवादन करने लगे। शारदा (सरस्वती) सामने आकर मंगल गान करने लगी। दया अपने जिनराज को आभरण पहनाने लगी और नीम्बू, नमक लेकर पाँच मिथ्यात्वरूपी नजर उतारने लगी।
जिनराज के प्रस्थान काल में अनेक शुभ शकुन दिखाई पड़ने लगे जिनसे यह स्पष्ट हो रहा था कि जिनराज की विजय निश्चित है। जब इस प्रकार के मंगल मुहूर्त जिनराज काम के ऊपर चढ़ाई करने के लिए चल पड़े तो कामदेव के गुप्तचर संज्वलन ने सोचा—अब मेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है अत: वह जाने के पूर्व काम को प्रणाम करके कहने लगा-हे देव!जिनराज महान् बली सम्यग्दर्शन वीर को साथ में लेकर आपके ऊपर चढ़ाई करने आ गए हैं इसलिए मैं तो अब किसी सुरक्षित स्थान पर जा रहा हूँ क्योंकि अपनी रक्षा हेतु सब कुछ छोड़ना ही श्रेयस्कर है। यह सुनकर काम ने संज्वलन को तीव्र क्रोध में फटकार कर कहा-यदि तूने पुन: यह बात कही तो मैं जिनराज से पहले तुम्हारा ही वध कर डालूूँगा। गुस्से में आगबबूला हुए कामदेव ने मोह से कहा-मोेह! मैंने यह निश्चय कर लिया है कि आज समरभूमि में यदि मैंने जिनराज को पराजित नहीं कर दिया तो मैं अपने शरीर को सागर के बडवानल में दग्ध कर डालूँगा। मोह ने भी कामदेव की प्रतिज्ञा का समर्थन किया और बोला कि आपको पराजित करने वाला भला संसार में कौन बलवान हो सकता है? दूसरी बात, यदि कदाचित् जिनराज युद्धभूमि में आ भी गया तो उसे तुरंत बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया जाएगा। इसके बाद काम ने बंदी बहिरात्मा को बुलाकर कहा कि यदि तुम आज मुझे जिनराज का साक्षात्कार करा दोे तो मैं तुम्हारा बहुत सम्मान करूँगा। इतना कहकर उसने अपने नाम से अंकित कटिसूत्र बहिरात्मा के हाथ में दिया और उसे शीघ्र ही जिनराज के पास भेज दिया। कर्मों का यह कथानक प्रत्येक संसारी प्राणी के जीवन का घटनाचक्र है। यहाँ रूपक अलंकार में कामदेव-विषयवासना और जिनराज-घातिया कर्म को नष्ट करने के लिए उद्यत हुए दिगम्बर महामुनि का बृहद्युद्ध दर्शाया जा रहा है जिसे पढ़कर पाठकों को भी जिनराज की पदवी प्राप्त करने हेतु अनादिकालीन ग्रसित कामदेव के साथ युद्ध करने की तैयारी करनी है। हाँ, इस पंचमकाल में आप पूर्णरूपेण जिनराज नहीं किन्तु मुनिराज या देशसंयत गृहस्थ तो बन ही सकते हैं जिसके फलस्वरूप आपका एक युद्ध आपको विजयी बनाकर सम्यग्दृष्टि देव तथा इंद्रों के पद प्राप्त कराएगा एवं अगले मनुष्य भव में आप द्वितीय युद्ध करके जिनेन्द्र की पदवी भी प्राप्त कर सकते हैं। संदर्भ-१. जो सदा न्याय का गला घोंट कर अपना पक्ष ऊँचा रखता है उसे अन्याय कहते हैं। २. काम की दश अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें कामदेव के छत्र की उपमा दी गई है- १.अभिलाषा २. चिन्ता ३. स्मृति ४. गुणकथन ५. उद्वेग ६. संप्रलाप ७.उन्माद ८. व्याधि ९. जड़ता १०. मृत्यु। (जिनराज और कामदेव दोनों राजाओं की सेनाएँ समरभूमि में पहुँचने के सम्मुख हैं किन्तु युद्ध से पूर्व कामदेव की ओर से संधि प्रस्ताव के बहाने बहिरात्मा बंदी जिनराज के पास भेजा गया क्योंकि उसे भी अंतरंग से डर है कि जिनराज जैसे बलशाली से मैं कैसे जीत सकता हूँ?)
बहिरात्मा बंदी कामदेव की आज्ञानुसार जिनराज के पास पहुँचा और उन्हें प्रणाम कर कहने लगा—हे देव! आपने कामदेव के दूत (राग-द्वेष) का घोर अपमान करके अच्छा नहीं किया। आप कामदेव को कभी जीत नहीं सकते हैं, अपने विजयी होने की व्यर्थ आशा आप छोड़ दें। यदि आप युद्धभूमि में डर कर कदाचित् आत्मरक्षा हेतु स्वर्ग भी पहुँच गये तो काम वहाँ से इन्द्रसहित आपको खींच लावेगा और यदि तुमने पाताल में प्रवेश किया तो वह वहाँ भी तुम्हें शेषनाग सहित मार डालेगा। हे जिनराज! मुझे कामदेव के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है आप तो मेरा कहना मानकर काम की दासता स्वीकार करो, इसी में भलाई है। बन्दी ने आगे कामदेव की सेना के अनेक सुभटों के नाम गिनाये और कहा कि ‘‘यदि इन योद्धाओं का सामना करने वाले आपके यहाँ कोई वीर नहीं हैं तो आप युद्ध का विचार बिल्कुल छोड़ दीजिए’’ ऐसा कामदेव ने आपको कहलाया है सो आप शांत होकर बैठें और युद्ध करके अपना अहित न करें। बन्दी बहिरात्मा की बात सम्यक्त्व-वीर सुन रहा था। उसने बन्दी को डाँटते हुए कहा—बन्द करो बकवास! मैं ‘मिथ्यात्व’ से लड़ूँगा। पाँच महाव्रत ‘पंचेन्द्रिय सुभटों’ से युद्ध करेंगे। केवलज्ञान ‘मोह’ से संग्राम करेगा। शुक्लध्यान ‘‘अठारह दोषों ’’ के लिए पर्याप्त है। अरे! हमारे यहाँ कामदेव की सेना से भी बड़े-बड़े योद्धा हैं जिन्हें देखते ही उसकी सेना स्वयमेव पलायित हो जाएगी। बन्दी और सम्यक्त्व की चर्चा रोककर जिनराज ने बन्दी को प्रलोभन देते हुए कहा—‘‘बन्दिन् ! यदि आज रणस्थल में तुम मुझे काम का साक्षात्कार करा दो तो तुम्हें मैं अनेक देश, मण्डल, अलंकार और छत्र आदि भेंट में दूँगा।’’ बहिरात्मा गर्विष्ठ होकर कहता है—‘‘हाँ-हाँ! अभी मैं रणांगण में मोह सहित कामदेव को दिखला सकता हूँ।’’ बहिरात्मा की इस बात पर निर्वेग ने क्रोधित हो उसे मारने तक की धमकी दे डाली किन्तु बहिरात्मा तो बोलता ही रहा, उसने कहा—दुनिया में ऐसा कौन है जो मेरे प्राण ले सके। उसके इतना कहते ही निर्वेग ने बहिरात्मा का सिर घोंट कर उसकी नाक काट डाली तथा उसे समिति-भवन के द्वार से बाहर निकाल दिया। अब बेचारा बन्दी बहिरात्मा विकलांग होकर कामदेव के पास लौट आया। उसे देखकर यहाँ सभी हँसने लगे। तब उसने उन लोगों से कहा—अरे मूर्खों! अभी तुम मुझे देखकर हँस रहे हो, आगे तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। वास्तव में तो बात यह है कि जिनराज के योद्धाओं का सामना आप लोग कदापि नहीं कर सकते हैं अत: आप सबको तो अपने-अपने घर जाकर विश्राम करना चाहिए। युद्ध में खून-खराबा करने से क्या लाभ? कामदेव ने जब बहिरात्मा से हाल-चाल पूछा तो वह कहने लगा—स्वामिन्! मैं जो कुछ जिनराज के पास से अनुभव करके आया हूँ उसके बल पर मैं स्पष्ट घोषणा करता हूँ कि ‘‘संसार में जिस प्रकार कोई पुरुष अपने सिर पर वङ्का का आघात नहीं झेल सकता है उसी प्रकार कोई भी समरभूमि में जिनराज का सामना नहीं कर सकता है। बंदी की यह बात सुनकर कामदेव क्रोध से लाल हो उठा और उसने तुरंत ही युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया।
प्रस्थान करते समय अनेक अपशकुन सामने दिखाई देने लगे जो एक सहृदय मित्र की तरह यह सूचित कर रहे थे कि कामदेव को आज युद्ध के लिए प्रस्थान नहीं करना चाहिए किन्तु काम को तो कुछ भी सूझ नहीं रहा था, वह तो अभिमान से भरा लड़ाई के लिए निकल ही पड़ा। इस प्रकार दोनों पक्षों की सेनाओं का कोलाहल सुनकर संज्वलन ने अपने मन में सोचा कि क्या मेरा स्वामी कामदेव मूर्ख हो गया है जो उसे यह भी मालूम नहीं है कि उसकी सेना कहाँ तक शक्तिसम्पन्न है? समझ में नहीं आता कि स्वामी से जाकर इस समय मैं क्या कहूँ? क्योंकि जिस प्रकार कटी नाक वाले मनुष्य को दर्पण बुरा लगता है उसी प्रकार मूर्ख पुरुष को सन्मार्ग का उपदेश भी अच्छा नहीं लगता। संज्वलन सोचता है—वैसे मूर्खता मुझे बड़ी अच्छी लगती है, क्योंकि उसमें आठ गुण हैं—
मूर्खत्वं हि सखे ममापि रुचितं, तस्मिंस्तदष्टौ गुणा, निश्चिन्तो बहुभोजनो बठरता, रात्रौ दिवा सुप्यते।
कार्याकार्य विचारणान्धवधिरो, मानापमानौ समौ, दत्तं सर्वजनस्य मूध्र्नि च पदं, मूर्ख: सुखं जीवति।।
१. मूर्ख आदमी निश्चिन्त रहता है, २. बहुत भोजन करता है, ३. उसकी पाचन क्रिया ठीक रहती है, ४. रात-दिन सोने को मिलता है, ५. कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार नहीं करना पड़ता, ६. किसी की बात पर ध्यान नहीं देना पड़ता, ७. मान-अपमान नहीं मालूम पड़ते हैं, ८. सबके सिर-माथे रहने का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार मूर्ख मनुष्य सदैव सुखपूर्वक जीवन-यापन करता है। इसी तरह मूर्खों के साथ वार्तालाप करने के चार परिणाम हैं—
मूर्खैरपक्वबोधैश्च, सहालापैश्चतुष्फलम्। वाचां व्ययो मनस्तापस्ताडनं दुष्प्रवादनम्।।
वाणी का व्यय, मनस्ताप, दण्ड और बकवाद इन फलों के अतिरिक्त भला क्या होने वाला है ? पुन: वह मन में विचार करता है कि ‘‘फिर भी कामदेव हमारा स्वामी है इसलिए कुछ न कुछ बात तो मुझे अवश्य उनसे करना चाहिए।’’ यह सोचकर संज्वलन कामदेव के सामने पहुँचा और कहने लगा—स्वामिन्! आप जिनराज को जीत नहीं सकते, फिर यह छल क्यों कर रहे हैं? कामदेव बोला—अरे मूढ! क्षत्रियों की वृत्ति को तू छल बतला रहा है। क्या तुझे जीवन की परिभाषा नहीं मालूम है कि ‘‘आर्य पुरुष का जीवन सदैव विज्ञान, शौर्य, विभव के साथ ही व्यतीत होना चाहिए।’’ कामदेव कहता गया—संज्वलन! तुम क्या कह रहे हो? देखो! जिनराज ने जितने अपराध किए हैं, मैं उन्हें क्या-क्या बताऊँ ? तुम तो जानते हो कि पहले तो उसने हमारे रत्न (सम्यग्दर्शन आदि) चुराए, फिर हमारे दूत (राग-द्वेष) का अपमान किया, उसके बाद जगत्प्रसिद्ध बहिरात्मा बन्दी की नाक काटकर विरोधाग्नि को पहले की अपेक्षा और अधिक प्रज्वलित किया। अब तो वह स्वयं ही हमारे ऊपर चढ़ाई करने आ गया है। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ संज्वलन! मैं उससे सिद्धि अंगना को छीन कर ही रहूँगा और यदि मैं किसी तरह जिनराज को युद्ध में पा सका तो उसकी भी वही दशा करूँगा, जो सुर, नर, किन्नर, यक्ष, राक्षस और फणीन्द्रों की है अर्थात् कामवासना से तो सभी ग्रसित हैं। जिनराज तो अब तक अपने घर में बैठकर ही गरजता है, अब मेरे जाल में आकर फसा है मैं देखता हूँ, अब वह इस जाल से किस प्रकार निकलता है ?
इतने में ही बन्दी बोला—देखो, देखो! सामने जिनराज आ रहे हैं और आप लोग अभी तक गला ही फाड़ रहे हैं। वह कहने लगा-देखो! यह अत्यन्त बलवान् निर्वेग वीर है, जिसके हाथ में तलवार चमक रही है और यह दण्डाधिपति सम्यक्त्व है जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। सामने यह दुर्जय तत्त्व वीर है और पाँच महाव्रत राजा भी आ गए हैं। बंदी इस तरह कामदेव को जिनराज की सेना का परिचय ही करा रहा था कि इतने में काम की सेना वेग से आगे निकल गई और दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। कुछ ही देर में उस समरभूमि में खून की धाराएँ प्रवाहित होने लगीं। अनेक सैनिक मरण को प्राप्त हो गये, अनेक मूच्र्छित हो गये और कितने ही मरण के भय से पलायित हो गए किन्तु बहुत सारे वीर सैनिक स्वामी की भक्ति से लगन पूर्वक युद्ध कर रहे थे। इस तरह मिथ्यात्व और जिनेन्द्र के अग्रणी दर्शन वीर का परस्पर युद्ध चल रहा था। मिथ्यात्व ने अपने प्रबल पौरुष से दर्शन वीर को पछाड़ दिया। उस समय उस समरभूमि में जिनेन्द्र का सैन्य पराजित सदृश नजर आने लगा अर्थात् जिनराज की सेना सर्वनाश करते हेतु मिथ्यात्व बड़वानल के समान उसकी सेना में प्रवेश कर गया और अपनी गर्जना से सबको भयाक्रान्त करने लगा। कामदेव और जिनेन्द्र की सेना के इस युद्ध को आकाश में विराजमान ब्रह्मा और इंद्र देख रहे थे। उन्होंने देखा कि मिथ्यात्व के प्रताप से जिनेन्द्र की सारी सेना नष्ट हो चली है और सच्चा मार्ग छोड़कर कुमार्ग की ओर उन्मुख हो रही है तथा अनेक सैनिक भी मिथ्यात्व की शरण में जा रहे हैं। तब ब्रह्मा जी इन्द्र से कहने लगे कि मिथ्यात्व के प्रभाव से जिनराज की सेना सुरक्षित नहीं रह सकती है। देखो न, कितने सैनिक भी जिनराज को छोड़कर मिथ्यात्व की शरण में जा रहे हैं। मिथ्यात्व की उपस्थिति में तो शायद ही किसी की विवेक बुद्धि स्थिर रह सके। उत्तर में इंद्र ने कहा—ब्रह्मन्! जब तक सम्यक्त्व वीर इस समरभूमि में प्रवेश नहीं करेगा, तब तक जिनराज की सेना में यही विनाशलीला चलती रहेगी। अत: हे ब्रह्मा जी! आप क्षण भर यहीं रुकिये, मैं अभी शीघ्र ही नि:शंका शक्ति के आघात से मिथ्यात्व के सैकड़ों खण्ड करके उसे यमलोक पहुँचाता हूँ। पुन: ब्रह्मा जी बोले—इन्द्रराज, यह तो तुमने ठीक कहा। पर यह तो बताओ कि मिथ्यात्व के भंग हो जाने पर भी मोहमल्ल को कौन पराजित कर सकेगा? यह सुनकर सुरेन्द्र ने हँसकर कहा-हे ब्रह्मन्! मोह का पुरुषार्थ तभी तक चल सकता है जब तक उसका साक्षात्कार केवलज्ञान वीर से नहीं होता। मोह को पराजित करना तो उसके लिए बाएँ हाथ का खेल है। ब्रह्मा जी फिर कहने लगे-यदि मान लीजिए, केवलज्ञान वीर ने मोह को भी जीत लिया तो दु्रतगति से दौड़ने वाले मन मातंग का सामना कौन करेगा? इसलिए जिनेन्द्र ने कामदेव से बैर करके अच्छा नहीं किया। हे इन्द्र! मैंने तो काम का पौरुष स्वयं देखा है, सुना है और अनुभव भी किया है किन्तु मैं, शंकर और हरि तीनों ही उसे पराजित करने में असफल रहे तो जिनराज भला उसे कैसे हरा सकता है? आखिर जिनराज भी तो हम लोगों के समान एक देव ही है! इन्द्र ने कहा कि जैसे चन्द्रमा और बगुला में, गाय-हाथी, घोड़ा-गधा आदि में आपस में अन्तर ही नहीं, महान विपरीतता होती है, उसी प्रकार कोई देव होने से पारस्परिक समानता नहीं कर सकता है। इतने में ही सम्यक्त्व-वीर आ पहुँचा। उसने देखा—हमारी सेना डर के मारे भागना ही चाहती है तो उसने शीघ्र आकर अपने सिपाहियों को आश्वासन दिया कि आप लोग डरिए नहीं। पुन: सम्यक्त्व जिनराज के सम्मुख मिथ्यात्व को पराजित करने की प्रतिज्ञा लेकर समरभूमि में उतर आया और मिथ्यात्व को ललकार कर कहने लगा-अरे मिथ्यात्व! मैं आ गया। अब तू अपना गर्व छोड़ दे। देख, आकाश से देवतागण भी हमारा युद्ध देखने को आतुर हैंं। इनकी साक्षी में हम दोनों का युद्ध हो जाने दो। काम और जिन की जय-पराजय का निर्णय इस संग्राम से ही हो जाएगा।
अभिमानी मिथ्यात्व गरज कर बोला—अरे, चल-चल। क्या तू भी दर्शन वीर की तरह मरना चाहता है। इस प्रकार एक दूसरे को ललकारते हुए दोनों वीरों का युद्ध प्रारम्भ हो गया। सर्वप्रथम मिथ्यात्व ने सम्यक्त्व के ऊपर तीन मूूढ़तारूपी बाणावली छोड़ी, जिसे सम्यक्त्व ने कुछ आयतनरूपी बाणों से बीच में ही छेद दिया। इसके बाद मिथ्यात्व वीर ने शंका शक्ति लेकर सम्यक्त्व के ऊपर चला दिया। इस तीक्ष्ण एवं दुर्जय शक्ति को सम्यक्त्व ने नि:कांक्षित नामक अपने अंगरूपी बाण का प्रयोग किया। पुन: जब मिथ्यात्व ने आकांक्षा आदि आठ दोषरूपी बाणों को एक साथ सम्यक्त्व पर पेंâका, तब उसने नि:कांक्षा आदि आठ गुणों के बाण से उन्हें छेद दिया। इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में दीर्घकाल तक युद्ध चलने पर भी दोनों में से किसी की भी हार-जीत का निर्णय न हो सका तो सम्यक्त्व वीर ने मन में सोचा—यदि इसी तरह मैं इसके साथ युद्ध करता रहा तब तो यह दुर्जय होता चला जाएगा अत: अब एक प्रहार से ही इसे धराशायी करना चाहिएं यह सोचकर उसने परमतपरूपी तीक्ष्ण अस्त्र का मिथ्यात्व पर प्रहार किया जिससे मिथ्यात्व वीर यज्ञोपवीत के आकार में गोलरूप से पृथ्वी पर आ गिरा। मिथ्यात्व का मरण होते ही कामदेव की सेना पीछे भागने लगी। इतने में आकाश में स्थित इन्द्र ने ब्रह्मा से कहा—पितामह! देखिए, सम्यक्त्व ने काम की सेना में भगदड़ मचा दी है और जिनराज की सेना में जय-जयकार हो रही है। काम ने यह दु:खद समाचार सुनते ही मोह मल्ल से परामर्श किया कि अब क्या करना चाहिए ? इसी बीच नरकानुपूर्वी शीघ्र ही नरकगति के पास पहुँचकर बोली—सखी! मिथ्यात्व नाम का तुम्हारा पति युद्धभूमि में मर चुका है और तुम यहाँ सुखपूर्वक महल में बैठी हो? नरक गति यह सुनते ही मूच्र्छित होकर गिर पड़ी। कुछ देर में जब उसे होश आया तो सखी से कहने लगी— ‘‘हे सखि! मुझे अपने वैधव्य की भवितव्यता पहले से ही ज्ञात थी, क्योंकि बहुत दिन पूर्व क्वांरी अवस्था में एक ज्योतिषी ने मेरे पिता से बताया था कि इसके शारीरिक अशुभ लक्षण यह बता रहे हैं कि तुम्हारी यह पुत्री जीवनपर्यन्त सौभाग्यवती नहीं रहेगी। वे अशुभ चिन्ह आज भी मेरे शरीर में विद्यमान हैं। मेरा शरीर अत्यंत काला है और दाँत अत्यंत भयंकर हैं….इत्यादि। नरकानुपूर्वी उसे सांत्वना देते हुए कहने लगी—बहन! अब बिछुड़ी वस्तु की चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं है। हे सखि! तुम्हारा पति सम्यक्त्व वीर की तलवार से मरकर कुमार्ग में ही प्रविष्ट हुआ है अत: तुम व्यर्थ शोक मत करो। वह मिथ्यात्व वीर फिर तुम्हें किसी रूप में प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार सखी को धैर्य बंधाकर नरकानुपूर्वी वहाँ से चली गई। कामदेव और जिनराज का भयंकर युद्ध चल रहा है सम्यक्त्व वीर ने मिथ्यात्व को धराशायी कर दिया था जिसके कारण मिथ्यात्व की पत्नी नरकगति विलाप कर रही थी। स्वाध्यायी पाठक समझ गये होंगे कि मिथ्यात्व कर्म जीवोें को नरकगति में पहुँचाता है इसीलिए नरकगति को मिथ्यात्व की पत्नी की उपमा ग्रन्थकार ने दी है। संसार में इस रंगमंच पर आगे क्या होता है, देखें—
कामदेव और मोह ने विचार-विमर्श किया और मिथ्यात्व की मृत्यु के पश्चात् जिनराज की सेना में खलबली मचाने हेतु स्वयं मोह मल्ल संग्राम स्थल में पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने दोनों सेनाओं के योद्धाओं को परस्पर में भिड़ा दिया। पाँच महाव्रत पाँच इन्द्रियों के साथ भिड़ गए और शुक्लध्यान के साथ आत्र्तरौद्र ध्यान का युद्ध शुरू हो गया तथा जिस प्रकार मृगेन्द्र हाथियों के साथ जुट जाते हैं उसी प्रकार तीन शल्यवीर भी तीन योगों के साथ रणांगण में जुट पड़े। इस प्रकार जो जिसके सामने आया वह उसी से टक्कर लेने लगा। पुन: परमेश्वर आनंद ने स्वरशास्त्रज्ञ सिद्धस्वरूप से पूछा-हे सिद्धस्वरूप! यह तो बताइये कि पहले हमारी सेना में भगदड़ क्यों मच गई थी? उसने कहा—देव! उस समय तुम्हारी सेना उपशम भूमिका में स्थित थी इसलिए जरा सा निमित्त पाते ही वह विचलित हो गई। अर्थात् यहाँ अभिप्राय यह है कि उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले मुनिगण नियम से नीचे गिरते हैं अथवा मरण करके ऊध्र्वलोक में चार अनुत्तर विमानों मे देव की पर्याय धारण करते हैं। यहाँ कर्मों के साथ युद्ध करने वाले ऐसे ही जिनराज का कथानक चल रहा है उन्हें ‘सिद्धस्वरूप’ सम्बोधन प्रदान कर रहा है कि अब यदि आपकी सेना क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होगी तो नियम से उसकी विजय होगी। जिनराज ने तत्काल ही अपनी सेना को क्षपक श्रेणी भूमि में आरूढ़ कर दिया। जिनराज की यह मजबूत भूमिका देखकर मोह अत्यन्त क्रोधित होकर केवलज्ञान वीर से कहने लगा—हे राजन्! सावधान हो जाओ। यदि हमारे साथ युद्ध करने की हिम्मत है तो मेरे सामने आ जाओ तथा यदि मेरे आघातों का तुम्हें डर हो तो चुपचाप अपने घर भाग जाओ। केवलज्ञान वीर भला ऐेसे अपमानजनक शब्दों को कैसे सहन कर सकता था अत: क्रोधित स्वर में वह बोल उठा—अधम! तू क्या बकता है? यदि आज मैंने तुझे पराजित न कर दिया तो तू मुझे जिन चरणों का द्रोही समझना। इस प्रकार दोनों में भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया। मोह ने सर्वप्रथम अपने आशा धनुष से गारव नामक तीनबाण एक साथ केवलज्ञान वीर के ऊपर चला दिये किन्तु उसने तो उन्हें रत्नत्रय बाण से बीच में ही छिन्न-भिन्न कर दिया और पुन: समाधिस्थान में बैठकर उपशम बाण चलाया जो मोह के वक्षस्थल में जाकर अत्यन्त तीव्रता से लगा जिससे मोह मूच्र्छित होकर पृथ्वी पर आ गिरा।
थोड़ी ही देर बाद पुन: मोह को होश आ गया और तब उसने केवलज्ञान पर प्रमादों की बाणावली बरसानी शुरू कर दी, किन्तु इनका उत्तर उस वीर ने अपनी आवश्यक क्रियाओं एवं तेरह प्रकार के चारित्र बाणों के द्वारा दिया। इसके बाद उन्होंने निर्ममत्व बाण से मोह के बाण को भी छेद डाला अर्थात् पूर्णरूप से वीतरागस्वरूप परमात्मतत्त्व में लीन हो गया। जब मोहराज को केवलज्ञान के ऊपर अपना वश चलता न दिखा तब उसने केवलज्ञान के ऊपर मदान्ध गजघटाएँ भेद दीं, जिन्हें केवलज्ञान वीर ने अपने हाथियों की घटाओं से रोक दिया और पीछे से उपशम के आघात से उनका विध्वंस कर दिया। इसके पश्चात् मोह ने अपने दूसरे अमोघ शस्त्र का प्रयोग किया और इस बार उसने कर्म प्रकृति-समूह का प्रयोग केवलज्ञान वीर के ऊपर किया जिसके बाद स्थिति कुछ बदल ही गई। प्रकृति समूह से डरकर पर्वत चलित होने लगे। देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि कम्पित होकर आवाज करने लगे। वसुधा कम्पायमान हो गई और समुद्र व्याकुल हो उठे, इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति क्षुब्ध हो उठी। जिनराज की सेना में भी अब भय का संचार होने लगा। उसकी कंपित स्थिति देखकर केवलज्ञानवीर ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यातरूपी पाँच चारित्रवीरों के प्रहार से उस प्रकृति समूह को नि:शेष नष्ट कर दिया पुन: मोहमल्ल पर ऐसा प्रहार किया कि वह मूच्र्छित होकर गिर पड़ा। कुछ देर के पश्चात् मोह पुन: चैतन्य हुआ और अनाचार खड्ग लेकर क्रोधावेश में जैसे ही केवलज्ञान वीर के सामने आया, वह अनुकम्पा फाल हाथ में लेकर मोह के सामने खड़ा हो गया और निर्ममत्व मुद्गर से उसके सिर पर जोर का प्रहार कर दिया, तब बुरी तरह घायल होकर मोह चिल्लाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस अशुभ समाचार को कामदेव के पास पहुँचाने के लिए बंदी बहिरात्मा उसके दरबार में पहुँचता है और निवेदन करता है कि स्वामी! अब तो मोह सर्वस्व समाप्त हो चुका है, आपकी सेना भी लगभग पूर्ण रूप से नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी है अत: आपको तो अपनी सुरक्षा हेतु अन्यत्र कहीं भाग जाना चाहिए। कामदेव के पास बैठी हुई रति बन्दी की बात सुनकर कहने लगी—स्वामिन्! चलिए, शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान कर दीजिए अन्यथा कुछ अशुभ भी हो सकता है। रति की बात सुनकर प्रीति कहने लगी—सखी! आप क्यों व्यर्थ प्रलाप कर रही हैं। हमारे पतिदेव नितान्त हठी जीव हैं। मुझे तो अब कोई शक्ति नहीं दिखाई देती जो कि जिनराज को पराजित कर सके अर्थात् अब पतिदेव का वियोग और हम दोनों का वैधव्य निश्चित सामने दिख रहा है। रति और प्रीति की बात सुनकर कामदेव ने कहा—प्रिये! इस तरह मैदान छोड़कर भागने से मेरी बेइज्जती होगी।
क्या तुम यह नहीं जानती हो कि मैंने जब तीनों जगत को वश में कर लिया है तो जिनराज मेरे सामने कैसे टिक सकेगा? इस प्रकार कहकर राजा कामदेव अपने मदन, मोहन, वशीकरण, उन्मादन और स्तम्भन इन पाँच प्रकार की कुसुम बाणावली को धनुष पर चढ़ाकर और मनोगज पर आरूढ़ होकर उसे शीघ्र दौड़ाता हुआ कामदेव समरांगण में जिनराज के सामने जाकर कहने लगा—अरे जिनराज! पहले हमारे साथ युद्ध करो, उसके बाद सिद्धि कन्या के साथ विवाह करना। मेरी बाणावली से ही तुम्हें मुक्त्यंगना के आलिंगन का सुख मिल जाएगा। काम का आह्वान सुनकर मोक्ष नद के राजहंसस्वरूप, साधु पक्षियों के लिए विश्रामालय, मुक्तिवधू के पति, कामसागर के मथन के लिए मन्दराचल, भव्यजनकुल-कमल विकास के लिए सूर्यस्वरूप, मोक्षद्वार के कपाट तोड़ने के लिए कुठारस्वरूप, दुर्वार विषय-विषधर के लिए गरूड़ के समान ऐसे जिनराज ने कामदेव से कहा—अरे नीच काम! तू मेरी बाणाग्नि में पतङ्गे की तरह व्यर्थ ही क्यों झुलसना चाहता है? कामदेव की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। वह कहने लगा—अरे मूर्ख जिनराज! क्या तुम्हें मेरा चरित्र याद नहीं? अरे, मेरे भय से ही रूद्र ने गंगा को लाँघा, जल समुद्र में चला गया, इन्द्र स्वर्ग में भाग गया। धरणेन्द्र अधोलोक में चला गया, सूर्य मेरु के निकट जाकर छिप गया और ब्रह्मा मेरा सेवक बना हुआ है। इस प्रकार चराचर तीनों लोकों में मुझे कोई भी पराजित करने वाला नहीं है। थोड़ी देर तक कामदेव और जिनराज में वाक्युद्ध चलता रहा पुन: कामदेव ने अचानक चिंघाड़ते हुए मनोमातंग को जिनेन्द्र के ऊपर छोड़ दिया। जिनराज ने उसे दृढ़ता मुद्गर से मार-मार कर भूतल पर गिरा दिया। अब कामदेव की सेना में भगदड़ मच गई। भला स्याद्वाद भेरी की गर्जना के समक्ष कौन टिक सकता था? अपने प्रतिद्वन्द्वी वीरों के सामने आते ही काम की सेना के समस्त योद्धा हतप्रभ हो गए और डर कर भाग गए। पाँच महाव्रतों के सामने पाँचों इंद्रियाँ भयभीत हो गर्इं, दशधर्मों के समक्ष कर्मवीर भी डर गए और जैसे ही जिनराज के साततत्त्व वीर सामने आए, तुरन्त सात भय वीर मन में चकित हो गए। प्रायश्चित्त सुभटों के आते ही शल्य वीर रणभूमि से भाग गए। अर्थात् मुनिगण ज्यों-ज्यों त्यागमार्ग में बढ़ते जाते हैं, रागमार्ग स्वयमेव डर कर भाग जाता है यह निष्कर्ष है। जिनराज और कामदेव अब आमने-सामने युद्ध में डटे हुए हैं। कामदेव की सेना का ज्यों ही संहार प्रारंभ हो गया, तभी अवधिज्ञानवीर जिनराज के सामने आकर निवेदन करने लगा—भगवन्! अब आपकी विवाह बेला निकट आ गई है। अत: आप युद्ध का विस्तार न करके केवल कामदेव को ही शीघ्र मारने का प्रयास करें। हे स्वामिन्! मोह को तो केवल ज्ञानवीर ने मरणासन्न कर ही दिया है इसलिए आप ऐसा मार्ग अपनाएँ जिससे एक ही बाण से शत्रु की पूरी सेना नष्ट हो जाए। अवधिज्ञान की इस बात से जिनराज का उत्साह वृद्धिंगत हो गया और वह काम को ललकारते हुए कहने लगे—अरे अधम! यदि साहस है तो मैदान में आ जा, और मेरा सामना कर। घर में स्त्री के आँचल में छिपकर अभिमान करते रहना कहाँ तक उचित है? यह सुनकर कामदेव कुछ भयभीत हुआ और मंत्री मोहराज से उसने सलाह की कि अब मुझे क्या करना चाहिए? मोह ने कहा—देव! इस समय आप परीषह नामक विद्या का स्मरण कीजिए अर्थात् क्षुधा- पिपासा परीषहें जिनराज को जब त्रस्त कर देंगी, तो उसके ऊपर आपका अधिकार शीघ्रता से हो सकता है। काम को मोह की राय पसंद आई। उसने क्रोधावेश में तत्काल उस विद्या का आह्वानन किया। परीषह विद्या के उपस्थित होते ही काम उससे कहने लगा—हे देवी! तुम्हें जिनराज को जीतना है अत: शीघ्र ही तुम जिनराज के ऊपर अपना जाल बिछाना शुरू कर दो। स्वामी की आज्ञा पाते ही परीषह विद्या वहाँ से चल पड़ी और तलवार की धार के समान तीक्ष्ण दंशमशक आदि के उपसर्गों से जिनराज को कष्ट देने लगी। परीषहों को जीतने के लिए जिनराज ने निर्जरा विद्या का स्मरण किया जिससे परीषह विद्या तुरंत पलायित हो गई। निर्जरा का अर्थ पाठक समझ ही रहे होंगे कि कर्मों की निर्जरा—कर्म नष्ट होने लगते हैं तब किसी प्रकार के परीषह आदि महामुनियों को कष्ट नहीं दे सकते हैं इसीलिए जिनराज के पास से परीषह विद्या भाग गई। अब मन:पर्यय ज्ञानवीर जिनराज के पास आकर कहते हैं—भगवन्! अब आप किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? बारात सजकर तैयार हो गई है, विवाह का समय आ गया है। अभी आप को क्षीण शक्ति मोह का समूल नाश करना है।
क्योंकि जब तक आप मोह का विनाश नहीं करेंगे, आपका सिद्धिकन्या के साथ पाणिग्रहण हो पाना कठिन है। हे स्वामी! मोह के मर जाने पर काम तो स्वयमेव भाग जाएगा। मन:पर्यय वीर की बात सुनकर जिनराज ने कामदेव को फिर ललकारते हुए कहा-अरे दुष्ट! भाग जा यहाँ से, अन्यथा अभी मैं तुझे समाप्त किये देता हूँ। जिनराज के द्वारा किये गये इस अपमान से बेचारा कामदेव तिलमिला उठा और फिर अपने मंत्री मोह से परामर्श किया कि अब क्या करना चाहिए? मोह कहने लगा—राजन्! इस समय आपको अपनी कुलदेवी दिव्याशिनी विद्या (रसनेन्द्रिय) का स्मरण करना चाहिए। उसी के प्रसाद से आप इस रणसागर से पार हो सकेगे। वह दिव्याशिनी (जीभ) जिसकी लोलुपता संसार में सुप्रसिद्ध है। उसका रूप ग्रंथकार दर्शाते हैं—‘वह दिव्याशिनी बत्तीस१ द्विज राक्षसों से वेष्टित थी, चण्डी के समान भयंकर और तीनों लोकों को भक्षण करती हुई सी प्रतीत हो रही थी। देवेन्द्र को भी कंपा देने वाली थी, अद्भुत बलशाली, अत्यन्त छलमय और ब्रह्मा आदि से भी दुर्जय थी। उस दिव्याशिनी को बुलाकर काम ने अनेक प्रकार से स्तुति करके उसे प्रसन्न किया, फिर कहने लगा—देवि! जिनराज ने हमारी समस्त सेना का संहार का डाला है। अब तो तुम्हीं मुझे बचा सकती हो अन्यथा मेरी प्राणरक्षा का अन्य कोई उपाय मुझे नजर नहीं आ रहा है। अपनी प्रशंसा से अतिशय प्रसन्न होकर वह दिव्याशिनी अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करती हुई, अनेक नदी-सागरों को सुखाती हुई तत्क्षण ही जिनराज के पास दौड़ती हुई पहुँच गई। दिव्याशिनी को आते हुए देखकर जिनराज ने उस पर अध:करण वाणों का प्रहार किया। पर इतने पर भी दिव्याशिनी का वेग रुकते न देखकर जिनराज ्नो कवलचान्द्रायण आदि बाह्यव्रतरूपी बाण समूहों की उसके ऊपर वर्षा करनी शुरू कर दी, तब दिव्याशिनी ने जिनराज से कहा—क्यों व्यर्थ अभिमान करते हो? जिनराज! आओ प्रगट रूप में मेरे साथ युद्ध करो। ज्निाराज ने उससे कहा—दिव्याशिनी, तुम्हारे साथ युद्ध करने में मुझे लाज आती है क्योंकि क्षत्रिय पुरुष स्त्रियों के साथ युद्ध नहीं करते। यह सुनते ही दिव्याशिनी ने अपना मुँह धरती से आसमान तक फैला लिया और अपनी विकराल भयंकर दाड़ों को बाहर निकालकर अट्टहास करती हुई जिनराज के और निकट पहुँच गई। तब जिनराज ने बेला, तेला, आठ दिन के उपवास, रस परित्याग आदि बाणजालों से उसे छेद दिया और वह भूतल पर जा गिरी। युद्ध की यह अवस्था देखकर मोह ने काम को तो संग्राम भूमि से भगा दिया और वह स्वयं जिनराज के साथ युद्ध करने को उद्यत हो गया किन्तु क्षण भर में ही जिनराज के सेनानी धर्मध्यान वीर ने आकर उसके सौ-सौ खण्ड करके पृथ्वी पर बिखरा दिया। उसके बाद जिनराज ने अपनी सेना लेकर काम का पीछा किया जिससे कामदेव अत्यन्त व्याकुल हो उठा और अपनी सुध-बुध खोकर उसने इधर-उधर भागना शुरू कर दिया। जिनराज ने भी तीव्र वेग से काम के निकट आकर धर्मध्यान एवं शुक्ल- ध्यानों की बाणावली का प्रयोग किया जिससे कामदेव मूच्र्छित होकर गिर पड़ा। काम के भूतल पर गिरते ही जिनराज की सेना ने उसे आ घेरा और बाँध लिया तथा उसके संबंध में तरह-तरह के विचार व्यक्त करने लगे। कोई कहने लगा—यह अधम है, इसे मार डालना चाहिए। कुछ लोग बोले—इसका सिर मूंडकर और गधे पर बिठाकर इसे देश से निकाल देना चाहिए और कुछ सुभट कहने लगे—इसे चारित्रपुर से बाहर ले जाकर शूली पर चढ़ा देना चाहिए। इस प्रकार जब समस्त सामन्त परस्पर में वार्तालाप कर रहे थे उसी समय कामदेव की स्त्रियाँ रति और प्रीति दोनों अपने पति के दुखद समाचार से दुखित होकर जिनराज के पास आर्इं और प्रार्थना करने लगीं—हे करूणासागर भगवान जिनराज! आप हम पर करुणा कीजिए और कामदेव को जीवनदान देकर हमारा सौभाग्य अचल कीजिए। हे नाथ! हमारे पति ने आपका महान् अपराध किया है फिर भी आप इन्हें मृत्युदंड न दीजिए क्योंकि महापुरुष अपने शत्रु का भी सदा उपकार करते हैं। भगवन्! हम लोगों ने इन्हें अनेक प्रकार से समझाया भी था, लेकिन इन्होंने कुछ नहीं सुना। यही कारण है कि ये अपने कर्मों का इस प्रकार से फल भोग रहे हैं। फिर भी देव, आपको तो इनकी रक्षा करनी ही है। रति और प्रीति की यह कारुणिक प्रार्थना सुनकर जिनराज बोले—यदि यह पापात्मा देशत्याग कर दे तो मैं इसे नहीं मारूँगा। जिनराज की बात से रति और प्रीति सहमत हो गर्इं और कहने लगीं—लेकिन आप कुछ मर्यादा तो निश्चित कर दीजिए, जहाँ तक इनको कभी आने न दिया जावे। तब जिनराज हँसकर बोले—हमारे देश की सीमा का उलंघन नहीं होना चाहिए। वे देवियाँ फिर कहने लगीं—देव, कृपा कर आप अपने देश की सीमा बतला दीजिए फिर उसका उलंघन न होगा। जिनराज ने अपने दर्शन वीर को बुलाकर कहा—कामदेव को एक सीमापत्र दे दो, जिससे वह इस निर्धारित सीमा के भीतर कदापि प्रवेश न करे। स्वामी की आज्ञा सुनकर दर्शनवीर ने इस प्रकार सीमापत्र लिखना शुरू कर दिया—‘‘शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत, नव, ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पंच अनुत्तर तथा सिद्धशिलापर्यन्त के प्रदेशों में यदि काम ने प्रवेश किया तो इसे अवश्य ही मृत्युदंड दिया जाएगा।’’ इस प्रकार श्रीकार चतुष्टय के साथ सीमापत्र लिखकर रति के हाथ में दे दिया। इसके पश्चात् रति ने जिनराज से पुन: निवेदन किया—महाराज! आप हमें ऐसा सहचर दीजिए जो कुछ दूर तक हम लोगों को पहुँचा आवे क्योंकि आपके वीरों से हमें बड़ा डर लगता है, कहीं ये हम लोगों पर हमला न कर दें। जिनराज ने अपने अनेक वीरों से कहा कि कामदेव को दूर तक भेजने में कौन समर्थ है ?
सब लोग मौन रहे तब शुक्लध्यान वीर बोला-देव! मुझे आज्ञा दीजिए, मैं जाने को तैयार हूँ। उसके साथ चलकर रति और प्रीति पहले तो अपने पति काम के पास आर्इं और सारा समाचार सुनाकर कहने लगीं—नाथ, आप यह देश छोड़कर आगे चल दें और अन्यत्र चलकर हम लोग शांतिपूर्वक अपना जीवनयापन करें। जब कामदेव को यह पता चला कि शुक्लध्यान वीर हमारा सहचर बनाया गया है तो वह सोचने लगा कि यह तो मेरे हक में महान अशुभ है यदि मैं शुक्लध्यान की दृष्टि में आ गया तो यह अवश्य मेरे ऊपर प्रहार करने से न चूकेगा इसलिए इसका क्या विश्वास किया जाए? काम ने इस प्रकार चिन्तन करने के पश्चात् अपना शरीर सर्वथा ध्वस्त कर दिया और अनंग होकर युवतियों की हृदय-कन्दरा में प्रवेश कर गया। इसीलिए काम का शरीर न दिखता हुआ भी संसार के समस्त प्राणियों को वह अपने वश में करता है, उसका एक नाम अनंग भी है। काम के इस कृत्य को देखकर इंद्र ब्रह्मा से कहने लगे—देव! देखिए, देखिए, कामदेव अनंग होकर अदृश्य हो गया है। जब इंद्र ने देखा कि कामदेव विजय, पौरुष और गर्व से हीन होकर युवतियों की हृदयकन्दरा में प्रवेश कर गया है तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने तुरंत ही दया को अपने पास बुलवाया और उससे इस प्रकार बात करने लगा— दये, तुम मोक्षपुर जाओ। वहाँ पहुँचकर सिद्धसेन से कहना कि वह विवाह के लिए अपनी कन्या लेकर यहाँ शीघ्र आवें। इंद्र का वचन सुनकर दया ने प्रस्थान कर दिया। वह मोक्षपुर के अधिपति सिद्धसेन के सामने पहुँच गयी। सिद्धसेन ने सामने आते ही उससे पूछा—तुम कौन हो? दया ने कहा—मैं दया हूँ। सिद्धसेन—तुम यहाँ किसलिए आई हो? दया—मुझे यहाँ इंद्र ने भेजा है। सिद्धसेन—इंद्र ने तुम्हें यहाँ किस कार्य से भेजा है? दया ने उत्तर में इंद्र के द्वारा कहा हुआ समस्त वृत्तांत सिद्धसेन को सुना दिया। तदनन्तर सिद्धसेन कहने लगे—यह प्रस्तावित वर कौन सा वीर है? क्या मेरी कन्या जैसी योग्यता उसमें है? उसका गोत्र, कुल और रूप कैसा है? उसके शरीर की ऊँचाई कितनी है? सिद्धसेन की प्रश्नावली सुनकर दया कहने लगी—प्रभो! आप ये सब प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं? तब सिद्धसेन ने कहा-मैं वर के रूप, नाम, गोत्र के पूछने का हेतु बतलाता हूँ—कि जो वर रूपवान, कुलीन, देव-शास्त्र और गुरुओं में भक्तिमान्, प्रकृति से सज्जन, शुभ लक्षण-सम्पन्न, सुशील, धनी, गुणी, सौम्य-मूर्ति और उद्यमी होता है उसी को कन्या देनी चाहिए। वे पुन: कहने लगे—दया, मैंने इसी कारण से यह वर-प्रश्नावली तुमसे पूछी है।
सिद्धसेन की बात सुनकर दया कहने लगी—सिद्धसेन, तब आप अपनी प्रश्नावली का उत्तर सुन लीजिए— श्रीनाभिनरेश के पुत्र श्रीवृषभ तो वर हैं। तीर्थंकरत्व उनका गोत्र है। रूप से सुवर्ण—सुंदर हैं। उनका वक्षस्थल विशाल है। वे सबके प्रिय हैं और १००८ शुभ लक्षणों से सम्पन्न उनका शरीर है। वे चौरासी लाख उत्तरगुणों से सम्पन्न और शाश्वत सम्पत्ति से संयुक्त हैं। आकर्णदीर्घ और कमल के समान उनके नेत्र हैं। एक योजन की लम्बी भुजाएँ हैं। मैं उस वर के सौन्दर्य का कहाँ तक वर्णन करूँ? जिसकी उँचाई पाँच सौ धनुषप्रमाण है। दया द्वारा बतलायी गयी वर महोदय की समस्त गुण-गाथा सुनकर सिद्धसेन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह दया से कहने लगे—दया, अच्छी बात है। तुम इंद्र के पास जाओ और कहो कि सिद्धसेन अपनी कन्या को ला रहे हैं, तब तक तुम स्वयंवर की तैयारी करो। यह भी कहना कि वे यमराज के मंदिर में रक्खा हुआ अपना विशाल कर्मधनुष भी साथ में लावेंगे। सिद्धसेन की बात सुनकर दया को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह शीघ्र ही मोक्षपुरी से चल पड़ी और इंद्र के पास पहुँचकर समस्त वृत्तांत सुना दिया। इंद्र ने जैसे ही दया द्वारा बताया गया समस्त समाचार सुना, कुबेर को बुलाकर वे उसे तत्काल इस प्रकार का आदेश देने लगे— कुबेर! तुम तुरंत एक समवसरण नामक मण्डप तैयार करो, जिसे देखकर समस्त देव और मानवों का मन आह्लादित हो जाए। इंद्र की आज्ञानुसार कुबेर ने समवसरण मण्डप की रचना की, जिसमें २०००० सीढ़ियाँ थीं और जो भृंगार, ताल, कलश, ध्वजा, चामर, श्वेत छत्र, दर्पण, स्तम्भ, गोपुर, निधि, मार्ग, तालाब, लता, उद्यान, धूपघट, सुवर्ण, निर्मल मुक्ता, फल से सुशोभित और चार सुंदर तोरण द्वारों से अभिराम था। इसके अतिरिक्त भवन, चैत्यालय, कल्पवृक्ष, नाट्यशाला, द्वादश सभाओं और गोपुर से रमणीय सभामण्डप बारह योजन के विस्तार में तैयार कर दिया गया। इस समवसरण में इंद्र आदिक समस्त देव, विद्याधर, मनुष्य, उरग, किन्नर, गन्धर्व, फणीन्द्र, चक्रवर्ती और यक्ष आदिक सब आकर उपस्थित हो गये। इसके पश्चात् आस्रवों ने कर्मधनुष को—जो यमराज के भवन में रखा हुआ था, कृष्ण, नील, कापोत-दुष्ट लेश्यामय वर्णों से चित्रित था, बीच में मोहरूपी ताँत से बँधा था और आशारूप डोरी से अलंकृत था—लाकर समस्त देवताओं के सामने रख दिया। आस्रवों ने कर्मधनुष को लाकर रखा ही था कि इतने में रमणीय रूपवती, शुद्ध स्फटिक शरीर वाली, रत्नत्रयीरूप रेखाओं से अलंकृत कण्ठवाली, पूर्ण चंद्रमुखी, नील कमल के समान सुंदर नेत्र वाली मुक्तिलक्ष्मी भी हाथ में तत्त्वरूपी वरमाला लेकर उपस्थित हो गयी।
सबको उपस्थित देखकर इंद्र कहने लगा—वीरों! आप सिद्धसेन महाराज का संदेश सुन लीजिए। उनका संदेश है कि जो इस विशाल कर्मधनुष को खींचकर उसका भंग करेगा, वही मुक्ति-कन्या का वर समझा जायेगा। इंद्र की घोषणा सभी ने सुनी, परन्तु उसे सुनकर सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे-कोई भी धनुष तोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। इतने में अत्यंत मनोहर, शांतमूर्ति, सर्वज्ञ, समस्त तत्त्वों के साक्षात्कत्र्ता, दिगम्बर, पुण्यमूर्ति, संसार के उद्धारक , अनंत शक्तिशाली पाँच कल्याणकों से अलंकृत, अताम्रनेत्र, कमलपाणि, पाप-मल और स्वेद आदि से रहित, तपोनिधि, क्षमाशील, संयमी, दयालु, समाधिनिष्ठ, तीन छत्र और भामण्डल से सुशोभित, देव-देव, मुनिवृन्द के द्वारा वंदनीय, वेद-शास्त्रों द्वारा उपगीत और निरंजन जिनराज सिंहासन से उठकर खड़े हो गये। वह धनुष के सामने आये और उसे हाथ में ले लिया। उन्होंने जैसे ही उसे कान तक खींचा, वह टूट गया और उसके टूटने से एक महान् भयंकर शब्द हुआ। कर्म-धनुष के भंग होने पर जो नाद हुआ, उससे पृथ्वी चलित हो गयी। सागर और गिरि कंप गये तथा ब्रह्मा आदि समस्त देव मूच्र्छित होकर गिर गये। ज्यों ही मुक्तिश्री ने यह दृश्य देखा, उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने तत्काल नाभिनरेश के सुपुत्र श्री वृषभनाथ के कण्ठ में तत्त्वमय वरमाला डाल दी। वरमाला के डालते ही देवांगनाएँ मंगल-गान गाने लगीं और इस महोत्सव को देखने के लिए समस्त चतुर्निकाय के देव आकर उपस्थित हो गये।
तद्नान्तर भगवान् जिनेन्द्र मुक्तिश्री के साथ मनोरथरूपी हाथी पर आरूढ़ हो गये। उस समय देवताओं ने पुष्पवृष्टि की और इंद्र ने उनके सामने नृत्य किया। दया आदि देवियों ने भगवान् को दिव्य आभरण पहिनाए और वागीश्वरी मंगल गान गाने लगी। शेष देवों ने शंख, मृदंग, भेरी और नगाड़े बजाए। इस अवसर पर अनंत केवलज्ञानरूपी दीपकों के तेज से जिनराज की वरयात्रा अत्यंत अनुपम मालूम हो रही थी। इस प्रकार चतुर्निकाय के देवों द्वारा वंदित, सुरांगनाओं के पवित्र और श्रुति-मधुर गीतों द्वारा गान किये गये, भामण्डल से प्रतिभासित, मुनि-मानव और यक्षों के द्वारा स्तुति किये गये और चामरों से वीजित तथा तीन छत्रों से सुशोभित जिनेन्द्र जैसे ही मोक्ष के मार्ग से जाने के लिए उद्यत हुए, संयमश्री अपनी प्रियसखी तप:श्री से इस प्रकार कहने लगी— सखि तप:श्री! क्या तुम्हें मालूम नहीं है, भगवान् जिनेन्द्र विविध महोत्सवों से भूषित और कृतकृत्य होकर मोक्षमार्ग की ओर प्रस्थान कर रहे हैं? यदि भगवान् मोक्ष चले गये तो कामदेव सबल होकर चारित्रपुर पर आक्रमण करके पुन: हम लोगों को कष्ट पहुँचा सकता है इसलिए हमें भगवान् के पास चलकर उनसे यह निवेदन करना चाहिए कि वे मोक्ष जाने के पहले हम लोगों की सुरक्षा का कोई स्थिर प्रबंध करते जावें। संयमश्री की बात सुनकर तप:श्री कहने लगी—सखि! तुम्हारा कथन बिलकुल यथार्थ है। चलो, हम लोग भगवान् जिनराज के पास चलकर उन्हें अपनी प्रार्थना सुनावें। इस प्रकार निश्चय करके ये दोनों सखियाँ जिनेन्द्र की सेवा में पहुँचीं और हाथ जोड़कर इस प्रकार विनय करने लगीं— हे पुण्यमूर्ति, त्रिभुवन के यशस्वी, सुंदर सुवर्ण-वर्ण, वीतराग भगवन्! हमें आपकी सेवा में एक विनय करनी है। वह यह है कि आप तो कृतकृत्य होकर मोक्ष जा रहे हैं और यदि काम ने पुन: चारित्रपुर पर आक्रमण किया तो यहाँ आपके अभाव में हम लोगों की सुरक्षा कौन करेगा? भगवान् जिनेन्द्र ने संयमश्री और तप:श्री की यह विनय सुनी। उन्होंने भी अनुभव किया कि इनकी विनय वस्तुत: महत्वपूर्ण है। भगवान् ने तत्काल उस वृषभसेन गणधर को बुलाया जो सम्पूर्णशास्त्र समुद्र के पारगामी थे, समस्त गणधरों के ईश थे और ज्ञान के प्रकाश थे। उन्हें बुलाकर जिनराज उनसे इस प्रकार कहने लगे— वृषभसेन! देखो! हम तो मोक्षपुर जा रहे हैं। तुम तप:श्री, संयमश्री, गुण और तत्त्वों से मंडित, महाव्रत, आचार, दया और नय आदि से अलंकृत समस्त चारित्रपुर-निवासियों की भली भाँति रक्षा करना। इस प्रकार चारित्रपुर की रक्षा का सम्पूर्ण भार वृषभसेन गणधर को सौंपकर भगवान् जिनेन्द्र बड़े ही आनंद के साथ मोक्षपुर चले गये।