साधु के २८ मूलगुणों में से एक गुण केंशलोच भी है। जघन्य ४ महीने,मध्यम तीन महीने और उत्कृष्ट दो महीने के पश्चात् वह अपने बालों को अपने हाथों से उखाड़ते है। इस पर से उसके आध्यात्मिक बल की तथा शरीर पर से उपेक्षा भाव की परीक्षा होती है। इस क्रिया में साधु मौन रहते हैं और इस दिन मुनि आर्यिका के लिए उपवास का विधान है । क्षुल्लक-क्षुल्लिका के लिए ऐसा विधान नहीं है वह नाई से भी बाल उतरवा सकते हैं और उपवास नहीं करते हैं।
मुनि- आर्यिका कौड़ी मात्र भी धन का संग्रह नहीं करते जिससे कि मुण्डन कार्य कराया जा सके, अथवा उक्त मुण्डनकार्य को सिद्ध करने के लिए वे उस्तरा या कैंची आदि औजार का भी आश्रय नहीं लेते क्योंकि उनसे चित्त में क्षोभ उत्पन्न होता है। इससे वह जटाओं को धारण कर लेते हों सो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि ऐसी अवस्था में उनके उत्पन्न होने वाले जूं आदि जन्तुओं की हिंसा नहीं टाली जा सकती है इसलिए अयाचक वृत्ति को धारण करने वाले साधुजन वैराग्यादि गुणों को बढ़ाने के लिए बालों का लोच किया करते हैं।