दिगम्बर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य । अपरनाम गृद्धपिच्छ आदि पांच । नन्दिसंघ की पट्टावली में जिनचन्द्र आचार्य के पश्चात् मुनि पद्मनन्दी हुए । परिपाटी से आए हुए सिद्धान्त को जानकर कोण्डकुन्डपुर में श्रीपद्मनन्दि मुनि के द्वारा १२००० श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम का ग्रन्थ षट्खण्डागम के आद्य तीन खण्डों की टीका के रूप में रचा गया इससे जान जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे, इसी कारण आपको कुन्दकुन्द भी कहते थे । नन्दिसंघ बलात्कारगण की गुर्वावली के अनुसार आप द्रविड़संघ के आचार्य थे । श्री जिनचन्द के शिष्य तथा श्री उमास्वामी के गुरू थे । इनके पांच नाम थे – कुन्दकुन्द, क्क्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपृच्छ व पद्मनन्दि ।
एक बार गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बराचार्यों के साथ बड़ा बाद हुआ था उस समय पाषाण निर्मित सरस्वती की मूर्ति से आपने यह कहला दिया था कि दिगम्बर धर्म प्राचीन है ऐसा आचार्य शुभचन्द्र कृत पाण्डवपुराण में वर्तित है । चारित्र के प्रभाव से आपको चारणऋद्धिर उत्पन्न हो गयी थी जिससे आप सीमन्धर स्वामी के समवसरण में विदेहक्षेत्र गये वहां से लौटते समय मयूरपिच्छिका गिर जाने से यह गीध के पिच्छ हाथ में लेकर लौटे अत: गृद्धपिच्छ ऐसा इनका नाम पड़ा । यह कलिकाल सर्वज्ञ कहलाये है ।