कृषि एवं उद्यानिकी फसलों का उत्पादन एवं पर्यावरण संरक्षण
मिट्टी एक जीवित पदार्थ है, अत: इसकी देखभाल भी अन्य जीवित प्राणियों की तरह ही होनी चाहिये। हमारे देश में हरित क्रांति में जो भूमि की उर्वरता नष्ट करने, नदी—नाालों को प्रदूषित करने तथा मनुष्य शरीर में विषैलापन भरने के प्रयास किये हैं, अब उन्हें बदला जाना आवश्यक है। आज के परिप्रेक्ष्य में यह अत्यन्त जटिल कार्य होगा कि पर्यावरण की रक्षा करते हुए कृषि, उद्यानिकी फसलों का उत्पादन कैसे बढ़ायें । कृषि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बन्द कर जीवाणु खाद का उपयोग करने की आवश्यकता है। कृषि रासायनिक उर्वरकों की तुलना में सस्ता एवं प्रदूषण रहित है। जैविक विधि से रोग नियंत्रण भी एक सरल उपाय है।
जैविक खाद
कुछ पौधोें के उत्पादों में (खाने के अयोग्य ) उर्वरक तत्व एवं कीटनाशक गुण पाये जाते हैं। फसल एवं पेड़ पौधों के उत्पादन में १६ तत्वों की आवश्यकता होती है जिसमें ६ मुख्य तत्व एवं १० गौड़ तत्व हैं, मुख्य तत्व एन (नाइट्रोजन), पी (फास्फोरस), के (पोटाश), कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन हैं, जिन्हें पौधे अपने आप ग्रहण कर लेते हैं। १० गौड़ तत्व केलशियम, बोरोन, मैग्नीज, मैग्नीशियम, मौलीविडनम, क्लोरीन, आयरन, कोपर, जस्ता, आदि हैं। जब सूक्ष्म तत्वों की कमी होती है तब इन तत्वों को अलग से देकर अधिक उत्पादन ले सकते हैंं। लेकिन हर वर्ष इन तत्वों की पूर्ति रासायनिक खाद, उर्वरक, दवाओं के रूप में करते—करते भूमि की उर्वरता नष्ट हो रही है। फसलों पर इन तत्वों को खाद और दवा के रूप में न देकर जैविक विधियों से पैदा कर पूर्ति की जा सकती है, जिससे भूमि की उर्वरता नष्ट न होकर जन्म जन्मांतरों के लिये बढ़ती चली जाती है और अच्छा उत्पादन होता है, कुप्रभाव भी नहीं होता। प्रदूषण से भी बचा जा सकता है, पर्यावरण की भी रक्षा की जा सकती है। अर्थात् यों भी कहें कि कृषि उत्पादन जीवाणु खाद या जैविक कीट नियंत्रण से ही बढ़ाया जाकर पर्यावरण की रक्षा सम्भव है। जीवाणु खाद में गोबर, मलमूत्र, कूड़ा करकट गोबर गैस, केचुए की खाद, नील, हरितकाई, नीमखली, तिल अलसी, सोयाबीन, महुआ की खली आदि जीवाणु खाद नाडेप विधि द्वारा बनाई जाती है, केचुऐं द्वारा भी तैयार की जाती है।
जीवाणु खाद से लाभ
१.नीमखली को गोबर के साथ उपयोग करने से पौधों की जड़ों में गठाने बनती है,दीमक का प्रकोप नहीं होता। जमीन के पी.एच. को नीमखली संशोधित करती है।
२. नीम, तिल, सोयाबीन, अलसी की खली जानवरों का भोजन है।
३.नाडेप से बने खाद में सभी तत्व अधिक से अधिक मात्रा में मौजूद रहते हें, इसके उपयोग से रासायनिक खाद की तुलना में अधिक उपज मिलती है।
४. वैंचुए जमीन की तीन मीटर गहराई तक जुताई कर देते हैं, १० एम.एम. की सतह तक जितना ह्यूमस दो सौ वर्षों में एकत्रित होता है उतना वैंचुए एक वर्ष में एकत्रित करते हैं। यह पर्यावरण या किसान के मित्र कहे जा सकते हैं। इनके उपयोग से (कचरे से) खाद बनती है, वह संतुलित खाद होती है, जिससे रासायनिक खाद तथा दवाईयों की बचत होती है, बंजर भूमि में सुधार’ हो जाता है। भू—जल में वृद्धि दूषित जल की सफाई, कम खर्च से अधिक पैदावार एवं गुणवत्ता वाली उपज मिलती है।
५. जीवाणु वाली खादोें से सुरक्षा मिलती है, इस खाद में पौध संवद्र्धन के लिये प्राकृतिक इन्जाइम, प्रोटीन, विटामिन एवं खनिज उपलब्ध होते हैं।
६. जैविक खाद मेें सूखा,पाला हिमपात एवं विपरीत मौसम को सहन करने की शक्ति होती है। जैविक खाद से फल, फूल, औषधि एवं सब्जी फसलों की ताजगी अधिक समय तक बनी रहती है। बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति रहती है।
७. नील, हरितकाई, १० किलोग्राम के मान से उपयोग करने पर १५ से ३० किलोग्राम वायुमण्ड—लीय नत्रजन का स्थिरीकरण होता है। हरितकाई से आक्सिल, जिब्रेलिक एसिड प्राप्त होता है जो फसल की वृद्धि के लिये आवश्यक है।
जैविक कीटनाशक
विभिन्न उत्पादों —गाय का मूत्र, नीम तेल, नीम की पत्ती, नीम का पाउडर, मिर्च लहसुन, प्याज, अलसी का तेल, साबुन, राख, नीलाथोथा, तम्बाकू या जला हुआ डीजल, मिट्टी का तेल कीटनाशक के रूप में उपयोग करना चाहिए। जल शक्ति, सौर्य ऊर्जा, सौरीकरण (गैंदा, सूर्यमुखी, सोयबीन) फसल चक्र अपनाकर एवं प्लास्टिक शीट का उपयोग कर कीटों को रोका जा सकता है।
जैविक कीटनाशक से लाभ
१.यह छिड़काव, बुरकाव करने वाले व्यक्ति, जानवरों के लिये सुरक्षित है। यह अखाद्य होकर भी हानिरहित है, इनको घर पर ही सरलता से तैयार किया जाता है, यह कम खर्चीले हैं।
२.ये आसानी से इधर—उधर ले जाये जा सकते हैं, इनके उपयोग से स्वास्थ्य के लिये कोई हानि नहीं होती। यह किसी लाभदायक प्रजाति को पूर्णत: नष्ट या लुप्त नहीं करते,इससे प्रकृति का संतुलन बना रहता है।
३.ये हानि रहित हैं, वातावरण प्रदूषित होने का खतरा नहीं रहता।
४.अन्तरवर्तीय फसलें बोकर भी जैविक खाद और जैविक नियंत्रण का लाभ किसानों को मिल सकता है। अत: कृषकों को अधिक उत्पादन लेने के लिये सलाह दी जाती है कि वह २५ नीम के पेड़ अवश्य लगायें, स्वयं के बीज तैयार करें, स्वयं का खाद नाडेप विधि से या जीवाणु विधि से तैयार करें। स्वयं की दवा का उपयोग करें एवं १० प्रतिशत जगह में फलदार पेड़—पौधे लगायें।
सुरेश जैन ‘मारोरा’
विरिष्ठ उद्यान विकास अधिकारी
जीवन सदन, सर्विट हाउस के पास, शिवपुरी—४७३५५१ (म.प्र.)