पद्यपि लोक में घण्टा,दिन,वर्ष आदि को ही काल कहने का व्यवहार प्रचलित है पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है । परमाणु अथवा सूर्य आदि की गति के कारण या किसी भी द्रव्य की भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओं में आरोपित किया जाता है । वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है जिसके निमित्त से यह सर्वद्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे है । यदि वह न हो तो इनका परिणमन भी न हो और उपरोक्त प्रकार आरोपित काल का व्यवहार भी न हो । यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सेकेण्ड से वर्ष अथवा शताब्दी तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है परन्तु आगम में उसकी जघन्य सीमा ‘समय’ है और उत्कृष्ट सीमा युग है । समय से छोटा काल सम्भव नहीं क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समय से जल्दी नहीं बदलती । एक युग में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते है और एक कल्प में दुख से दुख की वद्धि अथवा सुख से सुख की ओर हानि रूप सुषमा दुषमा आदि छ: छ: काल है । इन कालों या कल्पों का प्रमाण कोड़ाकोड़ी सागरों में मापा जाता है ।
जीव के पंच परिवर्तन के प्रकरण में संसार के पांच भेदों में से एक है ।