इस वर्तमान अवसर्पिणी में यहाँ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में तृतीयकाल में जब पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया था, तब कुलकरों की उत्पत्ति शुरू हो गई थी। कुलकर चौदह होते हैं इनके नाम क्रमश: १. प्रतिश्रुति, २. सन्मति, ३. क्षेमंकर, ४. क्षेमंधर, ५. सीमंकर, ६. सीमंधर, ७. विमलवाहन,८. चक्षुष्मान, ९. यशस्वी, १०. अभिचंद्र, ११. चन्द्राभ, १२. मरुदेव,१३. प्रसेनजित और १४. नाभिराज।
हरिवंशपुराण में लिखा है कि बारहवें कुलकर मरुदेव ने एक अकेले ही प्रसेनजत् पुत्र को जन्म दिया था अत: यहाँ से युगलिया जन्म लेने की व्यवस्था समाप्त हो गई थी। यथा-
मरुदेवस्य काले च मात: पितरिति ध्वनिम्।
शुश्राव शिशुयुग्मस्य प्रथमं मिथुन कलम्।।१६५।।
एकमेवासृजत् पुत्रं, प्रसेनजितमत्र स:।
युग्मसृष्टेरिहैवोर्ध्वमितो व्यपनिनीषया।।१६६।।
प्रसेनजितमायोज्य, प्रस्वेदलव भूषितम्।
विवाहविधिना वीर:, प्रधान कुलकन्यया।।१६७।।
पूर्वकोट्यायुषं नाभिं, प्रसेनजिदजीजनत्।
नाभिच्छेद व्यवस्थाया: कर्तारं स्वर्गगामिनम्।।१६८।।
अर्थ-बारहवें कुलकर मरुदेव के समय भोगभूमियाँ स्त्री-पुरुष अपनी संतान के मुख से ‘हे मात! हे पिता! इस प्रकार से मनोहर ध्वनि सुनने लगे थे। अर्थात् मरुदेव पुत्र के माता-पिता ने एक माह तक जीवित रहकर पुत्र का सुख देखा था। पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी परन्तु आगे युगल संतान की उत्पत्ति को दूर करने की इच्छा से ही मानों मरुदेव ने ‘प्रसेनजित’ नाम के अकेले पुत्र को उत्पन्न किया था और किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ उनका विवाह विधिवत् सम्पन्न किया था। अनंतर प्रसेनजित ने अकेले नाभिराज पुत्र को उत्पन्न किया था।
महापुराण में लिखा है कि ‘‘इन्द्र ने राजा नाभिराज का विवाह कन्या मरुदेवी के साथ कराया था।’’
तस्यासीन् मरुदेवीति, देवी देवीव सा शची।
तस्या: किल समुद्वाहे सुरराजेन चोदिता:।
सुरोत्तमा महाभूत्या, चक्रु: कल्याणकौतुकम्१।।५९।।
हरिवंश पुराण में लिखा है-
सर्वतोभद्रसंज्ञोऽसौ प्रासाद: सर्वतो मत:।
सैकाशीतिपद: शाल-वाप्युद्यानाद्यलंकृत:।।
जब चौदहवें मनु नाभिराज थे, उस समय दक्षिण भरत क्षेत्र में कल्पवृक्षरूप प्रासाद भवन अन्यत्र नष्ट हो गये थे परन्तु राजा नाभिराज का जो कल्पवृक्ष रूप प्रासाद (महल) था वही पृथ्वी निर्मित प्रासाद बन गया था। राजा नाभिराज के उस प्रासाद का नाम ‘सर्वतोभद्र’ था। इसके स्वर्णमय खंभे थे, मणियों से बनी दीवालें थीं, यह पुखराज, मूंगा, मोती आदि की मालाओं से सुशोभित था और इक्यासी खण्ड का था तथा परकोटा बावड़ी, बगीचे आदि से अलंकृत था। वह अधिष्ठाता नाभिराज के प्रभाव से अकेला ही अनेक कल्पवृक्षों से घिरा हुआ पृथ्वी के मध्य अपने स्थान पर अधिष्ठित था।
अंसावलंबिना ब्रह्मसूत्रेणासौ दधे श्रियम्।
हिमाद्रिरिव गांगेन स्रोतसोत्संगसंगिनाम्।।१९८।।
तन्नामा भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदं।
हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदं।।१५९।।
इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव ने युग के प्रारंभ में सर्वप्रथम यहीं अयोध्या नगरी में अपनी पुत्रियों को विद्यादान दिया था पुन: पुत्रों को पढ़ाया था। अत: यह स्थली विद्याओं के उद्भव का प्रथम स्थान है वैसे ही कन्याओं को विद्या पढ़ने का भी यह प्रथम स्थान है। प्रभु ने अपने पुत्रों को ‘यज्ञोपवीत’ देकर संस्कारों से संस्कारित किया था। यही बात महापुराण में वर्णित है-‘‘कंधे पर लटकते हुए ‘‘यज्ञोपवीत’’ से वे भरत सुशोभित हो रहे थे। इन भरत के नाम से ही यह देश ‘भारत’ इस नाम से प्रसिद्ध हो रहा है। इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्यपुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवान् पर्वत से लेकर समुद्रपर्यंत का चक्रवर्तियों का क्षेत्र ‘भरत’ पुत्र के नाम से ‘भारतवर्ष’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ है।
छह कर्मों का उपदेश एवं वर्ण व्यवस्था-
अषिर्मषि: कृषिर्विद्या, वाणिज्यं शिल्पमेव च।
कर्माणीमानि षोढा स्यु:, प्रजाजीवनहेतव:।।१७९।।
तत्र वृत्तिं प्रजानां स, भगवान्, मतिकौशलात्।
उपादिक्षत् सरागो हि, स तदासीज्जगद्गुरु:।।१८०।।
पुन: भगवान ने प्रजा को छह कर्मों का उपदेश दिया। असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प यह क्रियाएं ही आपकी आजीविका के समान हैं। तलवार धारण करना असिकर्म है। लिखकर-मुनीमी से आजीविका करना मषिकर्म है। खेती करना कृषिकर्म है। शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य गायन आदि सिखाकर आजीविका करना विद्याकर्म है। व्यापार करना वाणिज्यकर्म है और हाथ की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है, इसमें चित्रकला आदि विद्या सम्मिलित है।
पुरगामपट्ठणादी लोहियसत्थं च लोयववहारो।
धम्मो व दयामूलो विणिग्मियो आदिबह्मेण।।८०२।।
कहा भी है-नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक शास्त्र-व्याकरणादि शास्त्र, असि, मषि आदि लोक व्यवहार और दया प्रधान धर्म का स्थापन यह सब ‘आदिब्रह्मा श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर ने किया है।
प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग: प्रयागस्तेन कीर्तित:। (पद्मपुराण, पर्व ३)
भगवान ने जहाँ पर बहुत भारी याग-त्याग किया था इसलिए उसका नाम ‘प्रयाग’ भी प्रसिद्ध हुआ था।
त्रिलोकसार में ‘आदिब्रह्मा’ नाम दिया है। यथा-
पुरगामपट्टणादी लोहियसत्थं च लोयववहारो।
धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो आदि बह्मेण।।८०२।।
नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक-व्याकरण आदि शास्त्र, असि, मसि आदि लोक व्यवहार और दयाप्रधान धर्म का निर्माण आदि ब्रह्मा-श्री ऋषभ्ादेव ने किया है।