केवलज्ञान सभी ज्ञानों का चरमोत्कर्ष है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद ही आत्मा सम्पूर्ण रूप से अनावृत्त होती है एवं स्वाभाव में रमण कर शुद्ध चैतन्य की अनुभूति करते हुए सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार एवं निर्विकार अवस्था को प्राप्त करती है अर्थात् स्व—स्वरूप में स्थित होती है। प्राचीन काल में सर्वोच्च ज्ञान के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ, उन्हीं शब्दों में से ‘केवल’ शब्द धीरे धीरे सर्वोच्चतम ज्ञान के लिए स्थिर हो गया। इस काल में ‘केवल’ शब्द मात्र केवलज्ञानी के लिए ही प्रयोग नहीं होता था, बल्कि अवधिज्ञानी केवली, मन:पर्ययज्ञान केवली और केवलज्ञान केवली के लिए केवल शब्द का उल्लेख आगमों में मिलता है। अथवा यह भी संभव हो सकता है कि कालक्रम से अवधि और मन:पर्यव शब्द तो उस ज्ञान के लिए स्थिर हो गये और केवली शब्द केवलज्ञानी के लिए स्थिर हो गया। केवलज्ञान का लक्षण — श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में केवलज्ञान की सत्ता को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है। दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने केवलज्ञान को परिभाषित किया है, जो निम्न प्रकार से है
१. आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक निर्युक्ति में कहा है कि—सभी द्रव्यादि के परिणाम की सत्ता को विशेष जानने के कारण अनन्त, शाश्वत, अप्रतिपाती और एक प्रकार का जो ज्ञान है, वह केवलज्ञान है।
२. नंदीसूत्र के अनुसार—जो ज्ञान असहाय, शुद्ध, संपूर्ण, असाधारण और अनंत इन पांच विशेषणों से युक्त है, वह केवलज्ञान है।
३. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (७वीं शताब्दी) के मन्तव्यानुसार—शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारण व अनंत, ऐसा जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहा जाता है। अर्थात् पर्याय अनन्त होने से केवलज्ञान अनन्त है। सदा उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं होता इसलिए अप्रतिपाति है। आवरण की पूर्ण शुद्धि के कारण वह एक प्रकार का है।
मलधारी हेमचन्द्र ने इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार से किया है—
१. केवलज्ञान मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष है, इसलिए असहाय है।
२. वह निराकरण है, इसलिए शुद्ध है।
३. अशेष आवरण् की क्षीणता के कारण प्रथम क्षण में ही पूर्णरूप में उत्पन्न होता है, इसलिए वह सकल सम्पूर्ण है।
४. वह अन्य ज्ञानों के सदृश नहीं है, इसलिए असाधारण है।
५. ज्ञेय अनन्त है, इसलिए वह अनन्त है।
४. नंदीचूर्णि में जिनदासगणि (७वीं शताब्दी) ने वर्णन किया है कि जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानता—देखता है, वह केवलज्ञान है। नंदीर्चूिण पृ. २१
५. वादिदेवसूरि (१२वीं शताब्दी) प्रमाणनयतत्त्वालोक में उल्लेख किया है कि—सम्यग्दर्शन आदि अन्तरंग सामग्री और तपश्चर्या आदि बाह्य सामग्री से समस्त घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला तथा समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को प्रत्यक्ष करने वाला केवलज्ञान सकल पारर्मािथक प्रत्यक्ष कहलाता है।
सकलं तु सामग्री विशेषत: समुद्भूतं समस्तावरणक्षयोपक्षं,
निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारिस्वरूपं केवलज्ञानम्।
—प्रमाणनयतत्वालोक सूत्र २२३, पृ. २४ ६.
तत्त्वार्थसूत्रभाष्य के टीकाकार सिद्धसेनगणि के अनुसार—केवल अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञेय को जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। वह समस्त द्रव्य एवं उनकी पर्यायों को परिच्छेदन होता है, अथवा मति आदि ज्ञानों से रहित ज्ञानावरण कर्म के पूर्व क्षय से उत्पन्न एक मात्र केवलज्ञान है।
दूसरे कोई भेद—प्रभेद नहीं होते हैं।
केवलं सम्पूर्णज्ञेयं तस्स तस्मिन् वा सकलज्ञेये यज्ज्ञानं तत् केवलज्ञानम् सर्वद्रव्यभावपरिच्छेदीतियावत्।
अथवा केवलं एकं मत्यादिज्ञानरहितमात्यन्तिका— ज्ञानावनणक्षयप्रभवं केवलज्ञानं आद्यिमान्स्वप्रभेदम्।
—सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, १.९ पृ. ७० ७.
आचार्य हेमचन्द्र (१२वीं शताब्दी) के कथनानुसार—आवरणों का सर्वथा क्षय हो जाने पर चेतन आत्मा का स्वरूप प्रकट हो जाना मुख्य प्रत्यक्ष है।
तत सवर्थावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम्।
— प्रमाणमीमांसा, (पं. सुखलाल सिंघवी) अध्याय १.१५ पृ. १० ८.
विशेषावश्यक भाष्य के टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र (१२ वीं शताब्दी) ने उल्लेख किया है कि—जिस ज्ञान से जीवादि सभी द्रव्यों को तथा प्रयोग, स्वभाव और विस्त्रसा परिणाम रूप उत्पाद आदि सभी पर्यायों से युक्त सत्ता को विशेष प्रकार से जाना जाता है एवं भेद बिना भी सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अस्ति रूप से जाना जाता है, वह केवलज्ञान है। मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८२३ की टीका, पृ. ३३६ ९.
उपाध्याय यशोविजयजी (१८वीं शताब्दी) के ज्ञानबिन्दु प्रकरण के मन्तव्यानुसार—जो आत्ममात्र सापेक्ष है, बाह्य साधन निरपेक्ष है, सब पदार्थों को अर्थात् त्रैकालिक द्रव्य पर्यायों को साक्षात् विषय करता है, वही केवलज्ञान है।ज्ञानबिन्दुप्रकरणम् पृ. १९ १०.
घासीलालजी महाराज के अनुसार—जिस ज्ञान में ज्ञानावरणी कर्म का समूल क्षय होता है; भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानकाल के समस्त पदार्थ जिसमें हस्तामलकवत् जिसमें प्रतिबिम्बत्व होते रहते हैं तथा जो मत्यादिक क्षायोपशिक ज्ञानों से निरपेक्ष रहता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। घासीलालजी म., नंदीसूत्र, पृ. १७, १८
१. आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी) के प्रवचनसार के अनुसार—जो ज्ञान प्रदेश रहित (कालाणु तथा परमाणुओं) को प्रदेश सहित (पंचास्तिकायों) को, मूर्त तथा अमूर्त तथा शुद्ध जीवादिक द्रव्यों को, अनागत पर्यायों को और अतीत पर्यायों को जानना है, उस ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं।
अपदेसं सपदेसं मुत्तमुत्तं च पज्जयमजादं।
पलयं गयं च जाणादि तं णाणमिंददियं भणियं।
—प्रवचनसार, गाथा ४१, पृ. ७०
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में केवलज्ञान का लक्षण व्यवहारनय और निश्चयनय की दृष्टि से भी किया है—व्यवहारनय से केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं। नियमसार, हस्तिनापुर, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्था, प्रत्र सं. १९८५, गाथा १५९, पृ. ४६३ निश्चयनय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान स्व—पर—प्रकाशक है। वह स्वप्रकाशी है इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चयनय से आत्मा को जानता देखता है, यह लक्षण संगत है। वह परप्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता देखता है, यह लक्षण व्यवहारनय से संगत है।
२. कषायपाहुड के आचार्य गुणधरानुसार (प्रथम शताब्दी)—असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है। इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है, उसे केवलज्ञान कहते हैं।कसायपाहुडं, पृ. १ पृ १९
३. आचार्य भूतबलि पुष्पदंत (प्रथम शताब्दी) के अनुसार—वह केवलज्ञान सकल है, संपूर्ण है और असपत्न है।
तं च केवलणाणं संगलं संपुण्णं असवतं षट्खण्डागम
पु. १३ सूत्र ५.५.८१ पृ. ३४५
४. अमृतचन्द्रसूरि ने तत्त्वार्थसार में कहा है कि—जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित, आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, कर्मरहित हो, घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं।
असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणमक्रमम्।
घातिकर्मक्षयोत्पन्नं केवल सर्वभावगम्।
—तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, गाथा ३० पृ. १५ ५.
पूज्यपाद (५-६वीं शताब्दी) के अनुसार—अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यंतर तप के द्वारा मोक्षमार्ग का सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है।सर्वार्थसिद्धि, १.९, पृ. ६८ ६.
अकलंक (८वीं शताब्दी) के कथनानुसार—जिसके लिए बाह्य और आभ्यंतर विविध प्रकार के तप किये जाते हैं, वह लक्ष्य भूत केवलज्ञान है। यहां केवल शब्द असहाय अर्थ में है जैसे केवल अन्न खाता है अर्थात् शाक आदि रहित अन्न खाता है, उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानों की सहायता से रहित असहाय केवलज्ञान है। यह रूढ़ शब्द है।तत्त्वार्थराजर्वाितक, १.९.६-७ पृ. ३२ ७.
आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव के अनुसार—जो ज्ञान समस्त द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायों को जानने वाला है, समस्त जगत् को देखने का नेत्र है तथा अनंत है,एक और अतीन्द्रिय है अर्थात् मतिश्रुत ज्ञान के समान इन्द्रियजनित नहीं है, केवल आत्मा से ही जानता है, उसे जिन भगवान ने केवलज्ञान कहा है।
अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम्।
अनंतमेकमत्यक्षं केवलं र्कीिततं जिनै:।
—ज्ञानार्णव, पृ. ७ गथा ८, पृ. १६३
८. वीरसेनाचार्य (९वी शताब्दी) धवलाटीका में कहते हैं कि—१. जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित हे, त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से समवायसंबंध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, सर्वव्यापक (असंकुटित) है और असपत्न (प्रतिपक्षी रहित) है, उसे केवलज्ञान कहते हैं।षट्खण्डागम (धवला) पु. ६ सूत्र १.९.१.१४, पृ. २९
९. जो मात्र आत्मा और अर्थ के संनिधान से उत्पन्न होता है, जो त्रिकालगोचर समस्त द्रव्य और पर्यायों को विषय करता है, जो करण, क्रम और व्यवधान से रहित है, सकल प्रमेयों के द्वारा जिसकी मर्यादा नहीं पाई जा सकती, जो प्रत्यक्ष एवं विनाश रहित हे, वह केवलज्ञान है।षट्खण्डागम (धवला) पु. १३ सूत्र ५.५.२१ पृ. २१३
१०. गोम्मटसार में नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (११वीं शताब्दी) ने उल्लेख किया है कि—केवलज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्ष रहित, सर्वपदार्थ गत और लोकालोक में अंधकार रहित है अर्थात् केवलज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करने वाला है।
संपुण्ण तु समग्गं केवलमसवत्तं सव्वभाबगयं।
लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मणुदेव्वं।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती गोम्मटसयार (जीवकाण्ड), भाग २, गाथा, ४६० पंचसंग्रह में भी यही परिभाषा मिलती है।पंचसंग्रह गथा १२६, पृ. २७
११. कर्मप्रकृति (अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) के अनुसार—इन्द्रिय प्रकाश और मन की सहायता के बिना त्रिकालगोचर लोक तथा अलोक के समस्त पदार्थों का एक साथ अवभास (ज्ञान) केवलज्ञान है।अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत (डॉ. गोकुलचन्द्र जैन), कर्मप्रकृति, नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. ६
दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने केवलज्ञान को परिभाषित करते हुए केवलज्ञान के लिए विभिन्न विशेषणों का प्रयोग किया है, यथा परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्वभाव प्रज्ञापक, संपूर्ण लोकालोक प्रकाशक, अनंत पर्याय इत्यादि, जिनका अर्थ निम्न प्रकार से है—
१. परिपूर्ण—केवलज्ञान सभी द्रव्य और उसकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को जानता है, इसलिए यह ज्ञान परिपूर्ण कहलाता है। सभी जानने योग्य पदार्थों को जानने वाला होने से परिपूर्ण है।
केवलं परिपूर्ण समस्तज्ञेयावगमात्।
—मलधारी हेमचन्द्र, पृ. ३३७
२. समग्र (सम्पूर्ण)—जो ज्ञान सम्पूर्ण होता है है वह केवलज्ञान है। यह ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों (रूपी—अरूपी) की समस्त त्रिकालवर्ती पर्यायों को समग्र रूप से ग्रहण करता है। चूंकि केवलज्ञान अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व आदि अनंत गुणों से पूर्ण है, इसलिए इसे सम्पूर्ण कहा जाता है। षट्खण्डागम पु. १३ सूत्र ५.५.८१ पृ. ३४५
३. सकल—केवलज्ञान अखंड होने से सकल है, समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नहीं होने से ज्ञान में जो खंडपना आता है, ऐसा खंडपना केवलज्ञान में संभव नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान के विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं अथवा—द्रव्य, गुण और पर्यायों के भेद का ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है, ऐसे ज्ञान के अवयवों का नाम कला है। इन कलाओं के साथ वह अवस्थित रहता है, इसलिए सकल है।वही
४. असाधारण—केवलज्ञान जैसा और कोई दूसरा ज्ञान नहीं होता है। मति आदि ज्ञान की अपेक्षा यह विशिष्ट है, इसलिए असाधारण है। घासीलाल जी म., नंदीसूत्र, पृ. १६६
५. निरपेक्ष—केवलज्ञान मत्यादिक ज्ञान की अपेक्षा निरपेक्ष है। केवलज्ञान होने पर मत्यादिक ज्ञान रहते नहीं है।३१ यह ज्ञान तो अपने आवरण का पूर्ण क्षय होने से होता है। इन्द्रियादि की अपेक्षा से रहित होता है, निरपेक्ष है। जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है। अथवा जो ज्ञान मनुष्य भव में उत्पन्न होता है, अन्य किसी भव में उत्पन्न नहीं होता है, उसकी अवस्थिति देह और विदेह दोनों अवस्थाओं में पाई जाती है।
६. विशुद्ध—चार ज्ञान क्षायोपशमिक होने से सर्वथा विशुद्ध नहीं होते हैं। जबकि केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के विगत (क्षय) होने पर ही होता है, अत: इसे विशुद्ध कहा गया है।
७. सर्वभाव—प्रज्ञापक—यह समस्त जीवादिक पदार्थो का प्ररूपक है, इसलिए यह सर्वभाव प्रज्ञापक है। शंका होती है कि केवलज्ञान को तो मूक बतलाया है, फिर यह पदार्थों का प्ररूपक कैसे हो सकता है ? समाधान में कहा गया है कि यह बात उपचार से सिद्ध होती है, अत: उसे प्ररूपक कहा है, क्योंकि समस्त जीवादिक भावों का सर्वरूप से यथार्थदर्शी ज्ञान केवलज्ञान है और शब्द केवलज्ञान द्वारा देखे हुए पदार्थों की ही प्ररूपणा करता है, इसलिए उपचार से ऐसा मान लिया जाता है कि केवलज्ञान ही उनका प्ररूपक है।३३
८. सम्पूर्ण लोकालोक विषयक—धर्मादिक द्रव्यों की जहाँ वृत्ति है, उसका नाम लोक है और इससे विपरीत अलोक है। इसमें आकाश के सिवाय और कोई द्रव्य नहीं है। यह अनंत और अस्तिकाय रूप है। लोक और अलोक में जो कुछ ज्ञेय पदार्थ होता है, उसका सर्वरूप से प्रकाशक होने से यह सम्पूर्ण लोकालोक विषयक कहा जाता है।३४
९. अनंत पर्याय—मत्यादिक—ज्ञान जिस प्रकार सर्वद्रव्यों को, उनकी कुछ पर्यायों को परोक्ष—प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं, उसी प्रकार यह ज्ञान नहीं जानते उसी प्रकार यह ज्ञान नहीं जानता है, किन्तु यह तो समस्त द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, इसलिए यह अनंत पर्याय कहा जाता है।३५
१०. अनन्त—वह पर्याय से अनन्त है। जो ज्ञान अनंत होता है, उसका नाम केवलज्ञान है। क्योंकि एक बार आत्मा में इस ज्ञान के हो जाने पर फिर उसका प्रतिपात नहीं होता है तथा ज्ञेय पदार्थ अनन्त होते हैं और जो उन अनंत ज्ञेयों को जानता है उसे भी अनंत माना गया है। अथवा जानने योग्य अनन्त विषय होने से यह अनन्त पर्याय वाला है, अत: केवलज्ञन अनन्त है। अथवा जितने ज्ञेयपदार्थ है, उनसे अनन्तगुण भी ज्ञेयपदार्थ हों तो भी उनको जानने की क्षमता होने से केवलज्ञान अनंत है।
११. एकविध—सर्वशुद्ध होने से एक प्रकार का है।३८ सभी प्रकार के ज्ञानावरण का क्षय होने से उत्पन्न होता है, अत: यह एकविध है।३९ षट्खण्डागम के अनुसार जो ज्ञान, भेद रहित हो, वह केवलज्ञान है। भेदरहितता एकत्व की सूचक है।४०
१२. असपत्न—सपत्न का अर्थ शत्रु है, केवलज्ञान के शत्रु कर्म हैं, वे शत्रु नहीं रहे हैं, इसलिए केवलज्ञान असपत्न है। उसने अपने प्रतिपक्षी का समूल नाश कर दिया है।४१
१३. शाश्वत— लब्धि की अपेक्षा प्रतिक्षण स्थायी है, अंतर रहित निरन्तर विद्यमान रहता है।४२ निरंतर उपयोग वाला होने से शाश्वत है।४३
१४. अप्रतिपाती—नाश को प्राप्त नहीं होने से अप्रतिपाती है। लब्धि की अपेक्षा त्रिकाल स्थायी है, अन्तरहित होने से अनन्तकाल तक विद्यमान रहता है अर्थात् उत्पन्न होने के बाद जिसका नाश नहीं होता है, वह अप्रतिपाती ज्ञान है। वह सर्व द्रव्यों के परिणामप्राप्त भावों के ज्ञान का कारण हैं।
प्रश्न—जो शाश्वत होता है वह अप्रतिपाती तो होता ही है, फिर ‘अप्रतिपाती’ अलग विशेषण क्यों दिया है ?
उत्तर—‘शश्वद् भवं शाश्वतम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अनवरत होता है, वह शाश्वत कहलाता है अर्थात् कोई भी पदार्थ जितने काल तक रहता है, तो वह निरन्तर (शाश्वत) ही रहता है। परन्तु इस अर्थ में अप्रतिपाती का अर्थ स्फुट नहीं होता है।
यहॉ ‘अनवरत’ रहने वाला ज्ञान कितने समय तक रहेगा ? इस प्रश्न की संभावना रहती है, इसलिए ‘अप्रतिपाती’ कहा गया है। केवलज्ञान एक बार होने के बाद हमेशा रहता है, उसका नाश नहीं होता है। इस बात को पुष्ट करने के लिए शाश्वत और अप्रतिपात विशेषण दिये हैं।४६
१५. असहाय—असहाय का अर्थ है कि इसमें इन्द्रिय आदि की तथा मति आदि ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती हैं, इसलिए केवलज्ञान पर की सहायता से रहित होने की वजह से असहाय माना गया है। जैसे कि मणि पर लगे हुए मल की न्यूनाधिकता और विचित्रता से मणि के प्रकाश में न्यूनाधिकता और विचित्रता होती है, यदि मणि पर लगा हुआ मल हट जाये, तो मणि के प्रकाश में होने वाली न्यूनाधिकता और विचित्रता मिटकर एक पूर्णता उत्पन्न हो जाती है। उसी प्रकार आत्मा पर जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का मल रहता है तब तक उसका न्यूनाधिक और विचित्र क्षयोपशम होता है, तभी तक आत्मा में न्यूनाधिक क्षयोपशम वाले मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान रहते हैं। परन्तु जैसे ही आत्मा पर लगा हुआ ज्ञानावरणीय कर्म मल नष्ट होता है, वैसे ही आत्मा में एक पूर्ण केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वही रहता है। यह केवलज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा न होने से असहाय है।
प्रश्न—केवलज्ञान आत्मा की सहायता से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते हैं।
उत्तर—नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं होती है, इसलिए इसे असहाय कहने में आपत्ति नहीं है।
प्रश्न—केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते हैं।
उत्तर—नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और उत्पन्न नहीं हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पायी जाती है, इसलिए यह अर्थ की सहायता से होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।४७
प्रश्न—प्रत्यक्ष अवधि व मन:पर्ययज्ञान भी इन्द्रियादि की अपेक्षा न करके केवल आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यों नहीं कहते हो ?
उत्तर—जिसने सर्व ज्ञानावरणीय कर्म का नाश किया है, ऐसे केवलज्ञान को ही ‘केवलज्ञान’ कहना रूढ़ है, अन्य ज्ञानों में ‘केवल’ शब्द की रूढि नहीं है।४८
उपसंहार—इस शोधपत्र में केवलज्ञान के लिए प्रयुक्त प्रमुख विशेषणों का और उनके अर्थ का अन्वेषण करने का प्रयाय किया गया है, ताकि केवलज्ञान का स्वरूप विशेषरूप से स्पष्ट हो सके।
संदर्भ सूची—
१. तओ केवली पण्णत्ता, तं जहा ओहिणाणकेवली,
मणपज्जवणाणकेवली, केवलीणाणकेवली।
—युवाचार्य मधुकमुनि, स्थानांग सूत्र स्था. २ उद्दे ४, पृ. १९२।
२. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा ७७
३. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. ६८
४. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८४
५. वही, गाथा ८२८ ६. वही, गाथा ८४ की टीका, हारिभद्रीय, नन्दीवृत्ति, पृ. १९
३१. मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वादसहायं वा केवलं।
मलधारी हेमचन्द्र, पृ. ३३७
३२. घासीलाल जी म., नंदीसूत्र, पृ. १६६
३३. वही ३४. वही, पृ १६७
३५. वही, पृ. १६७
३६. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ८२८
३७. तच्चानन्तज्ञेयविषयत्वेनाऽनन्तपर्यायत्वादनन्तम्।
मलधारी हेमचन्द्र, पृ. गाथा ८२८, पृ. ३३६
३८. विशेषावश्यकभाष्यक गाथा ८२८
३९. समस्तावरणक्षयसंभूतत्वादेकविधं।
मलधारी हेमचन्द्र, पृ. ३३७
४०. षट्खण्डागम (धवला) पु, १२ सूत्र ४.२.१४.५, पृ. ४८०
४१. षट्खण्डागम पु. १३ सूत्र ५.५.८१ पृ ३४५
४२. अवश्यकनिर्युक्ति गाथा ७७, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८२८
४३. शाश्वद्भावात् शाश्वतं सततोपयोगमित्यर्थ:।
मलधारी हेमचन्द्र, पृ. ३३७
४४. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ८२८
४५. अप्रतिपाति—अव्ययं सदाऽवस्थायीत्यर्थ:।
मलधारी हेमचन्द्र, पृ. ३३७
४६. प्रशमरति, भाग २, भद्रगुप्तजी, परिशिष्ट, पृ. २६६, २६७
४७. कसायपाहुड़ पु. १ गाथा पृ. १९
४८. भगवती आराधना, गाथा ५०, पृ. ९५