सुषमा-सुषमा काल में भूमि रज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित एवं शंख, बिच्छू, चींटी, मक्खी आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। दिव्य बालू, मधुर गंध से युक्त मिट्टी और पंचवर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण होते हैं। वहाँ वृक्ष समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ, उन्नत पर्वत, उत्तम-उत्तम प्रासाद, इन्द्रनीलमणि आदि से सहित पृथ्वी एवं मणिमय बालू से शोभित उत्तम-उत्तम नदियाँ होती हैं। इस काल में असंज्ञी जीव, जात विरोधी जीव भी नहीं होते हैं। गर्मी, सर्दी, अंधकार और रात-दिन का भेद भी नहीं होता है एवं परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन भी नहीं होते हैं। इस काल में युगल रूप से उत्पन्न हुए मनुष्य उत्तम तिल, मशा आदि व्यंजन एवं शंख, चक्र आदि चिन्हों से सहित तथा स्वामी और भृत्य के भेदों से रहित होते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है, यहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुषों के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। इनके शरीर मलमूत्र-पसीने से रहित, सुगंध निश्वास से सहित, तपे हुए स्वर्ण सदृश वर्ण वाले, समचतुरस्र संस्थान और वङ्कावृषभनाराच संहनन से युक्त होते हैं, प्रत्येक मनुष्य का बल नौ हजार हाथियों सदृश रहता है। इस काल में नर-नारी से अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता है। इस समय वहाँ पर ग्राम, नगर आदि नहीं होते हैं, दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो युगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।
कल्पवृक्षों के नाम
पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैंं-पानांग जाति के कल्पवृक्ष भोगभूमिज मनुष्यों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त पुष्टिकारक बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को देते हैं। तूर्यांग कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग आदि वादित्रों को देते हैं। भूषणांग कल्पवृक्ष वंâकण, कटिसूत्र, हार आदि आभूषणों को, वस्त्रांग कल्पवृक्ष चीनपट्ट, क्षौमादि वस्त्रों को, भोजनांग कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं। आलयांग कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के दिव्य भवनों को, दीपांग कल्पवृक्ष शाखा, प्रवाल, फल, पूâल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैंं, भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण आदि से निर्मित झारी, कलश, गागर, चामर और आसन आदि देते हैं, मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कान्ति का संहरण करते हैं ये सब कल्पवृक्ष न वनस्पतिकायिक हैं न कोई व्यन्तर देव हैं किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथ्वीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं। भोगभूमिजों के भोग आदिये मनुष्य कल्पवृक्षों से दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं और चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। ये युगल कदलीघात मरण से रहित होते हुए संपूर्ण आयुपर्यन्त चक्रवर्ती के भोगों की अपेक्षा अनन्तगुणे भोग को भोगते हैं। वहाँ के पुरुष इन्द्र से भी अधिक सुन्दर और स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश सुन्दर होती हैं। भोगभूमि के आभूषण भोगभूमि में कुण्डल, हार, मेखला, मुकुट, केयूर, भालपट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र (ब्रह्मसूत्र), नूपुर, दो मुद्रिकाएँ, अंगद, असि, छुरी, ग्रैवेयक और कर्णपूर ये सोलह आभरण पुरुषों के एवं छुरी और असि से रहित चौदह आभरण स्त्रियों के होते हैं।
भोगभूमि में उत्पत्ति के कारण भोगभूमि में मनुष्य और तिर्यञ्च जीव उत्पन्न होते हैं, मिथ्यात्वभाव से युक्त होते हुए भी मन्दकषायी, मधुमांसादि के त्यागी, गुणियों के गुणों में अनुरक्त, उपवास से शरीर को कृश करने वाले, निग्र्रन्थ साधुओं को आहारदान देने वाले जीव या अनुमोदना आदि करने वाले पशु आदि भी यहाँ उत्पन्न होते हैं। जिनने पूर्वभव में मनुष्य आयु को बाँध लिया है और पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है ऐसे कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। कोई अज्ञानी जिनलिंग को ग्रहण करके छोड़ देते हैं, मायाचार में प्रवृत्त होकर कुलिंगियों को अनेक प्रकार के दान देते हैं, वे भी भोगभूमि में तिर्यञ्च होते हैं। भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की नव मास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और दोनों-युगल के मृत्यु का समय निकट आने पर युगल/बालक-बालिका का जन्म होता है अर्थात् सन्तान के जन्म लेते ही माता-पिता मरण को प्राप्त हो जाते हैं। पुरुष को छींक और स्त्री को जंभाई आते ही वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनके शरीर शरत्कालीन मेघ के सदृश तत्क्षण आमूल विलीन हो जाते हैं।
भोगभूमि के उत्पत्ति स्थान मृत्यु के बाद भोगभूमिज मनुष्य या तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक-भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
भोगभूमिज युगल की वृद्धि वहाँ के बाल युगल शय्या पर सोकर अंगूठा चूसते हुए तीन दिन निकाल देते हैं, पश्चात् बैठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शन की योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं अर्थात् इक्कीस दिन में ये युगल सात प्रकार की योग्यता को प्राप्त करके पूर्ण यौवन सहित सर्वकलाकुशल हो जाते हैं।
सम्यक्त्व के कारण वहाँ पर कोई जीव जातिस्मरण से, कोई देवों के सम्बोधन करने से, कोई ऋद्धिधारी मुनि आदि के उपदेश सुनने से सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं किन्तु इनके श्रावक के व्रत और संयम नहीं हो सकता है।
भोगभूमिज तिर्यञ्च भोगभूमि में गाय, सिंह, हाथी, मकर, शूकर, हरिण, भैंस, बन्दर, तेन्दुआ, व्याघ्र, शृगाल, रीछ, मुर्गा, तोता, कबूतर, राजहंस आदि तिर्यञ्च युगल भी उत्पन्न होते हैं जो परस्पर के वैरभाव से रहित, व्रूâरता रहित, मन्दकषायी होते हैं। वहाँ के व्याघ्र आदि थलचर एवं कबूतर आदि नभचर तिर्यञ्च मांसाहार के बिना दिव्य तृणों का भक्षण करते हैं। चार कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण इस प्रथम काल में शरीर की ऊँचाई, आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीन-हीन होते जाते हैं।
द्वितीय काल
इस प्रकार से अवगाहना आदि के घटते-घटते ‘सुषमा’ नामक द्वितीय काल प्रविष्ट होता है। इस काल के आदि में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष-दो कोस, आयु दो पल्य प्रमाण और शरीर का वर्ण चन्द्रमा सदृश धवल होता है। इनके पृष्ठ भाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। अतीव सुन्दर समचतुरस्र संस्थान से युक्त ये भोगभूमिज तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। इस काल में उत्पन्न हुए बालक युगल शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में पाँच दिन व्यतीत करते हैं पश्चात् उपवेशन, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुण प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के पाँच-पाँच दिन व्यतीत हो जाते हैं। इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा-दुषमा काल में कहे गये हैं, उन्हें यहाँ पर भी समझना चाहिए। तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस सुषमा नामक काल में पहले से ही ऊँचाई, बल, ऋद्धि, आयु और तेज आदि उत्तरोत्तर हीन-हीन होते जाते हैं।
तृतीय काल
तीन कोड़ाकोड़ी सागर काल के व्यतीत होने पर क्रम से सुषमादुःषमा नामक तृतीय काल प्रवेश करता है, इस काल का प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागर है। प्रारंभ में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष-एक कोस, आयु एक पल्य प्रमाण और वर्ण प्रियंगुफल के समान होता है। इस काल में स्त्री-पुरुषों धनुष-एक कोस, आयु एक पल्य प्रमाण और वर्ण प्रियंगुफल के समान होता है। इस काल में स्त्री-पुरुषों के पृष्ठभाग की हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। सभी मनुष्य समचतुरस्र संस्थान से युक्त, एक दिन के अंतराल से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करने वाले होते हैं। इस काल मेंं उत्पन्न हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में सात दिन व्यतीत होते हैं। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुण प्राप्yति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता। इनमें से प्रत्येक अवस्था में क्रमशः सात-सात दिन जाते हैं। इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा-सुषमा नामक काल में कह चुके हैं सो ही यहाँ पर समझना चाहिए। इन तीनों ही भोगभूमियों में चोर, शत्रु आदि की बाधाएँ, असि, मसि आदि छह कर्म, शीत, आतप, प्रचंडवायु एवं वर्षा आदि नहीं होती हैं। इन्हें क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि भी कहते हैं।
षट्काल परिवर्तन कहाँ- कहाँ हैं? भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में अरहघटिका के न्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं।
हुंडावसर्पिणी
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है। इसके चिन्ह ये हैं-इस काल के भीतर सुषमादुषमा नामक तृतीय काल की स्थिति में कुछ काल अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पड़ने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। इसी तृतीय काल में कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ हो जाता है। उसी काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। इस हुँडावसर्पिणी के दोष से चक्रवर्ती का विजयभंग, उसी के द्वारा की गई ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति भी हो जाती है। इस काल में अट्ठावन ही शलाका पुरुष होते हैं और नौंवे से लेकर सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म का विच्छेद हो जाता है। ग्यारह रुद्र और कलह प्रिय नव नारद उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के ऊपर उपसर्ग भी होता है। तृतीय, चतुर्थ व पंचमकाल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। चाण्डाल, शबर, श्वपच तथा किरात आदि निकृष्ट जातियाँ तथा बयालीस कल्की व उपकल्की भी होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, वङ्कााग्नि आदि का गिरना, इत्यादि विचित्र भेदों को लिए हुए नाना प्रकार के दोष इस हुंडावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं।
ग्यारह रुद्र
भीमावली, जितशत्रु, रुद्र, वैश्वानर, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितंधर, अजितनाभि, पीठ और सात्यकिपुत्र ये ग्यारह रुद्र अंगधर होते हुए तीर्थकर्ताओं के समयों में हुए हैं। इनमें से प्रथम रुद्र ऋषभनाथ के काल में और जितशत्रु अजितनाथ के काल में हुआ है, इसके आगे सात रुद्र क्रम से सुविधिनाथ से लेकर सात तीर्थंकरों के समय में हुए हैं। दसवाँ रुद्र शान्तिनाथ के समय में और सात्यकिपुत्र वीर भगवान के तीर्थ में हुआ है। सब रुद्र दसवें पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के निमित्त से तप से भ्रष्ट होकर सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित होते हुए घोर नरकों में डूब गये।
नव नारद
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुर्मुख, नरकमुख और अधोमुख ये नौ नारद हुए हैं। ये सब नारद अतिरुद्र होते हुए दूसरों को रुलाया करते हैं और पाप के निधान होते हैं। सब ही नारद कलह एवं महायुद्ध प्रिय होने से वासुदेवों के समान नरक को प्राप्त हुए हैं।
चौबीस कामदेव
भगवान बाहुबली, अमिततेज, श्रीधर, यशोभद्र, प्रसेनजित, चन्द्रवर्ण, अग्निमुक्ति, सनत्कुमार (चक्रवर्ती), वत्सराज, कनकप्रभ, सिद्धवर्ण, शान्तिनाथ (चक्र.), कुंथुनाथ (चक्र.), अरनाथ (चक्री), विजयराज, श्रीचन्द्र, राजा नल, हनुमान, बलगज, वसुदेव, प्रद्युम्न, नागकुमार, श्रीपाल और जम्बूस्वामी। चौबीस तीर्थंकरों के समयों में अनुपम आकृति के धारक ये बाहुबली आदि चौबीस कामदेव होते हैं। तीर्थंकर, उनके माता-पिता, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, रुद्र, नारद, कामदेव और कुलकर पुरुष, ये सब भव्य होते हुए नियम से सिद्ध होते हैं। तीर्थंकर तो उसी भव से नियम से सिद्ध होते हैं। अन्यों के लिए उसी भव का नियम नहीं है। यहाँ तक सृष्टि का क्रम कहा गया है। युग परिवर्तन की अपेक्षा से यह करणानुयोग का विषय है। क्रम को समझने के लिए इसे प्रथमानुयोग में भी लिया जाता है।