इस तृतीय काल के अंत में कुछ कम एक पल्योपम के आठवाँ भाग मात्र काल शेष रहता है तब ‘प्रतिश्रुति’ नामक प्रथम कुलकर जन्म लेता है। इसके शरीर का उत्सेध एक हजार आठ सौ धनुष, आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण और देवी स्वयंप्रभा नामक थी। उस समय समस्त भोगभूमिज लोग चंद्र और सूर्य के मण्डलों को देखकर ऐसा समझकर डर गये कि ‘‘यह कोई आकस्मिक महा भयंकर उत्पात हुआ है।’’
तब प्रतिश्रुति नामक कुलकर ने उनको निर्भय करने के लिए बताया कि कालवश अब तेजांग जाति के कल्प-वृक्षों के किरण-समूह मंद पड़ गये हैं इस कारण अब आकाश में सूर्य-चंद्र मण्डल प्रकट हुये हैं। इनकी ओर से तुम लोगों को भय का कोई कारण नहीं है। आकाश में यद्यपि इनका उदय और अस्त नित्य ही होता रहा है, किन्तु ज्योतिरंग कल्पवृक्ष की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। इस प्रकार के कुलकर के वचनों को सुनकर सभी जन निर्भय होकर उनकी पूजा स्तुति करते हैं।
इन प्रतिश्रुति कुलकर के क्रम से सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज ये १४ कुलकर उत्पन्न हुये हैं जोकि क्रम से काल के वश में होने वाली एक-एक असुविधाओं को दूर करते रहे हैं। अंतिम कुलकर श्री नाभिराय की पत्नी ‘मरुदेवी’ नाम की थी, इनकी आयु एक कोटि पूर्व प्रमाण, शरीर उत्सेध पाँच सौ धनुष एवं वर्ण स्वर्ण के सदृश था।
उस समय बालकों का नाभिनाल अत्यंत लम्बा होने लगा था इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं। इसके पहले आठवें मनु के समय माता पिता पुत्र युगल को देखने लगते थे आगे संतान जीवित रहने पर उन्हें क्रीड़ा कराना, चुप करना आदि कार्य करने लगते थे। चौदहवें मनु के समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये तब प्रजाजन श्री नाभिराज कुलकर की शरण में आये और करुणापूर्वक नाभिराज ने आजीविका के लिए वनस्पति फल आदि खाने का उपदेश दिया।
प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यंत ये चौदह मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुल में राजकुमार थे। वे सब संयम तप और ज्ञान से युक्त पात्रों के लिए दानादि देने में कुशल अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त, मार्दव आर्जव आदि गुणों से सहित होते हुये पूर्व में मिथ्यात्व सहित होने से मनुष्यायु का बंध कर लिया, पश्चात जिनेन्द्र भगवान के चरणों के समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं।
अपने योग्य श्रुत को पढ़कर इन राजकुमारों में से कितने ही आयु के क्षीण होने पर अवधिज्ञान के साथ भोग भूमि में मनुष्य होकर अवधिज्ञान से और कितने ही जातिस्मरण से भोग भूमिज मनुष्यों को जीवन के उपाय बतलाते हैं इसलिये मुनीश्वरों के द्वारा ये ‘मनु’ कहे जाते हैं।