आर्य पुरूषों को कुल की तरह इकट्ठा रहने का उपदेश देने से कुलकर कहलाए। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी काल के तृतीय काल में कुलकरों की उत्पत्ति तब प्रारम्भ होती है जब आयु, अवगाहना, ऋद्धि,बल और तेज घटते -२ इस तृतीय काल में पल्योपम के आठवे भाग मात्र काल शेष रह जाता है ।
कुलकर चौदह होते है इस अवसर्पिणी में हुए चौदह कुलकरों के नाम इस प्रकार है – प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान – यशस्वान् , अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरूदेव, प्रसेनजित- एवं नाभिराय । इन चौदह कुलकरों ने समय -२ पर बल, ऋद्धि आदि घटने पर अथवा आकस्मिक नूतन घटना होने पर व्याकुल प्रजा को सम्बोधित किया । क्रम से हा, मा,धिक ये दण्ड व्यवस्थाएं निर्धारित की । इन कुलकरों में अनेकों को जातिस्मरण था, कितने ही अवधिज्ञानी थे । पूर्व भव में यह चौदह कुलकर विदेहक्षेत्र में महाकुल में राजकुमार थे , उस भव में पुण्यशाली पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरण द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले भोगभूमि की मनुष्य आयु बांध ली थी बाद में जिनेन्द्र देव के समीप रहने से क्षायिक सम्यग्दर्शन व श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई फलस्वरूप वह भरतक्षेत्र में जन्मे थे । ये प्रजा के जीवन को जानने तथा आर्य पुरूषों को कुल की तरह इकट्ठे रहने का उपदेश देने से ‘कुलकर’ अनेकों वंशो को स्थापित करने से ‘कुलधर’ तथा युग की आदि में होन से ‘युगादिपुरूष’ भी कहे गये थे ।