दैनिकादि क्रियाओं में साधुओं को किस प्रकार के आसन, मुद्रा आदि का ग्रहण करना चाहिए अथवा किस अवसर पर कौन भक्ति व पाठादि का उच्चारण करना चाहिए अथवा प्रत्येक भक्ति आदि के साथ किस प्रकार आवर्त, शिरोनति व नमस्कार आदि करना चाहिए इस सब विधिविधान को कृतिकर्म कहते हैं।
कृतिकर्म के नौ अधिकार है – जिससे आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो कृतिकर्म जिससे पुण्यकर्म का संचय हो वह चितकर्म है, जिससे पूजा करना वह माला, चन्दन आदि पूजाकर्म है, सुश्रूूषा का करना विनय कर्म है ।
१ वह क्रिया कर्म कौन करे
२ किसका करना
३ किस विधि से करना
४ किस अवस्था में करना
५ कितनी बार करना
६ कितनी अवनतियों से करना
७ कितनी बार मस्तक में हाथ रखकर करना
८ कितने आवर्तो से शुद्ध होता है
९ कितने दोष रहित कृतिकर्म करना ।
आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा तीन बार करना, तीन बार अवनति, चार बार सिर नवाना और बारह आवर्त ये सब क्रियाकर्म है । पंच महाव्रतों के आचरण में लीन,धर्म में उत्साह वाला, उद्यमी, मानकषाय रहित, निर्जरा को चाहने वाला, दीक्षा से लघु ऐसा संयमी कृतिकर्म को करता है । मूलाचार ग्रन्थ मुनियों के आचार का ग्रन्थ है इसलिए यहां मुनियों के लिए ही कृतिकर्म करना बताया गया है परन्तु श्रावक व अविरत सम्यग्दृष्टियों को भी यथाशक्ति कृतिकर्म अवश्य करना चाहिए ।