प्रस्तुति-आर्यिका स्वर्णमती (संघस्थ)
वर्तमान कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र (महा.) ही प्राचीन काल का वंशधर पर्वत अथवा रामगिरि है, इस संदर्भ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से चर्चा होने पर जो तथ्य प्रकाशित हुए, वो यहाँ प्रस्तुत हैं- आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! वंदामि। आपके मुख से कई बार सुनने में आता है कि श्री रामचन्द्र जी ने किसी पर्वत पर हजारों जिनमंदिर बनवाए थे, कृपया बताएं कि वह पर्वत कौन सा है ? पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-इस प्रश्न के समाधान हेतु आचार्य रविषेण प्रणीत ‘पद्मपुराण’ (द्वितीय भाग-भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित) के ३९वें पर्व में पृष्ठ १७८ पर देखें-
नानाजनोपभोग्येषु देशेषु निहितेक्षणौ। धीरौ क्रमेण संप्राप्तो पुरं वंशस्थलद्युतिम्।।९।।
अर्थात्, नाना मनुष्यों से उपभोग्य देशों में दृष्टि डालते हुए वे (सीता सहित राम-लक्ष्मण) धीर-वीर क्रम से वंशस्थद्युति नामक नगर में पहुँचे।।९।।
अपश्यतां च तस्यान्ते वंशजालातिसकटम्। नगं वंशधराभिख्यं मित्त्वेव भुवमुद्गतम्।।११।।
छायया तुङ्गशृङ्गाणां य: सन्ध्यामिव संततम्। दधाति निर्झराणां च हसतीव च शीकरै:।।१२।।
अर्थात्, उस नगर के समीप ही उन्होंने वंशधर नाम का पर्वत देखा, जो बाँसों के समूह से अत्यन्त व्याप्त था, पृथिवी को भेदकर ही मानो ऊपर उठा था, ऊँचे-ऊँचे शिखरों की कान्ति से जो मानो सदा सन्ध्या को धारण कर रहा था और निर्झरनों के छींटों से ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो।।११-१२।। पुन: इस सम्पूर्ण पर्व में इस वंशधर पर्वत के ऊपर बलभद्र एवं नारायण श्री रामचन्द्र तथा लक्ष्मण द्वारा महामुनि देशभूषण एवं कुलभूषण पर अग्निप्रभ देव द्वारा किये जा रहे महान उपसर्ग के निवारण एवं दोनों मुनिराजों को केवलज्ञान की प्राप्ति होने का सुंदर विवरण प्रस्तुत किया गया है। देखें-
जनस्याश्रावि कस्यापि दिक्षु संक्षोभणं परम्। सांराविणं तथा चित्रं भिन्दानमिव पुष्करम्।।५९।।
विद्युज्ज्वालामुखैर्लम्बैरम्बुदैव्र्याप्तमम्बरम्। क्कापि यात इवाशेषो लोकस्राससमाकुल:।।६०।।
अलंप्रतिभयाकारा दंष्ट्रालीकुटिलानना:। अट्टाहासान् महारौद्रान् भूतानां ससृजुर्गणा:।।६१।।
अर्थात्, उसी समय किसी का ऐसा विचित्र शब्द सुनाई दिया जो दिशाओं में परम क्षोभ उत्पन्न करने वाला था तथा जो आकाश को भेदन करता हुआ सा जान पड़ता था।।५९।। जिसके अग्रभाग में बिजलीरूपी ज्वाला प्रकाशमान थी, ऐसी लम्बी घन-घटा से आकाश व्याप्त हो गया और लोक ऐसा जान पड़ने लगा मानो भय से व्याकुल हो कहीं चला ही गया हो।।६०।। जिनके आकार अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले थे तथा जिनके मुख दाँढ़ों की पंक्ति से कुटिल थे, ऐसे भूतों के झुण्ड महा भयंकर अट्टाहास करने लगे।।६१।। अन्य पद्यों में भी इसी प्रकार दोनों महामुनियों पर घोर उपसर्ग का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य रविषेण आगे कहते हैं-
सजलाविव जीमूतौ गर्जितौ तौ महाप्रभौ। निर्घातमिव मुञ्चन्तौ समास्फालयतां धनु:।।७२।।
ततस्तौ संभ्रमी ज्ञात्वा रामनारायणाविति। सुरो वह्निप्रभाभिख्यस्तिरोधानमुपेयिवान्।।७३।।
ज्योतिर्वरे गते तस्मिन् समस्तं तद्विचेष्टितम्। सपदि प्रलयं यातं जातं च विमलं नभ:।।७४।।
प्रातिहार्ये कृते ताभ्यामिच्छद्भ्यां परमं हितम्। उत्पन्नं केवलज्ञानं मुनिपुङ्गवयो: क्षणात्।।७५।।
अर्थात्, तदनन्तर सजल मेघ के समान गरजने वाले एवं महा कान्ति के धारक राम लक्ष्मण ने अपने-अपने धनुष टंकोरे सो ऐसा जान पड़ा मानो वङ्का ही छोड़ रहे हों।।७२।। तदनन्तर ‘ये बलभद्र और नारायण हैं’ ऐसा जानकर वह अग्निप्रभ देव घबड़ाकर तिरोहित हो गया।।७३।। उस ज्योतिषी देव के चले जाने पर उसकी सबकी सब चेष्टाएँ तत्काल विलीन हो गर्इं और आकाश निर्मल हो गया।।७४।। अथानन्तर परम हित की इच्छा करने वाले राम-लक्ष्मण के द्वारा प्रतिहारी का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थात् उपसर्ग दूर किये जाने पर दोनों मुनियों को क्षण भर में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।।७५।। आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! इस विवरण के द्वारा तो यह स्पष्ट हुआ कि वंशधर पर्वत पर श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण ने महामुनि देशभूषण एवं कुलभूषण का उपसर्ग दूर किया था, परन्तु जिनमंदिर निर्माण की बात तो इससे स्पष्ट नहीं हुई ? पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-इस विवरण के पश्चात् पर्व-४० में इस वंशधर पर्वत पर श्री रामचन्द्र जी द्वारा जिनेन्द्र भगवान की हजारों प्रतिमाएँ बनवाने का उल्लेख किया गया है। देखें (पृष्ठ-१९६)-
तत्र वंशगिरौ राजन् रामेण जगदिन्दुना। निर्मापितानि चैत्यानि जिनेशानां सहस्रश:।।२७।।
महावष्टम्भसुस्तम्भा युक्तविस्तारतुङ्गता:। गवाक्षहम्र्यवलभीप्रभृत्याकारशोभिता:।।२८।।
सतोरणमहाद्वारा: सशाला: परिखान्विता:। सितचारुपताकाढ्या बृहद्धण्टारवाचिता:।।२९।।
मृदङ्गवंशमुरजसंगीतोत्तमनिस्वना:। झर्झरैनानकै शङ्खभेरीभिश्च महारवा:।।३०।।
सततारब्धनि:शेषरम्यवस्तुमहोत्सवा:। विरेजुस्तत्र रामीया जिनप्रासादपङ्क्तय:।।३१।।
रेजिरे प्रतिमास्तत्र सर्वलोकनमस्कृता:। पञ्चवर्णा जिनेन्द्राणां सर्वलक्षणभूषिता:।।३२।।
अर्थात्, गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! उस वंशगिरि पर जगत् के चन्द्र स्वरूप राम ने जिनेन्द्र भगवान की हजारों प्रतिमाएँ बनवाई थीं।।२७।। तथा जिनमें महामजबूत खम्भे लगवाये गये थे, जिनकी चौड़ाई तथा ऊँचाई योग्य थी, जो झरोखे, महलों तथा छपरी आदि की रचना से शोभित थे, जिनके बड़े-बड़े द्वार तोरणों से युक्त थे, जिनमें अनेक शालाएँ निर्मित थीं, जो परिखा से सहित थे, सफेद और सुन्दर पताकाओं से युक्त थे, बड़े-बड़े घण्टाओं के शब्द से व्याप्त थे, जिनमें मृदंग, बाँसुरी और मुरज का संगीतमय उत्तम शब्द फैल रहा था, जो झाँझों, नगाड़ों, शंखों और भेरियों के शब्द से अत्यन्त शब्दायमान थे और जिनमें सदा समस्त सुन्दर वस्तुओं के द्वारा महोत्सव होते रहते थे ऐसे राम के बनवाये जिनमंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं।।२८-३१।। उन मंदिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएँ सुशोभित थीं।।३२।। पुन: इसी ४०वें पर्व के अंत में देखें (पृष्ठ-१९८)-
रामेण यस्मात्परमाणि तस्मिन् जैनानि वेश्मानि विधापितानि। निर्नष्टवंशाद्रिवचा: स तस्माद्रविप्रभो रामगिरि: प्रसिद्ध:।।४५।।
अर्थात्, चूँकि उस पर्वत पर रामचन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् के उत्तमोत्तम मंदिर बनवाये थे इसलिए उसका वंशाद्रि नाम नष्ट हो गया और सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह पर्वत ‘रामगिरि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।।४५।। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि श्री रामचन्द्र ने जिस पर्वत पर श्री देशभूषण-कुलभूषण महामुनियों का उपसर्ग दूर किया था, उसी वंशधर पर्वत पर उन्होंने हजारों जिनमंदिर भी बनवाये थे, जिससे वह पर्वत बाद में ‘रामगिरि’ नाम से भी प्रसिद्ध हो गया। आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! वर्तमान में वह वंशधर पर्वत अथवा रामगिरि पर्वत कहाँ स्थित है, कृपया बताएँ। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी-बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के समाधिस्थल के रूप में प्रसिद्ध ‘कुंथलगिरि’ सिद्धक्षेत्र जो महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित है, वह ही प्राचीन काल से श्री देशभूषण-कुलभूषण महामुनियों की उपसर्ग एवं केवलज्ञान भूमि मानी जाती रही है, अत: यह भी मानना होगा कि इस कुंथलगिरि पर्वत पर ही श्री रामचन्द्र द्वारा बनवाये गये हजारों जिनमंदिर अवस्थित रहे होंगे, जो काल के थपेड़ों से लुप्त हो गये। कुंथलगिरि पर्वत पर आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने देशभूषण-कुलभूषण केवली भगवन्तों की प्रतिमाएँ विराजमान करायी थीं, जो आज भी वहाँ विराजमान हैं। अत: वर्तमान कुंथलगिरि पर्वत को ही प्राचीनकालीन वंशगिरि अथवा रामगिरि पर्वत मानना ही तर्कसंगत है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज एवं उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ने सदा कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र को ही वंशगिरि पर्वत के रूप में मान्यता प्रदान की थी, अत: आगम परम्परा एवं गुरुपरम्परा से हमें इसी सिद्धक्षेत्र को प्राचीन रामगिरि अथवा वंशगिरि के रूप में मान्यता प्रदान करनी होगी। आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी! आज आगम प्रमाण एवं गुरु परम्परा के आधार पर ‘रामगिरि पर्वत’ की वास्तविक स्थिति ज्ञात कर प्रसन्नता हुई, पुन: आपसे किसी अन्य जिज्ञासा के समाधान हेतु मार्गदर्शन प्राप्त होने की भावना के साथ आपके श्रीचरणों में सविनय वंदामि!
[[श्रेणी:शंका-समाधान]]