यह युग नई-नई खोजों का है। प्रतिवर्ष देश में कुछ नए अतिशय क्षेत्र खोज लिए जाते हैं। वैसे भी अतिशय क्षेत्रों की किसी सीमा का उल्लेख आगम में नहीं मिलता। वे असंख्य हो सकते हैं और गाव-गांव में हो सकते हैं। खोज अतिशय क्षेत्रों तक ही सीमित रहे तो भी गनीमत है, किन्तु क्या किसी एक ही महापुरुष के कल्याणक क्षेत्र या सिद्धक्षेत्र भी एक से अधिक हो सकते हैं, यह विचारणीय है। दुख है कि आज हमारे कुछ समर्थ महानुभावों ने अपने बुद्धि कौशल से यह कमाल भी कर दिखाया है। हमारे जैन भाई यह नहीं समझ पा रहे हैं कि महावीर का जन्म कहां हुआ था- कुण्डलपुर (नालंदा) में अथवा वासुकुण्ड या कुण्डग्राम (वैशाली) में? वह मोक्ष कहां से गए थे-पावापुरी (नालंदा) या सठियाव गांव (गोरखपुर) से? क्या एक ही व्यक्ति दो स्थानों पर एक साथ जन्म ले सकता है या दो स्थानों से एक साथ प्रयाण कर सकता है? जब अपने अंतिम तीर्थंकर के बारे में यह भ्रांति है, तब उनसे पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के बारे में तो न जाने ऐसी कितनी नई-नई बातें गढ़ी जा सकती हैें और गढ़ी भी जा चुकी हैं। हम किसी निर्दोष व्यक्तित्व का निर्माण तो नहीं कर पा रहे हैं, किन्तु नई-नई पवित्र भूमियों को खोज निकालने में जरूर माहिर हैं। इंसानियत का ढांचा तैयार करने की अपेक्षा किसी भूमि या भूमिखण्ड का नक्शा बदलना आज हमारे लिए ज्यादा आसान हो गया है।
बात सन् १९९३ की है हम
बात सन् १९९३ की है हम लोग बंगलौर जा रहे थे। हमें श्रवणबेलगोल के महामस्तकाभिषेक महोत्सव में सम्मिलित होना था। कर्नाटक एक्सप्रेस गुंटकल स्टेशन से आगे बढ़ी तो एक स्टेशन आया अनन्तपुर और उससे आगे पड़ा एक दूसरा स्टेशन धर्मपुरम्। इंदौर के एक जैन सहयात्री ने हमसे कहा कि इधर के स्टेशनों के नाम बड़े प्यारे हैं। हम बोले-क्यों नहीं होंगे? इनका संबंध हमारे चौदहवें और पन्द्रहवें तीर्थंकर भगवन्तों से जो है। जरूर यहाँ कभी न कभी उनका प्रवास या विहार हुआ होगा। लोग हमारा मुंह देखने लगे। कुछ ने तो रेल की खिड़की से अपने सिर और हाथ निकालकर इन स्टेशनों को प्रणाम भी किया। कितने भले और भोले हैं हमारे ये जैन भाई। विनोद में कही गई पंडित की बात पर कितना भरोसा करते हैं। आज जैनियों के इसी भोलेपन का लाभ थोड़े से बौद्धिक व्यायाम से कुछ समर्थ लोग उठाने में सफल हो रहे हैं। महावीर की जन्मभूमि की नई खोज में तो कोई नाम साम्य भी नहीं है। भाषा विज्ञान के किस नियम से बसाढ़ को वैशाली अथवा वासुकुण्ड या कुण्डग्राम में बदला जा सकता है? क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए था। इस नई खोज के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर बहस का आयोजन किए बिना ही चंद लोगोें द्वारा फतवा जारी करना कथमपि उचित नहीं था। अंग्रेजी व्याकरण का एक नियम है कि किसी प्रसिद्ध व्यक्ति या स्थान के नाम में प्रायः बदलाव नहीं होता। जो जिस नाम से प्रसिद्ध होता है, उसे उसी नाम से पुकारा जाता है। न तो उसके लिए पर्यायवाची शब्द का प्रयोग होता है और न उसका अनुवाद ही किया जा सकता है। यदि किसी गांव का नाम मक्खनपुर है तो उसे मक्खनग्राम कहना या नवनीतपुर कहना त्रुटिपूर्ण तो है ही, भ्रमोत्पादक भी है। अंग्रेजी में उसे बटर विलेज ) कहना भी हास्यास्पद होगा। अंग्रेजों ने लंका का नाम बदलकर ‘सीलोन’ रख दिया था, पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वहां के शासकों ने पुन: उसके मूल नाम को पहले से भी अधिक आदरसूचक बनाकर ‘श्रीलंका’ कर दिया। यह तो हम ही लोग इतने लचीले हैं कि हमारे संविधान में भारत आज भी इंडिया के रूप में दर्ज है और हमें आज तक इस पर कोेई आपत्ति नहीं है। बसाढ़ को वैशाली और पुर को ग्राम कहना भी व्याकरणसम्मत नहीं है। सभी जैनग्रंथों में भगवान की जन्मभूमि को कुण्डलपुर या कुण्डपुर के नाम से ही उल्लेखित किया गया है। किसी एक भी आचार्य ने पुर के स्थान पर ग्राम का प्रयोग नहीं किया। भारत में अनेक जैन तीर्थ ऐसे हैं, जिन्हें दिगम्बर और श्वेतांबर दोनों ही मानते और पूजते हैं तथा कुछ तीर्थों के बारे में दोनों में मतभिन्नता भी है। महावीर का जन्म कुण्डपुर या कुण्डलपुर में हुआ था, इस विषय में दोनों ही सम्प्रदाय एकमत हैं, किन्तु यह नगर कहाँ पर अवस्थित है, उसको लेकर दोनों में मतभेद हैं। वैशाली को वीर-जन्मभूमि के रूप में मान्यता प्रदान करने के लिए तो अधिकांश श्वेतांबर भाई भी तैयार नहीं हैं। यह तो हमारे चंद नेताओं का उतावलापन ही था, जो उन्होंने कुछ पाश्चात्य और कुछ जैनेतर विद्वानों की खोज पर आनन-फानन में अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
वैशाली को जन्मभूमि मानना
वैशाली को जन्मभूमि मानना आगमसम्मत तो है ही नहीं, युक्तिसंगत भी नहीं है। आज से ५४ वर्ष पूर्व तक तो वैशाली का नाम पुराणों में पढ़ने को अवश्य मिलता था, किन्तु धरती पर उसका कहीं अस्तित्व ही नहीं था। १४वीं सदी के यति मदनकीर्ति ने अपनी कृति ‘शासन चतुश्त्रिंशतिका’ में अनेक तीर्थों का वर्णन किया है, किन्तु वैशाली कुण्डग्राम का कोई उल्लेख नहीं किया। दूर की बात छोड़िए, गत बीसवीं सदी के प्रथम दशक में प्रकाशित ‘प्रसिद्ध जैनतीर्थ स्थलों का वृत्तान्त’ नामक पुस्तक में भी वैशाली का नाम नहीं है।सन् १९६१ में प्रकाशित दिल्ली जैन डायरेक्टरी में पृ. २२५ से २५६ तक भारत के प्रमुख जैन तीर्थों का विवरण संकलित किया गया है। उसमें नालंदा और कुण्डलपुर का उल्लेख तो है, परन्तु वैशाली का नहीं। उसमें लिखा है कि नालंदा का पाश्र्ववर्ती यह कुण्डलपुर नगर कई बार बना और कई बार नष्ट हुआ। यहां हुए आक्र्योलॉजीकल सर्वे ( के फलस्वरूप यहाँ अनेक बौद्ध और जैन मंदिरों के अवशेष और मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। एक नगर बड़गांव का भी उल्लेख है, जहां कभी महावीर के समवसरण के आने की बात कही जाती है। यह गांव आज भी यहां है। बताया जाता है कि विशाल अट्टालिकाओं से सुशोभित यह वैशाली नगर पाँचवीं या छठीं शताब्दी में पूर्णतया नष्ट हो चुका था। आजादी के पूर्व की किसी भी पुस्तक में वैशाली को भगवान की जन्मभूमि नहीं बताया गया है। सदियों से नालंदा के निकट स्थित कुण्डलपुर को ही यह गौरव प्राप्त होता रहा है। इसकी पुष्टि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘‘भारत के दिगम्बर जैनतीर्थ’’ पुस्तकमाला के बिहार, बंगाल, उड़ीसा से संबंधित द्वितीय भाग से होती है।यहां शताधिक वर्षों से चैत्र सुदी १२ से १४ तक भगवान महावीर का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाने के लिए भारतवर्षीय िंदगबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की ओर से एक मेला भी आयोजित किया जाता रहा है। बाद में सन् १९५१ में स्व. श्रीमान् साहू शांतिप्रसाद जी द्वारा अचानक वैशाली को जन्मभूमि के रूप में मान्यता दिये जाने के बाद जानबूझकर कुण्डलपुर की उपेक्षा करने का एक सोचा-समझा सिलसिला शुरू हुआ, जो चिन्तनीय है। इस अविचारित खोज के बाद भी ग्रंथमाला के विद्वान् सम्पादक स्व. पं. बलभद्र जी द्वारा यह लिखा जाना बहुत महत्वपूर्ण है ‘शताब्दियों से जिस कुण्डलपुर की एक जैनतीर्थ के रूप में मान्यता रही है, उसको भविष्य में भी तीर्थ माना जाता रहेगा।’ तीर्थक्षेत्र कमेटी में अचानक यह बदलाव केन्द्र सरकार से आर्थिक अनुदान पाने के लालच में आया अथवा अपनी एक नई खोज से मिलने वाली नामवारी की लालसा ने उन्हें उसके लिए प्रेरित किया, अब इस पर भी खोज की आवश्यकता है। पुराने तीर्थों की उपेक्षा और नए तीर्थों के निर्माण के प्रति जागा मोह हमारी परम्परा बन गया है। स्व. पं. नाथूराम प्रेमी ने ठीक ही लिखा था-‘प्राचीनता की रक्षा करने में जैन समाज उतना ही असावधान रहा है, जितना नवीन निर्माण करने में कटिबद्ध।’ जहां जैनत्व का कोई चिन्ह तक कभी नहीं पाया गया, वहां भी नए-नए तीर्थ बनते हुए देखने से उनकी यह बात प्रमाणित भी हो रही है।
कुण्डलपुर के जैन मंदिर
कुण्डलपुर के जैन मंदिर और मूर्तियोंं के दर्शन हमने सर्वप्रथम सन् १९४४ में या ४५ में अपने पूज्य पिताजी के साथ किये थे। तब हमारी उम्र लगभग १२ वर्ष की रही होगी। उसके बाद भी दो-तीन बार हमारा वहां जाना हुआ है। तभी से निरंतर भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में हम उसका परिचय प्राप्त करते रहे हैं। अ.भा.दि.जैन परिषद पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘जैन तीर्थ दर्शन’ का सन् १९९८ का नया संस्करण हमारे पास है। उसमें लिखा है-‘कुण्डलपुर नालंदा को ही भगवान महावीर की जन्मभूमि माना जाता रहा है, किन्तु अब यह श्रेय वैशाली के कुण्डग्राम को प्राप्त हो गया है।’ यह श्रेय वैशाली के कुण्डग्राम को प्राप्त हो गया है’ के स्थान पर ‘यह श्रेय चंद लोगों ने उसे दे दिया है’, यह लिखना ज्यादा उचित होता। कुण्डलपुर को जन्मभूमि मानने की अपनी पुरानी धारणा को बट्टे खाते में डालने के पीछे क्या कारण थे क्या तीर्थक्षेत्र कमेटी को पूरे समाज को यह नहीं बताना चाहिए था? खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। कमेटी को अपनी इस नई खोज का यथाशीघ्र पुनर्मूल्याकंन करते हुए ‘जब जागे,तभी सबेरा’ की कहावत को चरितार्थ करना चाहिए? इतिहास को बदलने की चेष्टा एक बड़ी भूल है। यह निर्विवाद है कि महावीर का जन्म वैशाली में नहीं हुआ था। उनकी माता प्रियकारिणी अवश्य विशाला नगरी वैशाली के महाराज चेटक के यहां जन्मी थीं। इस तरह वैशाली महावीर की ननिहाल थी। उन्हें वैशाली का राजकुमार कहना या लिखना असंगत ही नहीं, अक्षम्य भी हेै। महाराजा चेटक के दस पुत्र थे। योग्य पुत्रों के रहते हुए धेवते (पुत्री के पुत्र) को राजकुमार कहने की प्रथा तो कहीं भी देखने में नहीं आती। महावीर जैसा प्रतापी पुत्र ‘उत्तमा आत्मनाख्याताः’ की श्रेणी में गणनीय रहा है, उन्हें ‘मातुलात् ख्याताः’ की अधम श्रेणी में रखने की भूल का हमेंं तुरंत परिष्कार करना चाहिए। सभी पुराणों में लिखा है कि कुण्डलपुर एक स्वतंत्र और प्रभावशाली राज्य था। उसके वैभव का प्रचुर वर्णन भी जैनशास्त्रों में पाया जाता है। उसके अधिपति महाराजा सिद्धार्थ भी एक शक्तिशाली, प्रतापी और स्वतंत्र राजा थे। कुण्डलपुर को वैशाली के एक सन्निवेश के रूप में स्वीकार करने से तो उसके स्वतंत्र राज्य होने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जायेगा तथा लोगों को लगेगा कि महाराजा सिद्धार्थ अवश्य ही कोई साधारण राजा थे और उनका अपना कोई आभामंडल भी नहीं था। वैशाली के राजा के कारण ही उनका मान-सम्मान था। हमें तो स्वप्न में भी ऐसा सोचना इष्ट नहीं है। पौराणिक वर्णन भी हमें इसकी अनुमति नहीं देते।
श्वेतांबर ग्रंथ ‘सूत्रकृतांग’
श्वेतांबर ग्रंथ ‘सूत्रकृतांग आदि में महावीर को वैशालिक कहा गया है। इसका यह अर्थ निकालना ठीक नहीं होगा कि वह वैशाली के निवासी थे। श्वेतांबर अंग-साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शीलांक ने महावीर को वैशालिक कहे जाने के पीछे जो तर्क दिये हैं, वे विचारणीय हैं। वह लिखते हैं- विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा। विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः।। अर्थात्-१. जिनकी मां विशाला नगरी की थी २. जिनका कुल विशाल था तथा ३. जिनके वचन भी विशाल थे, वह कहलाते थे वैशालिक जिन। वाह रे बुद्धि-प्रवण दिगम्बरों! तुमने तो उन्हें वैशाली का निवासी ही बना दिया। वैशाली का राजकुमार कहकर उनके मामाओं के अधिकार पर भी पानी फैर दिया। क्या महावीर जैेसे उदात्त पुरुष से भी ऐसी अनधिकृत चेष्टा की उम्मीद या कल्पना की जा सकती है? नहीं, कभी नहीं। वह वैशाली के नहीं थे, इसे स्वीकार करना ही इस ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित होगा। महावीर की जन्मभूमि के संदर्भ में यदि बौद्ध ग्रंथों या श्वेताम्बर साहित्य के आधार पर निर्णय लिया जायेगा तो फिर अनेक कई उलझनें उत्पन्न होंगी। अनेक आगमविरुद्ध प्रसंगों को मानने की विवशता भी हमारे सामने उपस्थित हो सकती है। उनके अनुसार माता त्रिशला महाराजा चेटक की बहन थी, जबकि हमारे अनुसार वह उनकी पुत्री थीं। हमारी मान्यता है कि महावीर अपने पिता सिद्धार्थ के अकेले पुत्र थे, जबकि उनके अनुसार उनका एक भाई नंदीवर्धन भी था। श्वेतांबर यशोदा से उनका विवाह होना मानते हैं और कहते हैं कि उनकी एक पुत्री भी थी,किन्तु हम इसे सिरे से नकारते हैं। श्वेताम्बर ग्रंथों में लिखा है कि बसाढ़ के निकट दो कुण्डग्राम थे-एक ब्राह्मण कुण्डग्राम और दूसरा क्षत्रिय कुण्डग्राम। उनके अनुसार महावीर का जीव स्वर्ग से प्रथम ब्राह्मण कुण्डग्राम के ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा की कोख में आया और बाद में बयासी रात्रियों के बाद एक देव द्वारा उन्हें क्षत्रिय कुण्ड के महाराजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला की कोख में स्थापित किया गया। क्या गर्भापहरण की इस बेतुकी बात का भी हम समर्थन करेंगे? हमारे युगपुरुष महापुरुष के वास्तविक पिता कौन थे, इस प्रश्न का क्या उत्तर हमारे पास होगा? कोई निर्णय करने से पहले इन सब बातों पर भी विचार करना चाहिए था।
महावीर की जन्मभूमि
महावीर की जन्मभूमि का निर्णय दिगंबर जैन शास्त्रों के अनुसार ही हो सकता है और होना भी चाहिए। सभी दिगम्बर शास्त्र और पुराण उनकी जन्मभूमि कुण्डपुर या कुण्डलपुर को ही मानते हैं। कहीं कोई विवाद नहीं है। विवाद तो नए अनुसंधानकर्ताओं ने अपनी-अपनी बौद्धिक अटकलों से उत्पन्न कर दिया है। जहां तक दो कुण्डग्रामों की बात है, भगवती सूत्र का यह उल्लेख महत्वपूर्ण है-‘‘तीसेणं णालिंदा वाहिरियाए अदूरसामंते एत्थणं कोल्लाए णामं सण्णिवेसे होत्था। सण्णिवेस बज्जओ। तत्थणं कोल्लाए सण्णिवेसे बहुलेणाम माहणे परिवयई।’ इस कथन से स्पष्ट है कि वैशाली और नालंदा दोनों ही स्थानों के समीप कोल्लाग सन्निवेश और दो-दो कुण्डग्राम थे। इस उल्लेख के आधार पर कुण्डलपुर (नालंदा) को जन्मभूमि मानने में कोर्ई अड़चन शेष ही नहीं रहती। वैशाली को महावीर की जन्मभूमि तो माना ही नहीं जा सकता। यह धारणा सर्वथा अस्वीकार्य एवं निर्मूल है।श्री पी.सी. राय चौधरी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है-‘दिगम्बर सम्प्रदाय वालों ने नालंदा से दो मील दूर कुण्डलपुर नामक स्थान को महावीर की जन्मभूमि माना है। श्री राधाकृष्ण चौधरी और श्री नरेशचंद मिश्र भी वैशाली को जन्मभूमि मानने को तैयार नहीं है। ये विद्वान् इस संदर्भ में पुनर्मूल्याकंन किये जाने पर जोर देते हैं। हर्मन जैकोबी, हार्नले और बिसेंट स्मिथ जैसे पाश्चात्य विचारकों ने प्राचीन वैशाली के कोटिग्राम से कुण्डग्राम के विकास की बात कही है,जो भाषा विज्ञान की दृष्टि से ठीक नहीं है। प्रो.रघुवीरप्रसाद सिंह ने लिखा है-कोटि शब्द से कुण्डग्राम का विकास किसी भी प्रकार संभव नहीं है।’ के.के. एम. कॉलेज, जमुई के प्रोपेसर डॉ. श्यामानंद प्रसाद ने अपनी शोधपरक पुस्तिका ‘‘महावीर का जन्मस्थान’’ मेंं लिखा है कि महात्मा बुद्ध ने कोटिग्राम में निवास करते समय दस सूत्रों का उपदेश दिया था, ऐसा उल्लेख ‘‘संयुक्त निकाय’’ में आता है। इससे स्पष्ट है कि यदि महावीर के समकालीन बुद्ध के समय में इस स्थान का नाम कोटिग्राम ही था, तो महावीर के लिए यह कुण्डग्राम नहीं हो सकता।’
एक तथ्य यह भी है
एक तथ्य यह भी है कि लगभग आधी सदी तक वैशाली को महावीर की जन्मभूमि के रूप में प्रचारित और प्रसारित किये जाने के बाद भी जैनों का उसके साथ जुड़ाव नहीं हो सका है वहाँ हर वर्ष महावीर जयंती का आयोजन भी सरकार की वैशाखी के द्वारा होता आ रहा है। जैन समाज स्वतंत्ररूप से वहां कोई आयोजन नहीं करता है। इसके विपरीत बिहार के तीर्थोंे की यात्रा करते समय सभी जैन बंधु कुण्डलपुर अवश्य जाते ही हैं। भगवान महावीर एवं उनके साथ जुड़ी विभूतियों से संबंधित अनेक तीर्थ राजगृही, पावापुरी, गुणावा आदि कुण्डलपुर के निकट ही हैं। वैशाली के आसपास ऐसे धार्मिक महत्त्व के स्थानों एवं वातावरण का नितान्त अभाव है, जो लोगों की श्रद्धा को अपनी ओर आकर्षित कर सके। यदि महावीर ३०वर्ष तक वैशाली में रहे होते तो वहां अनेक नए पुण्यक्षेत्र विकसित होने चाहिए थे। इसीलिए वैशाली आज तक उपेक्षित रही और कुण्डलपुर की तुलना में भविष्य में भी उपेक्षित रहेगी। पूज्य गणिनी प्रमुख आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी ने देर से ही सही, कुण्डलपुर के विकास की प्रेरणा देकर एक सामयिक महत्व का कदम उठाया है। पहले तो हम भी चौंके थे कि यह एक नया विवाद क्यों खड़ा किया जा रहा है, किन्तु जब हमने उनके और प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी के विचार प़ढ़े तथा इस संदर्भ में उनके साथ विचार-विमर्श हुआ तो हमें लगा कि उनका यह मिशन उपेक्षणीय नहीं है। जैनागम के कुण्डलपुर के पक्ष में यदि प्रमाण देखना हो तो पाठकों को दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर द्वारा प्रकाशित ‘‘महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर’’शीर्षक पुस्तक मंगाकर पढ़नी चाहिए। वासुकुण्ड, कुण्डग्राम, बसाढ़ जैसे शब्दों की जन्मभूमि के साथ संगति बिठाने के द्राविणी प्राणायाम का परिचय उन्हें स्वयं ही मिल जायेगा। पुनरावृत्ति से बचने के लिए हम उन्हें यहां दोहराना उचित नहीं समझते। आगम और युक्ति दोनों से ही यह तो सिद्ध होता है कि वैशाली एक इतिहास-प्रसिद्ध महानगर रहा है, किन्तु महावीर की जन्मभूमि होने का एक भी प्रमाण हमें अपने आर्षग्रंथों में नहीं मिलता। वैशाली में कुछ बनाना ही हो तो कोई शानदार स्मारक बनाएं, किन्तु उसे महावीर-जन्मभूमि के रूप में प्रचारित न करें। ‘जब जीव सोवे तब समझै सुपन सत्य, वही झूठ लागैं जब जागे नींद खोई वैं’-पं. प्रवर बनारसीदास की इन पंक्तियों के अनुसार वैशाली के संदर्भ में कुछ लोगों द्वारा देखे गये स्वप्न की असलियत अब हमारे सामने आ चुकी है। अब पुनः कोई चूक हमसे नहीं होनी चाहिए। प्रसिद्ध नाटक ‘‘गैलीलियो’’ की इन पंक्तियों के साथ हम अपनी बात समाप्त करते हैं- ‘‘जो जब तक सच्चाई नहीं जानता,तब तक केवल अज्ञानी कहलाता है, किन्तु जानने के बाद भी जो सत्य को स्वीकार नहीं करता, वह अपराधी है।’’