-नरेन्द्र छंद-
ढाई द्वीप में पाँच भरत हैं पाँच कहे ऐरावत।
पाँच महाविदेह क्षेत्रों में कर्मभूमि है शाश्वत।।
सुर नर निर्मापित बहु पूजित मुनि गण से नित वंदित।
जिनप्रतिमा जिनमंदिर अगणित वंदूँ भाव सहित नित।।१।।
-दोहा-
गणधर मुनिगण इंद्रगण, नित्य नमें नतशीश।
मन वच तन से भक्ति से, नमूँ नमूँ जगदीश।।२।।
-नरेन्द्र छंद-
जंबूद्वीप के दक्षिण दिश में, भरत क्षेत्र सुखकारी।
छह खंडों में आर्यखंड इक कर्मभूमि अति प्यारी।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।३।।
जम्बूद्वीप के उत्तर दिश में, ऐरावत अति सोहे।
छहखंडों में आर्यखंड इक कर्मभूमि जहाँ होहैं।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।४।।
जम्बूद्वीप के पूर्व अपर में क्षेत्र विदेह सुहावे।
बत्तिस कर्मभूमि में छह खंड आर्यखंड मन भावें।।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।५।।
पूर्वधातकी में दक्षिणदिश भरतक्षेत्र छह खंडा।
आर्यखंड में चौथे युग में तीर्थंकर सुखकंदा।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।६।।
पूर्व धातकी में उत्तरदिश ऐरावत शुभ सोहे।
छह खंडों मधि आर्यखंड में कर्मभूमि मन मोहे।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।७।।
पूर्व धातकी के पूर्वापर क्षेत्र विदेह सुहावे।
इसमें बत्तिस देश सभी में आर्यखंड मन भावे।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।८।।
अपरधातकी में दक्षिणदिश, भरतक्षेत्र छहखंडा।
आर्यखंड में छह परिवर्तन कर्मभूमि सुखकंदा।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।९।।
अपरधातकी में उत्तर दिश, ऐरावत शुभक्षेत्रा।
छहखंडों मधि आर्यखंड में तृषित सुरों के नेत्रा।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।१०।।
अपरधातकी में पूर्वापर महाविदेह कहावे।
उसमें बत्तिस देश सभी में कर्मभूमि मन भावे।।
इंद्र चक्रवर्ती मानव गण जिनमंदिर बनवाते।
उनकी जिनप्रतिमा को वंदत कर्मशत्रु भग जाते।।११।।
-गीता छंद-
वर पूर्वपुष्करद्वीप में दक्षिण दिशी शुभ भरत है।
इसमें छहों खंड मध्य में इक आर्यखंड विलसंत हैै।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१२।।
इस पूर्वपुष्करद्वीप में उत्तरदिशी ऐरावता।
छहखंड में इक आर्य है नर जन्म लेते सासता।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१३।।
इस पूर्वपुष्करद्वीप में पूरब व पश्चिम दिक्क में।
बत्तीस देश विदेह में षट्खंड मध्ये आर्य में।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१४।।
पश्चिम सुपुष्करद्वीप में दक्षिण दिशी शुभ भरत है।
इस मध्य आरजखंड में जब कर्मभू वर्तंत है।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१५।।
पश्चिम सुपुष्करद्वीप में उत्तरदिशी ऐरावता।
इस मध्य आरजखंड में जब कर्मभू हो शर्मदा१।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१६।।
पश्चिम सुपुष्करद्वीप में पूरब अपर सुविदेह हैं।
उनमें सदा है कर्मभूमी नर बनें गतदेह हैं।।
सुर इंद्र चक्री मनुजगण जिनधाम बनवाते सदा।
उनमें जिनेश्वरमूर्तियाँ वंदूँ इन्हें ये सौख्यदा।।१७।।
इन ढाई द्वीपों में कही हैं कर्मभू पंद्रह शुभा।
इन मध्य आरज खंड में जिनधर्म भास्कर की प्रभा।।
कृत्रिम जिनालय अगणिते मणिरत्न पार्थिव हैं यहाँ।
मैं नमूँ शीश नमाय के देवें अतुल सुख निधि यहाँ।।१८।।
इन ढाई द्वीपों के जिनालय सुर मनुजकृत अगणिते।
इन मध्य जिनवर बिंब राजें रत्नमणि के निर्मिते।।
चांदी कनक पाषाण आदि धातु की जिनमूर्तियाँ।
मैं नमूँ शीश नमाय के ये भरें आत्म विभूतियाँ।।१९।।
-शंभु छंद-
जय जय अर्हंतों की प्रतिमा, जय जय सिद्धों की प्रतिमायें।
जय जय आचार्यों की प्रतिमा, जय उपाध्याय की प्रतिमायें।।
जय जय साधूगण की प्रतिमा, जय जय जय जिनवर प्रतिमायें।
जय जय तीर्थंकर की प्रतिमा, इन वंदत आत्म निधी पायें।।२०।।
इस युग में सुरपति के आकर सब प्रथम अयोध्या पुरी रची।
इस मध्य जैनमंंदिर रचके चहुँदिश में जिनगृह रचना की।।
भरतेश्वर ने भि अयोध्या में बहुते जिनमंदिर बनवाये।
वैâलाशगिरि पर त्रय चौबीसि बहत्तर मंदिर बनवाये।।२१।।
हरिषेण चक्रपति ने रत्नों के अगणित मंदिर बनवाये।
श्रीरामचंद ने कुंथलगिरि पर बहुते मंदिर चिनवाये।।
युग आदी से अब तक लेकर जिनगृह असंख्य ही माने हैं।
उन सबकी जिनप्रतिमा पूजूँ ये भव भव के दुख हाने हैं।।२२।।
जय पांच भरत के जिनमंदिर जय पाँच ऐरावत के मंदिर।
जय पाँच विदेहों के मंदिर जय मुनिगण वंदित जिनमंदिर।।
इन पाँच विदेहों के सब इक सौ साठ देश कहलाते हैं।
पण भरत पांच ऐरावत मिल इक सौ सत्तर बन जाते हैं।।२३।।
इनमें भरतैरावत दश में षट् काल परावर्तन होते।
चौथे व पांचवें कालों में जिनमंदिर भविजन मल धोते।।
सब इक सौ आठ विदेहों में शाश्वत ही कर्मभूमि रहती।
जिनमंदिर वहाँ निरतंर हैं जिनधर्म ध्वजा वहां फरहरती।।२४।।
सुरगण भी कभी कभी ज्िानगृह जिनप्रतिमा की रचना करते।
नरपति खगपति साधारण नर जिनगृह को निर्मापित करते।।
माणिक्य नीलमणि गरुत्मणी रत्नों की प्रतिमा बनवाते।
सोना चांदी पीतल तांबा पाषाण आदि की बनवाते।।२५।।
फिर पंच कल्याण प्रतिष्ठाकर मूर्ती को पूज्य बनाते हैं।
जिनवर के गुण आरोपण कर वर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं।।
ये मूर्ति अचेतन होकर भी चेतन भगवान बनें तब ही।
निज भक्तों को वांछित देकर चेतन भगवान करें तब ही।।२६।।
अर्हंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु पांच परमेष्ठी हैं।
जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा जिनगृह मिल नवों देवता हैं।।
पांचों परमेष्ठी नवदेवों की मूर्ति मंदिरों में सोहें।।
माँ सरस्वती की मूर्ति मुनी गणधर की प्रतिमा मन मोहें।।२७।।
निजमूर्ति सहस्रकूट मंदिर अरु तीस चौबीसी प्रतिमायें।
महाव्रत से पवित्र आर्यिकाओं की मूर्ति नमत ही सुख पाये।।
जिनशासन यक्ष यक्षिणी की मूर्ती जिनगृह में रहती हैं।
दिक्पाल क्षेत्रपालों की भी मूर्ती विघ्नों को हरती हैं।।२८।।
इन पंद्रह कर्मभूमियों के सब जिनमंदिर मैं नमूँ नमूूँ।
सब जिनवर की प्रतिमाओं को, मैं नित्य नमूँ मैं नित्य नमूँ।।
सब पंच परमगुरु आदि बिंब जितने भी कृत्रिम इस जग में।
मैं नमूँ नमूँ नित भक्ती से मुझ मनरथ पूरे हों क्षण में।।२९।।
-दोहा-
जितने जिनमंदिर यहाँ, जिनप्रतिमा सुरवंद्य।
नमत स्वात्मसुख प्राप्त हो, ज्ञानमती आनंद।।३०।।