मूल में कृतिकर्म के यहाँ पर दो भेद विवक्षित हैं-देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में भक्ति पढ़ने के प्रारंभ में प्रतिज्ञा से लेकर भक्तिपाठ से पूर्व तक जो विधि होती है, वह प्रथम भेद है। देखिए-
प्रथम भेद-
किदियम्मं अरहंत-सिद्धाइरिय-उवझाय-गणचिंतय-गणवसहाईणं कीरमाण-पूजाविहाणं वण्णेदि१। एत्थुववुज्जंती गाहा-
दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेव वा।
चउसीसं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजए।।६४।।
कृतिकर्म अधिकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गणचिन्तक (साधु संघ के कार्यों की चिन्ता करने वाले) और गणवृषभ (गणधर) आदिकों की, की जाने वाली पूजा के विधान का वर्णन करता है। यहाँ उपयुक्त गाथा-
यथाजात अर्थात् जातरूप के (धारक मुनि को) क्रोधादि विकारों से रहित होकर दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धियों से संयुक्त कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिए।।६४।।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतिस्तवपर्यंतःकृतिकर्मेत्युच्यते१।
‘‘सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तवपर्यन्त जो विधि है उसे कृतिकर्म कहते हैं।’’
दोणदं तु जधाजादं वारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धिं च किदियम्मं पउंजदे२।।६०३।।
‘‘यथाजात मुद्राधारी साधु मनवचनकाय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनतिपूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करें।’’ अर्थात् किसी भी क्रिया के प्रयोग में पहले प्रतिज्ञा करके भूमि स्पर्शरूप पंचांग नमस्कार किया जाता है, जैसे-
‘‘अथ पौर्वाण्हिकदेववन्दनाक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वंदनास्तवसमेतं श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके पंचांग नमस्कार किया जाता है। पुनः ‘‘णमो अरिहंताणं’’ से लेकर ‘‘तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’’ पाठ बोला जाता है इसे सामायिक स्तव कहते हैं। इसमें ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पाठ प्रारंभ करते समय तीन आवर्त करके एक शिरोनति की जाती है, पुनः पाठ पूरा करके तीन आवर्त एक शिरोनति की जाती है। फिर कायोत्सर्ग करके पंचांग प्रणाम किया जाता है पुनः ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव के प्रारंभ में तीन आवर्त एक शिरोनति करके पाठ पूरा होने पर तीन आवर्त और एक शिरोनति होती है। इस प्रकार प्रतिज्ञा के अनन्तर प्रणाम और कायोत्सर्ग के अनन्तर प्रणाम, ऐसे दो प्रणाम हुए। सामायिक दण्डक के आदि-अन्त में और थोस्सामि स्तव के आदि-अन्त में ऐसे तीन-तीन आवर्त चार बार करने से बारह आवर्त हुए तथा प्रत्येक में एक-एक शिरोनति करने से चार शिरोनति हो गईं।
द्वितीय भेद-
इसमें ‘देववन्दना’ अपरनाम ‘सामायिक’ में जो कृतिकर्म होता है, वह छह प्रकार का है३-
देववन्दना में छह प्रकार का कृतिकर्म-
जिण-सिद्धाइरिय-बहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम। तस्स आदाहीण-तिक्खुत्त-पदाहिण-तिओणद-चदुसिर-वारसावत्ता-दिलक्खणं विहाणं फलं च किदियम्मं वण्णेदि ?३
जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। उस कृतिकर्म के आत्माधीन होकर किए गए तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद तथा फलका वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है।
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ताः।
द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम्१।।२।।
तथा-‘‘आदाहीणं, पदाहीणं, तिक्खुत्तं, तिऊणदं, चदुस्सिरं, वारसावत्तं, चेदि।’’
(१) वन्दना करने वाले की स्वाधीनता (२) तीन प्रदक्षिणा (३) तीन भक्ति संबंधी तीन कायोत्सर्ग (४) तीन निषद्या-१. ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर बैठकर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी क्रिया-विज्ञापन करना २. चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पंचमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना ३. पंचगुरुभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना (५) चार शिरोनति (६) बारह आवर्त। यही सब आगे सामायिक विधि में आता है।
कसायपाहुड़ पु. १ में वर्णित कृतिकर्म सामायिक विधि को बतलाता है। यही वर्णन षट्खण्डागम (धवला टीका सहित) पुस्तक १३ में वर्णित है।
आगे इन्हीं ग्रंथोें के ये सभी प्रमाण दिये जा रहे हैं, उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए।