भ. महावीर की जन्मस्थली के संदर्भ में आगम परम्परा और विश्वास के अलावा इतिहास एवं पुरातत्व का पक्ष प्रायः विपर्ययवाची माना जाने लगा है। उनका उपयोग दो विपरीत धु्रवीय संप्रत्ययों के रूप में किये जाने की मुहिम है। आगम परम्परा का जड़ और विकासवादी प्रवृत्ति को गतिमान मानना हमारी विचार प्रक्रिया को कुंठित कर रहा है। हमारे आगम ने सदियों से हमें हर क्षेत्र में नीति निर्धारण के लिए यह राह दिखाई है-रोशनी दी है। वह जैन संस्कृति का अत्यन्त तेजोमय, दिव्य और मनोज्ञपक्ष है। उसकी अनदेखी का सीधा मतलब है स्वयं को अस्वस्थता और असंयम की भट्टी में झोंक देना। जैन संस्कृति में विवेक-विरासत और परम्परा का विशेष महत्व है किसी रीति-नीति एवं स्थल के निर्धारण में इनकी अनुपस्थिति अमंगल सूचक है। जैन वांग्मय में भगवान महावीर का जन्म स्थान कुण्डलपुर के नाम से उल्लेखित हुआ है। आ. यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्ती, आ. पूज्यपाद कृत वद्र्धमान चरित, आ. दामनंदि कृत पुराणसार संग्रह, विवुधश्रीधर कृत वड्ढमाण चरिउ, पं. आशाधर कृत त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र में कुण्डलपुर तथा भट्टारक सकलकीर्तिकृत वीर वर्धमान चरित, महाकवि पद्मकृत महावीर रास तथा पश्चात्वर्ती जैन साहित्य में प्रायः कुण्डलपुर का भगवान महावीर की जन्म भूमि के बारे में उल्लेख है। बिहार में नालंदा जिले से ३ किमी. दूर ‘बड़ागांव’ नामक गांव है इस गांव के बाहर एक प्राचीन जिनालय है दूसरा प्राचीन श्वेताम्बर जिनालय भी जो काफी समय से बंद है इसमें ३००/४०० वर्ष प्राचीन भगवान महावीर के कल्याणकों की पेटिग्स है। कुण्डलपुर नाम परम्परा में सुप्रसिद्ध है और जैन समुदाय के लोग हजारों की संख्या में नालंदा आकर यहां तीर्थाटन करते हैंं बड़ागांव के पास एक क्षेत्र ऐसा भी है जहां लोग खेती नहीं करते, मल-मूत्र विसर्जन नहीं करते और मानते हैं कि यह भगवान महावीर की जन्मस्थली और पवित्र भूमि है यह मान्यता शताब्दियों से है। सुप्रसिद्ध जैन विद्वान पं. बलभद्र जी ने १९७५ में प्रकाशित भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र में कुण्डलपुर (नालंदा) के बारे में लिखा है ‘यहां भगवान के गर्भ, जन्म-तपकल्याणक हुए। यहां साढ़े चार फुट अवगाहना वाली भव्य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वार्षिक मेला चैत्र सुदी १२ से १४ तक महावीर जन्म कल्याणक मनाने के लिए किया जाता है।
विगत पाँच छः दशकों सेकुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों की कड़ियों के आधार पर कुण्ड ग्राम (वासोकुण्ड) बसाढ़ (वैशाली) को भगवान महावीर की जन्मस्थली माने जाने का स्वरूप निर्मित किया जा रहा है। यद्यपि चतुर्विध संघ एवं समाज इस स्थल को भगवान महावीर की जन्म भूमि स्वीकार करने की मानसिकता नहीं बना पाई है न ही इस क्षेत्र का तदनुरूप विकास ही हुआ है। तीर्थ की मिट्टी में पूजनीयता की तरंगें और गुणधर्म होते हैं इसलिए तीर्थ का विकास जोर जबरदस्ती से कभी नहीं होता। वहाँ तो क्षेत्र का अतिशय स्वयं अपनी पूजनीयता बना लेता है। पाश्चात्य विद्वान हर्मन जैकोबी आदि तथा भारतीय विद्वान पं. सुमेरचन्द्र जैन दिवाकर, पं. बलभद्र जी बसाढ़ (वैशाली) को भगवान महावीर की जन्मस्थली मनाने में अपनी सहमति नहीं बना पाए। कनिंघम ने बसाढ़ के इर्द-गिर्द तथा नालंदा का पुरातात्विक उत्खनन तो किया लेकिन उनका अभिप्रेत बौद्ध साक्ष्यों को एकत्रित करना था। भगवान महावीर की जन्मस्थली खोजने की भावना एवं प्रोजेक्ट का लक्ष्य नहीं था। ३१ मार्च १९४५ को मुजफ्फरपुर बिहार के बसाढ़ गांव की वैशाली के रूप मे उद्धार करने की सोच कुछ इने-गिने लोगो ंद्वारा बनाई गई। वैशाली संस्था नामक संगठन की स्थापना भी इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए की गई थी। इसमें सरकार के शिक्षा सचिव (जोे इसी जिले के थे) जगदीशचन्द्र माथुर, डा. योगेन्द्र मिश्र, जे.सी. साहू आदि समिति जन सहयोग बनाने में कामयाब हुए और महावीर के नाम पर एक सरकारी स्कूल की स्थापना की है। इस स्कूल के प्रभाव से जथरिया भूमिहारों ने पहली बार २१ अप्रैल १९४८ को भगवान महावीर की जन्म जयंती में भाग लिया। १९५५ मे साहू शांति प्रसाद जैन के आर्थिक पोषण से वैशाली रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई और इसके पहले डायरेक्टर डा. हीरालाल जैन बनाए गये।
भगवान महावीर की जन्मस्थली को लेकर दो खेमे खड़े हो गये हैं-उन दोनों में एकसूत्रता लाने का और दिशा बोध से सम्यव् निष्कर्ष तक पहुंचाने का काम कौन करेगा? यह एक प्रश्न है। तीर्थ श्रद्धा के केन्द्र होते हैं-विदेह मगध का चक्रव्यूह है, इतिहास भूगोल के चक्कर से स्थापित परंपराएं नही बदलतीं, इतिहास इसका साक्षी है। हमारा चतुर्विध संघ और विद्वान वर्ग ही सक्षम है। जो इस ऊहापोह को विराम की स्थिति तक ले जा सकता है। कुण्डलपुर (नालंदा) के विकास और तीर्थोद्वार की बागडोर आर्यिका गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ले ली है-इतिहास साक्षी है उन्होंने जिन-जिन कामों को हाथ लगाया है वे अभी तक पूरे हुये हैं और उन्हीं क्षेत्रों को गौरव प्रदान किया है। पिछले ५६ वर्षों से बसाढ़ (वैशाली) को २५० एकड़ जमीन सरकार से मिल चुकी है। लेकिन उसका उद्धार अभी तक नहीं हो पाया। यह भी एक विचारणीय बिन्दु है। वर्तमान सर्वेक्षण एवं चतुर्विध संघ मुक्तकंठ से कुण्डलपुर (नालंदा) का पक्षधर बनकर सामने आ रहा है। आचार्य प्रवर श्री विद्यासागर जी के संघ से लेकर अन्य सभी संघ इसी पक्ष में हैं। क्या हम अपने समूचे चतुर्विध संघ के प्रबल समर्थन को नकार पायेंगे?
वैशाली में भव्य स्मारक निर्माणाधीन है लेकिन उसे जैन समाज द्वारा गति प्रदान नहीं की जा रही है। इधर पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने कुण्डलपुर (नालंदा) के तीर्थोद्धार एवं विकास के लिए आह्वान किया है जिसका चारों ओर से स्वागत हो रहा है। तीर्थों का उद्धार हो इसमे कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। आगमनिष्ठ जैन विद्वानों, पुरातत्वविदों, इतिहासज्ञों को मिल बैठकर संगीतियां बैठाकर जन्मस्थली कुण्डलपुर (नालंदा) को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लेना चाहिए-यदि ऐसे ही विवाद की स्थिति बढ़ती रही तो हमारे सभी तीर्थ क्षेत्रों पर प्रश्न चिन्हों की कतार लग जायेगी। भगवान महावीर की जन्मस्थली का सर्वसम्मति निर्णय आज की जरूरत है-क्या हम ऐसा कर पायेंगे? २७ सितम्बर विश्व पर्यटन दिवस आता है। इस अवसर पर समस्त पर्यटकों के लिए मेरी यही प्रेरणा है कि पटना और नालंदा क्षेत्र परिभ्रमण के अंतर्गत भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर का दर्शन भी अवश्य करें।