कषायप्राभृत ग्रंथ में कहा है- जिण-सिद्धाइरिय-बहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम। तस्स आदाहीण-तिक्खुत्त-पदाहिण-तिओणद-चदुसिर-वारसावत्तादि-लक्खणं विहाणं फलं च किदियम्मं वण्णेदि। जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है उसे कृतिकर्म कहते हैं । उस कृतिकर्म के आत्माधीन होकर किए गए तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद तथा फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है। षट्खण्डागम पुस्तक-१ से प्रमाण-
दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेव वा । चउसीसं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजए।।६४।।
कृतिकर्म अधिकार अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गणचिन्तक (साधुसंघ के कार्यों की चिन्ता करने वाले ) और गणवृषभ (गणधर) आदिकोंकी की जाने वाली पूजा के विधान का वर्णन करता है। यहाँ उपयुक्त गाथा-यथाजात अर्थात् जातरूप के सदृश क्रोधादि विकारों से रहित होकर दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धियों से संयुक्त कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिये ।।६४।। गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ से प्रमाण-
द्वादशावर्तादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधानं च वर्णयति।
जिसमें कृति अर्थात् क्रिया का कर्म-विधान कहा जाता हैं, वह क्रियाकर्म है। उसमें अरहन्त, सिद्ध-आचार्य, बहुश्रुत (उपाध्याय), साधु आदि नौ देवताओं की वन्दना के निमित्त आत्माधीनता (अपने अधीन होना) , तीन बार प्रदक्षिणा, तीन बार नमस्कार, चार बार सिर नमाना, बारह आवर्त आदि रूप नित्य-नैमित्तिक क्रिया-विधान का वर्णन होता है। षट्खण्डागम ग्रंथ में कहा है-
तं किरियाकम्मं छव्विहं आदाहीणादिभेदेण । तत्थ किरियाकम्मे कीरमाणे अप्पा-यत्तत्तं अपरवसत्तं आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्मं किण्ण कीरदे ? ण ; तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिंदादिअच्चासणदुवारेण कम्म-च। वंदणकाले गुरुजिणजिणहराणं पदक्खिणं काऊण णमंसणं पदाहीणं णाम। पदाहिणणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम। अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरुरिसिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जंति त्ति तिक्खुत्तं णाम। तिसंज्झासु चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण कीरदे ? ण; अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो । तिसंज्झासु वंदणणियमपरूवणट्ठं तिक्खुत्तमिदि भणिदं । ओणदं अवनमनं भूमावासनमित्यर्थ:। तं च तिण्णिवारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं । तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो जिणिंददंसण-जणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे बइसदि तमेगमोणदं। जमुट्ठिऊण जिणिंदादीणं विण्णत्तिं कादूण बइसणं तं बिदियमोणदं। पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धिं काऊणसकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं वंदणं काऊण ुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए बइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होंति । सव्वकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिंदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सीसं। थोस्सामिदंडयस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं । एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो एदेण कदो, अण्णत्थणवणणियमस्स पडिसेहाकरणादो । अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि ; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं पउत्ति-दंसणादो। सामाइयथोस्सामिदंडयाणं आदीए अवसाणे च मणवयणकायाणं विसुद्धिपरावत्तणवारा बारम हवंति। तेण एगं किरियाकम्मं बारसावत्तमिदि भणिदं । एदं सव्वं पि किरियाकम्मं णाम। अब क्रिया कर्म का अधिकार है ।।२७।। इसके अर्थ का खुलासा अगले सूत्र में करते हैं- आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना, तीन बार अवनति, चार बार सिर नवाना और बारह आवर्त, यह सब क्रियाकर्म है ।।२८।। आत्माधीन होना आदि के भेद से वह क्रियाकर्म छह प्रकार का है। उनमें से क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीन होना कहलाता है। शंका-पराधीनभाव से क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होता और जिनेंद्रदेव आदि की आसादना होने से कर्मों का बन्ध होता है। वंदना करते समय गुरु, जिन और जिनगृह की प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओं का तीन बार करना त्रि:कृत्वा है। अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु और ऋषियों की वदंना तीन बार की जाती है, इसलिये इसका नाम त्रि:कृत्वा है। शंका-तीनों ही संध्याकालों में वंदना की जाती है, अन्य समय में क्यों नहीं की जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अन्य समय में भी वंदना के प्रतिषेध का कोई नियम नहीं है “ तीनों सन्ध्या कालों में वंदना के नियम का कथन करने के लियें ‘त्रि:कृत्वा’ ऐसा कहा है। ‘ओणद’ का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमि में बैठना है। वह तीन बार किया जाता है। इसलिये तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा- शुद्धमन, धौतपाद और जिनेंद्र के दर्शन से उत्पन्न हुये हर्ष से पुलकित वदन होकर जो जिनदेव के आगे बैठना, यह प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेंद्र आदि के सामने विज्ञप्ति कर बैठना, यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देह का उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) करके, जिनदेव के अनन्त गुणों का ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करके फिर जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके जो भूमि में बैठना, वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं। सब क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। यथा-सामायिक के आदि में जो जिनेंद्रदेव को सिर नवाना वह एक सिर है। उसी के अन्त में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। ‘थोस्सामि’ दण्डक के आदि में जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसी के अन्त में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:शिर होता है। इससे अन्यत्र नमनका प्रतिषेध नहीं किया गया है, क्योंकि शास्त्र में अन्यत्र नमन करने के नियम का कोई प्रतिषेध नहीं है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर अर्थात् चतु:प्रधान होता है, क्योंकि अरिहंत, सिद्ध, साधु, और धर्म को प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। सामायिक और थोस्सामि दण्डक के आदि और अन्त में मन , वचन और काय की विशुद्धि के परावर्तन बारह बार होते हैं, इसलिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्त से युक्त कहा है। यह सब ही क्रियाकर्म है। मूलाचार में कहा है-
गाथार्थ-जातरूप सदृश (मुनि२) दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें।।६०३।। आचारवृत्ति टीका- दोणदं- द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ द्वितीयाऽवनति: शरीरनमनं द्वे अवनती जहाजादं-यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमान-मायासंगादिरहितं । बारसावत्तमेव य द्वादशावत्र्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवत्र्तास्तथा पंचनमस्कारसमाप्तौ मनोवचनकायानां शुभवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावत्र्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकाया: शुभवृत्तयस्त्रीण्यपराण्यावत्र्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तय-स्त्रीण्यावत्र्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावत्र्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वार: प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति, चदुस्सिरं चत्वारि शिरांंसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणं तथा चतुर्विंशति-स्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुंत्ते करोति । द्वे अवनती यस्मिन् तत् द्व्यवनति क्रियाकर्म द्वादशावत्र्ता: यस्मस्तत् द्वादशावत्र्तं, मनोवचनकायशुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतु:शिर: क्रियाकर्मैवं विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रयुंजीतेति।।६०३।। आचारवृति (हिन्दी)-दो अवनति-पंच नमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि में दूसरी बार अवनति-शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करना ये दो अवनति हैं। यथाजात-जातरूप सदृश क्रोध,मान,माया और संग-परिग्रह या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं। द्वादश आवर्त-पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन वचन काय के संयमनरूप शुभयोगों की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त, पंचनमस्कार की समाप्ति में मनवचनकाय की शुभप्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त, तथा चतुर्विंशति स्तव की आदि में मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त एवं चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त-ऐसे मन वचन काय की शुभप्रवृत्तिरूप बारह आवर्त होते हैं। चतु:शिर-पंचनमस्कार के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में मुकुलित करके माथे से लगाना ऐसे चार शिर-शिरोनति होती हैं। इस तरह से एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैंं। मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक यथाजात मुनि इस विधानयुक्त कृतिकर्म का प्रयोग करें। आचारसार ग्रंथ में कहा है-
अन्वयार्थ-(अस्यां) इस (क्रियायां) क्रिया में (अस्या:) इस (भत्तेâ:) भक्ति का (व्यत्सर्गं) कायोत्सर्ग (अहं) मैं (करोमि) करता हूं (इति) इस प्रकार (विज्ञाय) विज्ञापन करके (समुत्थाय) उठकर (गुरुस्तवनपूर्वकम्) गुरु स्तवन पूर्वक (निजं) अपने (करसरोजातमुकुलालंकृतं) हस्त कमल की कुड्मलाकृति को (भाललीलासर:) ललाट पर (कृत्वा) करके (त्र्यावत्र्तां) तीन आवर्त और (शिरस:) मस्तक से (नतिं) नमस्कार को (कुर्यात्) करे । भावार्थ-मैं इस क्रिया में इस भक्ति का कायोत्सर्ग करता हूं। जैसे-पौर्वाह्निक देववंदना में ’’चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इस प्रकार विज्ञापन करे । तदनंतर उठकर ’’णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर अपने कर कमल की अंजुलि को मस्तक पर रखकर तीन आवर्त सहित नमस्कार करे ।।३५-३६।।
अन्वयार्थ-(आद्यस्य) आदि (दंडकस्य) दंडक के (आदौ) आदि में (मंगलादे:) मंगलादि का (अयं) यह (क्रम:) क्रम है । (तदन्ते) चत्तारिमंगलं आदि दंडक के अन्त में (अपि) भी (अंगव्युत्सर्ग:) कायोत्सर्ग (कार्य:) करना चाहिये। (अत:) इसलिए (तदनन्तरं) इसके बाद (तथैव) उसी प्रकार (थोस्सामि) थोस्सामि (इत्यादि) इत्यादि पाठ (कुर्यात्) करे (इति) इस प्रकार (अस्मिन्) कायोत्सर्ग में (आर्याद्यन्तयो:)
आर्या छंद
थोस्सामि स्तवन के आदि और अन्त में (अपि) भी (द्वादशावत्र्ता:)
बारह आवर्त (शिरोनतिचतुष्टयं) चार शिरोनति (कुर्यात्) करना चाहिये ।
भावार्थ-एक भक्ति के दंडक की आदि में मंगलादि का यही क्रम है अर्थात् भक्तिपूर्वक क्रिया और भक्ति का विज्ञापन करे । एक शिरोनति और तीन आवत्र्त करके दंडक पढ़े । दंडक के बाद एक शिरोनति और तीन आवत्र्त करके कायोत्सर्ग करे । तदनन्तर एक शिरोनति और तीन आवर्त करे । इस प्रकार एक कायोत्सर्ग में चार शिरोनति और बारह आवत्र्त करना चाहिये ।।३७-३८।।
ग्रंथारंभे समाप्तौ च स्वाध्याये स्तवनादिषु । सप्तविंशतिरुच्छ्वासा व्युत्सर्गे दुर्मनस्यपि।।३९।।
अन्वयार्थ-(स्वाध्याये) स्वाध्याय में (च) और (स्तवनादिषु) स्तवन आदि में (दुर्मनसि अपि) विकृति परिणाम के होने पर भी (व्युत्सर्गे) कायोत्सर्ग में (सप्तविंशति:) सत्ताईस (उच्छ्वास:) उच्छ्वास हैं।
भावार्थ-ग्रन्थ के आरम्भ, समाप्ति, स्वाध्याय, पंचपरमेष्ठी की वन्दना और दुर्भावना के कायोत्सर्ग में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करना चाहिए ।।३९।। चारित्रसार में कहा है- क्रियां कुर्वाणो वीर्योपगूहनमकृत्वा शक्त्यनुरूपत: स्थितेनाशक्त: सन् पर्यंकासनेन वा त्रिकरणशुद्ध्या संपुटीकृतकर: क्रियाविज्ञापनपूर्ववंâ सामायिक-दंडकमुच्चारयेत् , तदावत्र्तत्रयं यथाजातं शिरोन्नमनमेवं भवति, अनेन प्रकारेण सामायिकदंडकसमाप्तावपि प्रवत्र्य यथोक्तकालं जिनगुणानुस्मरणसहितं कायव्युत्सर्गं कृत्वा द्वितीयदण्डकस्यादावन्ते च तथैव प्रवत्र्तनं, एवमेवैकस्य कायोत्सर्गस्य द्वादाशावत्र्ताश्चत्वारि शिरोवनमनानि भवन्ति । अथवैकस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे चैत्यादीनामभिमुखीभूतस्याऽऽवत्र्तत्रयैकावनमने कृते चतसृष्वपि दिक्षु द्वादशावत्र्ताश्चतस्र: शिरोवनतयो भवन्ति । आवत्र्तानां शिर:प्रणतीनामुक्तप्रमाणा-दाधिक्यमिति न दोषाय। उक्तं च-
दुउणदं जहाजादं वारसावत्तमेव च । चदुस्सिरं तिसुिंद्ध च किदियम्मं पउंजदे।।
क्रिया करते समय अपनी शक्ति को कभी नहीं छिपाना चाहिये ,अपनी शक्ति के अनुसार खड़े होकर कायोत्सर्ग करना चाहिये । यदि खड़े होने की सामथ्र्य न हो तो पर्यंकासन से बैठकर करना चाहिये । मन, वचन,काय तीनों की शुद्धतापूर्वक दोनों हाथों का संपुट बांधकर करने योग्य क्रियाओं की प्रतिज्ञा कर सामायिक दंडक के (सामायिक पाठ का) उच्चारण करना चाहिये । उस समय तीन आवर्त, यथाजात अवस्था धारण कर एक शिरोनति करना चाहिये । इसी प्रकार सामायिक दंडक के समाप्त होने पर भी सब क्रियाएं करनी चाहिये । इस तरह शास्त्रों मेें लिखे हुए समय तक भगवान् जिनेन्द्र देव के गुणों का स्मरण करते हुए कायोत्सर्ग करना चाहिये । इसी प्रकार दूसरे दंडक के प्रारंभ और अंत में करना चाहिये। इस प्रकार एक-एक कायोत्सर्ग के बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं अथवा एक-एक प्रदक्षिणा में (दिशा बदलते समय ) उस दिशा संबंधी चैत्य-चैत्यालय के सन्मुख तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये । इस प्रकार चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनति करनी चाहिये । आवर्त और शिरोनति का जो प्रमाण ऊपर लिखा है उससे अधिक करना कुछ दोष नहीं गिना जाता । कहा भी है-दुउणदं इत्यादि । अर्थात्-दो आसनों से यथाजात अवस्था धारण कर बारह आवर्त, चार शिरोनति और मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक काल का नियम कर प्रभु की वंदना करनी चाहिये। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है-
अधुना सामायिकगुणसम्पन्नत्वं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह-चतुरावत्र्तत्रितयश्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात: । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।१८।। सामयिक: समयेन प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण चरतीति सामायिकगुणोपेत: । विंविशिष्ट:? चतुरावर्तत्रितय: चतुरो वारानावर्तत्रितयं यस्य । एवैकस्य हि कायोत्सर्गस्य विधाने ‘णमो अरहंताणस्य थोसामे’-श्चाद्यन्तयो: प्रत्येकमावर्तत्रितयमिति एवैकस्य हि कायोत्सर्गविधाने चत्वार आवर्ता तथा तदाद्यन्तयोरेवैकप्रणामकरणाच्चतु: प्रणाम: स्थित ऊध्र्वंकायोत्सर्गोपेत: । यथाजातो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहचिन्ताव्यावृत्त:। द्विनिषद्यो द्वे निषद्ये उपवेशने यस्य । देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणाम: कर्तव्य: । त्रियोगशुद्ध: त्रयो योगा मनोवाक्कायव्यापारा: शुद्धा सावद्यव्यापाररहिता यस्य । अभिवन्दी अभिवन्दत इत्येवंशील: । कथं ? त्रिसंध्यं ।।१८।। अब वह श्रावक सामायिक गुण से संपन्न होता है, यह कहते हैं- चतुरावर्तेति-(य:) जो (चतुरावर्तत्रितय:) चार बार तीन तीन आवर्त करता है, (चतु:प्रणाम:) चार प्रणाम करता है, (स्थित:) कायोत्सर्ग से खड़ा होता है, (यथाजात:) बाह्माभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी होता है, (द्विनिषद्य:) दो बार बैठकर नमस्कार करता है (त्रियोगशुद्ध:) तीनों योगों को शुद्ध रखता है और (त्रिसन्ध्यं) तीनों सन्ध्याओं में (अभिवन्दी) वन्दना करता है (स:) वह (सामायिक:) सामायिक प्रतिमाधारी है। टीकार्थ-इस श्लोक में सामायिक प्रतिमा का लक्षण बतलाते हुए उसकी विधि का भी निर्देश किया गया है। सामायिक करने वाला पुरुष एक-एक कायोत्सर्ग के बाद चार बार तीन-तीन आवर्त करता है, अर्थात् प्रत्येक दिशा में ’णमो अरहंताणं‘ इस आद्य सामायिक दण्डक और ’थोस्सामिहं’ इस अन्तिम स्तव दण्डक के तीन-तीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है। श्रावक इन आवर्तादिक की क्रियाओं को खडे़ होकर करता है, सामायिक की अवधि के भीतराथाजात-नग्नमुद्राधारी के समान बाह्माभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से दूर रहता है। ‘देववन्दना’ करने वाले को प्रारम्भ में और समाप्ति में बैठकर प्रणाम करना चाहिये, इस विधि के अनुसार दो बार बैठकर प्रणाम करता है अर्थात् सामायिक प्रारम्भ करने के लिये प्रथम बार कायोत्सर्ग कर तीन आवर्त करता है, उसके बाद बैठकर पृथ्वी में शिर झुकाता हुआ नमस्कार करता है और सामायिक के बाद कायोत्सर्ग करता है, उसके बाद भी बैठकर पृथ्वी में शिर झुकाता हुआ नमस्कार करता है। तीनों योगों को शुद्ध रखता है अर्थात् वह सावद्य व्यापार का त्याग करता है और तीनों संध्याओं में वन्दना करता है ।
अनगारधर्मामृत में कहा है-
सामायिकादित्रयस्य व्यवहारानुसारेण प्रयोगविधिं दर्शयति- सामायिवं णमो अरहंताणमिति प्रभृत्यथ स्तवनम् । थोसामीत्यादि जयति भगवानित्यादिवन्दनां युंज्यात् ।।५६।। युंज्यात् संयतो देशसंयतो वा प्रयोजयेत् । विं तत् ? सामायिक सामायिकदण्डकम्। कीदृशम् ? णमो अरहंताणं इति प्रभृति । तथानन्तरं युञ्ज्यात् । विं तत् ? स्तवनं चतुविंशतिस्तवनं स्तवदण्डकम । कीदृशम् ? थोसामि इत्यादि। अथ अनतंरं युञ्ज्यात् । काम् ? जयति भगवानित्यादिवन्दनाम्। अत्रैक आदिशब्दो लुप्तनिर्दिष्टो द्रष्टव्य: । तेन अर्हत्सिद्धादिवन्दना गृह्मते । संयमी साधुओं को तथा देशसंयमी श्रावकों को भी णमो अरहंताणं आदि सामायिक दण्डक में बताये हुये पाठ के अनुसार सामायिक, और थोस्सामि इत्यादि पाठ के अनुसार चतुर्विंशतिस्तव, तथा ‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि उल्लेख के अनुसार वन्दना करनी चाहिये। इस श्लोक में एक आदि शब्द का लुप्त निर्देश है। अत एव इस वन्दना के प्रकरण में अरहंत वन्दना, सिद्ध वन्दना आदि का भी संग्रह समझ लेना चाहिये । विशेष- इस प्रकार श्रावक और श्राविकाएँ, देवदर्शन, अभिषेक पूजन व सामायिक में पूर्वकथित ‘कृतिकर्म विधि’ का प्रयोग करें। क्योंकि अनगारधर्मामृत में ‘‘युंज्यात् संयतो देशसंयतो वा’’ आया है। इस कथन से श्रावकों के लिए भी करना कहा है।
मुनियों के कृतिकर्म
षट्खण्डागम, कसायपाहुड़, मूलाचार, आचारसार आदि महान ग्रंथों में आचार्यदेव श्री पुष्पदंत-भूतबलिसूरि, श्री वुंâदवुंâददेव मूलाचार के टीकाकार सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य, आचारसार ग्रंथ के कर्ता सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वीरनन्दि आचार्य आदि अनेक आचार्यों ने-यह कृतिकर्म विधि बतलाई है तथा चारित्रसार ग्रंथ के कर्ता श्री चामुण्डराय श्रावक व अनगारधर्मामृत के कर्ता श्री आशाधर श्रावक जैसे विद्वानों ने भी पूर्वाचार्यों के अनुसार यथास्थान पूर्वाचार्यों के ग्रंथों के प्रमाण उद्धृत कर-कर इन क्रियाओं की पुष्टि की है। मुख्यरूप से ये कृतिकर्म मुनियों के अहोरात्र-दिनरात के अट्ठाईस माने हैं। उसी में त्रिकालदेववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति के दो-दो ऐसे २²३·६ कृतिकर्म देववंदना अर्थात् सामायिक के माने हैं। दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण के चार-चार व चार समय के स्वाध्याय के तीन-तीन तथा रात्रियोग प्रतिष्ठापन व निष्ठापन के दो ऐसे ६ + ८ + १२ + २ = २८ कृतिकर्म कहे हैं । इनका विस्तृत वर्णन मुनिचर्या नाम की पुस्तक में प्रयोगविधि में दिया गया है। प्राचीन प्रकाशित ‘क्रियाकलाप’ ग्रंथ में भी विस्तृत विवेचन है तथा मेरे द्वारा लिखित ‘दिगम्बर मुनि’ व ‘आर्यिका’ पुस्तकों में स्पष्टीकरण है। यहाँ मात्र संक्षेप में सप्रमाण ‘कृतिकर्म विधि’ का ही कथन है। यह कृतिकर्म विधि सभी श्रावक-श्राविका व बालक-बालिकाएँ सीखें तथा इस विधि से बीच-बीच में उठकर खड़े होना, गवासन से बैठना, आलोचना पढ़ना आदि क्रियाएँ करेंगे, तो महान पुण्य संचय के साथ-साथ स्वयं में महान आल्हाद-आनंद का अनुभव होगा तथा देखने वालों को भी बहुत ही अच्छा लगेगा। भगवान के प्रति विशेष विनय व भक्ति दिखेगी अत: आप सभी इस विधि को करना प्रारंभ करें, यही मेरा प्रयास है।