विक्रम संवत् १८०६ में ब्र. लामचीदासजी ने भगवान् ऋषभदेव की निर्वाणभूमि एवं भरत चक्रवती द्वारा बनवाये ७२ जिनालयों के दर्शन करने का दृढ़ संकल्प किया। अपनी संकल्प शक्ति के सहारे चीन, तिब्बत आदि बहुत से देशों का भ्रमण करते हुए एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे जहाँ से अब आगे जाना संभव नहीं था।
ब्रह्मचारीजी लिखते हैं कि- यह सगरगंग नाला है। चार कोस गहरा चौड़ा है, जहाँ पर घाट का नामो-निशान नहीं है, आगे ३२ कोस ऊँचा गिरि फिर पर्वत की आठ पैड़ी एक योजन की है। ब्रह्मचारीजी ने संकल्प लिया कि जब तक कैलास के दर्शन नहीं होंगे, तब तक आहार- पानी त्याग और कदाचित् दर्शन हो भी जाएँ तो शेष : तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि के दर्शन कर मुनिव्रत धारण करूँगा। इस तपस्या में आहार पानी के त्याग किए ४ दिन हो गए। तब एक व्यन्तर महा दयावान मनुष्य का रूप धरकर मुझसे कहता है, तुम कौन हो, तब हमने कहा कि हम प्रभु के दास हैं, तब व्यन्तर ने ब्रह्मचारी जी के दृढ़ संकल्प को देखकर कहा- जैसा हम कहते हैं, वैसा करो। व्यन्तर ने कहा-तू आँख बंदकर। हमने आँख बंद की, तब व्यन्तर ने हमको कैलाश पर्वत पर ले जाकर दर्शन कराये और दो पहर (छह घण्टे) में हमको उसी जगह छोड़ गया ।
दर्शन के समय उस व्यन्तर ने कैलाश के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी दी। मंदिरों की उत्पत्ति, टोंक तथा वनस्पति, धातु की खान, मुनियों की निर्वाणभूमि, प्रतिमाओं के आकार आदि ।
वहाँ पर प्रथम ऋषभदेव भगवान् की टोंक स्वर्ण जड़ित है, ८०० धनुष ऊँचा टोंक है। जिसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता है। फिर वहाँ से चल ७२ मंदिर स्वर्णमयी, रत्नमयी, ताम्रमयी धातुओं के हैं । १००० धनुष ऊँचा, ६०० धनुष का मंदिर, २०० धनुष की गुम्बज, चूलिका १०० धनुष की कलश रत्नजड़ित महासुंदर हैं।
यहाँ अतीत-अनागत- वर्तमान की तीन चौबीसी की ७२ प्रतिमा हैं। जैसे उनके शरीर का रंग है वैसे ही रत्नों की प्रतिमा विराजमान हैं। इस मंदिर में ८४ जाति के रत्न जड़े हैं। प्रतिमा पद्मासन हैं और वे ७२ मंदिर भरतचक्रवर्ती ने तथा उनके पुत्रों ने बनवाये।
आज बर्फ से आच्छादित ७२ जिनालयों के दर्शन दुर्लभ हैं। सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों के द्वारा जिनालयों की सुरक्षा हेतु चारों तरफ जो खायी खोदी गई थी, वही सगरगंग नाला लगता है। यह कैलाश पर्वत सिद्ध क्षेत्र चीन देश की सीमा में आता है।