श्रुतज्ञान द्वादशांगरूप है। इसे ग्यारह अंग और चौदह पूर्व नाम से भी जानते हैं। अथवा अंग और अंगबाह्य के नाम से श्रुतज्ञान के मूल में दो भेद करके अंग के १२ भेद और अंगबाह्य के १४ भेद किए हैं। कहीं पर अंगश्रुत और अनंगश्रुत ऐसी भी दो नाम कहे हैं। किन्हीं ग्रंथों में १४ अंगबाह्य श्रुत को प्रकीर्णक भी कहा है। अर्थात् १२ अंग से अतिरिक्त श्रुतज्ञान को अंगबाह्यश्रुत, अनंगश्रुत या प्रकीर्णक ऐसे तीन नाम हैं। षट्खण्डागम, धवला पुस्तक १ में पहले अंगबाह्य के नाम कहे हैं व उनके लक्षण दिये हैं। पुन: अंगश्रुत के १२ भेद कहे हैं।१ यथा-
अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट नाम से अर्थाधिकार-श्रुतज्ञान के दो भेद हैं। इनमें अंगबाह्य के चौदह भेद हैं-१. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार,
१०. कल्पाकल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका।
अंग प्रविष्ट के १२ भेद हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग,
४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६. नाथधर्मकथांग, ७. उपासकाध्ययनांग,
८. अंत:कृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपादिकदशांक, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग और १२. दृष्टिवादांग।
इनमें से बारहवें अंग दृष्टिवाद के ५ भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
चतुर्थ भेदरूप से पूर्वगत १४ भेद हैं, जो कि चौदह पूर्व कहलाते हैं। इनके नाम- १. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीय पूर्व ३. वीर्यानुप्रवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ९. प्रत्याख्यान, १०. विद्यानुप्रवाद,
११. कल्याणवाद, १२. प्राणावाय, १३. क्रियाविशाल और १४. लोकविंदुसार पूर्व हैं।
ऐसा ही क्रम षट्खण्डागम पुस्तक नवमीं में दिया है२।
वहाँ पर अंगश्रुत और अनंगश्रुत ऐसे नाम दिये हैं। पुन: अनंगश्रुत अर्थात् अंगबाह्य- श्रुत के सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि चौदह भेद अनंतर अंगश्रुत के आचारांग आदि १२ भेद करके दृष्टिवाद नाम के अंग में पाँच भेदों में से चौथे भेदरूप पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व बताये हैं।
गोम्मटसार जीवकांड में गाथा ३५६ से लेकर गाथा ३६६ तक द्वादशांग व बारहवें अंग के पाँच भेद तथा चौदह पूर्वों का वर्णन किया है। पुन: सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि चौदह भेदों को अंगबाह्य नाम से गाथा ३६७-३६८ में लिया है।
‘‘तत्त्वार्थवार्तिक’ ग्रंथ में-
‘‘श्रुतं मतिपूर्वं द्व्यनेकद्वादशभेदम्’’।।२०।।
सूत्र की टीका में श्री अकलंकदेव ने विस्तृत विवेचन किया है। अर्थात् श्रुतज्ञान के मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य अनेक प्रकार का है और अंग प्रविष्ट के १२ भेद हैं। अंगप्रविष्ट का लक्षण देखिए-
अंग प्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तागणधरानुस्मृतग्रंथ-रचनं।१२। भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवन्निर्गतवाग्गङ्गार्थविमलसलिलप्रक्षालितान्त:करणै: बुद्ध्यतिशयर्द्धियुत्तैâर्गणधरैरनुस्मृतग्रन्थरचनं आचारादिद्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते।१
बुद्धि आदि अतिशय वाले गणधरों के द्वारा रचित अंगप्रविष्ट १२ प्रकार का है। भगवान अर्हन्त सर्वज्ञदेवरूपी हिमाचल से निकली हुई वचनरूपी गंगा के अर्थरूपी निर्मल जल से जिनका अन्त:करण प्रक्षालित है, ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धियों के धनी गणधरों के द्वारा ग्रंथरूप से रचित आचारादि बारह अंगों को अंगप्रविष्ट कहते हैं।
पुन: अंगबाह्य का लक्षण देखिए-
आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम्। १३। यद् गणधरशिष्य-प्रशिष्यैरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वै: कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थ-मुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम्।
तदनेकविधं कालिकोत्कालिकादिविकल्पात्। १४ । तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिकमुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात्। स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्। अनियतकालमुत्कालिकम्। तद्भेदा उत्तराध्यनादयोऽनेकविधा:।२
आरातीय आचार्यकृत अंग अर्थ के आधार से रचे गये ग्रंथ अंगबाह्य हैं। श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधरदेव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्प आयु-बुद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रंथ अंगबाह्य हैं।।१३।।
कालिक, उत्कालिक आदि विकल्प से अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्यायकाल में जिनके पठन-पाठन का नियम (नियतकाल) है, वे कालिक कहलाते हैं तथा जिनके पठन-पाठन का कोई नियत समय न हो, वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अनेक प्रकार के अंगबाह्य ग्रंथ हैं।।१४।।
यहाँ हमें यह चिंतन करना है कि जो ‘आचारांग’ नाम से पहला अंगश्रुत है। इसमें मुनियों के मूलगुण-उत्तरगुण व देववंदना विधि, कृतिकर्मविधि आदि का विस्तार से कथन होगा ही होगा। पुनश्च ‘उपासकाध्ययन’ नाम के सातवें अंग में श्रावकों की ग्यारह (११) प्रतिमाओं का दान, पूजा आदि क्रियाओं का विस्तृत विवेचन है, उनमें श्रावकों के लिए ‘कृतिकर्म विधि’ का वर्णन है ही है।
फिर भी अंगबाह्य में जो ‘‘कृतिकर्म’’ नाम से छठा भेद है, उसका लक्षण आगम में वर्णित है। वास्तविकता यह है कि दिगम्बर जैन परम्परा में अंग और पूर्वों के श्रुत-शास्त्र आज नहीं है क्योंकि यह ज्ञान इतना विस्तृत है कि मौखिक ही श्रुतज्ञानी महामुनियों को प्राप्त था। इस युग में अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु महामुनि लगभग २०००
(दो हजार) वर्ष पूर्व हुए हैं। उनके बाद अंग-पूर्वों के अंश-अंश आदि के ज्ञाता महामुनि हुए हैं। उन्हीं का अंश-अंश श्रुतज्ञान आज शास्त्रों में निबद्ध है।
तात्पर्य यह है कि आज जो भी कसायपाहुड़, षट्खण्डागम आदि शास्त्र हैं, वे सब द्वादशांग के और अंगबाह्य के अंश ही हैं, अत: वे सब पूर्ण प्रमाण हैं।
‘‘कृतिकर्म’’ नामक अंगबाह्य श्रुत में वर्णित जो विषय है, उसका संक्षिप्त उल्लेख धवला, जयधवला आदि ग्रंथों में है।