कुण्डलपुर की सुन्दर पृथ्वी, जो कि श्री भगवान् महावीर को जन्म देने वाली है, वह पुण्य देने वाली, सुख देने वाली, पवित्र है, उसका मेरे द्वारा आदरपूर्वक अभिनंदन किया जाता है।
(२) भुवो भालोज्ज्वला मौलि:, भव्यं भाति भारतम्।
तत्समो न हि देशोऽस्ति, सम्पूर्णे वसुधातले।।
सुन्दर भारतवर्ष पृथ्वी के माथे पर चमकदार मुकुट के समान शोभित हो रहा है। सम्पूर्ण पृथ्वीतल पर उसके समान कोई देश नहीं है।
(३) भारतेऽत्रास्तिवस्तूनां, श्रेष्ठानां शुभसंगम:।
तन्नास्ति वस्तु कुत्रापि, यन्नास्ति मम भारते।।
यहाँ भारत में श्रेष्ठ वस्तुओं का सुन्दर संगम है। मेरे भारतवर्ष में जो वस्तु नहीं है, वह पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है।
(४) धर्मार्थकाममोक्षाख्यं, पुरुषार्थचतुष्टयम् ।
साधनीयं जनै: सर्वै:, जीवन-लक्ष्य-सिद्धये।।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नाम वाले चार पुरुषार्थों को जीवन के लक्ष्यों की सिद्धि के लिए सभी लोगों को साधना चाहिए।
(५) भारतीया: जना: नित्यं, पुरुषार्थ-चतुष्टयम्।
साधयन्ति प्रयत्नेन, जीवनानन्दलब्धये।।
भारतीय लोग चारों पुरुषार्थों को जीवन में आनन्द प्राप्त करने के लिए सदा कोशिश के साथ साधते रहते हैं।
(६) भारतेतरदेशेषु, भौतिक – सुखलिप्सव:।
धर्ममोक्षौ न जानन्ति, अर्थकामपरायणा:।।
भारत के अलावा सभी देशों में भौतिक सुख के लालची अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि में लगे रहते हैं। वे धर्म और मोक्ष के विषय में नहीं जानते हैं।
(७) भारतेऽपि न सर्वेभ्य:, सुलभं मोक्षसाधनम्।
केचिदेव महात्मान:, चलन्ति मोक्ष वत्र्मनि।।
यहाँ भारत में भी मोक्ष की साधना आसान नहीं है। कुछ महात्मा (विलक्षण महान आत्मा) ही मोक्षमार्ग पर चलते हैं।
(८) कठिनं मोक्षमार्गं तु, साधयन्ति जितेन्द्रिया:।
त्यक्त्वा भौतिक लिप्सास्ते, लभन्ते स्वात्म-संपद:।।
कठिन मोक्षमार्ग की साधना तो जितेन्द्रिय महापुरुष ही करते हैं। वे भौतिक लिप्साओं को त्याग कर ही आत्म-संपदाओं को प्राप्त करते हैं।
(९) मोक्षं प्राप्तुं यतन्तेऽत्र, जैन धर्मानुयायिन:।
त्याग-वैराग्यमुख्यास्ति, जैनदर्शनसंस्कृति:।
जैन धर्मानुयायी ही मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि जैनधर्म की संस्कृति त्याग-वैराग्य प्रधान है।
(१०) जैन तीर्थंकरैर्लब्धं, मोक्षपदं सुदुर्लभम् ।
त्यक्त्वा भौतिक-संसारं, तैर्दग्धं कर्मणां वनम्।।
अत्यन्त दुर्लभ मोक्षपद तो जैन तीर्थंकरों के द्वारा ही प्राप्त किया गया है। क्योंकि उनके द्वारा भौतिक संसार को त्याग कर कर्मों का वन जला दिया गया है।
स्वप्नों के वर्णन को सुनकर सिद्धार्थ प्रसन्न हो गए और रानी को स्वप्नों का निष्कर्ष (फल) बताया।
(३०) देवि! त्वं कृतपुण्याऽसि, तव गर्भे समागत:।
तीर्थंकरो जगत्पूज्य: लोकत्रयस्य दीपक:।।
हे देवि! तुमने बड़ा पुण्य किया है। तुम्हारे गर्भ में जगत्पूज्य, तीन लोक के दीपक तीर्थंकर आए हैं।
(३१) निश्चिन्ता भव चित्ते त्वं, न माता त्वत्समाऽपरा।
काष्ठा प्राची यथा सूर्यं, दधासि उदरे जिनम्।।
तुम चित्त में निश्चिन्त रहो। तुम्हारे जैसी दूसरी कोई माता नहीं है। जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्य को धारण करती है, उसी प्रकार तुम अपने उदर में जिनेन्द्र को धारण कर रही हो।
(३२) श्रुत्वा फलं हि स्वप्नानां, त्रिशला प्रियकारिणी।
परमानन्दिता चित्ते, प्रसन्नवदनाऽभवत् ।।
प्रियकारिणी त्रिशला स्वप्नों के फल को सुनकर मन में बहुत आनन्दित हुई और उसका मुख प्रसन्नता से खिल उठा।
बालक की बुद्धि महत्ता को देखकर वे दोनों बोले-यह बालक सन्मति है। तभी से उसका नाम ‘‘सन्मति’’ चल पड़ा।
(४९) एकदा वर्धमान: स:, मित्र-शिशुभि: समम्।
वृक्षारोहण क्रीडायां, आसीद् व्यस्तो घने वने।।
एक बार वह वर्धमान अपने मित्र-बालकों के साथ घने जंगल में वृक्ष पर चढ़ने-उतरने के खेल में व्यस्त था।
(५०) तदैव संगमो देव:, कर्तंु धैर्य-परीक्षणम् ।
सर्परूपं विधायैवं, भीतं कर्तुं प्रयत्नवान्।।
एक बार संगम नाम देव ने उनके धैर्य की परीक्षा लेने के लिए सर्प का रूप धारण करके इन्हें भयभीत करने की कोशिश की।
(५१) वर्धमानस्य मित्राणि, सर्पं वीक्ष्य भयंकरम् ।
प्रधावितानि सर्वाणि, वीरोऽतिष्ठत् विना भयम्।।
भयंकर सर्प को देखकर सभी मित्र तेजी से भाग गए। लेकिन वीर वहाँ बिना भय के ठहरे रहे।
(५२) वर्धमानस्तु एकाकी, सर्पं फणे गृहीतवान् ।
फूत्कारं तस्य श्रुत्वापि, अगुञचन्नैव तत्फणम्।।
वर्धमान ने अकेले ही सर्प के फण को पकड़ लिया और उसकी पुंâकार को सुनकर भी उसके फण को नहीं छोड़ा।
(५३) वीरस्य साहसं दृष्ट्वा, संगम: प्रकटितोऽभवत्।
दर्शयित्वा निजं रूपम्, महावीरस्त्वमुक्तवान्।।
वीर के साहस को देखकर संगम देव सामने प्रकट हुआ और अपना रूप दिखाकर, ‘तुम महावीर हो’ ऐसा कहा। अर्थात् उन्हें ‘‘महावीर’’ नाम से सम्बोधित कर चरणों में नमन किया और स्वर्ग वापस चला गया।
(५४) सुस्वस्थ: प्रतिभाशाली, बलिष्ठश्चतुरो गुणी।
स: सन्मतिर्महावीर:, जात: बालशिरोमणि:।
अत्यन्त स्वस्थ, प्रतिभाशाली, बलिष्ठ और गुणी वह सन्मति महावीर बालकशिरोमणि बन गए।
(५५) शैशवोचित क्रीडासु, बहुविद्यासु र्कीितमान्।
शनै: शनै र्महावीर:, बाल्यात्तारुण्यमाप्तवान्।।
बालोचित क्रीड़ाओं में तथा सर्वविद्याओं में यश प्राप्त करते हुए महावीर धीरे-धीरे बाल्यावस्था से जवानी को प्राप्त हो गए।
दीक्षा कल्याणक
(५६ ) रूप-यौवन संपन्न:, प्राप्त संपूर्ण वैभव:।
अतिष्ठत् किन्तु भोगेभ्य:, विरक्त एव सर्वदा।।
सौन्दर्य और जवानी से युक्त, संपूर्ण वैभवों को प्राप्त किए हुए भी महावीर हमेशा सभी भोगों से उदासीन ही रहे।
(५७) लक्षित: सर्वदा वीरोऽयं, गंभीर-धैर्यसागर:।
यौवनोचित चाञ्चल्यम्, व्यकरोन्नास्य मानसम्।।
यह महावीर सदा गाम्भीर्य और धैर्य के सागर रूप में देखे गये। यौवन में भी चंचलता ने इनके मन को विकृत नहीं किया।
(५८) राज्य-वैभव मध्येऽपि, न लिप्तस्तैरयमभूत्।
गृहेऽप्ययमवातिष्ठत्, यथा वारिणि वारिजम्।।
राज्य के वैभवों के बीच भी वह उनसे निर्लिप्त थे। घर में भी वह उसी प्रकार ठहरे हुए थे, जैसे जल में कमल।
(५९) विरक्तस्तु महावीरा, संसाराय निरुत्सुक:।
स्वजनेभ्यस्तु सर्वेभ्य:, चिन्ताया: विषयोऽभवत्।।
संसार के लिए निरुत्सुक, विरक्त महावीर अपने सभी लोगों के लिए चिन्ता का विषय बन गए। अर्थात् महावीर की संसार से विरक्ति देखकर माता-पिता आदि सभी चिन्तित हो गए।
(६०) नारभत मनस्तस्य, मनोरञ्जन कर्मसु।
स्वादिष्ट भोज्यपानेषु, अम्बराभरणे स्वपि।।
उन महावीर का मन मनोरंजन कार्योंे में, स्वादिष्ट भोजन-पान में और वस्त्राभूषणो में आनन्द नहीं प्राप्त करता था।
(६१) मात्रा कृतश्च प्रस्ताव:, विवाहस्य वृथाऽभवत्।
पित्रा प्रस्तावितं राज्यं, स्वीकृतवान्न सन्मति:।।
माता के द्वारा किया गया उनके विवाह का प्रस्ताव व्यर्थ तथा पिता के द्वारा प्रस्तावित राज्य भी उन सन्मति ने स्वीकार नहीं किया।
कुछ दिशाहीन लोग प्रबल प्रमाणों के बिना भगवान् महावीर का जन्म किसी दूसरी जगह मानते हैं।
(११०) एतेषां भ्रान्तचिन्त्ततानाम्, अन्यत्र जन्म वादिनाम्।
दुष्प्रचारोऽपि क्षेत्राय, जातो विकास बाधक:।।
भगवान् महावीर के जन्म को अन्यत्र मानने वाले इन भ्रान्तचित्त लोगों के द्वारा कुण्डलपुर क्षेत्र के प्रति दुष्प्रचार करने से तीर्थ विकास में बाधा उत्पन्न हुई अर्थात् क्षेत्रविकास अवरुद्ध हो गया था।
(१११) वरिष्ठा गणिनी माता, ज्ञानमती तपस्विनी।
लेखिका विदुषी साध्वी, जैनशासनदीपिका।।
बीसवीं सदी की वरिष्ठ गणिनी तपस्विनी माता ज्ञानमती हैं जो कि लेखिका, विदुषी और जैन शासन को चमकाने वाली साध्वी हैं।
(११२) जैन तीर्थ विकासाय, प्रेरिका मार्गदर्शिका।
जैनागमोक्तमार्गेण, तीर्थोद्धाराय चिन्तिता।।
आगमों के अनुसार जैन तीर्थों के विकास के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन करने वाली वे माता प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार के लिए चिन्तनरत रहती हैं।
(११३) विहरन्ती तु सा साध्वी, कुण्डलपुरमागता।
क्षेत्रस्थितिं समालोक्य, मनसि व्यथिताऽभवत्।।
विहार करती हुई वह ज्ञानमती माता जी कुण्डलपुर आर्इं। क्षेत्र की स्थिति को देखकर मन में व्यथित हुईं।।
(११४) कुण्डलपुर भूमिश्च, न महावीर-जन्मदा।
श्रुत्वा मतं हि केषांचित्, साऽऽश्चर्यचकिताभवत्।।
कुण्डलपुर की भूमि महावीर को जन्म देने वाली नही है, किन्हीं के इस मत को सुनकर माताजी आश्चर्यचकित रह गईं।
(११५) प्रमाणैर्बहुभिर्माता, तर्वैरेतदसाधयत् ।
कुण्डलपुरमेवास्ति, महावीरस्य जन्मभू:।।
माताजी ने बहुत से प्रमाणों और तर्कों से सिद्ध किया कि महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर ही है।
(११६) मातु: पादार्पणेनैव, निर्मिता: नवयोजना:।
कायाकल्पाय क्षेत्रस्य, प्रारब्धा कार्य-शृंखला।।
माताजी के पदार्पण करते ही क्षेत्र के कायाकल्प के लिए नई योजनाएँ बनीं तथा कार्यशृंखला आरंभ हो गई।
(११७) मन्दिराणां मनोज्ञानां, विनिर्माणमिहाभवत् ।
महोन्नत प्रतिमाभि:, शोभितानि चाभवन् ।।
अनेक मनोज्ञ मंदिरों का यहाँ निर्माण हुआ और वे ऊँची प्रतिमाओं से सुशोभित हुए।
(११८) सप्त खण्डात्मके रम्ये, नन्द्यावर्ताभिधेनवे।
प्रासादे सन्ति दृष्टव्या:, सुरचना: मनोहरा:।।
सात मंजिलों वाले नंद्यावर्त नामक सुन्दर और नए महल में देखने योग्य बहुत सी मनोहारिणी रचनाएँ हुई हैं।
(११९) नद्यावर्ते च तत्रास्ति, महावीरस्य मंदिरम्।
महोन्नतं सुरम्यं च, उत्तुंग-मूर्ति शोभितम्।।
और उसी नंद्यावर्त महल में एक बहुत ऊँचा और सुन्दर महावीर का मंदिर है, जो भगवान महावीर की उत्तुंग प्रतिमा से सुशोभित है।
(१२०) तत्रैव ऋषभस्यापि, भगवत: सुमन्दिरम् ।।
तस्मिन्नापि सुमनोज्ञा, भव्या मूर्तिर्विराजते।।
वहीं पर भगवान ऋषभदेव का भी सुन्दर मंदिर है, उसमें भी भव्य और मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है।
(१२१) परिसरे च तत्रैव, नवग्रहाख्य – मंदिरम्।
विघ्नहारि-जिनेशानां, विराजन्तेऽत्र मूर्तय:।।
उसी नंद्यावर्त परिसर में नवग्रह शांति नाम का मंदिर है। उसमें विघ्नहर्ता नव जिनेन्द्र देवों की मूर्तियाँ विराजमान हैं।
(१२२) त्रिकालेषु च वर्तन्ते, द्वि सप्ततिर्हि ये जिना:।
शोभते मूर्तिभिस्तेषां, चतुर्विंशतिर्मन्दिरम् ।।
तीनों कालों में जो २४²३·७२ (बहत्तर) तीर्थंकर हैं, उनकी मूर्तियाँ त्रिकाल चौबीसी जिनालय में शोभित हैं।
(१२३) समं तु नव निर्माणै:, क्षेत्र माहात्म्यवर्धवै:।
आकर्षणमयी जाता, कुण्डलपुर-मेदिनी।।
क्षेत्र के महत्त्व से बढ़ाने वाले नए निर्माणों के साथ कुण्डलपुर की पृथ्वी आकर्षणमय बन गई।
(१२४) यात्रिभ्य: सुखदानाय, व्यवस्थात्र मनोहरा।
भोजन-वास-सम्बद्ध:, प्रबंधोऽत्र सुखायते।।
यात्रियों को सुख देने के लिए यहाँ मन को हरण करने वाली व्यवस्था हेतु भोजन और आवास से संबंधित प्रबन्ध सुख देता है।