४.१ यह जीव अनेक बार जीवन-मरण को प्राप्त होता है अर्थात् जन्म लेता है और आयु पूर्ण होने पर मर जाता है। पुनः जन्म लेता है और आयु पूर्ण होने पर पुनः मर जाता है। द्रव्य के इस परिणमन को काल कहते हैं। वस्तुओं और क्षेत्रों में जो परिवर्तन कराता है वह काल कहलाता है।
ज्योतिषी देव (सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र व तारे) मनुष्य लोक में मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं और निरतंर गतिशील रहते हैं। सूर्य-मण्डल के उदय और अस्त से ही दिन-रात होते हैं। इस प्रकार काल का आधार मनुष्य क्षेत्र सम्बन्धी सूर्य-मण्डल है। मनुष्य लोक के बाहर सूर्य आदि स्थिर रहते हैं, अतः वहाँ पर दिन-रात, मास, वर्ष आदि नहीं होते हैं। परन्तु मनुष्य लोक सम्बन्धी काल व्यवहार के आधार से ही वहाँँ काल का व्यवहार होता है। जैसे जब यहाँ कार्तिक आदि महीनों में अष्टान्हिका पर्व आते हैं, तब इन्हीं दिनों में स्वर्ग लोक से देवतागण नंदीश्वर द्वीप में पूजा हेतु पहुँच जाते हैं।
इस दृश्यमान जगत में काल-चक्र सदा घूमता रहता है। जैन आगम के अनुसार काल के दो भाग हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिस प्रकार चलती हुई गाड़ी के पहिये नीचे से ऊपर की ओर फिर ऊपर से नीचे की ओर चलते ही रहते हैं, उसी प्रकार यह जगत् एक बार दुःख से सुख की ओर और फिर सुख से दुःख की ओर जाता है। इसे क्रमशः उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल कहते हैं। सुख-दुःख का यह चक्र अनादि काल से चलता आया है और भविष्य में भी चलता रहेगा।
यह काल परिवर्तन केवल भरत व ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों में ही होता है, शेष क्षेत्रों में नहीं होता है।
जिस काल में जीवों (मनुष्य और तिर्यंच) की आयु, बल, ऊँचाई, सुख, सम्पदा आदि घटती जाती है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। इसकी अवधि १० कोड़ा-कोड़ी सागर होती है।
अवसर्पिणी काल के ६ भेद निम्न हैं-
(१) सुषमा-सुषमा (२) सुषमा (३) सुषमा-दुषमा (४) दुषमा-सुषमा (५) दुषमा (६) दुषमा-दुषमा
इन ६ भेदों को इनके क्रम से प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम और षष्टम काल भी कहते हैं। षट्-कालों की अवधि, इनमें मनुष्यों की आयु, अवगाहना, आहार तथा भूमि की रचना का विवरण आगे तालिका में दिया गया है।
(१) सुषमा-सुषमा (प्रथम) काल (Sushma-Sushma, The First Spoke of Extreme Plentitude)-इस काल में सुख ही सुख होता है। इस काल में उत्तम भोग भूमि की व्यवस्था रहती है। इस काल में भूमि धूल, कंटक आदि से रहित होती है, विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है, बैर रखने वाले जीव भी नहीं होते हैं और दुराचारी व व्यसनी जीव भी नहीं होते हैं। यहाँ दिन-रात का भेद नहीं होता है।
इस काल में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की ऊँचाई ३ कोस (६००० धनुष) और आयु ३ पल्य होती है इनके शरीर मल-मूत्र व पसीने से रहित होते हैं, जन्म के २१ दिन में ही यौवन को प्राप्त हो जाते हैं, युगल (बालक-बालिका) का जन्म होता है, सन्तान का जन्म होते ही माता-पिता का मरण हो जाता है। मरण के समय पुरुष को छींक और महिला को जंभाई आती है तथा शरीर कर्पूर के समान विलीन हो जाता है। ये तीन दिन बाद हरड़ के बराबर आहार लेते हैं।
इस काल में परिवार, ग्राम, नगर की व्यवस्था नहीं होती है। जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती है। ये जीव अत्यन्त सुखी होते हैं। ये खेती आदि कोई कार्य नहीं करते हैं, अपितु भोग ही करते हैं। इसी वजह से इस काल को भोग भूमि का काल कहते हैं।
षटकालो में आयु / अवगाहना /आहार ,भूमि आदि का विवरण
क्र. | काल | अवधि | उत्कृष्ट आयु | जघन्य आयु | उत्कृष्ट अवगाहना | जघन्य अवगाहना | आहार प्रमाण | आहार अंतराल | भूमि रचना |
१. | सुषमा-सुषमा | ४ कोड़ा कोडी सागर | ३ पल्य | २ पल्य | ६००० धनुष | ४००० धनुष | हरड़ के बराबर | ३ दिन | उत्तम भोग भूमि |
२. | सुषमा | ३ कोड़ा कोडी सागर | २ पल्य | १ पल्य | ४००० धनुष | २००० धनुष | बहेड़ा के बराबर | २ दिन | मध्यम भोग भूमि |
३. | सुषमा-दुषमा | २ कोड़ा कोडी सागर | १ पल्य | १ पूर्व कोटि | २००० धनुष | ५०० धनुष | आँवले के बराबर | १ दिन | जघन्य भोग भूमि |
४. | दुषमा-सुषमा | ४२,००० वर्ष कम ९ कोड़ा कोडी सागर | १ पूर्व कोटि | १२० वर्ष | ५०० धनुष | ७ हाथ | – | प्रतिदिन | कर्मभूमि |
५. | दुषमा | २१ ,००० वर्ष | १२० वर्ष | २० वर्ष | ७ हाथ | ३ १/२ हाथ | – | अनेकबार | कर्मभूमि |
६. | दुषमा-दुषमा | २१ ,००० वर्ष | २० वर्ष | १५ वर्ष | ३ १/२ हाथ | १ हाथ | – | बारम्बार | कर्मभूमि |
इस काल का प्रमाण ४ कोड़ा-कोड़ी सागर होता है। इस काल में शरीर की ऊँचाई, आयु, बल आदि उत्तरोत्तर घटते जाते हैं।
जो जीवों को उनकी मन वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं, वे कल्पवृक्ष कहलाते हैं। कल्पवृक्ष न तो वनस्पति हैं और न ही व्यन्तरदेव हैं। किन्तु इनकी विशेषता यह है कि ये पृथ्वीकायिक होते हुए भी जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं। भोग भूमि में निम्न दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं-
(१) पानांग- सुस्वादु और मधुर पेय (जल, दूध आदि) प्रदान करने वाले।
(२) तूर्यांग- विभिन्न प्रकार के वाद्य-यंत्र (वीणा, बांसुरी, मृदंग आदि) प्रदान करने वाले।
(३) भूषणांग- विभिन्न प्रकार के आभूषण (मुकुट, कुण्डल, अँगूठी आदि) प्रदान करने वाले।
(४) वस्त्रांग- उत्तमोत्तम नाना प्रकार के वस्त्र, आसन, बिछावन आदि प्रदान करने वाले।
(५) भोजनांग- उत्तम रस व व्यंजन से युक्त अनेक प्रकार के भोजन प्रदान करने वाले।
(६) आलयांग- सुन्दर व रमणीय भवन-मकान प्रदान करने वाले।
(७) दीपांग- चन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश करने वाले दीप आदि प्रदान करने वाले।
(८) भाजनांग- बर्तन आदि पात्र प्रदान करने वाले।
(९) मालांग- उत्तम पुष्पों की माला प्रदान करने वाले।
(१०) तेजांग- सूर्य-चन्द्रमा से भी कई गुणा अधिक कांति प्रदान करने वाले। इनके प्रकाश के कारण सूर्य, चन्द्रमा दिखाई नहीं देते हैं। वहाँँ इसी कारणवश रात-दिन का भेद नहीं है।
(२) सुषमा (द्वितीय) काल (Sushma, The Second Spoke of Plentitude)-इस काल में सुख रहता है, मनुष्यों की ऊँचाई २ कोस और आयु २ पल्य होती है। इसमें मध्यम भोग भूमि की व्यवस्था रहती है। शिशु जन्म लेने के ३५ दिन में ही यौवन को प्राप्त हो जाते हैं। दो दिन मेंं एक बार बहेड़े के बराबर आहार लेते हैं। इस काल का प्रमाण ३ कोड़ा-कोड़ी सागर है। शेष बातें प्रथम काल के समान रहती हैं।
(३) सुषमा-दुषमा (तृतीय) काल (Sushma-Dushma, The Third Spoke of Plentitude )-इस काल में अधिक सुख और अल्प दुःख रहता है, जघन्य भोग भूमि की व्यवस्था रहती हैए मनुष्यों की ऊँचाई १ कोस और आयु १ पल्य रहती है। शिशु जन्म के ४९ दिन पश्चात् यौवन को प्राप्त हो जाता है। एक दिन के बाद दूसरे दिन आँवले के बराबर आहार लेते हैं। इस काल की अवधि २ कोड़ा-कोड़ी सागर होती है और जीवों की ऊँचाई, आयु, बल आदि उत्तरोत्तर घटता जाता है। शेष बातें प्रथम काल की भांति रहती हैं।
जब इस काल में १/८ पल्य मात्र काल शेष रह जाता है, तब १४ कुलकरों की उत्पत्ति शुरू हो जाती है। ये क्रमशः १ से १४ तक उत्पन्न होते हैं। ये लोगों को विभिन्न भयों से मुक्ति दिलाते हैं और षट्-कर्म करके जीवन-यापन करना सिखलाते हैं। अंतिम कुलकर की आयु १ कोटि पूर्व और ऊँचाई ५२५ धनुष होती है। इस समय कल्पवृक्ष समाप्त हो जाते हैं। यह भोग भूमि की समाप्ति और कर्म भूमि का प्रारम्भ का काल है।
(४) दुषमा-सुषमा (चतुर्थ) काल (Dushma- Sushma, The Fourth Spoke of Penury-cum-Plentitude)-इस काल में दुःख अधिक और सुख कम होता जाता है और इस काल में कर्म भूमि की व्यवस्था रहती है। मनुष्य षट्-कर्मों (असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प) से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। मनुष्यों की अधिकतम आयु १ कोटि पूर्व और ऊँचाई ५२५ धनुष होती है। इस काल की अवधि ४२,००० वर्ष कम १ कोड़ा-कोड़ी सागर है।
इस काल में ६३ शलाका पुरुष (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण) जन्म लेते हैं।
(५) दुषमा (पंचम) काल (Dushma, The Fifth Spoke of Penury)-यह काल दुःख वाला होता है। इसमें कर्म भूमि की व्यवस्था रहती है।
महावीर भगवान के मोक्ष जाने के ३ साल और साढ़े आठ माह पश्चात् अर्थात् सन् ५२३ ईसा पूर्व से यह काल प्रारम्भ हुआ है और आजकल यही काल चल रहा है । इसकी अवधि २१,००० वर्ष है। इसमें से अभी तक लगभग २५४०१वर्ष की अवधि व्यतीत हो चुकी है। इस काल में मनुष्य की अधिकतम ऊँचाई ७ हाथ और अधिकतम आयु १२० वर्ष होती है। इस काल में पापों की बहुलता हो जाती है और मनुष्य की ऊँचाई, आयु, व बल घटता जाता है। इस काल में भरत क्षेत्र से मोक्ष नहीं जाते हैं।
इस काल में द्वादशांगरूपी श्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाता है, तीर्थंकर आदि दिव्य आत्माओं का जन्म नहीं होता है और स्वर्गों से देवों का आवागमन बन्द हो जाता है।
इस काल के अन्त तक चतुर्विध संघ का अस्तित्व अवश्य बना रहता है। पंचम काल के अंत में कल्की राजा द्वारा वीरांगज मुनि के हाथ के प्रथम ग्रास को कर के रूप में मांगे जाने पर मुनि चतुर्विध संघ के साथ सल्लेखना ग्रहण करेंगे जिसके साथ ही धर्म का लोप हो जावेगा। जब इस पंचम काल के समाप्त होने में ३ साल और साढ़े आठ माह की अवधि शेष रह जावेगी, तब उसके पश्चात् इस आर्यखण्ड में चतुर्विध संघ, जैन धर्म, राजा और अग्नि का अभाव हो जावेगा और आगामी तृतीय काल में धर्म का उदय आर्यखण्ड में पुनः होगा।
(६) दुषमा-दुषमा (षष्टम) काल (Dushma-Dushma, The sixth Spoke Extreme Penury)-लगभग १८,४६० वर्ष पश्चात् यह काल शुरू होगा। इस काल में कर्म भूमि की व्यवस्था रहती है और दुःख ही दुःख होता है। इस काल की अवधि भी २१,००० वर्ष है। इस काल में मनुष्यों की ऊँचाई अधिकतम साढ़े तीन हाथ और आयु २० वर्ष है जो क्रमशः घटती जाती है।
इस काल में अग्नि, धर्म और राजा का अभाव हो जाने के कारण लोग कच्चा मांस खाने वाले एवं नग्न अवस्था में वनों में घूमने वाले, महापापी, दरिद्री होते हैं। उनके घर, वस्त्र, कुटुम्ब आदि भी नहीं होता है तथा मनुष्य मरकर नरक व तिर्यंच गति में जाते हैं।
प्रलय (Dissolution)-अवसर्पिणी काल के षष्ठम काल में जब ४९ दिन की अवधि शेष रह जाती है तब भयदायक घोर प्रलय काल शुरू होता है। प्रथम ७ दिन तक भयंकर वायु चलती है जो वृक्ष, पर्वत आदि को चूर्ण कर देती है। इससे सभी जीव बहुत दुःखी हो जाते हैं। तब कुछ देव व विद्याधर दयालु होकर पुण्यशाली मनुष्योें और तिर्यंचों के ७२-७२ युगलों और अन्य कुछ जीवों को वहाँँ से ले जाकर विजयार्द्ध पर्वत की गुफा आदि स्थानों में रख देते हैं। इनकी ऊँचाई १ हाथ और आयु १५ वर्ष होती है।
उस समय मेघों के समूह गंभीर गर्जन के साथ ७-७ दिन तक बर्फ (ठंडा जल), क्षार (खारा जल), विष, धूल, धुआँ, वज्र और अग्नि को बरसाते हैं। जिससे भरत क्षेत्र के भीतर आर्य खण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिगत एक योजन (४००० मील) ऊँची भूमि जल जाती है और इस प्रकार सब कुछ नष्ट हो जाता है। यही प्रलय है। यह प्रलय केवल भरत व ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों में ही होती है।
उक्त ४९ दिनों के साथ अवसर्पिणी काल समाप्त हो जाता है और अगले दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है।
जिस काल में मनुष्यों की आयु, ऊँचाई, सुख, सम्पदा और बल आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है। इसकी अवधि १० कोड़ा-कोड़ी सागर है। अवसर्पिणी काल की भांति इसके भी छः भेद हैं। मगर इनका क्रम उल्टा होता है। ये भेद निम्न हैं-
(१) दुषमा-दुषमा (२) दुषमा (३) दुषमा-सुषमा (४) सुषमा-दुषमा (५) सुषमा (६) सुषमा-सुषमा
(१) दुषमा-दुषमा (Dushma-Dushma)-इस काल के प्रारम्भ में जल, दूध, घृत, अमृत, रस और सुगन्धित पवन आदि ७ प्रकार के सुखदायी मेघों की वर्षा ७-७ दिन तक होती है। ४९ दिनों की अवधि में सारी पृथ्वी शीतल वातावरण और लता आदि से समृद्ध हो जाती है। शीतल व सुगंधित वातावरण अनुभूत होने के कारण भाद्रपद सुदी पंचमी को मनुष्य व तिर्यंच गुफा से निकल आते हैं और कन्द-मूल-फल आदि खाकर जीवन-यापन करते हैं। इस काल के प्रारम्भ में ऊंचाई १ हाथ व आयु १५ वर्ष होती है जो उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इसकी अवधि २१,००० वर्ष है।
(२) दुषमा (Dushma)- इस काल के प्रारम्भ में आयु २० वर्ष और ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होती है जो उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इस काल की अवधि भी २१००० वर्ष होती है। २०,००० वर्ष बीत जाने पर कुलकरों की उत्पति होती है। ये कुलकर १४ होते हैं। ये मनुष्यों को अग्नि जलाने, खाना पकाने आदि की समयोचित शिक्षा देते हैं। अंतिम कुलकर के समय विवाह पद्धति भी चालू हो जाती है। शेष बातें अवसर्पिणी काल के पंचम काल के समान रहती हैं।
(३) दुषमा-सुषमा (Dushma-Sushma)-इस काल के शुरू में मनुष्यों की आयु १२० वर्ष और ऊँचाई ७ हाथ होती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। इस काल में ६३ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। शेष बातें अवसर्पिणी काल के चतुर्थ काल के समान रहती हैं।
(४) सुषमा-दुषमा (Sushma-Dushma)- इस काल के प्रारंभ में मनुष्यों की आयु १ कोटि पूर्व और ऊँचाई ५२५ धनुष होती है जो क्रमशः बढ़ती जाती है। इस काल में कल्पवृक्षों की उत्पत्ति हो जाती है और जघन्य भोग भूमि रहती है। शेष बातें अवसर्पिणी काल के तृतीय काल के समान रहती हैं। अन्त में मनुष्यों की आयु बढ़ते-बढ़ते १ पल्य और ऊँचाई १ कोस तक हो जाती है।
(५) सुषमा (Sushma)- मध्यम भोग भूमि इस काल में होती है। मनुष्यों की आयु, ऊँचाई आदि क्रमशः बढ़ती रहती है। शेष बातें अवसर्पिणी काल के द्वितीय काल के समान होती हैं।
(६) सुषमा-सुषमा (Sushma-Sushma)- यह उत्तम भोग भूमि का काल है। इस काल में आयु ऊँचाई आदि उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। शेष बातें अवसर्पिणी काल के प्रथम काल की भांति होती हैं।
५ भरत तथा ५ ऐरावत क्षेत्रों के कुल १० आर्य खण्डों में काल परिवर्तन होता है, शेष क्षेत्रों में नहीं होता है। जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रों तथा अन्य में काल परिवर्तन की स्थिति निम्न प्रकार है-
(१) भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में काल परिवर्तन होता है।
(२) ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्ड में काल परिवर्तन होता है।
(३) हेमवत क्षेत्र में सदा जघन्य भोग भूमि (तृतीय कालवत्) रहती है।
(४) हैरण्यवत क्षेत्र में सदा जघन्य भोग भूमि (तृतीय कालवत्) रहती है।
(५) हरि क्षेत्र में सदा मध्यम भोग भूमि (द्वितीय कालवत्) रहती है।
(६) रम्यक क्षेत्र में सदा मध्यम भोग भूमि (द्वितीय कालवत्) रहती है।
(७) विदेह क्षेत्र में उत्तर कुरु और देव कुरु दोनों में सदा उत्तम भोग भूमि (प्रथम कालवत्) रहती है। पूर्व-विदेह और पश्चिम-विदेह क्षेत्र में १६-१६ ऐसी कुल ३२ कर्म भूमियाँ हैं। इन भूमियों के आर्य खण्डों में सदा चतुर्थ काल (दुषमा-सुषमा) के प्रारम्भवत् काल रहता है और म्लेच्छ खण्डों में जघन्य भोगभूमि (सुखमा-दुखमा कालवत्) रहती है।
(८) भरत व ऐरावत क्षेत्रों में स्थित सभी म्लेच्छ खण्डों एवं विजयार्ध पर्वतों के ऊपर काल परिवर्तन नहीं होता है और वहाँ सदा दुषमा-सुषमा काल के समान काल रहता है।
(९) लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के दोनों किनारों पर स्थित ९६ अन्तर्द्वीपों में जघन्य भोग भूमि (कुभोग भूमि) व्यवस्था रहती है।
(१०) ऊर्ध्व लोक स्थित स्वर्गों में सदा प्रथम काल जैसे सुख से अधिक सुख और नरकों में सदा षष्ठम् काल जैसे दु:ख से अधिक दु:ख प्रवर्तमान रहता है।
कल्पकाल (Kalpkal)-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालों की अवधि १०-१० कोड़ा-कोड़ी सागर होती है। इन दोनों कालों का संयुक्त नाम कल्प-काल है। इसकी अवधि २० कोड़ा-कोड़ी सागर है।
हुण्डावसर्पिणी काल (Hundavasarpini kal, The Epoch of Extra- Ordinary Events)-असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालों के व्यतीत हो जाने पर हुण्डावसर्पिणी काल आता है। आजकल यही हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। काल दोष के कारण इसमें कुछ विचित्र अपवाद अथवा असाधारण बातें होती हैं जो आगम के अनुकूल नहीं होती हैं।
जैसे-
(१) चतुर्थ काल में २४ तीर्थंकर होते हैं और ये सभी चतुर्थ काल में ही मोक्ष जाते हैं किन्तु इस काल के प्रभाव से तीसरे काल के अंत में कल्पवृक्षों का अंत और कर्मभूमि का व्यवहार प्रारम्भ हो जाता है। इसी कारणवश भगवान आदिनाथ तीसरे काल में उत्पन्न होकर तीसरे काल में ही मोक्ष गये।
(२) तीर्थंकरों पर उपसर्ग नहीं होता है। किन्तु काल दोष के कारण तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी पर उपसर्ग हुए।
(३) सभी तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में होना चाहिए। किन्तु इस काल दोष के कारण केवल ५ तीर्थंकरों (ऋषभनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ) का जन्म ही अयोध्या में हुआ।
(४) सभी तीर्थंकरों का मोक्ष सम्मेद शिखर से होना चाहिए। किन्तु तीर्थंकर आदिनाथ-वासुपूज्य-नेमिनाथ और महावीर का मोक्ष अन्य स्थानों से हुआ।
(५) तीर्थंकरों के अन्तराल काल में कुछ अवधि के लिये धर्म नहीं रहा । नवमें से सौलहवें तीर्थंकर के अन्तराल काल में चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक व श्राविका) का अभाव रहने से थोड़ी-थोड़ी अवधि के लिये धर्म का व्युच्छेद हुआ।
(६) चक्रवर्ती का मान भंग हुआ। चक्रवर्ती युद्ध में हारते नहीं हैं, लेकिन काल दोष के कारण चक्रवर्ती भरत अपने भ्राता बाहुबली से हार गये थे।