जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व अनादि निधन एवं स्वतंत्र रूप में माना जाकर उसे परिणमन (परिवर्तन) शील भी स्वीकार किया गया है। परिवर्तित होते हुए भी वस्तु कायम (स्थिर) रहा करती है। विज्ञान ने भी यह बात स्वीकार की है कि संसार में कोई भी वस्तु पूर्णतया नष्ट नहीं होती है, केवल उसके रूप (आकार) में परिवर्तन होता रहता है। इन (दशाओं) के परिवर्तन में दो कारण हुआ करते है। (१) अंतरंग (२) बहिरंग। अंतरंग कारण को उपादान और बहिरंग कारण को निमित्त कारण कहा जाता है। अर्थात् जो वस्तु स्वयं अपनी योग्यता से परिवर्तित हो रही है वह वस्तु उपादान कारण और इस परिवर्तन में जो अन्य वस्तुएँ सहायक होती हैं वे निमित्त कारण कहलाती हैं। जैसे अग्नि के संयोग से पानी के गर्म होने पर पानी में गर्म होने की योग्यता के कारण पानी उपादान और अग्नि के संयोग को निमित्त कारण कहा जावेगा।
कार्यों के सम्पन्न होने में अंतरंग और बहिरंग उभय कारणों की समग्रता का होना द्रव्य का स्वभाव है। क्योंकि बिना उपादान या निमित्त के कोई भी कार्य नहीं होता। अग्नि के संयोग के बिना पानी का गर्म न होना यह सूचित करता है कि गर्म होने में अग्नि या सूर्यादि की किरणों की सहायता आवश्यक है। यह कोई कल्पित बात या सिद्धान्त न होकर वस्तु का स्वभाव है। यदि केवल उपादान (पानी) ही को गर्म होने में कारण माना जावे तो अग्नि के संयोग बिना पानी गर्म हो जाना चाहिए था, जो नहीं होता। यद्यपि पानी के गुण पानी में और अग्नि के गुण अग्नि में ही रहा करते हैं किन्तु पानी अग्नि से ही प्रभावित होकर गर्म होता है। अत: उसकी निमित्त कारणता (सहायता) भी अपमान्य नहीं की जा सकती।
प्रत्येक कार्य स्वस्व योग्य उपादान कारण तथा योग्य बहिरंग कारणों के सद्भाव होने पर एवं विरोधी कारणों का अभाव होने पर कार्य सम्पादन होता है।
दीप प्रज्ज्वलन रूप कार्य के लिए तेल, बत्ती, दिया, अग्नि, प्राणवायु (ऑक्सीजन) आदि का योग्य संयोग होना चाहिए तथा तीव्र वायु संचालन, अग्नि स्तम्भन रूप मणि, मंत्र-तंत्र, लेप, औषधादि का अभाव होना चाहिए। एक कार्य पूर्ण करने के लिए जितने यथा-योग्य कारणों की आवश्यकता है, उनमें से एक भी कारण का अभाव होने पर कार्य नहीं हो सकता है। जिस प्रकार दीप प्रज्ज्वलन रूप कार्य के लिए अन्य कारणों के सद्भाव होने पर भी अग्नि रूप एक कारण के अभाव से दीपक प्रज्ज्वलित नहीं हो सकता है, उसी प्रकार तेल, बत्ती, ऑक्सीजन आदि एक-एक कारण के अभाव होने पर भी दीप प्रज्वलन रूप कार्य नहीं हो सकता है। तेल आदि के सद्भाव से भी तीव्र वायु संचालन आदि रूप विरोधी कारणों के सद्भाव होने पर दीप प्रज्ज्वलन रूप कार्य नहीं हो सकता है अर्थात् निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
जो कारण बाह्य निमित्त की सहायता लेकर स्वयं कार्यरूप में परिणमन करता है, उसको उपादान कारण कहते हैं। जैसे-योग्य मिट्टी, योग्य कुम्भकार आदि बाह्य निमित्त की सहायता से स्वयं परिणमन करती हुई कुम्भादि रूप में परिणमन कर लेती है। इसको ही मुख्य कारण, अन्तरंग कारण, आत्मभूत आदि से अभिहित करते हैं।
उपादान कारण के सिवाय और जो दूसरे कारण जो कार्य बनने में सहायता करते हैं, वे निमित्त कारण बनते हैैं। इसको ही गौण कारण अनात्मभूत कारण, सहकारी कारण कहते हैं।
आचार्य समन्तभद्रस्वामी जी कहते हैं कि कार्यों में उभय कारणों की समग्रता का होना द्रव्य का स्वभाव है और ‘स्वभावोऽतर्क गोचर:’ के अनुसार इसमें तर्क करने की कोई गुंजाइश नहीं है। स्वामी जी आगे लिखते हैं कि हे भगवन्! प्रत्येक कार्य में उभय कारणों की पूर्णता आवश्यक है इसी कारण आप वंद्य हैं। क्योंकि आपका उपदेश श्रवण किेये बिना (देशनालब्धि प्राप्त किये बिना) मोक्षमार्ग, सम्यग्दर्शनादि की जानकारी और प्राप्ति नहीं हुआ करती, ऐसा नियम है। अत: प्राणी को मोक्षमार्ग की प्राप्ति में आपकी वाणी की निमित्तता सुनिश्चित है।
यहाँ कहा जा सकता है कि अनेक बार अनेक जन भगवान की वाणी सुनकर भी सम्यग्दर्शनादि स्वरूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त नहीं होते, इसका क्या कारण है ? समाधान यह है कि जिन्हें वाणी सुनकर भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, वे अंतरंग में दर्शनमोह के क्षयोपशम न होने से समर्थ उपादान नहीं थे और न काललब्धि के अभाव से आसन्नभव्य होंगे। जबकि उपादान में उस समय कार्य रूप परिणमन की योग्यतादि का होना भी अनिवार्य है। एक कार्य के होने में अनेक कारण हुआ करते हैं, जिनमें अंतरंग कारण की तैयारी तथा काललब्धि आदि का होना भी आवश्यक है। केवल बाह्य निमित्त से ही कार्य नहीं होता और न कार्य के अभाव में वह निमित्त ही कहलाता है।
नियम भी है कि कोई भी निमित्त या उपादान कारण तब ही माना जावेगा, जब कार्य हो जावे। कार्य के हो जाने पर ही यह देखा जावेगा कि इसमें कौन निमित्त और कौन उपादान था ? कार्य के हुए बिना न कोई उपादान होता है और न कोई निमित्त।
सभी वस्तुएँ पूर्ण स्वतंत्र सत्ता सम्पन्न अपने-अपने ध्रुव स्वभाव में स्थित हैं, फिर भी वे परिवर्तनशाrल होने से नई-नई पर्यायें धारण करती रहती हैं। इस परिवर्तन में जो अन्य वस्तु सहायक हो जाती है, उसे ही निमित्त कहा जाता है और स्वयं परिवर्तित वस्तु को उपादान। जिनका आलम्बन लेने से कार्य सिद्ध होते हैं, उन्हें भी निमित्त नाम से कहा जाता है। जैसे ग्रंथ पठन में चश्मे का आलंबन लेना। यद्यपि आँखों में देखने की शक्ति है किन्तु वह चश्मे के आलंबन बिना अभिव्यक्त नहीं होता। अत: चश्मा चक्षु से पठन कार्य में निमित्त कहलाता है। उस समय प्रकाश भी निमित्त होता है।
वास्तविकता यह है कि कार्यों का कारणों के साथ अविनाभाव संबंध रहा करता है। जिसके बिना कार्य न हो वे ही वास्तव में उस कार्य के कारण माने जावेंगे। अन्य अनंत उपस्थित पदार्थ नहीं है। जैसे सुनार के द्वारा सोने का कड़ा बना तो कड़ा बनने में सुनार ही निमित्त कहलावेगा, अन्य नहीं।
इसके अतिरिक्त जो पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणत होता है उसे उपादान और जो बाह्य पदार्थ उस कार्य में सहायक होता है, उसे निमित्त की संज्ञा प्रदान करने का लोक व्यवहार भी है। इस संदर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो पदार्थ अपनी नवीन पर्याय या कार्य की उत्पत्ति में जिस समय उपादान है उसी समय वह अन्य पदार्थों के परिणमन में निमित्त भी हो सकता है या हो जाता है।
जैसे जिस समय कुम्हार ने मिट्टी से घड़ा बनाया उस समय मिट्टी उपादान है और कुम्हार निमित्त। किन्तु उसी समय कुम्हार को घड़ा बन जाने की सफलता से हर्ष हो रहा है उस हर्ष के होने में घड़े का सम्पन्न होना निमित्त और कुम्हार उपादान है। इस प्रकार एक ही समय प्रत्येक पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणत होकर उपादान तथा परिणमन में सहायक अन्य पदार्थ निमित्त संज्ञा के व्यवहार को प्राप्त हो जाते हैं, सर्वथा न कोई केवल उपादान है और न केवल निमित्त है।
निमित्त और उपादान कारणों के संबंध में उनकी ऐकांतिक खींचतान करने से प्राय: विवाद भी हो जाता है, क्योंकि कोई यह कहता है कि कार्य केवल उपादान कारण से ही होता है और निमित्त सर्वथा अकिंचित्कर है जबकि दूसरा यह कहता है कि कार्य केवल निमित्तों की सहायता से ही होता है अत: उपादान अकिंचित्कर है। यह उपादान और निमित्त के प्रति पक्षपातपूर्ण एकांतिक आग्रह का परिणाम है। वास्तविकता यह है कि कार्य दोनों अंतरंग और बहिरंग कारणों की समग्रता से ही सम्पन्न होता है। यदि कुम्हार के योग्य और उपयोग के बिना ही मिट्टी से घड़ा बन जाता तो केवल उपादान का पक्ष पुष्ट होता और यदि बिना मिट्टी के ही कुम्हार केवल अपने योग और उपयोग से घड़ा बना देता, तो निमित्त का पक्ष पुष्ट होता, जो दोनों पक्षों के हित में संभव नहीं है।
अंतरंग और बहिरंग (उपादान और निमित्त) दोनों कारणों के मिल जाने पर ही कार्य होता है, जिसे होनहार या भवितव्यता कहते हैं। यह पदार्थों में निहित शक्ति की अभिव्यक्ति होने का तथ्य पूर्ण स्पष्टीकरण है। इस नियम को टाला नहीं जा सकता।
आचार्यदेव कहते हैं कि हे भगवन्! उपर्युक्त तथ्य और सत्य के होते हुए भी अहंकारी प्राणी ‘यह कार्य मैंने किया’, इस प्रकार अपनी कर्तृत्व की मान्यता और कल्पना कर कार्य का स्वामी न होते हुए भी व्यर्थ ही सुखी-दुखी होता रहता है। जबकि कार्य अपने-अपने उपादान और निमित्त कारणों के संयोग से ही सम्पन्न होता है, केवल एक हमारे निमित्त कारण से नहीं।
केवल उपादान अथवा केवल निमित्त को ही कार्य होने का एकमेव कारण मानने या स्वयं को उस कार्य के कर्तृत्व का अभिमान करने वालों के मतिभ्रम को दूर करने हेतु आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में जो और भी स्पष्टीकरण किया है वह भी दृष्टव्य है-
अर्थात् आत्मा में गुणों या दोषों की उत्पत्ति में आत्मा के अंतरंग उपादान कारण के साथ ही जो भी बहिरंग निमित्त कारण होता है वह असंबद्ध न होकर उस अंतरंग उपादान कारण का अंग है, क्योंकि केवल अंतरंग कारण कार्योत्पत्ति में समर्थ नहीं होता।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कोई भी कार्य न तो केवल उपादान कारण से सिद्ध होता है और न केवल निमित्त से। अत: इस संबंध में केवल निमित्त या केवल उपादान को ही कार्योत्पत्ति में कारण मानना न तो प्रमाणित होता है और न न्याय संगत ही सिद्ध होता है। अत: उपादान और निमित्त में किसी एक का पक्ष लेकर खींचतान करना उचित नहीं है।
बहिरंग निमित्त स्वयं भी मिलते हैं और मिलाये भी जाते हैं, किन्तु वे उस कार्य में निमित्त कारण तभी कहलावेंगे, जब वह कार्य उसकी सहायता से सम्पन्न हो जावेगा। यदि वे इष्ट कार्य के सम्पन्न होने में बाधक बन जाते हैं तो वे बाधा में निमित्त कहलावेंगे। जैसे किसी ने धनार्जन करने हेतु व्यापार किया, किन्तु व्यापार में लाभ होने की अपेक्षा हानि हो गयी तो हानि में वह व्यापार ही निमित्त कहलावेगा।
हम प्रतिदिन और प्रतिक्षण अपने कार्यों की सिद्धि हेतु निमित्त मिलाने में प्रयत्नशील रहा करते हैं। आत्म कल्याण और शांति प्राप्ति हेतु देवदर्शन, पूजनादि करने जिन मंदिर जाते हैं, ज्ञानार्जन हेतु गुरु की सेवा एवं स्वाध्याय करते हैं। धनार्जन हेतु व्यापार और निवास हेतु गृह निर्माणादि करते हैं। यह सब अपने इष्ट कार्य की सिद्धि हेतु निमित्त मिलाने की प्रक्रियाएँ हैं, किन्तु देव दर्शन और उपासना करने पर जिस व्यक्ति को शांति मिलेगी या सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगी, उसे ही देवदर्शन, शांति और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में निमित्त ठहरेगा और यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई तो न देवदर्शन निमित्त और न वह व्यक्ति उपादान ही कहलावेगा क्योंकि सम्यग्दर्शन रूप कार्य की उत्पत्ति ही नहीं हुई।
इस संदर्भ में यह जानकारी आवश्यक है कि जो वस्तु कार्य रूप में परिणमन करती है, वह उस कार्य का उपादान कारण होने के साथ ही उस कार्य का वास्तव में कर्त्ता भी कहलाती है, बाह्य सहकारी अन्य वस्तुएँ केवल निमित्त कारण ही कहलाती हैं। उस कार्य का बाह्य वस्तुओंं को कर्त्ता कहना केवल आरोपित व्यवहार या उपचार है। जो कार्य रूप स्वयं परिणत हो रहा है, वास्तव में कर्त्ता वही कहलाता है।
इसके सिवाय किसी भी कार्य का उपादान कारण केवल एक ही वस्तु होती है, जो स्वयं कार्य रूप में परिणत होती है, किन्तु बाह्य निमित्त अनेक होते या हो सकते हैं, जिन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के नाम से कहा जाता है। जैसे यदि किसी व्यक्ति को जिनबिम्ब दर्शन से मंदिर में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई तो उसमें जिनबिम्ब द्रव्य, मंदिर क्षेत्र, जिस समय सम्यग्दर्शन हुआ वह काल तथा दर्शन मोह कर्म के क्षयोपशमादि जन्य अध:करणादि रूप भाव उसमें सहायक होते हैं। ये सब ही निमित्त कहलाते हैं। किन्तु यदि व्यक्ति को सम्यग्दर्शन न हुआ हो, तो बाह्य सभी वस्तुएँ निमित्त नहीं कहलायेगी।
इस प्रकार कार्यों के सम्पन्न होने में उपादान और निमित्त कारणों की जैन दर्शन में यह संक्षेप में व्यवस्था है।
यह नियम है कि प्रत्येक कार्य बाह्य और अंतरंग दोनों हेतुओं की अपेक्षा रखता ही है फिर भी जब बाह्य निमित्त की प्रधानता होती है तब उसी से कार्य हुआ है ऐसा कहा जाता है। यहाँ भी वही अभिप्राय समझ लेना चाहिए कि निमित्त मिलने पर कार्य हो, न भी हो, किन्तु कार्य की सिद्धि बिना निमित्त के नहीं होती है।
सहकारी कारण को निमित्त कहते हैं। अंतरंग कारण को उपादान कहते हैं-
जो स्वयं कार्यरूप परिणत हो जावे उसे उपादान कहते हैं। जैसे-सम्यक्त्व की उत्पत्ति में बाह्य कारण जिनबिम्बदर्शन हुआ और अंतरंग कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हुआ एवं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये आत्मा के गुण हैं अत: आत्मा सम्यक्त्वरूप से परिणत हुआ है। यहाँ पर आत्मा उपादान है तथा बाह्य और अभ्यंतर दोनों निमित्त कारण हैं।
परन्तु कहीं-कहीं पर अंतरंग हेतु को ही ‘उपादान’ नाम दे देते हैं जैसे- पुरुषार्थ को निमित्त कहकर दैव को उपादान समझ लेना इत्यादि
प्रत्येक कार्य बाह्य और अंतरंग कारणों से ही होते हैं उन उभय के बिना नहीं।
श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है-
बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:।।६०।।
हे भगवन् ! घट आदि कार्यों में यह जो बाह्य और आभ्यंतर कारणों की पूर्णता है वह आपके मत में जीवादि द्रव्यगत स्वभाव ही है।
अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा।
शुभ-अशुभ कर्म अथवा बाह्य और आभ्यंतर दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका लिंग-ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता-होनहार किसी भी तरह टाली नहीं जा सकती है।
बाह्य और अंतरंग कारण अथवा निमित्त-उपादान कारण से ही समस्त कार्यों की सिद्धि होती है।
प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये जो कारण कहे गये हैं वे बाह्य कारण हैं। यद्यपि निसर्गज सम्यक्त्व में बाह्य गुरु के उपदेश रूप कारणों की अपेक्षा नहीं है। फिर भी ‘जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शन’ ये दो कारण माने ही हैं। वीरसेन स्वामी ने तो ‘इन दो कारणों के बिना असंभव है’ ऐसा पद दे दिया है तथा क्षायिक सम्यक्त्व के लिये केवली या श्रुतकेवली का पादमूल आवश्यक है उसके बिना सात प्रकृतियों का क्षय असंभव है।
जिन कारणों के होने पर कार्य हो अथवा न भी हो, किन्तु जिन कारणों के बिना कार्य न हो वे समर्थ कारण माने जाते हैं।
जैसे-सम्यक्त्व के होने पर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो न भी हो, किन्तु सम्यक्त्व के बिना तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंभव ही है।
सम्यक्त्व में ही तीर्थंकर प्रकृति बंधती है-
प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अथवा बाकी के तीनों (द्वितीयोपशम, क्षयोपशम और क्षायिक) सम्यक्त्व में, असंयत से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक (आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक) मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवली के निकट में तीर्थंकर प्रकृति के बंध का आरंभ करते हैं।
यद्यपि यह केवली-श्रुतकेवली का चरण सान्निध्य बाह्य निमित्त कारण है फिर भी इसके बिना कोई भी मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर नहीं सकता है।
सोलहकारण भावनायें तीर्थंकर प्रकृतिबंध में कारण हैं-‘‘दर्शनविशुद्धता आदि सोलहकारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म को बांधते हैं।’’१ धवलाकार ने तो एक-एक भावना में अन्य-अन्य भावनाओं को गर्भित करके एक-एक भावना के द्वारा भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध माना है अर्थात् जब एक-दो आदि व्यक्त भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध माना जाय तब यह समझना कि उस भावना में शेष भावनायें अंतगर्भित हैं।’’
द्रव्यवेद मोक्ष में निमित्त है, भाववेद नहीं-
ऐसे ही यदि कोई द्रव्य से पुरुषवेदी है और भाव से वह पुरुष स्त्रीवेदी या नपुंसक वेदी है तो वह क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। किन्तु जो स्त्री द्रव्य से स्त्रीवेदी है तथा भाव से पुरुषवेदी है वह भावों से पंचम गुणस्थान के ऊपर न चढ़ सकने के कारण उस भव में मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है। यहाँ पर बाह्य निमित्त इतना बलवान देखा जाता है जो कि अंतरंग भाववेदों की महत्ता नहीं रखता है।
शास्त्र भी शुद्धस्वरूप के लिए निमित्त हैं
मूलाचार की टीका में श्री वसुनन्दि आचार्य कहते हैं-
‘‘मूलगुणै: शुद्धस्वरूपं साध्यं, साधनमिदं मूलगुणशास्त्रं।’’
मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्धस्वरूप साध्य है और मूलगुण प्रतिपादक यह शास्त्र साधन है।
मूलगुण उत्तर गुणों के लिए निमित्त हैं-
‘‘मूलगुणा: प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि।’’
मूलगुण अर्थात् प्रधान अनुष्ठान जो उत्तर गुणों के लिए आधारभूत हैं।
‘‘मूलगुणान् सर्वोत्तरगुणाधारतां गतानाचरणविशेषान्’’
सभी उत्तर गुणों के आधारपने को प्राप्त ऐसे आचरण विशेष जो मूलगुण हैं उनको मैं कहूँगा।
अभिप्राय यह हुआ कि मूलगुणों के बिना आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति और उत्तर गुणों की सिद्धि असम्भव है। ऐसे ही आवश्यक क्रिया का लक्षण करते हुए कहा है-
आवश्यक क्रियायें कर्मनिर्मूलन में निमित्त हैं-
‘‘आवासया-आवश्यकानि निश्चयक्रिया सर्वकर्मनिर्मूलन समर्थनियमा:।’’
अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं। ये ही निश्चय क्रियायें हैं ये ही सर्व कर्मों के निर्मूलन करने में समर्थ नियम हैं।
समता, स्तव, वंदना आदि छह आवश्यक क्रियाएँ हैं। आगे इन आवश्यक क्रियाओं में वंदना आवश्यक में कृतिकर्म का लक्षण करते हुए कहा है-
‘‘कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदंबकेन परिणामेन क्रियया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाय:।।’’
जिन अक्षर समूह से, परिणामों से या क्रिया से आठ प्रकार के कर्मों को काटा जाता है, छेदा जाता है वह कृतिकर्म है।
यहाँ पर स्तव आदि के अक्षरसमूह से भी कर्मों का छेदन होना माना गया है।
अरहंत भगवान कर्मक्षय में निमित्त हैं-
इसी अभिप्राय को लेकर श्रीकुंदकुंददेव भी कहते हैं-
जिन पर चौंसठ चंवर ढुराये जा रहे हैं, जो चौंतीस अतिशयों से संयुक्त हैं, जो अनवरत बहुत से जीवों का हित करते हैं ऐसे वे अर्हंत भगवान कर्मक्षय के कारण में निमित्त हैं।
श्री गौतम स्वामी के द्वारा बनाई हुई चैत्य भक्ति व श्री कुंदकुंददेव रचित दश भक्तियों में ऐसे अनेकों उदाहरण दिखते हैं।
श्री कुंदकुंददेव ने नियमसार में सम्यक्त्व के लिए बाह्य निमित्त व अंतरंग निमित्त को तो कहा ही है किन्तु अंत में उन्होंने ग्रंथ के बनाने में भी हेतु व्यक्त किया है-
मैंने पूर्वापर दोष रहित, जिनोपदेश का परिज्ञान कर निज भावना में निमित्त कारणभूत इस नियमसार नामक शास्त्र को बनाया है।
तीर्थंकर का विहार प्राणियों के सुख में निमित्त है-
तीर्थंकरों का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकर को पुण्यरूप फल प्राप्त होता हो ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते अर्थात् वे दान, पूजा आदि आरम्भों का जो उपदेश देते हैं उससे उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि तीर्थंकरों ने दान-पूजा आदि करने का उपदेश दिया है अत: वह सब मोक्षमार्ग है, हेय नहीं है।
सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं है प्रत्युत् मोक्ष का कारण है-
भावसंग्रह में श्री देवसेनाचार्य कहते हैं-
सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा।।४०४।।
सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं होता। प्रत्युत्-
तम्हा सम्माइट्ठी, पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवइ।।४२४।।
अत: सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है।
अरिहंत भगवान पुण्य के फल हैं-
तीर्थंकर प्रकृति पुण्य प्रकृति है। इसका बंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक माना है। जबकि आठवें में जीव श्रेणी आरोहण में है और वहाँ शुक्लध्यान है, निर्विकल्प परिणति है तथा उस प्रकृति का उदय आने पर अर्हंत भगवान ‘पुण्य के फल’ माने जाते हैं। सो ही कहा है-
अरहंत भगवान (तीर्थंकर नामक) पुण्य प्रकृति के फल हैं और उनकी क्रिया निश्चय से औदयिकी है, वह क्रिया मोहादि से रहित है अत: वह ‘क्षायिकी’ ऐसा मानी गई है।
‘‘अर्हंत भगवान वास्तव में सम्यक् प्रकार से सम्पूर्ण परिपक्व हुए पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं। उनकी सब क्रियायें पुण्य के उदय से औदयिकी हैं फिर भी मोह का अभाव हो जाने से वे कर्मबंध नहीं कर सकती हैं अत: उन्हें क्षायिकी ही क्यों न कह देवें।’’
श्री जयसेनाचार्य भी इसकी टीका में कहते हैं-जो पंच महाकल्याणक की पूजा को करने वाला है, त्रैलोक्य को जीतने वाला है वह तीर्थंकर नाम का पुण्य कर्म है उसी के फलभूत अर्हंत भगवान होते हैं, इत्यादि।
अर्थात् तीर्थंकर प्रकृति को सातिशय पुण्य प्रकृति कहा गया है। वे अनंत प्राणियों के अनुग्रह करने में समर्थ ऐसे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। यह प्रकृति कर्मरूप होते हुए भी कथमपि संसार का कारण नहीं है।
व्रत निर्जरा के कारण हैं-यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि के व्रतों के वृद्धिंगत होने पर क्रम-क्रम से कर्मों की निर्जरा बढ़ती चली जाती है-
‘‘तीनों कारणों के अंतिम समय में वर्तमान विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर असंयतसम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय में होने वाली गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यातगुणा है। इससे देशविरत के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। इससे सकलसंयमी के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यातगुणा है……।’’
कर्मनिर्जरा का काल निश्चित नहीं है-इसीलिये तो श्री भट्टाकलंक देव ने कर्मनिर्जरा का काल निश्चित नहीं किया है-
निर्जरा के काल का कोई नियम नहीं है, क्योंकि, भव्यों के सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरापूर्वक मोक्ष के काल का कोई नियम नहीं है।