सन् १९६३ की बात है, हमने टकसाल गली, दानाओली लश्कर ग्वालियर में एक पुराना मकान क्रय किया था। इससे पूर्व किराये के मकान में रहते थे। मकान पुराना होने से सुधार एवं मरम्मत आदि का काम चल रहा था। लकड़ी का काम बढ़ई कर रहा था। बढ़ई को कुछ मंत्र सिद्धि थी या कुछ अनायास ही था, हमारी पत्नी से बोला-‘‘बौहरी, आप कहीं बाहर तीर्थयात्रा पर अतिशीघ्र जाने वाली हो।’’ हमारी पत्नी ने कहा-‘‘भैया! हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? हमारे पास पैसा नहीं है, तीर्थयात्रा कैसे जावेंगे?’’ बढ़ई दृढ़ता से बोला-‘मेरी बात गाँठ बाँध लो, आप जरूर तीर्थयात्रा को जाएंगी।’ उन दिनों आर्थिक स्थिति भी नहीं थी और कभी भी तीर्थयात्रा की कोई कल्पना भी नहीं थी और उस समय तक कोई तीर्थयात्रा की भी नहीं थी। बात आई गई हो गई। कलकत्ते में काँगे्रस का अधिवेशन था। मेरे परम मित्र स्व. श्री मदनलाल मोदी-ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे और मैं अपने वार्ड कमेटी का मंत्री था। श्री मदनलाल मोदी बोले-‘एक रेलवे की रिजर्व गाड़ी आवेगी उसमें स्थानों के कांगे्रस जन कलकत्ता जाएंगे।’ पहले मैं सकुचाया-परन्तु यकायक रुपयो की व्यवस्था हो गई। एक केस कमिश्नर नियुक्त हुआ था और एक अन्य प्रकरण में पंच निर्णय अन्य अभिभाषक पंचों के साथ पंच नियुक्त हुआ था अत: रुपयों की व्यवस्था हो गई। हमने श्री मोदी से हाँ कर दी और तय हुआ कि जाते में आते मैं हम श्री सम्मेदशिखर जी की यात्रा वन्दना हेतु पाश्र्वनाथ स्टेशन जावेंगे। सायंकाल हम घर आये और पत्नी से कहा कि हम कलकत्ता जावेंगे और रास्ते में शिखर जी की यात्रा करेंगे। पत्नी का मन कुछ फीका कि तुम अकेले जाओगे, हमें भी साथ ले चलो। हमने कहा कि रुपयों की व्यवस्था तो है परन्तु परिवार के साथ जाने में कुछ कमी पड़ेगी। विचार-विर्मश हुआ और एक किरायेदार ने रुपयों की व्यवस्था कर दी। हम, हमारी पत्नी कपूरी देवी, हमारी दो लड़कियाँ प्रीति एवं मंजू तथा हमारे बड़े साले साहब श्री हेमराज जी यात्रा को रवाना हुए। गाड़ी का डिब्बा रिजर्व था। अत: टिकट लिया, बैठ गये। उस डिब्बे में हमारे ग्वालियर के और भी कांगे्रसी अभिभावक और मोदी जी भी थे। हम पार्श्र्वनाथ स्टेशन उतर पड़े। शिखरजी की वंदना की और उस समय सीधी ग्वालियर के लिए कोई ट्रेन न होने के कारण हम गया जी आ गये। जैन धर्मशाला में रुके। जैन मंदिर के दर्शन करने के बाद बोधगया भी गये फिर ग्वालियर के लिए चलने को हुए तो धर्मशाला का मैनेजर बोला-‘वकील साहब! आप इतनी दूर आये हो, नजदीक में राजगृही है जिसे पंच पहाड़ी कहते हैं, वहाँ के दर्शन नहीं करोगे?’ उस समय तक हमको तीर्थों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी अत: उत्सुकतावश बस द्वारा राजगृही गये। वहाँ दर्शन वंदना करने के बाद पुन: घर वापिस आने को थे कि धर्मशाला का मैनेजर बोला-‘वकील साहब! भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर और निर्वाणभूमि पावापुर के दर्शन नहीं करेंगे? जिज्ञासा हुई और पूछा-जाने की क्या व्यवस्था है?’’ मैनेजर बोला-‘‘यहाँ से जीपें जाती हैं और नालंदा विश्वविद्यालय जिसके खुदाई में अंश निकले हैं, फिर कुण्डलपुर एवं पावापुरी के दर्शन कराकर शाम को यहीं आ जाएगी।’ अत: जीप की रु. ४५ उस समय तय हुए। जीप की और हम रवाना हुए। नालंदा विश्वविद्यालय की तीन मंजिल खुदाई में निकली थी और काम चल रहा था, उसे देखा। कुण्डलपुर पहुँचे। गाँव में भीतर घुसे और एक जगह पहुँचे वहाँ एक जिनालय छोटा सा और उसके आगे चरण बने थे। वहाँ से पावापुरी में जाकर दर्शन किये और सायंकाल तक वापस राजगृही आ गये। दूसरे दिन पटना स्टेशन से बनारस होते हुए आगरा गये और आगरा से ग्वालियर आये। इतनी भूमिका लिखने का आशय केवल इतना ही है कि सन् १९६३-६४ तक नालंदा विश्वविद्यालय के निकट कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मस्थली समस्त जैन जगत में मान्यता प्राप्त थी और आज भी है और आगे भी रहेगी। अब आगे चलते हैं। नालंदा और गुप्त वंश-ऋषभदेव के बड़े पुत्र भरत इस अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् थे और इन्हीं के नाम से देश का भारतवर्ष नाम पड़ा। भरत चक्रवर्ती के अर्वâकीर्ति नामक पुत्र हुआ जिसने सूर्यवंश की स्थापना की। इस परम्परा में राजा सगर चक्रवर्ती हुए और सगर चक्रवर्ती की परम्परा में अयोध्या के राजा रघु व अज हुए। अज के पुत्र दशरथ तथा दशरथ के राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चार पुत्र हुए। इसी परम्परा में ऐतिहासिक गुप्तवंश का प्रथम राजा श्रीगुप्त था जिसने नाग-वकाटकों द्वारा मगध से शक शासन का उच्छेद कर दिए जाने के समय नालंदा से ४० योजन पूर्व की ओर एक छोटा सा राज्य स्थापित कर लिया था। उसका उत्तराधिकारी घटोत्कचगुप्त था जिसने महाराजा की उपाधि धारण की। इसका पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम था और उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। गुप्तवंश का वही प्रथम सम्राट था और सन् ३१९-२० में इसके राज्याभिषेक से ही गुप्त संवत् की प्रवृत्ति हुई मानी जाती है। इसने सन् ३१५-३२८ तक राज्य किया। समुद्रगुप्त (३२८-३७८ ई.) एक पराक्रमी, विजेता, चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी एवं सम्राट् था। इसने अनेक छोटे-बड़े राजाओं को परास्त किया। मालव, अजुनायन, योधेय, माद्रक, आमीर आदि गणराज्यों से आधीनता स्वीकार कराई। सम्पूर्ण भारत में अपनी विजयपताका फहराई। नवीन सिक्के चलाये। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (३७९-४१४ ई.) अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठा। उसने भारतवर्ष से शकों का उच्छेद किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की तथा उज्जैनी को राजधानी बनाया। चीनी यात्री फाह्यान (३९९-४१४ ई.) ने इसी के समय में भारत यात्रा की। वह साहित्य रसिक और गुणीजनों का आश्रयदाता था। कालिदास आदि उसकी सभा के नवरत्न थे। साम्राज्य में सुखशांति और समृद्धि थी। ज्ञान-विज्ञान और कला की अभूतपूर्व उन्नति ने इस युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग बना दिया। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (४१४-४५५ ई.) गद्दी पर बैठा। गुप्तवंश की शक्ति इस समय चरम सीमा पर थी। इसके काल में नालंदा विश्वविद्यालय का उदय हुआ। इन महान उपलब्धियों की प्रसिद्धि के कारण ही कुण्डलपुर की पहचान नालंदा के निकट कुण्डलपुर से हुई। परिणामत: आज से १५००-१६०० वर्ष पूर्व से तो कुण्डलपुर की प्रसिद्धि नालंदा के निकट रही है। इससे पूर्व न जाने कितने वर्षों से यही कुण्डलपुर की मान्यता चली आ रही है और हमारा पूर्ण विश्वास है कि भगवान महावीर का जन्म इसी कुण्डलपुर में ही हुआ है। इसके पश्चात् आज तक यही मान्यता चली आ रही है जिसे कि वैशाली के समर्थक भी मानते हैें कि सन् १९४५ से पहले तक नालंदा के नजदीक वाले कुण्डलपुर को ही जैन समाज की मान्यता थी। हम जून १९५३ की अनेकांत पढ़ रहे थे। उसके पृष्ठ २३ पर डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल (जयपुर) का एक लेख पढ़ रहे थे। इसमें १४वीं शताब्दी की एक रचना मिली। रचना का नाम ‘चउवीसी’ है। इसमें जैनों के वर्तमान २४ तीर्थंकरों का अति संक्षिप्त परिचय दिया है। इसके रचयिता ‘वेल्ह’ कवि है। स्वयं कवि ने अपना परिचय दिया है। वे परवार जाति में पैदा हुए थे। उनके धर्मशाह, पैतूसाह और उदैसाह तीन भाई थे। वे टिहड़ा नगरी के रहने वाले थे। कवि ने रचना को संवत् १३७१ वैशाख सुदी ३ गुरुवार रोहिणी नक्षत्र एवं ब्रह्मयोग में समाप्त की थी। कवि ने महावीर का परिचय निम्न प्रकार दिया है-
कविवर वृन्दावन ने चौबीसी पूजन लिखी है। कविवर वृन्दावन का शाहाबाद जिले के बनारस व आरा के मध्य बारा नाम के ग्राम में वि. १८४२ में जन्म हुआ। ये अग्रवाल वंश के गोयल गोत्रीय थे। पीछे वि. सं. १८६० में बारा छोड़कर काशी रहने लगे। भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। कविवर ने वर्धमान पूजन में लिखा है-
जनम चैतसित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना।
सुरगिर सुरुगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भव हरना।।
नाथ मोहि राखो हो सरना।।
हरिवंश पुराण संस्कृत ग्रंथ की हिन्दी भाषा-पं. दौलराम जी जयपुर (विक्रम की १९वीं सदी) प्रकाशक गृहविरति ब्रह्मचारी श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ महामंत्री श्री शांतिसागर जैन सिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, श्री महावीर जी, प्रकाशन वर्ष मार्च १९६३-प्रथम अधिकार पृष्ठ १६ से। ‘जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र विषै बड़ी विभूतियों से भरा विदेहनामा देश है सो देश लक्ष्मीकर स्वर्ग के समान है…………उस देश विषै कुण्डलपुर नामा नगर मानो सुख का सागर है…………..यहाँ अंतिम तीर्थंकर ऊर्धलोक से चयकर माता के गर्भ में आए। उस नगर विषै राजा सिद्धार्थ होता भया। उस राजा के प्रियकारिणी नामा पटराणी जिसका दूजा नाम त्रिशला। चैत्र सुदी तेरस उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र विषे जन्मे।’ पुरानी जिनवाणी में बीसवीं शताब्दि के कवियों ने अनेकों भजन लिखे हैं जिनमें भगवान के जन्मोत्सव पर ‘कुण्डलपुर में बधाई’ की अनेकों रचनाएं हैं। हजारों वर्षों की आस्था भक्ति एक झटके में मीटिंग बुलाई जाकर ‘माता ज्ञानमती’ के प्रति भत्र्सना का पास करके मिटाई जा सकेगी? अरे! इससे तो विश्वास में दृढ़ता आएगी क्योंकि प्रस्ताव पास करने वालों का ज्ञान कोष खाली हुआ जान पड़ता है। पौराणिक संदर्भ-जिनेन्द्र वर्णी-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष-भाग-१ क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी-प्रकाशक-भारतीय ज्ञान पब्लिकेशन पंचम संस्करण-१९९७ पृ. ३७९ प्रमाण नाम वर्तमान भव की जन्मस्थली विशेष नाम महावीर कुण्डलपुर कुण्डलपुर पद्मपुराण (ई. ६७७) आचार्य रविसेन का भाषा रूपान्तर हिन्दी भाषाकर पं. दौलतराम जी (वि. सं. की १९वीं सदी) ‘पद्मपुराण’-प्रकाशक सस्ती ग्रंथमाला कमेटी, प्रकाशन वर्ष-६ फरवरी १९७४ तृतीय बार-विंशान्ति पर्व, पृ. २३५-२३८। ‘‘कुण्डलपुर नगर, सिद्धार्थ पिता, प्रियकारिणी माता। उत्तरा फाल्गुन नक्षत्र, शाल वृक्ष, पावापुर, महावीर तुझे मंगल करहु, आप समान करहु २४’’ ‘पद्म पुराण’ का संक्षिप्त रूपान्तर-सिंघई परमानन्द मास्टर सागर-नवम परिच्छेद पृ. ८४-९० वर्धमान महावीर, पृ. ९०। ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ के मोक्ष जाने के अढ़ाई सौ वर्ष बीतने पर श्री वर्धमान तीर्थंकर ने कुण्डलपुर (बिहार) में पिता सिद्धार्थ के गृह माता प्रियकारिणी (त्रिशला) से जन्म लिया।’’ ग्वालियर में महात्मा गांधी जी की प्रतिमा है। इस पर पूâल मालाएं पहनाई जाती हैं। दो अक्टूबर को प्रार्थना करते हैं। सत्याग्रह के लिए उल्लास भी करते हैं। क्या महात्मा गांधी की जन्मभूमि ग्वालियर मान लिया जावे? हम जो कहना चाहते हैं- यह विवाद भगवान महावीर के छब्बीस सौंवे जन्मदिवस पर क्यों? छोटी कक्षाओं में महावीर को जैनधर्म का संस्थापक पढ़ाया जा रहा है, कोई विरोध नहीं? हायर सैकेन्ड्री की पुस्तकों में २३ तीर्थंकर काल्पनिक बताये जाते हैं, कोई विरोध नहीं? तीर्थक्षेत्र गिरनार का अस्तित्व नष्ट किया जा रहा है, कोई विरोध नहीं? कोई भत्र्सना प्रस्ताव नहीं-क्यों? अगर किसी को वैशाली के कुण्डग्राम को जन्मस्थान मानना है तो माने, कौन रोक रहा है परन्तु दूसरों की भावना को ठेस पहुँचाने का आपको कोई अधिकार नहीं। अर्थात् हम तो आगम के आलोक में कुण्डलपुर (नालंदा) को ही भगवान महावीर की जन्मभूमि मानते हैं क्योंकि वही जन्मभूमि थी है, और सदा रहेगी।