श्री ज्ञानमती माताजी-डुकृञ्-करणे धातु से करोमि और कुर्वे ये दोनों क्रिया उत्तम पुरुष के एक वचन में बनती हैं। जिसमें ‘करोमि’ परस्मैपदी है और ‘कुर्वे’ आत्मनेपदी है। अहं कर्ता के साथ करोमि या कुर्वे क्रिया का प्रयोग किया जाता है। इस विषय में आगम प्रमाण जो मुझे प्राप्त हुए हैं उनमें से अति प्राचीन ग्रंथ ‘आचारसार’ जो सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वीरनन्दि आचार्य द्वारा रचित है उसमें ‘करोम्यहं’ पाठ ही है। जैसे-‘‘क्रियायामस्यां व्युत्सर्गं, भत्तेरस्या: करोम्यहं।’’ इसका अर्थ यही है कि अस्यां क्रियायां अस्या: भत्ते: व्युत्सर्गं करोम्यहं अर्थात् इस क्रिया को करने में मैं इस भक्ति का कायोत्सर्ग करता हूँ। जहाँ जिस क्रिया में जो भक्ति पढ़ते हैं वहाँ उस क्रिया का नाम और भक्ति का नाम पढ़ते हैं। दूसरा प्रमाण अनगार धर्मामृत में पाक्षिक प्रतिक्रमण के पाँच श्लोकों की स्वोपज्ञ टीका में ‘करोम्यहं’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार टीकाकार ने किया है। जैसे-‘‘सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं……………..सिद्धभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं’’तीसरा प्रमाण दैवसिक और पाक्षिक प्रतिक्रमण जो कि ‘‘क्रियाकलाप’’ के आधार से सभी पुस्तकों में छपे हुए हैं उसमें पं. पन्नालाल जी सोनी ने प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोें के अनुसार ‘करोम्यहं’ पाठ ही सभी जगह दिया है। चतुर्थ प्रमाण चारित्रसार ग्रंथ के पृष्ठ १४६-१४७ पर मिलता है। जैसा कि देवतास्तवन क्रिया में लिखा है ‘‘चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्य…………..’’ ‘‘पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्य………………’’इसी प्रकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य की टीका सहित सामायिकभाष्य नामक पुस्तक जो कि सोलापुर से प्रकाशित है। उसमें बड़ी सामायिक में भी ‘करोमि’ पाठ ही आता है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में भी ‘‘करोम्यहं’’ पाठ ही है। मेरा तो कहने का तात्पर्य यही है कि सामायिक और प्रतिक्रमण की रचना करने वाले प्राचीन आचार्य निश्चित ही संस्कृत ज्ञान से परिपूर्ण थे उन्हें भी आत्मनेपदी और परस्मैपदी क्रियाओं का पूर्ण ज्ञान था उनके ग्रंथों में ‘‘करोमि’’ क्रिया मिलती है अत: ‘‘कुर्वे’’ क्रिया अपने मन से लगाने का अधिकार हम लोगों को नहीं है। यह परिवर्तन किसने किया है मुझे पता नहीं। देखो! मेरी नीति तो यह है कि कहीं कोई पाठ यदि अपने को नहीं जंचता है या शास्त्र से उसमें कुछ अशुद्धि प्रतीत होती है तो उस भिन्न पाठ को टिप्पण में देना चाहिए, उसी में परिवर्तन-परिवद्र्धन नहीं करना चाहिए। स्वरचित अपनी कृति में कोई वैâसा भी पाठ रख सकता है किन्तु दूसरे की कृति में परिवर्तन करना एक नैतिक अपराध भी है। जो लोग उपर्युक्त समस्त ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करते हैं वे तो पुराना, नया पाठ समझ ही नहीं सकते हैं। मेरा तो सभी विद्वानों से भी यही कहना रहता है कि किसी की कृति में अपने मन से कोई संशोधन न करें, ईमानदारीपूर्वक किसी भी भिन्न पाठ को टिप्पण में ही देवें, ताकि पाठक संशोधित पाठ को ही असली पाठ न समझ लेवें।