जैन साधुओं की त्रिकालदेववन्दना ही त्रिकाल सामायिक है। यह देववन्दना कृतिकर्म विधिपूर्वक की जाती है।
कृतिकर्म क्या है ? देववन्दना की विधि क्या है ? देववन्दना का समय क्या है ? और किन-किन ग्रंथों में इसका कथन है ?
इन्हीं विषयों का वर्णन यहाँ षट्खण्डागम, कसायपाहुड़, मूलाचार, आचारसार, गोम्मटसार, चारित्रसार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों के आधार से प्रस्तुत है।
श्रुतज्ञान द्वादशांगरूप है। इसे ग्यारह अंग और चौदह पूर्व नाम से भी जानते हैं। अथवा अंग और अंगबाह्य के नाम से श्रुतज्ञान के मूल में दो भेद करके अंग के १२ भेद और अंगबाह्य के १४ भेद किए हैं। कहीं पर अंगश्रुत और अनंगश्रुत ऐसे भी दो नाम कहे हैं। किन्हीं ग्रंथों में १४ अंगबाह्य श्रुत को प्रकीर्णक भी कहा है। अर्थात् १२ अंग से अतिरिक्त श्रुतज्ञान के अंगबाह्यश्रुत, अनंगश्रुत या प्रकीर्णक ऐसे तीन नाम हैं। षट्खण्डागम, धवला पुस्तक १ में पहले अंगबाह्य के नाम कहे हैं व उनके लक्षण दिये हैं। पुन: अंगश्रुत के १२ भेद कहे हैं। यथा-
अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट नाम से अर्थाधिकार-श्रुतज्ञान के दो भेद हैं। इनमें अंगबाह्य के चौदह भेद हैं- १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका।
अंगप्रविष्ट के १२ भेद हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६. नाथधर्मकथांग, ७. उपासकाध्ययनांग, ८. अंत:कृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपादिकदशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग और १२. दृष्टिवादांग।
इनमें से बारहवें अंग दृष्टिवाद के ५ भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
चतुर्थ भेदरूप पूर्वगत के १४ भेद हैं, जो कि चौदह पूर्व कहलाते हैं। इनके नाम- १. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीय पूर्व ३. वीर्यानुप्रवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ९. प्रत्याख्यान, १०. विद्यानुप्रवाद, ११. कल्याणवाद, १२. प्राणावाय, १३. क्रियाविशाल और १४. लोकविंदुसार पूर्व हैं।
ऐसा ही क्रम षट्खण्डागम पुस्तक नवमीं में दिया है।
वहाँ पर अंगश्रुत और अनंगश्रुत ऐसे नाम दिये हैं। पुन: अनंगश्रुत अर्थात् अंगबाह्य- श्रुत के सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि चौदह भेद अनंतर अंगश्रुत के आचारांग आदि १२ भेद करके दृष्टिवाद नाम के अंग में पाँच भेदों में से चौथे भेदरूप पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व बताये हैं।
गोम्मटसार जीवकांड में गाथा ३५६ से लेकर गाथा ३६६ तक द्वादशांग व बारहवें अंग के पाँच भेद तथा चौदह पूर्वों का वर्णन किया है। पुन: सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि चौदह भेदों को अंगबाह्य नाम से लिया है।
‘‘तत्त्वार्थवार्तिक’ ग्रंथ में-
‘‘श्रुतं मतिपूर्वं द्व्यनेकद्वादशभेदम्’’। सूत्र की टीका में श्री अकलंकदेव ने विस्तृत विवेचन किया है। अर्थात् श्रुतज्ञान के मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य अनेक प्रकार का है और अंगप्रविष्ट के १२ भेद हैं। अंगप्रविष्ट का लक्षण देखिए-
अंगप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तागणधरानुस्मृतग्रंथ-रचनं। भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवन्नि-र्गतवाग्गङ्गार्थविमलसलिलप्रक्षालितान्त:करणै: बुद्ध्यतिशयर्द्धियुत्तैâर्गणधरैरनुस्मृतग्रन्थरचनं आचारादि-द्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते।
बुद्धि आदि अतिशय वाले गणधरों के द्वारा रचित अंगप्रविष्ट १२ प्रकार का है। भगवान अर्हन्त सर्वज्ञदेवरूपी हिमाचल से निकली हुई वचनरूपी गंगा के अर्थरूपी निर्मल जल से जिनका अन्त:करण प्रक्षालित है, ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धियों के धनी गणधरों के द्वारा ग्रंथरूप से रचित आचारादि बारह अंगों को अंगप्रविष्ट कहते हैं।
पुन: अंगबाह्य का लक्षण देखिए-
आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम्। यद् गणधरशिष्य-प्रशिष्यैरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वै: कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थ-मुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम्।
तदनेकविधं कालिकोत्कालिकादिविकल्पात्। तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिकमुत्कालिकमित्येव-मादिविकल्पात्। स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्। अनियतकालमुत्कालिकम्। तद्भेदा उत्तराध्यनादयोऽनेकविधा:।
आरातीय आचार्यकृत अंग अर्थ के आधार से रचे गये ग्रंथ अंगबाह्य हैं। श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधरदेव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्प आयु-बुद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रंथ अंगबाह्य हैं।
कालिक, उत्कालिक आदि विकल्प से अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्यायकाल में जिनके पठन-पाठन का नियम (नियतकाल) है, वे कालिक कहलाते हैं तथा जिनके पठन-पाठन का कोई नियत समय न हो, वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अनेक प्रकार के अंगबाह्य ग्रंथ हैं।
यहाँ हमें यह चिंतन करना है कि जो ‘आचारांग’ नाम से पहला अंगश्रुत है। इसमें मुनियों के मूलगुण-उत्तरगुण व देववंदना विधि, कृतिकर्मविधि आदि का विस्तार से कथन होगा ही होगा। पुनश्च ‘उपासकाध्ययन’ नाम के सातवें अंग में श्रावकों की ग्यारह (११) प्रतिमाओं का एवं दान, पूजा आदि क्रियाओं का विस्तृत विवेचन है, उनमें श्रावकों के लिए ‘कृतिकर्म विधि’ का वर्णन है।
फिर भी अंगबाह्य में जो ‘‘कृतिकर्म’’ नाम से छठा भेद है, उसका लक्षण आगम में वर्णित्ा है। वास्तविकता यह है कि दिगम्बर जैन परम्परा में अंग और पूर्वों के श्रुत-शास्त्र आज नहीं है क्योंकि यह ज्ञान इतना विस्तृत है कि मौखिक ही श्रुतज्ञानी महामुनियों को प्राप्त था। इस युग में अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु महामुनि लगभग २००० (दो हजार) वर्ष पूर्व हुए हैं। उनके बाद अंग-पूर्वों के अंश-अंश आदि के ज्ञाता महामुनि हुए हैं। उन्हीं का अंश-अंश श्रुतज्ञान आज शास्त्रों में निबद्ध है।
तात्पर्य यह है कि आज जो भी कसायपाहुड़, षट्खण्डागम आदि शास्त्र हैं, वे सब द्वादशांग के और अंगबाह्य के अंश ही हैं, अत: वे सब पूर्ण प्रमाण हैं।
‘‘कृतिकर्म’’ नामक अंगबाह्य श्रुत में वर्णित जो विषय है, उसका संक्षिप्त उल्लेख धवला, जयधवला आदि ग्रंथों में है।
‘‘कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदम्बकेन परिणामेन क्रियया वा तत् कृतिकर्म पापविनाशनोपाय:।’’
जिन अक्षरसमूह से या जिनपरिणामों से या जिनक्रियाओं से आठ प्रकार के कर्म काटे जाते हैं-छेदे जाते हैं, उसका नाम ‘‘कृतिकर्म’’ है अर्थात् पापविनाश का उपाय ही कृतिकर्म है।
मूल में कृतिकर्म के यहाँ पर दो भेद विवक्षित हैं-देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में भक्ति पढ़ने के प्रारंभ में प्रतिज्ञा से लेकर भक्तिपाठ से पूर्व तक जो विधि होती है, वह प्रथम भेद है।
प्रथम भेद-
किदियम्मं अरहंत-सिद्धाइरिय-उवझाय-गणचिंतय-गणवसहाईणं कीरमाण-पूजाविहाणं वण्णेदि।
कृतिकर्म अधिकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गणचिन्तक (साधु संघ के कार्यों की चिन्ता करने वाले) और गणवृषभ (गणधर) आदिकों की, की जाने वाली पूजा के विधान का वर्णन करता है।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतिस्तवपर्यंतःकृतिकर्मेत्युच्यते।
‘‘सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तवपर्यन्त जो विधि है उसे कृतिकर्म कहते हैं।’’
दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धिं च किदियम्मं पउंजदे।।६०३।।
‘‘यथाजात मुद्राधारी साधु मनवचनकाय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनतिपूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करें।’’ अर्थात् किसी भी क्रिया के प्रयोग में पहले प्रतिज्ञा करके भूमिस्पर्शरूप पंचांग नमस्कार किया जाता है, जैसे-
‘‘अथ पौर्वाण्हिकदेववन्दनाक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वंदनास्तवसमेतं चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके पंचांग नमस्कार किया जाता है। पुनः ‘‘णमो अरिहंताणं’’ से लेकर ‘‘तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’’ पाठ बोला जाता है इसे सामायिक स्तव कहते हैं। इसमें ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पाठ प्रारंभ करते समय तीन आवर्त करके एक शिरोनति की जाती है, पुनः पाठ पूरा करके तीन आवर्त एक शिरोनति की जाती है। फिर कायोत्सर्ग करके पंचांग प्रणाम किया जाता है पुनः ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव के प्रारंभ में तीन आवर्त एक शिरोनति करके पाठ पूरा होने पर तीन आवर्त और एक शिरोनति होती है। इस प्रकार प्रतिज्ञा के अनन्तर प्रणाम और कायोत्सर्ग के अनन्तर प्रणाम, ऐसे दो प्रणाम हुए। सामायिक दण्डक के आदि-अन्त में और थोस्सामि स्तव के आदि-अन्त में ऐसे तीन-तीन आवर्त चार बार करने से बारह आवर्त हुए तथा प्रत्येक में एक-एक शिरोनति करने से चार शिरोनति हो गईं।
सामायिक के लिए आवश्यक जानकारी-
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ताः।
द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम्।।२।।
तथा-‘‘आदाहीणं, पदाहीणं, तिक्खुत्तं, तिऊणदं, चदुस्सिरं, वारसावत्तं, चेदि।’’
(१) वन्दना करने वाले की स्वाधीनता (२) तीन प्रदक्षिणा (३) तीन भक्ति संबंधी तीन कायोत्सर्ग (४) तीन निषद्या-१. ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर बैठकर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी क्रिया-विज्ञापन करना २. चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पंचमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना ३. पंचगुरुभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना (५) चार शिरोनति (६) बारह आवर्त। यही सब सामायिक विधि में आता है।
कसायपाहुड़ पु. १ में वर्णित कृतिकर्म सामायिक विधि को बतलाता है। यही वर्णन षट्खण्डागम (धवला टीका सहित) पुस्तक १३ में वर्णित है।
साधुओं की सामायिक और देववंदना एक है। विधिवत् देववंदना करना इसी का नाम सामायिक है। ‘सत्त्वेषु मैत्रीं’ आदि पाठ पढ़कर जाप्य आदि करके सामायिक करना और देवदर्शन के समय देववंदना क्रिया करना ऐसा नहीं है प्रत्युुत त्रिकाल सामायिक के समय ही तीन बार देववंदना का विधान है। उसी को यहाँ सप्रमाण दिखाया जाता है।
मूलाचार में श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करते हुए समता नाम के आवश्यक का लक्षण किया है-
जीविदमरणे लाभा-लाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु, समदा सामाइयं णाम।।
इसकी टीका में श्री वसुनंदि आचार्य ने कहा है-
‘‘सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति। जीवितमरणलाभालाभ-संयोगविप्रयोगबन्ध्वरिसुखदुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणामः त्रिकाल-देववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवति।’’
अभिप्राय यह है कि जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, बंधु-शत्रु और सुख-दुःख आदि में जो समान परिणाम का होना है ‘‘और त्रिकाल में देववंदना करना है वह सामायिक व्रत है।’’
अन्यत्र सामायिक के नियतकालिक-अनियतकालिक ऐसे दो भेद करके नियतकालिक में त्रिकालदेववंदना और अनियतकालिक में समताभाव को रखना ऐसा कहा है।
आचारसार ग्रंथ में सामायिक आवश्यक का वर्णन करते हुए सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीवीरनंदि आचार्यदेव ने तीर्थक्षेत्र या जिनमंदिर में जाकर विधिवत् ईर्यापथशुद्धि और चैत्य-पंचगुरुभक्ति करने का आदेश दिया है।
त्रिसंध्यं वंदने युंज्यात्, चैत्यपंचगुरुस्तुती।
प्रियभक्तिं बृहद्भक्तिष्वंते दोषविशुद्धये।।१३।।
तीनों सन्ध्या संबंधी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पढ़ें तथा वृहद्भक्तियों के अन्त में पाठ की हीनाधिकतारूप दोषों की विशुद्धि के लिए प्रियभक्ति (समाधिभक्ति) करना चाहिए।
मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं।
जिनमुद्रा-दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्गरूप से खड़े होना सो जिनमुद्रा है। योगमुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं। वन्दना मुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलितकर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए पुरुष के वन्दना मुद्रा होती है। मुक्ताशुक्तिमुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए को आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।
देववन्दना के लिए जिनमंदिर में पहुँचकर हाथ-पैर धोकर ‘निःसहि’’ का तीन बार उच्चारण कर जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करें। अनंतर ‘‘दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’ इत्यादि स्तोत्र को पढ़ते हुए चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देवें। पुनः ‘निःसंगोऽहं जिनानां’’ इत्यादि दर्शनस्तोत्र पढ़कर यदि खड़े होकर सामायिक करना है तो खड़े होकर ‘‘ईर्यापथशुद्धि पाठ’’ से सामायिक शुरू करें। यदि खड़े होकर सामायिक करने की शक्ति नहीं है तो बैठकर करें।
बैठकर भी देववन्दना करने का विधान-
‘‘साधुः पुनर्वंदनां यथोक्तविशेषणविशिष्टः-सपर्यंकः सप्रतिलेखन-मुकुलितवत्सोत्संगितकरः कुर्यात् । कया? अशक्त्या। उद्भो यदि वंदितुं न शक्नुयादित्यर्थः।’’
साधु यदि खड़े होकर वंदना नहीं कर सकते हैं-असमर्थ हैं तो पर्यंकासन से बैठकर, पिच्छी लेकर, मुकुलित हाथ जोड़कर वक्षःस्थल के पास रखकर देववंदना करें।
चैत्यभक्ति में तीन प्रदक्षिणा-
चैत्यभक्ति पढ़ते-पढ़ते जिनप्रतिमा की तीन प्रदक्षिणा देने का भी विधान है।
दीयते चैत्यनिर्वाण-योगिनंदीश्वरेषु हि।
वंद्यमानेष्वधीयानैस्तत्तद्भक्तिं प्रदक्षिणा।।
चैत्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, योगिभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति पढ़ते-पढ़ते मंदिर में, निर्वाणक्षेत्रों में, योगियों की व जिनबिम्बों की प्रदक्षिणा करना चाहिए।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। अनादि सिद्धमंत्र:।
(हस्तलिखित वसुनंदि प्रतिष्ठासार संग्रह)
इसलिए ये महामंत्र और चत्तारि मंगल पाठ अनादि निधन है, ऐसा स्पष्ट है।
वर्तमान में विभक्ति लगाकर ‘चत्तारिमंगल पाठ’-नया पाठ पढ़ा जा रहा है। जो कि विचारणीय है। यह पाठ ४०-५० वर्षों से अपनी दिगम्बर जैन परम्परा में आया है। देखें प्रमाण-‘ज्ञानार्णव’ जैसे प्राचीन ग्रंथ में बिना विभक्ति का प्राचीन पाठ ही है। यह विक्रम सम्वत् १९६३ से लेकर कई संस्करणों में वि.सं. २०५४ तक में प्रकाशित है। प्रतिष्ठातिलक जो कि वीर निर्वाण सं. २४५१ में सोलापुर से प्रकाशित है, उसमें भी यही प्राचीन पाठ है। आचार्य श्री वसुविंदु-अपरनाम जयसेनाचार्य द्वारा रचित ‘प्रतिष्ठापाठ’ जो कि वीर निर्वाण सं. २४५२ में प्रकाशित है। उसमें भी प्राचीन पाठ ही है। हस्तलिखित ‘श्री वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ संग्रह’ में भी प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठासारोद्धार जो कि वीर निर्वाण सं. २४४३ में छपा है, उसमें भी यही पाठ है। ‘क्रियाकलाप’ जो कि वीर निर्वाण सं. २४६२ में छपा है, उसमें भी तथा जो ‘सामायिकभाष्य’ श्री प्रभाचंद्राचार्य द्वारा ‘देववंदना’ की संस्कृत टीका है, उसमें भी अरहंत मंगलं-अरहंत लोगुत्तमा,……. अरहंत सरणं पव्वज्जामि, यही पाठ है।
यहाँ प्रसंगोपात्त लघु सामायिक पाठ कृतिकर्म विधि सहित प्रस्तुत है। सामायिक का सम्पूर्ण पाठ जो प्रतिदिन साधु-साध्वियाँ त्रिकाल में करते हैं उसे मुनिचर्या या सामायिक विधि नाम की पुस्तकों से (जम्बूद्वीप से प्रकाशित) देखना चाहिए।
लघु सामायिक पाठ
(सामायिक प्रारंभ करने से पूर्व गमन—आगमन आदि में हुये जीव विराधना आदि दोषों की शुद्धि के लिये ‘ईर्यापथ शुद्धि’ पाठ किया जाता है)
ईर्यापथ शुद्धि पाठ
दडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए विराहणाए अणागुत्ते अइगमणे, णिग्गमणे, ठाणे, गमणे, चंकमणे, पाणुग्गमणे, बीजुग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चार—पस्सवण—खेल सिंहाणयवियडिय पइट्ठावणियाए, जे जीवा एइंदिया वा, बेइंदिया वा, तेइंदिया वा, चउिंरदिया वा, पंिंचदिया वा, णोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्ठिदा वा, संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परिदाविदा वा, कििंरच्छिदा वा, लेस्सिदा वा, छिंदिदा वा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाणचंकमणदो वा, तस्सउत्तरगुण, तस्स पायच्छित्तकरणं, तस्स विसोहिकरणं, जाव अरहंताण भयवंताणं णमोक्कारं पज्जुवासं करेमि, तावकायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
ईयापथ से गमन में, मैंने किया प्रमाद।
एकेन्द्रिय आदिक सभी, जीवों का जो घात।।१।।
किया यदी चउ हाथ प्रम, नहीं भूमि को देख।
गुरु भक्ती से पाप सब, हों मिथ्या मम देव।।२।।
भगवन् ! ईर्यापथ आलोचन करना चाहूँ मैं रुचि से।
पूर्वोत्तर दक्षिण पश्चिम चउदिश विदिशा में चलने से।।३।।
चउकर देख गमन भव्यों का होता पर प्रमाद से मैं।
शीघ्र गमन से प्राण भूत अरु जीव सत्व को दु:ख दीने।।४।।
यदि किया उपघात कराया अथवा अनुमति दी रुचि से।
श्री जिनवर की कृपा दृष्टि से सब दुष्कृत मिथ्या होवें।।५।।
नमोस्तु भगवन्! देववन्दनां करिष्यामि।
सिद्धं सम्पूर्णभव्यार्थं सिद्धे: कारणमुत्तमम्।
प्रशस्तदर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपादनम्।।१।।
सुरेन्द्रमुकुटाश्लिष्टपादपद्मांशुकेशरम्।
प्रणमामि महावीरं, लोकत्रितयमंगलम्।।२।।
खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, वैरं मज्झं ण केणवि।।३।।
राग बंध अरु प्रदोष हर्षे, दीन भाव उत्सुकता को।
भय अरु शोक रती अरती को त्याग करुं दुर्भावों को।।४।।
हा ! दुष्कृत किये हो ! दुश्चिंते, हा ! दुर्वचन कहे मैंने।
कर कर पश्चाताप हृदय में, झुलस रहा हूँ मैं मन में।।५।।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव से, कृत अपराध विशोधन को।
निन्दा गर्हा से युत हो, प्रतिक्रमण करुँ मन वच तन सों।।६।।
सभी प्राणियों में समता हो, संयम हो शुभ भाव रहे।
आर्तरौद्र दुर्ध्यान त्याग हो, यही श्रेष्ठ सामायिक है।।७।।
भगवन्नमोस्तु प्रसीदंतु प्रभुपादौ :, वंदिष्येऽहं एषोऽहं सर्वसावद्ययोगाद्विरतोस्मि।
अथ पौर्वाण्हिकदेववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पंचांग नमस्कार करके तीन आवर्त एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्तिमुद्रा—दोनों हाथ मिलाकर जोड़कर सामायिक दण्डक पाठ पढ़ें।)
सामायिक दंडक (पद्यानुवाद)
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारि मंगलं—अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा—अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि—अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि ताव कालं पाव कम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके ९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य, तीन आवर्त एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से थोस्सामिस्तव पढ़ें।)
—थोस्सामिस्तव—
थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवर लोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे।।
लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणो।।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके वंदना मुद्रा से कमल के समान मुकुलित हाथ जोड़कर चैत्यभक्ति पढ़ें।)
—चैत्यभक्ति—
आज से २५७० वर्ष पूर्व श्री गौतम गणधर के मुखकमल से निकली यह चैत्यभक्ति है इसमें ३५ काव्य हैं यहाँ एक काव्य दिया गया है।)
—हरिणीछंद—
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-
वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ ।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता:परस्परवैरिणो
विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
—कुसुमलताछंद—
जय हे भगवन् ! चरण कमल तव, कनक कमल पर करें विहार।
इन्द्रमुकुट की कांति प्रभा से, चुंबित शोभें अति सुखकार।।
जातविरोधी कलुषमना, क्रुध मान सहित जन्तूगण भी।
ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेम भाव को धरें सभी।।१।।
यावन्ति जिनचैत्यानि, विद्यन्ते भुवनत्रये।
तावन्ति सततं भक्त्या, त्रि:परीत्य नमाम्यहं।।
भगवन् ! चैत्यभक्ति अरु कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष।
उनकी आलोचन करने को, इच्छुक हूँ धर मन सन्तोष।।१।।
अधो मध्य अरु ऊर्ध्वलोक में, अकृत्रिम कृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं त्रिभुवन के, चउविध सुर करें भक्ति से सेव।।२।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित।
दिव्य गंध सुम धूप चूर्ण से, दिव्य न्हवन करते नितप्रति।।३।।
अर्चें पूजें वंदन करते, नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ सतत।।४।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत् होवे।।५।।
(पंचागं नमस्कार पढ़ें)
अथ पौर्वाण्हिकदेववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं पंचगुरुभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्व में कही विधि से ‘सामायिक दण्डक’ पढ़कर ९ बार णमोकार मंत्र जपकर पुन: विधिवत् ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर वंदनामुद्रा करके पंचगुरुभक्ति पढ़ें)
पंचगुरुभक्ति पद्यानुवाद
—हिन्दी पद्यानुवाद—
प्रातिहार्य से युत अर्हंतों, को अठगुण युत सिद्धों को।
वंदूं अठ प्रवचनमाता से, संयुत श्री आचार्यों को।।
शिष्यों से युत पाठकगण को, अष्टयोग युत साधू को।
वंदूं पंचमहागुरुवर को, त्रिकरण शुचि से मुद मन हो।।
(गवासन से बैठकर अंचलिका पढ़ें)
अंचलिका
भगवन् ! पंचमहागुरु, भक्ति कायोत्सर्ग।
करके आलोचन विधि, करना चाहूँ सर्व।।१।।
अष्टमहाशुभ प्रातिहार्य, संयुत अर्हंत जिनेश्वर हैं।
अष्टगुणान्वित ऊर्ध्वलोक, मस्तक पर सिद्ध विराज रहें।।
अठ प्रवचनमाता संयुत हैं, श्री आचार्य प्रवर जग में।
आचारादिक श्रुतज्ञानामृत, उपदेशी पाठकगण हैं।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु परमेष्ठी हैं।
नितप्रति अर्चूं पूजूं वंदूं, नमस्कार मैं करूँ उन्हें।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरण, मम जिनगुण संपत् होवे।।३।।
(पंचांग नमस्कार करें)
अथ पौर्वाण्हिकदेववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्री चैत्यपंचमहागुरुभक्ती विधाय तद्धीनाधिकत्वादि दोषविशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्व के समान विधिवत् सामायिक दण्डक पढ़कर ९ बार णमोकार मंत्र जपकर पुन: विधिवत् थोस्सामिस्तव पढ़कर वंदना मुद्रा से समाधि भक्ति पढ़ें)
समाधि भक्ति
स्वात्मरूप के अभिमुख संवेदन, को श्रुत दृग से लखकर।
भगवन् ! तुमको केवलज्ञान, चक्षु से देखूं झट मनहर।।
भगवन! समाधिक भक्ति अरु, कायोत्सर्ग कर लेत।
चाहूँ आलोचन करन, दोष विशोधन हेत।।
रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका ध्यान समाधि है।
नितप्रति उस समाधि को अर्चूं, पूंजूं वंदूं नमूँ उसे।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत होवे।।
(पंचांग नमस्कार करके ध्यान करें या महामंत्र अथवा सिद्धचक्र मंत्र आदि का जाप्य करें)
नोट – यहाँ यह ध्यान रखना है कि प्रतिज्ञावाक्य में प्रात:काल की सामायिक के समय पौर्वाण्हिक देववन्दनायां, मध्यान्ह सामायिक में माध्यान्हिक देववंदनायां तथा सायंकालिक सामायिक में अपराण्हिक देववंदनायां बोलना चाहिए।