उस समय सारा नगर देव-देवियों से भर गया था। तत्पश्चात् इन्द्र ने थोड़े से देवों को साथ लेकर राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ अत्यन्त रमणीक महल के आँगन में रत्नों के सिंहासन पर शिशु-भगवान को विराजमान किया। अपने बन्धु-बान्धवों के साथ महाराज सिद्धार्थ अनुपम गुण-कांतियुक्त पुत्र को देखने लगे।
इन्द्राणी ने जाकर मायामयी निद्रा में लीन महारानी को जगाया। उन्होंने बड़े प्रेम से आभूषणों से युक्त अपूर्व कान्तिवाले पुत्र को देखा। इन्द्राणी सहित इन्द्र को देखकर जगत्-पिता की माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझ लिया कि आज हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया। इसके पश्चात् ही सब देवों ने मिल कर माता-पिता को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उनकी विधिवत् पूजा की। इन्द्र ने बड़ी श्रद्धा के साथ माता-पिता की स्तुति की। उसने कहा‘आप दोनों संसार में धन्य हो, आप श्रेष्ठ पुण्यवान एवं चराचर में प्रधान हो।’
आप विश्व के सम्मान एवं विश्व के माता-पिता हो। तीनों लोक के पिता को उत्पन्न करने के कारण आज आपकी मान्यता सारे संसार में है। आपकी कीर्ति अक्षुण्ण है, क्योंकि भविष्य में सबका उपकार एवं कल्याण होने में आप दोनों सहभागी हो। आज से आपका यह गृह चैत्यालय मंदिर के सदृश हो गया है एवं गुरु (तीर्थंकर) के सम्बन्ध से आप हमारे पूज्य एवं मान्य हो’। इस प्रकार इन्द्र ने माता-पिता की स्तुति कर एवं भगवान को उन्हें सौंप कर सुमेरु पर्वत पर अभिषेक महोत्सव का पूर्ण विवरण सुनाया। वे दोनों ही जन्माभिषेक का विवरण सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनके आनन्द की सीमा न रही।इन्द्र की सम्मति से उन दोनों (माता-पिता) ने बन्धुवर्ग के साथ भगवान का जन्मोत्सव सम्पन्न किया। सर्वप्रथम श्री जिन-मन्दिर में भगवान की अष्ट द्रव्यों से पूजा की गई। इसके पश्चात् ही बन्धुओं एवं दास-दासियों को अनेक प्रकार के दान दिये गये। बन्दी1 एवं दीन अनाथों को भी उनकी योग्यता के अनुसार दान देकर उन्हें संतुष्ट किया गया। नगर को तोरण एवं मालाओं से खूब सजाया गया। वाद्य एवं शंख की गम्भीर ध्वनि होने लगी। ऐसे ही नृत्य-गीतादि सैकड़ों उत्सवों से वह नगर स्वर्ग जैसा प्रतीत होने लगा।
इस उत्सव से नगर की प्रजा एवं कुटुम्बीजनों को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। पुरवासी एवं नगर-निवासी जनों को प्रसन्नता प्रगट करते देख कर देवेन्द्र ने भी स्वयं प्रसन्नता प्रकट की। उस समय इन्द्र ने प्रभु की सेवा के लिए देवियों के साथ त्रिवर्ग साधक फल का प्रदायक दिव्य नृत्य-नाटक मंचस्थ किया। इन्द्र का नृत्य आरम्भ होने पर गन्धर्व देवों ने वाद्य एवं गान आरम्भ किये। राजा सिद्धार्थ नवजात पुत्र को गोद में लेकर बैठे। आरम्भ में इन्द्र ने जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्य दिखलाया पुनः जिनेन्द्र के पूर्व जन्म के अवतारों को नाटक की तरह दिखलाता हुआ एवं नृत्य करता हुआ इन्द्र कल्पवृक्ष-सा प्रतीत हो रहा था। रंगभूमि के चारों ओर नृत्य करता हुआ वह इन्द्र विमान की भांति शोभायमान हुआ।
इधर इन्द्र का तांडव नृत्य चल रहा था एवं उधर देवगण भक्तिवश इन्द्र पर पुष्प-वृष्टि कर रहे थे। नृत्य के साथ अनेकों सुमधुर वाद्य बजने आरम्भ हुए। किन्नरी देवियाँ भगवान का गुणगान करने लगीं। इन्द्र अनेक रसों से मण्डित ताण्डव नृत्य कर रहा था। हजारों भुजाओं वाले इन्द्र के नृत्य से पृथ्वी चंचल हो उठी। इन्द्र कभी एक रूप एवं कभी अनेक रूप, कभी स्थूल एवं कभी सूक्ष्म रूप धारण कर लेता था। क्षणभर में समीप, क्षण भर में दूर एवं क्षणभर में ही आकाश में पहुँच जाता था। इस प्रकार वह नृत्य-नाट्य बड़ा ही मनोरंजक एवं प्रभावोत्पादक हुआ। साथ-साथ देवांगनाओं के नृत्य भी बड़े आकर्षक हुए। वे बड़ी लय के साथ गातीं एवं हाव-भाव के साथ नृत्य करती थीं। उनमें से कई तो ऐरावत गजराज के ऊपर विराजमान इन्द्र की भुजाओं में से निकलती हुई एवं पुनः प्रवेश करती हुई कल्पबेलि के समान प्रतीत होती थीं। अनेक अप्सरायें इन्द्र की हस्तांगुलि पर अपनी नाभिरख कर नृत्य करने लगीं। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर नृत्य करती हुई अनेक अप्सरायें सबको प्रसन्न करने लगीं।
अप्सरायें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का नृत्य करती थीं। इस प्रकार नृत्य में सम्मिलित इन्द्र चतुर ऐन्द्रजालिक (पक्का जादूगर) मालूम होता था। इन्द्र की सारी कलायें उन नर्तकी देवियों में बँट गयीं। विक्रिया ऋद्धि से नृत्य करता हुआ इन्द्र भगवान के माता-पिता आदि सभी दर्शकों को मंत्र-मुग्ध करने लगा।
तत्पश्चात् श्री जिनेन्द्र देव की सेवा के लिए अनेक देवियों को तथा असुर कुमार देवों को वहाँ रखकर इन्द्र शेष देवों के साथ बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग में चला गया। इस प्रकार पुण्य के फलस्वरूप तीर्थंकर स्वामी सम्पूर्ण सम्पदाओं से पूर्ण हुए। अतएव भव्यजनों को चाहिये कि वे सर्वदा धर्म का पालन करते रहें।