राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं केलासे भरतेशिना।
गृहाः कृता महारत्नैश्चतुर्विंशतिरर्हताम्१।।१०७।।
तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम्।
इति तेऽपि तथा कुर्वन् दण्डरत्नेन सत्वरम्।।१०८।।
आत्मशुद्धि से भरे सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने कहा कि यदि आप हम लोगों को कोई कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन भी नहीं करते हैं।।१०५।। पुत्रों का निवेदन सुनकर राजा कुछ चिन्ता में पड़ गये। वे सोचने लगे कि इन्हें कौन सा कार्य दिया जावे। अकस्मात् उन्हें याद आ गई कि अभी धर्म का एक कार्य बाकी है। उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर महारत्नों से अरहन्तदेव के चौबीस मन्दिर बनवाये हैं, तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गङ्गा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो।’ उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया।।१०६-१०८।।