इसी जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है। उसकी पुंडरीकिणी नाम की नगरी में राजा घनरथ राज्य करते थे, ये तीर्थंकर थे। इनकी रानी मनोहरा के पुत्र का नाम मेघरथ और दूसरी रानी मनोरमा के पुत्र का नाम दृढरथ था। कुमार मेघरथ की दो रानियां थीं प्रियमित्रा और मनोरमा। दृढरथ की रानी का नाम सुमति था। प्रियमित्रा के पुत्र का नाम नंदिवर्धन और सुमति के पुत्र का नाम वरसेन था। एक बार तीर्थंकर के अवतार राजा घनरथ पुत्र और पौत्रों से घिरे हुये अपने राज्यसिंहासन पर आसीन थे। इसी बीच में प्रियमित्रा रानी की दासी सुषेणा एक घनतुण्ड नाम का मुर्गा लेकर आती है और कहती है कि-
‘‘यदि किसी का मुर्गा इसे जीत ले तो मैं एक हजार दीनार दूंगी’’
यह सुनकर छोटी स्त्री मनोरमा की दासी कांचना एक वङ्कातुण्ड नाम का मुर्गा ले आती है। वहीं सभा में दोनों मुर्गों का युद्ध शुरू हो जाता है। वह युद्ध दोनों मुर्गों के लिये तो दु:ख का कारण था ही था किन्तु देखने वालों के लिये भी हिंसानंद आदि रौद्रध्यान को कराने वाला था अत: धर्मात्माओं के देखने योग्य नहीं था।
राजा घनरथ ऐसा विचार कर बहुत से भव्य जीवों को शांति प्राप्त कराने के लिये और अपने पुत्र के माहात्म्य को प्रगट करने के लिये युवराज मेघरथ से पूछते हैं-
‘‘हे पुत्र ! इन मुर्गों के ऐसे आपस में युद्ध का क्या कारण है। तुम सभासद के लोगों को सुनाओ।’’
पिता की आज्ञानुसार युवराज मेघरथ ने अपने अवधिज्ञान से इन मुर्गों के पूर्व भवों को जानकर कहना शुरु किया। वे कहते हैं-
इसी जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर है। वहाँ पर भद्र और धन्य नाम के दो सगे भाई थे। दोनों ही गाड़ी चलाने का कार्य करते थे, एक दिन वे दोनों भाई श्रीनदी के किनारे बैल के निमित्त से लड़ने लगे। अत्यंत क्रोध के वशीभूत हो लड़ते-लड़ते एक-दूसरे को मारकर मर गये तथा रौद्र परिणाम के निमित्त से वे दोनों ही कांचन नदी के किनारे श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नाम के जंगली हाथी हो गये। वहाँ पर वे दोनों हाथी पूर्व जन्म के वैर के संस्कार से आपस में लड़ मरे और मरकर अयोध्या नगर में नंदिमित्र नामक गोपाल के यहाँ भैसों के झुण्ड में भैसे हो गये। यहाँ भी ये दोनों पूर्वभव के वैर के निमित्त से परस्पर में बहुत ही कुपित हुये सींगों के अग्रभाग से एक-दूसरे को घायल कर मर गये। पुनरपि ये दोनों अयोध्या नगरी में शक्तिवरसेन और शब्दवरसेन राजपुत्रों के मेढा हो गये। उनके मस्तक वङ्का के समान मजबूत थे। ये मेढे भी परस्पर में लड़कर मर गये जो कि ये दोनों मुर्गे हो गये हैं। जन्म-जन्म में बांधे गये वैैर-विरोध के संस्कार से ही ये यहाँ पर इस प्रकार से भयंकर युद्ध कर रहे हैं।
इन दोनों मुर्गों में भी जो अप्रतिम बल दिख रहा है उसमें भी कुछ रहस्य है।
‘‘वह रहस्य क्या है ?’’
ऐसा प्रश्न होने पर युवराज मेघरथ कहते हैं-
‘‘अपनी-अपनी विद्याओं से संयुक्त दो विद्याधर छिपकर इन्हें लड़ा रहे हैं।’’
‘‘ये विद्याधर कौन हैं ?’’
इसी जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर एक कनकपुर नाम का नगर है। उसमें गरुडवेग विद्याधर राज्य करता है। उसके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नाम के दो पुत्र हैं। ये दोनों आज चारणयुगल मुनि के दर्शन कर अपने पूर्वभव सुन रहे थे। उसमें जब इन्हें पता चला कि मेरे पिता का जीव अच्युत स्वर्ग से च्युत होकर राजा घनरथ हुआ है और आज वह पूर्व विदेह में अपने राजदरबार में राज्यसिंहासन पर विराजमान है। वे दोनों ही विद्याधर राजपुत्र पिता के प्रेम से इनके दर्शन करने यहाँ आये थे, सो मध्य में ही इन मुर्गों के युद्ध को देखकर अपनी विद्याशक्ति से इन्हीं में प्रविष्ट हो इनका और भी भयंकर युद्ध करा रहे हैं।’’
इतना सुनते ही दोनों विद्याधर प्रगट हो गये और राजा घनरथ तथा युवराज मेघरथ को प्रणाम कर उनकी पूजा करके वहाँ से चले गये, जाकर गोवर्धन मुनिराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली ।
उन दोनों मुर्गों ने भी युवराज मेघरथ के मुख से अपने पूर्व भवों के संबंध सुनकर परस्पर का वैर छोड़ दिया और इसी मरणासन्न अवस्था में सन्यास धारण कर लिया। धर्मोपदेश और सन्यास के प्रसाद से वे दोनों मुर्गे मरकर भूतरमण और देवरमण वन में भूतजातीय व्यंतरदेव हो गये। अंतर्मुहूर्त में (४८ मिनट के भीतर) ही ये पूर्ण यौवन अवस्था से सहित होते हुए दिव्य अवधिज्ञान से संपन्न हो गये। इनके नाम थे ताम्रचूल और कनकचूल। उसी समय वे दोनों देव वहाँ राजदरबार में आ गये। बड़े प्रेम से राजा घनरथ और मेघरथ को प्रणाम कर उनकी पूजा की पुन: हाथ जोड़ कर निवेदन करने लगे-
‘‘हे महापुण्यभाग ! हे पुरुषोत्तम ! हम दोनों को इन मुर्गों का जीव ही समझो। अभी-अभी आपके धर्मोपदेश को सुनकर हम दोनों परस्पर के वैर को छोड़ कर शांतभाव से प्राण छोड़े हैं कि जिसके प्रसाद से अंतर्मुहूर्त में ही देव पर्याय को प्राप्त हो गये हैं। हे महानुभाव! आपने हमारा जो उपकार किया है उसके प्रति हम चिरकृतज्ञ हैं, अब आप हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ?’’
मेघरथ कहने लगे-
‘‘हे देवों ! आप दोनों ने धर्मोपदेश का फल प्राप्त किया हमें इस बात की प्रसन्नता है। अब आप जिनधर्म में सदा अपनी बुद्धि लगाइये, यही मेरी आज्ञा है।
‘‘अच्छा, ठीक है तो अब आप सपरिवार इस विमान में बैठिये, हम आपको इस मत्र्यलोक की यात्रा करायेंगे।’’
देवों के आग्रह से युवराज मेघरथ अपने भाई दृढरथ आदि परिवार के साथ विमान में बैठ जाते हैं। तभी देवविमान में बैठकर आकाशमार्ग से चलते हुये इन्हें यथाक्रम से सुंदर-सुंदर देश, पर्वत आदि दिखलाते हुये वे कहते हैं-‘‘हे स्वामिन्! देखिये, यह भरतक्षेत्र है, उसके आगे यह हैमवत क्षेत्र है, यह हरिवर्ष क्षेत्र है, यह विदेह क्षेत्र है, यह पांचवां रम्यक क्षेत्र है, यह हैरण्यवत क्षेत्र है और यह ऐरावत क्षेत्र है। नरपुंगव! छह कुलाचलों से विभाजित ये सप्त क्षेत्र हैं। हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी छह कुलाचल हैं। विदेह क्षेत्र के मध्य में महातीर्थस्वरूप सुदर्शन मेरु पर्वत स्थित है, जो कि एक लाख योजन ऊँचा होने से मध्यलोक का मापदण्ड ही है। इधर देखिये, ये पद्म आदि सरोवरों से निकलने वाली समुद्र की ओर जाने वाली, अनेक परिवार नदियों से संयुक्त चौदह महानदियां हैं। गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णवूâला-रूप्यवूâला और रक्ता-रक्तोदा ये उनके नाम हैं। देखो, कमलों से संयुक्त ये सोलह ह्रद हैं। पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक, पुण्डरीक, निषध, देवकुरु, सूर्य, सुलस, विद्युत्प्रभ, नीलवान, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत और माल्यवान ये उनके नाम हैं।
इनमें से आदि के छह ह्रद-सरोवर हिमवान आदि छह कुलाचलों पर स्थित हैं। उनमें क्रम से श्री, ह्री, धृति, र्कीित, बुद्धि और लक्ष्मी ये व्यंतर देवियां निवास करती हैं। बाकी के दश सरोवर सीता-सीतोदा नदी के मध्य में स्थित हैं। उन सरोवरों में उन्हीं-उन्हीं नाम के नागकुमार देव सपरिवार निवास करते हैं। हे महाभाग! इधर देखो, ये देखने योग्य वक्षार पर्वत हैं, चित्रकूट, पद्मकूट, नलिनकूट, एकशैल, त्रिकूट, वैश्रवणकूट, अंजनात्म, अंजन, श्रद्धावान, विजटावान, आशीविष, सुखावह, चंद्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल और देवमाल ये उनके नाम हैं। इनके सिवाय गंधमादन, माल्यवान, विद्युत्प्रभ और सौमनस्य ये चार गजंंदत हैं। ये सब पर्वत उत्पत्ति विनाश से रहित-अनादिनिधन हैं। इधर स्वच्छ जल से भरी हुई ये विभंगा नदियां हैं। ह्रदा, ह्रदवती, पंकवती, तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, क्षीरोदा, शीतोदा, स्रोतोन्तर्वाहिनी, गंधमालिनी, पेनमालिनी और र्ऊिममालिनी ये उन नदियों के बारह नाम हैं। हे कुमार! स्पष्ट देखिये-कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगला, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, रम्यका, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना,कुमुदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा , वप्रकावती , गंधा, सुगंधा, महागंधा, गंधमालिनी ये बत्तीस विदेह क्षेत्र के देश हैं तथा क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधर, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुंडला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंकवती, पद्मावती, शुभा, रत्नसंचया, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजंती, जयंती, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या ये बत्तीस नगरियां उन देशों की राजधानियां हैं। जैसे कि अयोध्या इस भरतक्षेत्र की राजधानी है। ये वक्षार पर्वत, विभंगानदी और देश आदि सब सीता नदी के उत्तर की ओर मेरु पर्वत के समीप से प्रदक्षिणा रूप से वर्णित हैं।
इनके सिवाय उन ताम्रचूल-कनकचूल देव ने युवराज मेघरथ को लवण समुद्र और देवारण्य-भूतारण्य वनों को भी दिखलाया। पुन: आगे धातकी खण्ड, कालोदधि समुद्र और पुष्करार्ध द्वीप की सारी रचनाएं दिखलाई। अंत में मानुषोत्तर पर्वत पर ले जाकर वहाँ के चार जिनमंदिरों के दर्शन कराये। राजकुमार मेघरथ ने भी अपने परिवार समेत देवों द्वारा दिखलाये गये इन समस्त नेत्रप्रिय स्थानों को देखा और समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना, पूजा करके अपने को धन्य माना। अर्थपूर्ण स्तुतियों से जिनबिंबों की स्तुति की। तदनंतर बड़े उत्सवों से युक्त अपने नगर में वापस आ गये । वहाँ आकर व्यंतर देवों ने दिव्य आभरण देकर नाना स्तुतियों से स्तुति कर राजा की पूजा की और पुन: वे दोनों देव अपने उपकारी का प्रत्युपकार कर कृतकृत्य होते हुये स्वस्थान को चले गये।
हे बंधु! जो मनुष्य बदले के कार्य से उपकार रूपी समुद्र को नहीं तिरता है अर्थात् उपकारी का प्रत्युपकार नहीं करता है वह गंधरहित पूâल के समान जीता हुआ भी मरे के समान है। हे मित्र! जब ये दोनों मुर्गे इस प्रकार उपकार को मानने वाले हैं तब फिर मनुष्य अपने कर्तव्य को क्यों नहीं समझता है अर्थात् यदि मनुष्य अपने उपकारी का प्रत्युपकार नहीं करता है तो वह दुष्ट ही है। किये हुये उपकार को भूलना और प्रत्युपकार करके उसका बदला चुका देना यही कृतज्ञता है जो कि मनुष्यों के सर्व गुणों में भी सारभूत एक महान गुण है।